चैप्टर 11 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 11 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 11 Aankh Ki Kirkiri Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 11 Aankh Ki Kirkiri Novel By Rabindranath Tagore

Prev | Next | All Chapters

आशा को एक साथी की बड़ी जरूरत थी। प्यार का त्योहार भी महज दो आदमियों से नहीं मनता – मीठी बातों की मिठाई बांटने के लिए गैरों की भी जरूरत पड़ती है।

भूखी-प्यासी विनोदिनी भी नई बहू से प्रेम के इतिहास को शराबी की दहकती हुई सुरा के समान कान फैला कर पीने लगी। सूनी दोपहरी में माँ जब सोती होतीं, घर के नौकर-चाकर निचले तल्ले के आरामगाह में छिप जाते, बिहारी की ताकीद से महेंद्र कुछ देर के लिए कॉलेज गया होता और धूप से तपी नीलिमा के एक छोर से चील की तीखी आवाज बहुत धीमी सुनाई देती, तो कमरे के फर्श पर अपने बालों को तकिए पर बिखेरे आशा लेट जाती और पेट के नीचे तकिया रख कर पट पड़ी विनोदिनी उसकी गुन-गुन स्वर से कही जाने वाली कहानी में तन्मय हो जाती। उसकी कनपटी लाल हो उठती, साँस जोर-जोर से चलने लगती।

विनोदिनी खोद-खोद कर पूछती और छोटी-से-छोटी बात भी निकाल लेती, एक ही बात कई बार सुनती, घटना खत्म हो जाती तो कल्पना करती; कहती – ‘अच्छा बहन, कहीं ऐसा होता तो क्या होता और यह होता तो क्या करती?’ इन अनहोनी कल्पनाओं की राह में सुख की बातों को खींच कर दूर तक ले जाना आशा को भी अच्छा लगता।

विनोदिनी कहती- ‘अच्छा भई आँख की किरकिरी, तुझसे कहीं बिहारी बाबू का ब्याह हुआ होता तो?’

आशा – ‘राम-राम, ऐसा न कहो! बड़ी शर्म आती है मुझे। हाँ, तुम्हारे साथ होता तो क्या कहने! चर्चा तो तुमसे होने की भी चली थी।’

विनोदिनी – ‘मुझसे तो जाने कितनों की, कितनी ही बातें चलीं। न हुआ, ठीक ही हुआ। मैं जैसी हूँ, ठीक हूँ।’

आशा प्रतिवाद करती। वह भला यह कैसे कबूल कर ले कि विनोदिनी की अवस्था उससे अच्छी है। उसने कहा – ‘जरा यह तो सोच देखो, अगर मेरे पति से तुम्हारा ब्याह हो जाता! होते-होते ही तो रह गया।’

होते-होते ही रह गया। क्यों नहीं हुआ? आशा का यह बिस्तर, यह पलंग सभी तो उसी का इंतजार कर रहे थे। उस सजे-सजाए शयन-कक्ष को विनोदिनी देखती और इस बात को किसी भी तरह न भुला पाती। इस घर की वह महज एक मेहमान है, आज उसे जगह मिली है, कल छोड़ जाना होगा।

तीसरे पहर विनोदिनी खुद अपनी अनूठी कुशलता से आशा का जूड़ा बांध देती और जतन से श्रृंगार करके उसके पति के पास भेजा करती।
इस तरह खामखाह देर कर देना चाहती।

नाराज हो कर महेंद्र कहता, ‘तुम्हारी यह सहेली तो टस से मस नहीं होना चाहती। घर कब जाएगी?’

उतावली हो आशा कहती, ‘न-न, मेरी आँख की किरकिरी पर तुम नाराज क्यों हो। तुम्हें पता नहीं, तुम्हारी चर्चा उसे कितनी अच्छी लगती है – किस जतन से वह सजा-संवार कर मुझे तुम्हारे पास भेजा करती है।’

राजलक्ष्मी आशा को कुछ करने-धरने न देतीं। विनोदिनी ने उसकी तरफदारी की, और उसे काम में जुटाया। विनोदिनी को आलस जरा भी नहीं था। दिन-भर एक-सी काम में लगी रहती। आशा को वह छुट्टी नहीं देना चाहती। एक के बाद दूसरा, वह कामों का कुछ ऐसा क्रम बनाती कि आशा के लिए जरा भी चैन पाना गैरमुमकिन था। आशा का पति छत वाले सूने कमरे में बैठा चिढ़ के मारे छटपटा रहा है- यह सोच कर

विनोदिनी मन-ही-मन हँसती रहती। आशा अकुला कर कहती, ‘भई आँख की किरकिरी, अब इजाजत दो, वह नाराज हो जाएँगे।’

झट विनोदिनी कहती, ‘बस, जरा-सा। इसे खत्म करके चली जाओ! ज्यादा देर न होगी।’ जरा देर में आशा फिर उद्विग्न हो कर कहती- ‘न बहन, अब वह सचमुच ही नाराज होंगे। मुझे छोड़ दो, चलूं मैं।’

विनोदिनी कहती, ‘जरा नाराज ही हुए तो क्या। सुहाग में गुस्सा न मिले, तो मुहब्बत में स्वाद नहीं मिलता, जैसे सब्जी में नमक-मिर्च के बिना।’
लेकिन नमक-मिर्च का मजा क्या होता है, यह विनोदिनी ही समझ रही थी, न थी सिर्फ उसके पास सब्जी। उसकी नस-नस में मानो आग लग गई। जिधर भी नजर करती, चिनगारियाँ उगलतीं उसकी आँखें। ऐसी आराम की गिरस्ती! ऐसे सुहाग के स्वामी! इस घर को तो मैं राजा की रिसायत, इस स्वामी को अपने चरणों का दास बना कर रखती। (आशा को गले लगा कर) ‘भई आँख की किरकिरी, मुझे बताओ न, कल तुम लोगों में क्या बातें हुईं। तुमने वह कहा था, जो मैंने करने को कहा था? तुम लोगों के प्यार की बातें सुन कर मेरी भूख-प्यास जाती रहती है।’

Prev | Next | All Chapters

देवदास उपन्यास शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

सूरज का सातवां घोड़ा उपन्यास धर्मवीर भारती

गोदान उपन्यास मुंशी प्रेमचंद

Leave a Comment