Chapter 11 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti
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रात-भर चंदर को ठीक से नींद नहीं आयी। अब गरमी काफी पड़ने लगी थी। एक सूती चादर से ज्यादा नहीं ओढ़ा जाता था और चंदर ने वह भी ओढ़ना छोड़ दिया था, लेकिन उस दिन रात को अक्सर एक अजब-सी कंपकंपी उसे झकझोर जाती थी और वह कसकर चादर लपेट लेता था, फिर जब उसकी तबीयत घुटने लगती, तो वह उठ बैठता था। उसे रात-भर नींद नहीं आयी; बार-बार झपकी आयी और लगा कि खिड़की के बाहर सुनसान अंधेरे में से अजब-सी आवाजें आती हैं और नागिन बनकर उसकी साँसों में लिपट जाती हैं। वह परेशान हो उठता है, इतने में फिर कहीं से कोई मीठी सतरंगी संगीत की लहर आती है और उसे सचेत और सजग कर जाती है। एक बार उसने देखा कि सुधा और गेसू कहीं चली जा रही हैं। उसने गेसू को कभी नहीं देखा था, लेकिन उसने सपने में गेसू को पहचान लिया। लेकिन गेसू तो पम्मी की तरह गाउन पहने हुए थी! फिर देखा बिनती रो रही है और इतना बिलख-बिलखकर रो रही है कि तबीयत घबरा जाये। घर में कोई नहीं है। चंदर समझ नहीं पाता कि वह क्या करे! अकेले घर में एक अपरिचित लड़की से बोलने का साहस भी नहीं होता उसका। किसी तरह हिम्मत करके वह समीप पहुँचा तो देखा अरे, यह तो सुधा है। सुधा लुटी हुई-सी मालूम पड़ती है। वह बहुत हिम्मत करके सुधा के पास बैठ गया। उसने सोचा, सुधा को आश्वासन दे, लेकिन उसके हाथों पर जाने कैसे सुकुमार जंजीरें कसी हुई हैं। उसके मुँह पर किसी की साँसों का भार है। वह निश्चेष्ट है। उसका मन अकुला उठा। वह चौंककर जाग गया, तो देखा वह पसीने से तर है। वह उठकर टहलने लगा। वह जाग गया था, लेकिन फिर भी उसका मन स्वस्थ नहीं था। कमरे में ही टहलते-टहलते वह फिर लेट गया। लगा जैसे सामने की खुली खिडक़ी से सैकड़ों तारे टूट-टूटकर भयानक तेजी से आ रहे हैं और उसके माथे से टकरा-टकराकर चूर-चूर हो जाते हैं। एक मर्मान्तक पीड़ा उसकी नसों में खौल उठी और लगा जैसे उसके अंग-अंग में चितायें धधक रही हैं।
जैसे-तैसे रात कटी और सुबह उठते ही वह यूनिवर्सिटी जाने से पहले सुधा के यहाँ गया। सुधा लेटी हुई पढ़ रही थी। डॉ. शुक्ला पूजा कर रहे थे। बुआजी शायद रात को चली गयी थीं। क्योंकि बिनती बैठी तरकारी काट रही थी और खुश नजर आ रही थी। चंदर सुधा के कमरे में गया। देखते ही सुधा मुसकरा पड़ी। बोली कुछ नहीं, लेकिन आते ही उसने चंदर के अंग-अंग को अपनी निगाहों के स्वागत में समेट लिया। चंदर सुधा के पैरों के पास बैठ गया।
”कल रात को तुम कार लेकर वापस आये, तो चुपकेसे चले गये!” सुधा बोली, ”कहो, कल कौन-सा खेल देखा?”
”कल बहुत बड़ा खेल देखा; बहुत बड़ा खेल, सुधी!” चंदर व्याकुलता से बोला, ”अरे जाने कैसा मन हो गया कि रात-भर नींद ही नहीं आयी।” और उसके बाद चंदर सब बता गया। कैसे वह सिनेमा गया। उसने पम्मी से क्या बात की। उसके बाद कैसे कार पर उसने चंदर को पास खींच लिया। कैसे वे लोग मैकफर्सन झील गये और वहाँ पम्मी पागल हो गयी। फिर कैसे चंदर को एकदम सुधा की याद आने लगी और फिर रात-भर चंदर को कैसे-कैसे सपने आये। सुधा बहुत गंभीर होकर मुँह में पेंसिल दबाये कुहनी टेके बस चुपचाप सुनती रही और अंत में बोली, ”तो तुम इतने परेशान क्यों हो गये, चंदर! उसने तो अच्छी ही बात कही थी। यह तो अच्छा ही है कि ये सब जिसे तुम सेक्स कहते हो, यह संबंधोंमें न आये। उसमें क्या बुराई है? क्या तुम चाहते हो कि सेक्स आये?”
”कभी नहीं, तुम मुझे अभी तक नहीं समझ पायीं।”
”तो ठीक है, तुम भी नहीं चाहते कि सेक्स आए और वह भी नहीं चाहती कि सेक्स आए, तो झगड़ा क्या है? क्यों, तुम उदास क्यों हो इतने?” सुधा बोली बड़े अचरज से।
”लेकिन उसका व्यवहार कैसा है?” चंदर ने सुधा से कहा।
”ठीक तो है। उसने बता दिया तुम्हें कि इतना अंतर होना चाहिए। समझ गये। तुम लालची आदमी, चाहते होगे यह भी अंतर न रहे! इसीलिए तुम उदास हो गये, छिह!” होंठों में मुस्कराहट और आँखों में शरारत की झलक छिपाते हुए सुधा बोली।
”तुम तो मजाक करने लगीं।” चंदर बोला।
सुधा सिर्फ चंदर की ओर देखकर मुस्कुराती रही। चंदर सामने लगी हुई तस्वीर की ओर देखता रहा। फिर उसने सुधा के कबूतरों-जैसे उजले मासूम नन्हे पैर अपने हाथ में ले लिये और भर्रायी हुई आवाज में बोला, ”सुधा, तुम कभी हम पर विश्वास न हार बैठना।”
सुधा ने किताब बंदकरके रख दी और उठकर बैठ गयी। उसने चंदर के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, ”पागल कहीं के! हमें कहते हो, अभी सुधा में बचपन है और तुममें क्या है! वाह रे छुईमुई के फूल! किसी ने हाथ पकड़ लिया, किसी ने बदन छू लिया, तो घबरा गये! तुमसे अच्छी लड़कियाँ होती हैं।” सुधा ने उसके दोनों हाथ झकझोरते हुए कहा।
”नहीं सुधी, तुम नहीं समझतीं। मेरी जिंदगी में एक ही विश्वास की चट्टान है। वह हो तुम। मैं जानता हूँ कि कितने ही जल-प्रलय हों, लेकिन तुम्हारे सहारे मैं हमेशा ऊपर रहूंगा। तुम मुझे डूबने नहीं दोगी। तुम्हारे ही सहारे मैं लहरों से खेल भी सकता हूँ। लेकिन तुम्हारा विश्वास अगर कभी हिला, तो मैं किन अंधेरी गहराइयों में डूब जाऊंगा, यह कभी मैं सोच नहीं पाता।” चंदर ने बड़े कातर स्वर में कहा।
सुधा बहुत गंभीर हो गयी। क्षण-भर वह चंदर के चेहरे की ओर देखती रही, फिर चंदर के माथे पर झूलती हुई एक लट को ठीक करती हुई बोली, ”चंदरर, और मैं किसके विश्वास पर चल रही हूँ, बोलो! लेकिन मैंने तो कभी नहीं कहा कि चंदर अपना विश्वास मत हारना! और क्या कहूं। मुझे अपने चंदर पर पूरा विश्वास है। मरते दम तक विश्वास रहेगा। फिर तुम्हारा मन इतना डगमगा क्यों गया? बुरी बात है न?”
चंदर ने सुधा के कंधेपर अपना सिर रख दिया। सुधा ने उसका हाथ लेकर कहा, ”लाओ, यहाँ छुआ था पम्मी ने तुम्हें!” और उसका हाथ होठों तक ले गयी। चंदर कांप गया, आज सुधा को यह क्या हो गया है। लेकिन होंठों तक हाथ ले जाकर झाड़ने-फूंकने वालों की तरह सुधा ने फूंककर कहा, ”जाओ, तुम्हारे हाथ से पम्मी के स्पर्श का जहर उतर गया। अब तो ठीक हो गये! पवित्र हो गये! छू-मंतर!”
चंदर हँस पड़ा। उसका मन शांत हो गया। सुधा में जादू था। सचमुच जादू था। बिनती चाय ले आयी। दो प्याले। सुधा बोली, ”अपने लिए भी लाओ।” बिनती ने सिर हिलाया।
सुधा ने चंदर की ओर देखकर कहा, ”ये पगली जाने क्यों तुमसे झेंपती है?”
”झेंपती कहाँ हूँ?” बिनती ने प्रतिवाद किया और प्याला भी ले आयी और जमीन पर बैठ गयी। सुधा ने प्याला मुँह से लगाया और बोली, ”चंदर, तुमने पम्मी को गलत समझा है। पम्मी बहुत अच्छी लड़की है। तुमसे बड़ी भी है और तुमसे ज्यादा समझदार, और उसी तरह व्यवहार भी करती है। तुम अगर कुछ सोचते हो तो गलत सोचते हो। मेरा मतलब समझ गये न।”
”जी हाँ, गुरुआनीजी, अच्छी तरह से!” चंदर ने हाथ जोडक़र विनम्रता से कहा। बिनती हँस पड़ी और उसकी चाय छलक गयी। नीचे रखी हुई चंदर की जरीदार पेशावरी सैंडिल भीग गयी। बिनती ने झुककर एक अँगोछे से उसे पोंछना चाहा, तो सुधा चिल्ला उठी – ”हाँ-हाँ, छुओ मत। कहीं इनकी सैंडिल भी बाद में आके न रोने लगे। सुन बिनती, एक लड़की ने कल इन्हें छू लिया, तो आप आज उदास थे। अभी तुम सैंडिल छुओ, तो कहीं जाके कोतावली में रपट न कर दें।”
चंदर हँस पड़ा। और उसका मन धुलकर ऐसे निखर गया, जैसे शरद का नीलाभ आकाश।
”अब पम्मी के यहाँ कब जाओगे?” सुधा ने शरारत-भरी मुस्कराहट से पूछा।
”कल जाऊंगा! ठाकुर साहब पम्मी के हाथ अपनी कार बेच रहे हैं, तो कागज पर दस्तखत करना है।” चंदरने कहा, ”अब मैं निडर हूँ। कहो बिनती, तुम्हारे ससुर का क्या कोई खत नहीं आया।”
बिनती झेंप गयी। चंदर चल दिया।
थोड़ी दूर जाकर फिर मुड़ा और बोला, ”अच्छा सुधा, आज तक जो काम हो बता दो फिर एक महीने तक मुझसे कोई मतलब नहीं। हम थीसिस पूरी करेंगे। समझीं?”
”समझे!” हाथ पटककर सुधा बोली।
सचमुच डेढ़ महीने तक चंदर को होश नहीं रहा कि कहाँ क्या हो रहा है। बिसरिया रोज सुधा और बिनती को पढ़ाने आता रहा, सुधा और बिनती दोनों ही का इम्तहान खत्म हो गया। पम्मी दो बार सुधा और चंदर से मिलने आयी, लेकिन चंदर एक बार भी उसके यहाँ नहीं गया। मिश्रा का एक खत बरेली से आया, लेकिन चंदर ने उसका भी जवाब नहीं दिया। डॉक्टर साहब ने अपनी पुस्तक के दो अध्याय लिख डाले, लेकिन उसने एक दिन भी बहस नहीं की। बिनती उसे बराबर चाय, दूध, नाश्ता, शरबत और खरबूजा देती रही, लेकिन चंदर ने एक बार भी उसके ससुर का नाम लेकर नहीं चिढ़ाया। सुधा क्या करती है, कहाँ जाती है, चंदर से क्या कहती है, चंदर को कोई होश नहीं, बस उसका पेन, उसके कागज, स्टडीरूम की मेज और चंदर है कि आखिर थीसिस पूरी करके ही माना।
7 मई को जब उसने थीसिस का आखिरी पन्ना लिखकर पूरा किया और संतोष की साँस ली, तो देखा कि शाम के पाँच बजे हैं, सायबान में अभी परदा पड़ा है लेकिन धूप उतार पर है और लू बंदहो गयी है। उसकी कुर्सी के पीछे एक चटाई बिछाये हुए सुधा बैठी है। ह्यूगो का अधपढ़ा हुआ उपन्यास बगल में खुला हुआ औंधा पड़ा है और आप चंदर की एक मोटी-सी इकनॉमिक्स की किताब खोले उस पर कलम से कुछ गोदा-गोदी कर रही है।
”सुधा!” एक गहरी साँस लेकर अंगड़ाई लेते हुए चंदर ने कहा, ”लो, आज आखिरकार जान छूटी। बस, अब दो-तीन महीने में माबदौलत डॉक्टर बन जायेंगे!”
सुधा अपने कार्य में व्यस्त। चंदर ने क्या कहा, यह सुनकर भी गुम। चंदर ने हाथ बढ़ाकर चोटी झटक दी।
”हाय रे! हमें नहीं अच्छा लगता, चंदर!” सुधा बिगडक़र बोली, ”तुम्हारे काम के बीच में कोई बोलता है, तो बिगड़ जाते हो और हमारा काम थोड़े ही महत्वपूर्ण है!” कहकर सुधा फिर पेन लेकर गोदने लगी।
”आखिर कौन-सा उपनिषद लिख रही हैं आप? जरा देखें तो!” चंदर ने किताब खींच ली। टाजिग की इकनॉमिक्स की किताब में एक पूरे पन्ने पर सुधा ने एक बिल्ली बनायी थी और अगर निगाह जरा चूक जाए, तो आप कह नहीं सकते थे यह चौरासी लाख योनियों में से किस योनि का जीव है, लेकिन चूंकि सुधा कह रही है कि यह बिल्ली है, इसलिए मानना होगा कि यह बिल्ली ही है।
चंदर ने सुधा की बाँह पकडक़र कहा, ”उठ! आलसी कहीं की, चल उठा ये पोथा! चलके पापा के पैर छू आयें?”
सुधा चुपचाप उठी और आज्ञाकारी लड़की की तरह मोटी फाइल उठा ली। दरवाजे तक पहुँचकर रुक गयी और चंदर के कंधेपर फाइलें टिकाकर बोली, ”ऐ चंदर, तो सच्ची अब तुम डॉक्टर हो जाओगे?”
”और क्या?”
”आहा!” कहकर जो सुधा उछली, तो फाइल हाथ से खिसकी और सभी पन्ने जमीन पर।
चंदर झल्ला गया। उसने गुस्से से लाल होकर एक घूंसा सुधा को मार दिया। ”अरे राम रे!” सुधा ने पीठ सीधी करते हुए कहा, ”बड़े परोपकारी हो डॉक्टर चंदर कपूर! हमें बिना थीसिस लिखे डिग्री दे दी! लेकिन बहुत जोर की थी!”
चंदर हँस पड़ा।
खैर दोनों पापा के पास गये। वे भी लिखकर ही उठे थे और शरबत पी रहे थे। चंदर ने जाकर कहा, ”पूरी हो गयी।” और झुककर पैर छू लिये। उन्होंने चंदर को सीने से लगाकर कहा, ”बस बेटा, अब तुम्हारी तपस्या पूरी हो गयी। अब जुलाई से यूनिवर्सिटी में जरूर आ जाओगे तुम!”
सुधा ने पोथा कोच पर रख दिया और अपने पैर बढ़ाकर खड़ी हो गयी।
”ये क्या?” पापा ने पूछा।
”हमारे पैर नहीं छुयेंगे क्या?” सुधा ने गंभीरता से कहा।
”चल पगली! बहुत बदतमीज होती जा रही है!” पापा ने कृत्रिम गुस्से से कहा, ” चंदर! बहुत सिर चढ़ी हो गयी है। जरा दबाकर रखा करो। तुमसे छोटी है कि नहीं?”
”अच्छा पापा, अब आज मिठाई मिलनी चाहिए।” सुधा बोली, ” चंदर ने थीसिस खत्म की है?”
”जरूर, जरूर बेटी!” डॉक्टर शुक्ला ने जेब से दस का नोट निकालकर दे दिया, ”जाओ, मिठाई मंगवाकर खाओ तुम लोग।”
सुधा हाथ में नोट लिये उछलते हुए स्टडी रूम में आयी, पीछे-पीछे चंदर। सुधा रुक गयी और अपने मन में हिसाब लगाते हुए बोली, ”दस रुपये पौंड ऊन। एक पौंड में आठ लच्छी। छह लच्छी में एक शाल। बाकी बची दो लच्छी। दो लच्छी में एक स्वेटर। बस एक बिनती का स्वेटर, एक हमारा शाल।”
चंदर का माथा ठनका। अब मिठाई की उम्मीद नहीं। फिर भी कोशिश करनी चाहिए।
”सुधा, अभी से शाल का क्या करोगी? अभी तो बहुत गरमी है!” चंदर बोला।
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