चैप्टर 13 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 13 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 13 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 13 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 13 Gunahon Ka Devta Dharmveer Bharti

Chapter 13 Gunahon Ka Devta Dharmveer Bharti

सुधा पर इन दिनों घूमना सवार था। सुबह हुई कि चप्पल पहनी और गायब। गेसू, कामिनी, प्रभा, लीला शायद ही कोई लड़की बची होगी, जिसके यहाँ जाकर सुधा ऊधम न मचा आती हो, और चार सुख-दु:ख की बातें न कर आती हो। बिनती को घूमना कम पसन्द था, हाँ जब कभी सुधा गेसू के यहाँ जाती थी, तो बिनती जरूर जाती थी, उसे सुधा की सभी मित्रों में गेसू सबसे ज्यादा पसन्द थी। डॉक्टर शुक्ला के ब्यूरो में छुट्टी हो चुकी थी, पर वे सुधा का ब्याह तय करने की कोशिश कर रहे थे। इसलिए वह बाहर भी नहीं गये थे। चंदर डेढ़ महीने तक लगातार मेहनत करने के बाद पढ़ाई-लिखाई की ओर से आराम कर रहा था और उसने निश्चित कर लिया था कि अब बरसात के पहले वह किताब छुएगा नहीं। बड़े आराम के दिन कटते थे उसके। सुबह उठकर साइकिल पर गंगा नहाने जाता था और वहाँ अक्सर ठाकुर साहब से भी मुलाकात हो जाती थी। डॉक्टर शुक्ला ने भी कई दफे इरादा किया कि वे गंगाजी चला करें लेकिन एक तो उनसे दिन में काम नहीं होता था, शाम को वे घूमते और सुबह उठकर किताब लिखते थे।

एक दिन सुबह लिख रहे थे कि चंदर आया और उनके पैर छूकर बोला, ”प्रान्तीय सरकार का वह पुरस्कार कल शाम को आ गया!”

”कौन-सा?”

”वह जो उत्तर प्रान्त में माता और शिशुओं की मृत्यु-संख्या पर मैंने निबन्ध लिखा था, उसी पर।”

”तो क्या पदक आ गया?” डॉक्टर शुक्ला ने कहा।

”जी,” अपनी जेब में से एक मखमली डिब्बा निकालकर चंदर ने दिया। पदक बहुत सुन्दर था। जगमगाता हुआ स्वर्णपदक जिसमें प्रान्तीय राजमुद्रा अंकित थी।

”ईश्वर तुम्हें बहुत यशस्वी करे जीवन में।” डॉक्टर शुक्ला ने पदक उसकी कमीज में अपने हाथों से लगा दिया, ”जाओ, अन्दर सुधा को दिखा आओ।”

चंदर जाने लगा तो डॉक्टर साहब ने बुलाया, ”अच्छा, अब सुधा की शादी का इंतजाम करना है। हमसे तो कुछ होने से रहा, तुम्हीं को सब करना होगा। और सुनो, जेठ दशहरा को लड़के का भाई और माँ देखने आ रही हैं। और बहन भी आयेंगी गाँव से।”

”अच्छा?” चंदर बैठ गया कुर्सी पर और बोला, ”कहाँ है लड़का? क्या करता है?”

”लड़का शाहजहाँपुर में है। घर के जमींदार हैं ये लोग। लड़का एम. ए. है। और अच्छे विचारों का है। उसने लिखा है कि सिर्फ दस आदमी बारात में आयेंगे, एक दिन रुकेंगे। संस्कार के बाद चले जाएँगे। सिवा लड़की के गहने-कपड़े और लड़के के गहने-कपड़ों के और कुछ भी नहीं स्वीकार करेंगे।”

”अच्छा, ब्राह्मणों में तो ऐसा कुल नहीं मिलेगा।”

”तभी तो! सुधा की किस्मत है, वरना तुम बिनती के ससुर को तो देख ही चुके हो। अच्छा जाओ, सुधा से मिल आओ।”

वह सुधा के कमरे में आ गया। सुधा थी ही नहीं। वह आँगन में आया। देखा महराजिन खाना बना रही है और बिनती बरामदे में बुरादे की अँगीठी पर पकोड़ियाँ बना रही है।

”आइए,” बिनती बोली, ”दीदी तो गयी हैं गेसू को बुलाने। आज गेसू की दावत है।…पीढ़े पर बैठिएगा, लीजिए।” एक पीढ़ा चंदर की ओर बिनती ने खिसका दिया। चंदर बैठ गया। बिनती ने उसके हाथ में मखमली डिब्बा देखा तो पूछा, ”यह क्या लाये? कुछ दीदी के लिए है क्या? यह तो अँगूठी मालूम पड़ती है।”

”अँगूठी, वह क्या दाल में मिला के खाएगी! जंगली कहीं की! उसे क्या तमीज है अँगूठी पहनने की!”

”हमारी दीदी के लिए ऐसी बात की, तो अच्छा नहीं होगा, हाँ!” उसे बिनती ने उसी तरह गरदन टेढ़ी कर आँखें डुलाते हुए धमकाया-”उन्हें नहीं अँगूठी पहननी आएगी तो क्या आपको आएगी? अब ब्याह में सोलहों सिंगार करेंगी! अच्छा, दीदी कैसी लगेंगी घूँघट काढ़ के? अभी तक तो सिर खोले चकई की तरह घूमती-फिरती हैं।”

”तुमने तो डाल ली आदत, ससुराल में रहने की!” चंदर ने बिनती से कहा।

”अरे हमारा क्या!” एक गहरी साँस लेते हुए बिनती ने कहा, ”हम तो उसी के लिए बने थे। लेकिन सुधा दीदी को ब्याह-शादी में न फँसना पड़ता, तो अच्छा था। दीदी इन सबके लिए नहीं बनी थीं। आप मामाजी से कहते क्यों नहीं?”

चंदर ने कुछ जवाब नहीं दिया। चुपचाप बैठा हुआ सोचता रहा। बिनती भी कड़ाही में से पकौड़ियाँ निकाल-निकालकर थाली में रखने लगी। थोड़ी देर बाद जब वह घी में पकौड़ियाँ डाल चुकी, तब भी वह वैसे ही गुमसुम बैठा सोच रहा था।

”क्या सोच रहे हैं आप? नहीं बताइएगा। फिर अभी हम दीदी से कह देंगे कि बैठ-बैठे सोच रहे थे।” बिनती बोली।

”क्या तुम्हारी दीदी का डर पड़ा है?” चंदर ने कहा।

”अपने दिल से पूछिए। हमसे नहीं बन सकते आप!” बिनती ने मुस्कुराकर कहा और उसके गालों में फूलों के कटोरे खिल गये-”अच्छा, इस डिब्बे में क्या है, कुछ प्राइवेट!”

”नहीं जी, प्राइवेट क्या होगा, और वह भी तुमसे? सोने का मेडल है। मिला है मुझे एक लेख पर।” और चंदर ने डिब्बा खोलकर दिखला दिया।

”आहा! ये तो बहुत अच्छा है। हमें दे दीजिए।” बिनती बोली।

”क्या करेगी तू?” चंदर ने हँसकर पूछा।

”अपने आनेवाले जीजाजी के लिए कान के बुन्दे बनवा लेंगे।” बिनती बोली, ”अरे हाँ, आपको एक चीज दिखायेंगे।”

”क्या?”

”यह नहीं बताते। देखिएगा तो उछल पढ़िएगा।”

”तो दिखाओ न!”

”अभी तो दीदी आ रही होंगी। दीदी के सामने नहीं दिखायेंगे।”

”सुधा से छिपाकर हम कुछ नहीं कर सकते, यह तुम जानती हो।” चंदर बोला।

”छिपाने की बात थोड़े ही है। देखकर तब उन्हें बता दीजिएगा। वैसे वह खुद ही सुधा दीदी से क्या छिपाते हैं? लो, सुधा दीदी तो आ गयीं…”

चंदर ने पीछे मुड़क़र देखा। सुधा के हाथ में एक लम्बा-सा सरकंडा था और उसे झंडे की तरह फहराती हुई चली आ रही थी। चंदर हँस पड़ा।

”खिल गये दीदी को देखते ही!” बिनती बोली और एक गरम पकौड़ी चंदर के ऊपर फेंक दी।

”अरे, बड़ी शैतान हो गयी हो तुम इधर! पाजी कहीं की!” चंदर बोला।

सुधा चप्पल उतारकर अन्दर आयी। झूमती-इठलाती हुई चली आ रही थी।

”कहो, सेठ स्वार्थीमल!” उसने चंदर को देखते ही कहा, ”सुबह हुई और पकौड़ी की महक लग गयी तुम्हें!” पीढ़ा खींचकर उसके बगल में बैठ गयी और सरकंडा चंदर के हाथ पर रखते हुए बोली, ”लो, यह गन्ना। घर में बो देना। और गँडेरी खाना! अच्छा!” और हाथ बढ़ाकर वह डिबिया उठा ली और बोली, ”इसमें क्या है? खोलें या न खोलें?”

”अच्छा, खत तक तो हमारे बिना पूछे खोल लेती हो। इसे पूछ के खोलोगी!”

”अरे हमने सोचा शायद इस डिबिया में पम्मी का दिल बन्द हो। तुम्हारी मित्र है, शायद स्मृति-चिह्नï में वही दे दिया हो।” और सुधा ने डिबिया खोली तो उछल पड़ी, ”यह तो उसी निबन्ध पर मिला है जिसका चार्ट तुम बनाये थे!”

”हाँ!”

”तब तो ये हमारा है।” डिबिया अपने वक्ष में छिपाकर सुधा बोली।

”तुम्हारा तो है ही। मैं अपना कब कहता हूँ?” चंदर ने कहा।

”लगाकर देखें!” और उठकर सुधा चल दी।

”बिनती, दो पकौड़ी तो दो।” और दो पकौड़ियाँ लेकर खाते हुए चंदर सुधा के कमरे में गया। देखा, सुधा शीशे के सामने खड़ी है और मेडल अपनी साड़ी में लगा रही है। वह चुपचाप खड़ा होकर देखने लगा। सुधा ने मेडल लगाया और क्षण-भर तनकर देखती रही फिर उसे एक हाथ से वक्ष पर चिपका लिया और मुँह झुकाकर उसे चूम लिया।

”बस, कर दिया न गन्दा उसे!” चंदर मौका नहीं चूका।

और सुधा तो जैसे पानी-पानी। गालों से लाज की रतनारी लपटें फूटीं और एड़ी तक धधक उठीं। फौरन शीशे के पास से हट गयी और बिगड़कर बोली, ”चोर कहीं के! क्या देख रहे थे?”

बिनती इतने में तश्तरी में पकौड़ी रखकर ले आयी। सुधा ने झट से मेडल उतार दिया और बोली, ”लो, रखो सहेजकर।”

”क्यों, पहने रहो न!”

”ना बाबा, परायी चीज, अभी खो जाये, तो डाँड़ भरना पड़े।” और मेडल चंदर की गोद में रख दिया।

बिनती ने धीमे से कहा, ”या मुरली मुरलीधर की अधरा न धरी अधरा न धरौंगी।”

चंदर और सुधा दोनों झेंप गये।

 ”लो, गेसू आ गयी।”

सुधा की जान में जान आ गयी। चंदर ने बिनती का कान पकडक़र कहा, ”बहुत उलटा-सीधा बोलने लगी है!”

बिनती ने कान छुड़ाते हुए कहा, ”कोई झूठ थोड़े ही कहती हूँ!”

चंदर चुपचाप सुधा के कमरे में पकौड़िय़ाँ खाता रहा। बगल के कमरे में सुधा, गेसू, फूल और हसरत बैठे बातें करते रहे। बिनती उन लोगों को नाश्ता देती रही। उस कमरे में नाश्ता पहुँचाकर बिनती एक गिलास में पानी लेकर चंदर के पास आयी और पानी रखकर बोली, ”अभी हलुआ ला रही हूँ, जाना मत!” और पल-भर में तश्तरी में हलुआ रखकर ले आयी।

”अब मैं चल रहा हूँ!” चंदर ने कहा।

”बैठो, अभी हम एक चीज दिखायेंगे। जरा गेसू से बात कर आएँ।” बिनती बड़े भोले स्वर में बोली, ”आइए, हसरत मियाँ।” और पल-भर में नन्हें-मुन्ने-से छह वर्ष के हसरत मियाँ तनजेब का कुरता और चूड़ीदार पायजामे पर पीले रेशम की जाकेट पहने कमरे में खरगोश की तरह उछल आये।

”आदाबर्ज।” बड़े तमीज से उन्होंने चंदर को सलाम किया।

चंदर ने उसे गोद में उठाकर पास बिठा दिया। ”लो, हलुआ खाओ, हसरत!”

हसरत ने सिर हिला दिया और बोला, ”गेसू ने कहा था, जाकर चंदर भाई से हमारा आदाब कहना और कुछ खाना मत! हम खायेंगे नहीं।”

चंदर बोला, ”हमारा भी नमस्ते कह दो उनसे जाकर।”

हसरत उठ खड़ा हुआ-”हम कह आएँ।” फिर मुड़कर4 बोला, ”आप तब तक हलुआ खत्म कर देंगे?”

चंदर हँस पड़ा, ”नहीं, हम तुम्हारा इंतज़ार करेंगे, जाओ।”

हसरत सिर हिलाता हुआ चला गया।

इतने में सुधा आयी और बोली, ”गेसू की गजल सुनो यहाँ बैठकर। आवाज आ रही है न! फूल भी आयी है इसलिए गेसू तुम्हारे सामने नहीं आएगी वरना फूल अम्मीजान से शिकायत कर देगी। लेकिन वह तुमसे मिलने को बहुत इच्छुक है, अच्छा यहीं से सुनना बैठे-बैठे…”

सुधा चली गयी। गेसू ने गाना शुरू किया बहुत महीन, पतली लेकिन बेहद मीठी आवाज में जिसमें कसक और नशा दोनों घुले-मिले थे। चंदर एक तकिया टेककर बैठ गया और उनींदा-सा सुनने लगा। गजल खत्म होते ही सुधा भागकर आयी-”कहो, सुन लिया न!” और उसके पीछे-पीछे आया हसरत और सुधा के पैरों में लिपटकर बोला, ”सुधा, हम हलुआ नहीं खायेंगे!”

सुधा हँस पड़ी, ”पागल कहीं का। ले खा।” और उसके मुँह में हलुआ ठूँस दिया। हसरत को गोद में लेकर वह चंदर के पास बैठ गयी और गेसू के बारे में बताने लगी, ”गेसू गर्मियाँ बिताने नैनीताल जा रही है। वहीं अख्तर की अम्मी भी आयेंगी और मंगनी की रस्म वहीं पूरी करेंगी। अब वह पढ़ेगी नहीं। जुलाई तक उसका निकाह हो जाएगा। कल रात की गाड़ी से जा रहे हैं ये लोग। वगैरह-वगैरह।”

बिनती बैठी-बैठी गेसू और फूल से बातें करती रही। थोड़ी देर बाद सुधा उठकर चली गयी। तुम जाना मत, आज खाना यहीं खाना, मैं बिनती को तुम्हारे पास भेज रही हूँ, उससे बातें करते रहना।”

थोड़ी देर बाद बिनती आयी। उसके हाथ में कुछ था जिसे वह अपने आँचल से छिपाये हुई थी। आयी और बोली, ”अब दीदी नहीं हैं, जल्दी से देख लीजिए।”

”क्या है?” चंदर ने ताज्जुब से पूछा।

”जीजाजी की फोटो।” बिनती ने मुस्कुरा कर कहा और एक छोटी-सी बहुत कलात्मक फोटो चन्दर के हाथ में रख दी।

”अरे यह तो मिश्र है। कॉमरेड कैलाश मिश्र।” और चंदर के दिमाग में बरेली की बातें, लाठी चार्ज…सभी कुछ घूम गया। चंदर के मन में इस वक्त जाने कैसा-सा लग रहा था। कभी बड़ा अचरज होता, कभी एक सन्तोष होता कि चलो सुधा के भाग्य की रेखा उसे अच्छी जगह ले गयी, फिर कभी सोचता कि मिश्र इतना विचित्र स्वभाव का है, सुधा की उससे निभेगी या नहीं? फिर सोचता, नहीं सुधा भाग्यवान है। इतना अच्छा लड़का मिलना मुश्किल था।

”आप इन्हें जानते हैं?” बिनती ने पूछा।

”हाँ, सुधा भी उन्हें नाम से जानती है शक्ल से नहीं। लेकिन अच्छा लड़का है, बहुत अच्छा लड़का।” चंदर ने एक गहरी साँस लेकर कहा और फिर चुप हो गया। बिनती बोली, ”क्या सोच रहे हैं आप?”

”कुछ नहीं।” पलकों में आये हुए आँसू रोककर और होठों पर मुस्कान लाने की कोशिश करते हुए बोला, ”मैं सोच रहा हूँ, आज कितना सन्तोष है मुझे, कितनी खुशी है मुझे, कि सुधा एक ऐसे घर जा रही है, जो इतना अच्छा है, ऐसे लड़के के साथ जा रही है जो इतना ऊँचा”…कहते-कहते चंदर की आँखें भर आयीं।

बिनती चंदर के पास खड़ी होकर बोली, ”छिह, चंदर बाबू! आपकी आँखों में आँसू! यह तो अच्छा नहीं लगता। जितनी पवित्रता और ऊँचाई से आपने सुधा के साथ निबाह किया है, यह तो शायद देवता भी नहीं कर पाते और दीदी ने आपको जैसा निश्छल प्यार दिया है, उसको पाकर तो आदमी स्वर्ग से भी ऊँचा उठ जाता है, फौलाद से भी ज्यादा ताकतवर हो जाता है, फिर आज इतने शुभ अवसर पर आप में कमजोरी कहाँ से? हमें तो बड़ी शरम लग रही है। आज तक दीदी तो दूर, हम तक को आप पर गर्व था। अच्छा, मैं फोटो रख तो आऊँ वरना दीदी आ जायेंगी!” बिनती ने फोटो ली और चली गयी।

बिनती जब लौटी, तो चंदर स्वस्थ था। बिनती की ओर क्षण भर चंदर ने देखा और कहा, ”मैं इसलिए नहीं रोया था बिनती, मुझे यह लगा कि यहाँ कैसा लगेगा। खैर जाने दो।”

”एक दिन तो ऐसा होता ही है न, सहना पड़ेगा!” बिनती बोली।

”हाँ, सो तो है; अच्छा बिनती, सुधा ने यह फोटो देखी है?” चंदर ने पूछा।

”अभी नहीं, असल में मामाजी ने मुझसे कहा था कि यह फोटो दिखा दे सुधा को; लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। मैंने उनसे कह दिया कि चंदर आयेंगे, तो दिखा देंगे। आप जब ठीक समझें तो दिखा दें। जेठ दशहरा अगले ही मंगल को है।” बिनती ने कहा।

”अच्छा।” एक गहरी साँस लेकर चंदर6 बोला।

बिनती थोड़ी देर तक चंदर की ओर एकटक देखती रही। चंदर ने उसकी निगाह चुरा ली और बोला, ”क्या देख रही हो, बिनती?”

”देख रही हूँ कि आपकी पलकें झपकती हैं या नहीं?” बिनती बहुत गम्भीरता से बोली।

”क्यों?”

”इसलिए कि मैंने सुना था, देवताओं की पलकें कभी नहीं गिरतीं।”

चंदर एक फीकी हँसी हँसकर रह गया।

”नहीं, आप मजाक न समझें। मैंने अपनी जिंदगी में जितने लोग देखे, उनमें आप-जैसा कोई भी नहीं मिला। कितने ऊँचे हैं आप, कितना विशाल हृदय है आपका! दीदी कितनी भाग्यशाली हैं।”

चंदर ने कुछ जवाब नहीं दिया। ”जाओ, फोटो ले आओ।” उसने कहा, ”आज ही दिखा दूँ। जाओ, खाना भी ले आओ। अब घर जाकर क्या करना है।”

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