चैप्टर 12 ब्राह्मण की बेटी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 12 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 12 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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Chapter 11 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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अगहन महीने में आज के दिन बाद बहुत समय तक विवाह का शुभ-मुहूर्त न निकलने के कारण आज दिन-भर चारों ओर शहनाई का मधुर नाद कानों में पड़कर आनंदित कर रहा है। लगता है कि इस छोटे से गाँव के चार-पाँच घरों में विवाह का आयोजन है। संध्या का विवाह भी आज ही हो रहा है। अरुण अपनी जन्मभूमि और अपने मकान को छोड़ने के इरादे को अमल में नहीं ला सका है और पहले की तरह ही वह अपने काम-धंधे पर भी जाने लगा है। उसके बाहरी जीवन में किसी प्रकार के परिवर्तन के न दिखने पर भी उसकी मानसिकता अवश्य बदल गयी है। अब उसे अपने देश के प्रति किसी प्रकार का कोई लगाव नहीं रहा। वह लोक-कल्याण के सभी कार्यो से अपना नाता तोड़ चुका है। वह गाँव का उपेक्षित व्यक्ति समझा जाता है, इसीलिए इतने घरों में हो रहे विवाह उत्सव पर उसे कहीं से कोई निमंत्रण नहीं मिला है। ऐसा लगता है उसे समाज से बहिष्कृत मानकर सभी ने उसके लिए अपने दरवाजे बंद कर दिये हैं।

वह अपने दोमंजिले मकान के अध्ययन-कक्ष में बैठा है, जोड़ का मौसम है, शाम का समय है और ठण्डी हवा चल रही है, किन्तु फिर भी उसने अपने मकान के द्वार बन्द नहीं किये हैं। साफ आसमान पर चमकते चन्द्रमा की शुम्र चांदनी कमरे में झांकती प्रतीत हो रही है। मकान के आंगन में उगे नारियल के पेड़ों और पत्तों पर छिटकी चांदनी बड़ी प्यारी लग रही है। अरुण इस दृश्य की मनोरमा में खोया न जाने क्या सोच रहा है? उसने भोजन के लिए पूछने आये रसोइए को “भूख नहीं” कहकर लौटा दिया। सामने दीवार पर लगी घड़ी ने ग्यारह बजने और सोने का समय होने का संकेत दिया, किन्तु सोने की इच्छा न होने पर वह अविचलित भाव से वहीं स्थिर बैठा रहा।

इसी समय अचानक किसी के द्वार किवाड़ के थपथपाये जाने की आवाज सुनी, तो उसे आश्चर्य हुआ; क्योंकि इस प्रकार के छोटे गाँव में इतनी देर में कोई किसी के यहाँ आता जाता नहीं। उसकी इच्छा तो “कौन है?” पूछने की हुई, किन्तु उत्साह नहीं बन सका।

अरुण को अघिक समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी, रेशमी साड़ी की तेज होची खस-खस की आवाज उसके समीप आ पहुँची और इसके साथ ही कोई महिला उसके पैरों से लिपट गयी।

घबराकर उठ खड़े हुए अरुण ने चांदनी में महिला के रंगीन रेशमी वस्त्र देखे, तो साड़ी में लिपटी महिला को पहचानने में उसे देर नहीं लगी। वह इस प्रकार घबरा गया कि उसके चेहरे का रंग उड़ गया और दिल की धड़कन बहुत अघिक बढ़ गयी। लगभग आधी रात में अपने सूने घर में किसी सजी-धजी रूपवती युवती के आने पर उसे सूझ नहीं रहा था कि उसे क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए?

अरुण के कुछ सोचने से पहले ही उस सुंदर युवती के फूट-फूटकर रोने के कारण उसका मन एक साथ व्यथित और चिंतित हो उठा। वह परेशान था कि यह सब क्या है?

दो-तीन मिनिटों तक स्तब्ध खड़ा रहने के बाद अरुण संभला और उसने पूछा, “संध्या, मामला क्या है?”

अरुण से अपनी बात कहने के लिए संध्या ने अपने सिर को ऊपर उठाया, तो उसके रूप-सौंदर्य को द्वगुणित कर रहे उसके रेशमी वस्त्र और आभूषण चांदनी में चमक उठे। अरुण ने अपने जीवन में सौंदर्य की ऐसी अनोखी छटा कभी नहीं देखी थी, इसलिए उसका मुग्ध हो उठना स्वभाविक था। साथ ही संध्या के ढलकते आंसुओं के विह्वल हो उठा अरुण संध्या के चेहरे पर देखता ही रह गया।

संध्या बोली, “मैं विवाह की बेदी से उठकर तुम्हें अपना जीवन साथी बनाने और वर के खाली पड़े आसन पर बिठाने के लिए स्वयं आमंत्रित करने आयी हूँ। आज यह सब करते हुए न मैं अपने को भयभीत, न लज्जित और न ही किसी प्रकार से अपमानित अनुभव कर रही हूँ। इस समय मुझे तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा व्यक्ति अपना सगा नहीं लगता। तुम्हीं से अपने उद्धार की आशा लेकर आयी हूँ। तुम मेरे साथ चलो।”

अरुण ने पूछा. “कहाँ चलूं?”

विवाह-मण्डप से उठ गये वर के आसन पर बैठने के लिए मेरे घर चले।

सुनकर दुःखी और परेशान हुआ अरुण पूरे मामले को जानने के लिए उत्सुक हो उठा। उस अनुमान तो हो गया कि किसी मामले पर झगड़ा हो जाने के कारण वरपक्ष वालों ने विवाह करने से इंकार कर दिया है। हिन्दुओं में ऐसा होना असामान्य बात नहीं थी। शायद संध्या उसी खाली हुइ आसन पर मुझे बिठाने की बात कर रही है; क्योंकि वर के बिना तो वधू का विवाह सम्पन्न नहीं हो सकता।

अरुण को स्वयं संध्या ने और उसकी माँ ने अपने घर आने से केवल मना ही नहीं किया था, उसका खुल्लम-खुल्ला अपमान भी किया था, इतने पर भी उसे इस समय कठोर व्यवहार करना उचित नहीं लगा। वह स्नेह और सहानुभूति से भरे मधुर स्वर में बोला, “संध्या, इस समय तुम्हारे स्वयं इधर आने को कोई भी व्यक्ति उचित नहीं कहेगा। तुम अपने पिताजी को भेजती, तो अच्छा होता।”

“किसको भेजती? पिताजी डर के मारे न जाने कहां छिपे हैं और माँ तालाब में जा कूदी है, बड़ी कठिनाई से उसे बाहर तो निकाल लिया गया है, किन्तु वह सदमे से बेहोश पड़ी है। मुझे और कुछ सुझा नहीं, सीधी दौड़ कर तुम्हारे पास चली आयी हूँ।”

“इतना बड़ा अपमान तथा इतनी बड़ी दुर्गति इस संसार में किसी की भी नहीं हुई होगी। भगवान ऐसा दुर्दिन किसी को भी न दिखाये!”

सुनकर अरुण काफी दुःखी हुआ। वह बोला, “मुझे तो तुम लोग अस्पृश्य और शूद्र स्तर का व्यक्ति समझते हो, इसलिए मेरे द्वारा तुम अपने उद्धार की सोच भी कैसे सकती हो? तुम्हारे पिताजी किसी कुलीन ब्राह्मण की खोज में गये होंगे। तुम्हें घर में रहकर उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए थी।”

रोती-बिलखती संध्या बोली, “अरुण, मेरे पिताजी किसी को ढूंढने नहीं गये, वह केवल डर कर कहीं छिप गये हैं। अब मुझसे कोई विवाह नहीं करेगा, मुझे केवल तुम्हारा ही सहारा है।”

संध्या की इन ऊल-जलूल बातों को सुनना अरुण को अच्छा नहीं लगा। वह संध्या को घर भेजने के लिए उसकी बांह पकड़कर उसे उठाने लगा।

अरुण को संबोधित कर संध्या बोली, “मैं तब तक तुम्हारे चरणों को पकड़े रहूंगी, जब तक तुम मेरे उद्धार को सहमत नहीं हो जाते। जहाँ तक मेरी कुलीनता की बात है, तो वह भी सुन लो। वास्तव में, मैं ब्राह्मण संतान न होकर नाई (शुद्र) की लड़की हूँ। अब तो मेरे हाथ का छुआ पानी भी नहीं पियेगा। भगवान भी कितने निर्मम है? मुझे इतनी यातना देते हुए उन्हें थोड़ी सी भी दया नहीं आयी।”

अरुण को लगा कि शायद संध्या होश-हवास में न होने के कारण अंट-संट बके जा रही है। संभव है कि अवांछनीय कुछ हुआ ही न हो। मुझमें आसक्ति के कारण ही संध्या विवाह-मण्डप से भाग आयी हो। अब तक तो उसके घर पर कोहराम मचा होगा। यह सोचकर अरुण ने संध्या को समझा-बुझाकर घर भेजने का इरादा किया। उसके सिर पर हाथ रखकर अरुण धीरे से बोला, “संध्या, अच्छा उठो, मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ आता हूँ।”

कृतज्ञता-ज्ञापन के रूप में अरुण के बार-बार पैर छूती हुई संध्या बोली, “मुझे विश्वास था कि तुम मेरी विनती को नहीं ठुकराओगे, किन्तु घर चलने से पहले मेरी पूरी बात सुन लो। नहीं तो, क्या मालूम, वास्तविकता का पता चलने पर तुम भी बदल जाओ। एक दिन हम लोगों ने तुम्हें नीच ब्राह्मण कहा था, किन्तु हमें आज पता चला कि हम तो तुमसे भी निचले दर्जे के लोग हैं। उफ, यह कैसी कड़वी और लज्जित करने वाली सच्चाई है।”

संध्या की गहरी व्यथा से अरुण को उसके घर में सचमुच ही किसी अप्रिय घटना के घटित होने का आभास होने लगा। अतः उसने धीरे-से कहा, “कौन कहता है कि तुम नाई की लड़की हो और इसका क्या प्रमाण है?”

संध्या ने कहा, “गोलोक चटर्जी इस बात को डंके की चोट से कहता है। माँ कन्यादान का संकल्प करने वाली थी, मेरी दादी पास खड़ी थी, इतने में दो आदमियों को अपने साथ लिये मृत्युंजय घटक वहाँ आ गया। उन दो आदमियों में से एक ने मेरी दादी को आवाज देकर बुलाया और पूछा, “क्यों तारा दीदी, हमें पहचानती हो या नहीं? तुमने अपने लड़के का ब्राह्मण की लड़की से विवाह करके उसकी जाति तो नष्ट की ही थी, अब पोती का विवाह ब्राह्मण-परिवार में करके उनकी जाति भी भ्रष्ट करने पर तुली हो।” इसके बाद मेरे पिताजी की ओर अंगुली करते हुए वह आदमी बोला-प्रियनाथ मुखर्जी के नाम से अपने को कुलीन ब्राह्मण कहने वाला वह व्यक्ति असल में नाई की संतान है।”

अरुण ने कहा, “संध्या तुम होश में तो हो? जानती हो की तुम क्या बोले जा रही हो?”

संध्या ने अरुण के कथन को अनसुना करके अपनी बात जारी रखी वह बोली, “धूर्त मृत्युंजय घटक ने गंगाजल का मटका मेरी दादी के आगे रख दिया और बोला – ताराकाली, सच बता कि प्रियनाथ हीरू नाई का लड़का है या मुकुन्द मुखर्जी का? अरुण, मेरी सन्यासिनी दादी लज्जा से मुंह झुकाये बैठी रही कुछ बोल नहीं सकी। झूठ बोलती भी, तो भला किस मुँह से? सत्य को झुठलाना आसान बात नहीं है, इसलिए यह निश्चित है कि लोग हमें जो समझते थे, वास्तव में हम वह नहीं है।”

अरुण के लिए स्वीकार न करना संभव नहीं हुआ, किन्तु इससे उसे काफी गहरा धक्का लगा।

संध्या ने कहा, “दादी के गाँव के एक आदमी ने इस घटना का विवरण इस प्रकार कह सुनाया। विवाह के समय दादी आठ साल की थी। जब दादी चौदह-पंद्रह साल की हुई, तो एक आदमी अपने को मुकुन्द मुखर्जी बताकर दादी के घर में आकर रहने लगा। दो दिन रहने के बाद वह पाँच रुपया और एक वस्त्र भेंट में लेकर चलता बना।”

उसके बाद, वह आदमी बीच-बीच में आकर घर में रहने लगा। दादी के अधिक रूपवती होने के कारण उसने दादी से दक्षिणा लेना छोड़ दिया। एक दिन अचानक उसकी असलियत खुल गयी। तब तक बाबू जी का जन्म हो चुका था। उफ, यदि मैं माँ होती, तो उसी समय उस नाजायज बच्चे का गला घोंट देती। फिर न ही बच्चा और न ही जननी अपयश, अपमान और निंदा का पात्र बनते।”

अरुण बोला, “क्या थी वास्तविकता?”

संध्या ने कहा, “रहस्य यह खुला कि उसने यह कुकर्म अपनी इच्छा से नहीं किया था। इसके पीछे मुकुन्द मुखर्जी की सहमति नहीं अपितु स्वीकृति थी। सत्य कहें तो निर्देश था। बात यह थी कि एक तो मुकुन्द मुखर्जी बूढ़े थे. दूसरे, उनकी न जाने कितनी स्त्रियां थी, तीसरे, वह गठिया के मरीज थे। उनकी पत्नियाँ तो अपने पति को पहचानती भी नहीं थी। इधर मुकुन्द मुखर्जी के मन मे लालच आ गया था। अपनी स्त्रियों को पुत्रवती बनाने के बदले रुपया कमाने का मन बना चुके थे। इसके लिए उन्होंने हीरू नाई से सांठ-गांठ की। मुखर्जी ने नाई से कहा, “तू गले में जनेऊं डाल ले और थोड़ा-बहुत ब्राह्मण-कर्म सीख ले। फिर मजे का रोजगार कर, आधी कमायी तेरी और आधी मेरी रहेगी।”

चौककर अरुण ने पूछा, “क्या यह सब अन्य स्त्रियों के साथ भी हुआ है?”

संध्या बोली, “हाँ, उसने और भी दस-बारह स्त्रियों को फांसा था और उनसे मोटी रकम वसूल की थी। वह तो कहता था कि तुम काम उससे केवल मुखर्जी ही नहीं कराते, अन्य अनेक कुलीन ब्राह्मणों ने भी अपने एजेंट छोड़ रखे हैं। वह इस प्रकार के काफी लोगों को जानता है।”

“यह सब सत्य ही होगा, अन्यना गोलोक-जैसा नरपिशाच ब्राह्मण-कुल मैं उत्पन्न न होता।” अरुण ने क्रोध और घृणा से भरे स्वर में कहा। वह बोला, “दुःख तो इस बात का है कि ये नीच पुरुष समाज के भाग्य-निर्माता बने बैठे हैं।”

अपनी बात को आगे बढ़ाती हुई संध्या ने कहा, “प्रारंभ में नाई घबरा गया था और उसने कहा था, पंण्डित जी, धर्मराज के सामने मैं क्या मुँह दिखाऊंगा? मुखर्जी का उत्तर था – पाप है या पुण्य, गलत या सही, इसका जिम्मा मुझ पर है। तुम्हें इससे क्या लेना-देना? तुम्हें तो ब्राह्मण के आदेश का पालन करना है। हीरू नाई ने पूछा – उन बेचारी अनजान स्त्रियों के पाप का प्रायश्चित कैसे होगा? यहाँ भी मुखर्जी का उत्तर था – मेरी स्त्रियों के लिए तू क्यों परेशान होता है। उनकी सद्गति अथवा दुर्गति का भार मुझ पर रहेगा। तुझे इससे क्या? तुम तो केवल कमाई पर अपना ध्यान रखे। इसीलिए एक दिन हमारे घर में तुम्हारी चर्चा होने पर दादी ने मुझे धकेलते हुए कहा – नासमझ लड़की, जात-पात में कुछ नहीं रखा, लड़का सब प्रकार से योग्य है, उसका वरण कर ले। किसी की जाति वास्तव में क्या है, इसे तो केवल भगवान ही जानते हैं। जाति के आधार पर किसी का मूल्यांकन करना केवल मूर्खता है। महत्व गुणों को देना चाहिए, जाति-पाति को नहीं। मैंने उस दिन दादी को टटोला होता, तो मुझे आज यह दिन न देखना पड़ता।”

“अरुण, अब रात बहुत हो गयी है। उठो, मेरा साथ दो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि मेरा वरण करके तुम्हें जीवन मे पछताना नहीं पड़ेगा। मैं तुम्हारे सहयोग, त्याग और उदारता के लिए सदैव तुम्हारी कृतज्ञ रहूंगी।”

अरुण निश्चल बैठा रहा और बोला, “मैं इस समय तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।”

आश्चर्य और दुःख के साथ संध्या बोली, “तुम नहीं चलोगे, तो मैं अकेली किसी को कैसे मुँह दिखाऊंगी?”

संध्या के इस प्रश्न का उत्तर अरुण आसानी से न दे सका। वह बोला, “संध्या, मैं क्षमा-याचना करता हूँ। मुझे सोचने-विचारने के लिए थोड़ा समय चाहिए।”

काफी देर तक संध्या अंधेरे में अरुण के चेहरे को ताकती रही, फिर उठकर खड़ी हो गयी और बोली, “सारा जीवन पड़ा है, आराम से सोचो। मैं भी तो अब तक सोचती ही रही हूँ और अब किसी निर्णय पर पहुंची हूँ। हाँ, तुम्हें भी सोचने के लिए समय चाहिए, बिल्कुल ठीक है।”

उठकर जाती संध्या ने अपने सिर से खिसके आँचल को संभाला, लेकिन अपनी वेशभूषा, अलंकार और साज-सज्जा को देखकर उसे रोना आ गया। क्या किसी ने सोचा होगा कि दुल्हन की यह दुर्गति होगी?

संध्या ने अरुण को प्रणाम किया और फिर वह कमरे से बाहर निकल पड़ी।

संध्या को अकेले रात के समय जाते देखकर अरुण चिंतित हो उठा। उसके साथ जाने के लिए वह अपने नौकर शिब्बू को आवाज देने लगा, लेकिन शिब्बू से वापसी उत्तर न पाकर स्वयं संध्या के पीछे दौड़ पड़ा। प्रियनाथ दिए की रोशनी में बक्सों में से अपनी जरूरत के कुछ सामान को निकालकर थैले मे डाल रहे थे कि उन्होंने “बाबू जी” की आवाज सुनी, तो चौंक उठे। वास्तव में वह छिपकर तैयारी कर रहे थे। अतः हाथ में पकड़े सामान को एकदम नीचे रखकर उन्होंने उत्तर दिया, “क्या संध्या बेटी है? बस, जाने वाला हूँ अब अधिक देर नहीं है।”

अपने आँसुओ को छिपाती हुई संध्या बोली, “बाबू जी, यह कैसी बात कर रहे हो?”

धबराकर प्रियनाथ बोले, “क्यों, मैंने कुछ गलत कह दिया है?”

थैले को पकड़ती हुई संध्या ने पूछा, “बाबू जी, इसमें आपने क्या रख छोड़ा है?”

भेद खुल जाने से घबराये प्रियनाथ ने बात टालने की गरज से कहा, “बेटी, कुछ नहीं! इसमें तो मैंने दो-चार दवाइयाँ और उसके साथ मेटेरिया “मेडिया” की छोटी प्रति रखी है। सोचता हूँ कि उतना कुछ रखूं, जितना अपने से उठाया जा सके। किसी नयी जगह पर भी समय बिताने के लिए थोड़ा-बहुत प्रैक्टिस कर लेने में कुछ हर्ज तो नहीं हैं?”

“तो क्या माँ आपको यह सब नहीं लेने देती?”

प्रियनाथ ने संकेत से इस प्रश्न का उत्तर देना चाहा, संध्या कुछ भी समझ नहीं सकी।

“बाबू जी, तुम्हारा कहाँ जाकर प्रैक्टिस करने का इरादा है?”

“वृन्दावन में। तुम तो जानती हो कि वहाँ निरंतर यात्रियों का तांता लगा रहता है। वहाँ रोगियों को दवा देने में महीने में चार-पाँच रुपये की आय हो जाना कोई बड़ी बात नहीं। इतनी तो निश्चित ही है, इस राशि में मेरी गुजर-बसर हो ही जायेगी।”

“बाबू जी, ऐसी क्या बात है, वहाँ तो इससे कहीं अधिक आय हो जाया करेगी, किन्तु वहाँ तुम्हारी किसी से जान-पहचान ही नहीं। नये स्थान पर कहाँ भटकते फिरेगे? यदि कहीं जाना ही था, तो अपनी माँ के साथ काशी चले जाते।”

“बेटी, मैं अपने साथ किसी और की नहीं लपेटना चाहता। भले ही वह माँ हो या फिर पत्नी हो, मेरे कारण लोगों को काफी दुःख और अपमान सहना पड़ा है। अब तो मैंने अकेले, अजनान स्थान पर गुमनाम जिन्दगी जीने का मन बना लिया है।”

“पिता की छाती पर अपना सिर टिकाकर और उसके दोनों हाथों को अपने हाथ में लेकर संध्या बोली, “बाबू जी, तुम तो तभी जा सकोगे, जब मैं तुम्हें अकेला जाने दूंगी।”

लड़की के हाथों अपने हाथों को छुड़ाकर प्यार से उसके सिर को सहलाते हुए प्रियनाथ ने मुधर स्वर में कहा, “बिटिया, मेरे साथ किसी अनजान स्थान पर तू कहां भटकती फिरेगी। देखो, तुम्हारी माँ बेचारी ने भी बहुत दुःख कष्ट झेले हैं। तू उसके साथ रहकर उसे धीरज बंधा। हाँ, मुझे पूछता हुआ कोई रोगी आ जाये, तो उसे तुम दवा देगी। यही तेरे द्वारा की गयी मेरी सेवा होगी। हाँ, यदि तुम्हारी माँ देना चाहे, तो मेरी पुस्तक विपिन को दे देना। वह बेचारा गरीब होने के कारण न किताबें खरीद सका और न ही कुछ सीख सका।”

संध्या बोली, “बाबू जी, मैंने तो तुम्हारे साथ चलने की ठान ली है। यह देखो, मैंने प्रितिदिन पहनने के कपड़ों का थैला बना लिया है।” इसी कथन के साथ संध्या ने अपना झोला पिता के आगे रख दिया।

प्रियनाथ संध्या की प्रकृति को जानते थे, इसलिये उन्होंने अधिक समझाना-बुझाना बेकार समझ। वह बोले, “ठीक है, तेरा हठ है, तो मैं क्या कह सकता हूँ, किन्तु यह न भूलना कि इससे तुम्हारी माँ को बहुत दुःख-कष्ट होगा।”

संध्या ने कल रात सभी लोगों को अपने पिता पर थू-थू करते देखा है। सौभाग्य की बात थी कि ये लोग अपने ही मकान में रहते थे। यदि कहीं किरायेदार होते, तो शायद लोगों ने इन्हें गाँव से बाहर निकाल दिया होता? अपने परिवार के इस अपमान को भुलाना संध्या के लिए आसान नहीं था। फिर भी, आज उसने इस बात को मुंह पर नहीं आने दिया। वह तो केवल यही एक रट लगाती रही, मुझे तुम्हारे साथ चलना है। उसके कारण के अंतर्गत यह भी जोड़ दिया, “यदि मैं तुम्हारे साथ न चली, तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? तुम्हें पकाकर कौन खिलायेगा?”

यह कहकर संध्या ने अपने पिता के सामान को ठीक से संभालकर थैले में रखा और फिर बोली, “बापू, हमें अभी यहाँ से निकल जाना चाहिए, तभी हम बारह बजे वाली गाड़ी पकड़ सकेंगे।”

मां के बंद कमरे के बाहर से माँ को प्रणाण करके संध्या ने माँ को सुनात हुए कहा, “माँ, मैने केवल दो साड़ियों और ब्लाउजों को छोड़कर तुम्हारे घर से कुछ भी नहीं लिया है। मैं बाबू जी के साथ जा रही हूँ, रुकने का समय नहीं है। तुम मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा कर देना।”

यह कहकर संध्या रो पड़ी। भीतर से कोई उत्तर न पाकर संध्या बोली, “माँ, हम तो अपमानित और कलंकित होकर यहाँ से विदा हो रहै है, किन्तु इससे हमारा भी कोई दोष है अथवा हमें गलत व्यवस्था का शिकार होना पड़ रहा है। इस सत्य को केवल अंतर्यामी ही जानते होंगे। न्याय करने वाला भी तो भगवान ही है।”

भीतर से न तो कोई आवाज आयी न ही बंद किवाड़ खुले। लिहाजा निराश होकर संध्या अपने पिता के साथ सीढ़ियों से नीचे उतर गयी। नीचे खड़े युवक को चांदनी के प्रकाश में पहचानकर प्रियनाथ ने पूछा, “बेटे, अरुण हो न?”

अरुण बोला, “आपके बारह बजे की गाड़ी से जाने को सुनकर आपसे मिलने भागा आया हूँ।”

प्रियनाथ बोले, “बेटे, मैं तो संकट में पड़ गया हूँ। लड़की साथ चलने पर अमादा है। मेरा साथ छोड़ना चाहती ही नहीं, जबकि मेरा कहां जाना और कहां ठहरना आदि कुछ भी निश्चित नहीं है। इस पगली को तुम ही समझाओ।”

सुनकर चकित हुए अरुण ने पूछा, “संध्या, यह मैं क्या सुन रहा हूँ?”

संध्या बोली, “हाँ, सच है।”

अरुण थोड़ी देर बोला, “संध्या मैं उस रात प्रयत्नकरने पर भी किसी निश्चत पर नहीं पहुंच सका था, किन्तु आज मैं तुम्हें अपनाने का निश्चय करके ही तुम्हारे पास आया हूँ।”

प्रियनाथ के लिए अरुण का कथन एक पहेली थी, इसीलिए वह उसके चेहरे को ताकते रह गेय। संध्या धीरे-से-बोली, “उस दिन मैं बिना सोच-विचार किये तुम्हारे पास दौड़ी चली आयी थी, किन्तु अब मेरा मन स्थिर हो गया है। क्या स्त्रियों के लिए विवाह के अतिरिक्त कुछ और भी करणीय है या नहीं? इसकी जांच-परख के लिए मैंने पिताजी के साथ जाने का निश्चय किया है। अब रुकने का समय नहीं, मैं तुमसे करबद्ध होकर क्षमा-याचना करती हूँ।”

यह कहकर संध्या पिता का हाथ पकड़कर चल पड़ी, तो अरुण भी साथ चल दिया। संध्या ने अरुण की और उन्मुख होकर कहा, “भैया, तुम लौट जाओ, तुम्हारा हमारे साथ चलना ठीक नहीं।”

अरुण ने कहा, “संध्या, क्या ऐसे दुःख-कष्ट में तुम्हारी माँ को अकेली छोड़कर चल देना तुम्हें सही लगता है?”

संन्ध्या बोली, “आज तक भाग्य में दोनों माता और पिता का संग लिखा था, सो दोनों की सेवा की और प्यार पाया, किन्तु आज दोनों में से एक को छोड़ना आवश्यक हो गया है। सोचती हूँ की माँ अपने लिए जुगाड़ कर लेगी। इसी गाँव की बेटी है, फिर कल आये तमाशबीनों में से कुछ माँ के लिए किसी प्रायश्चित की बात भी कह रहे थे, अतः उनकी देखभाल तो हो ही जायेगी, किन्तु बाबू जी के प्रति तो सहानुभूति रखने वाला कोई भी नहीं, इसलिए मैंने उनके साथ जाने का निर्णय लिया है।”

इसी के साथ वे दोनों-बाप-बेटी फिर आगे चल दिये।

रास्ते में उन्होंने लोगों को विविध मिष्ठानों कि प्रशंसा करते और पान चबाते हुए अपने सामने से गुजरते देखा। वे लोग आनन्द और तृप्ति से निहाल हो रहे थे। उनका सामना न करने की इच्छा से संध्या ने अपने को तथा अपने पिता को ओट में कर लिया और उन लोगों के दूर चले जाने पर उन्होंने अपनी राह पकड़ी।

थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर लोगों की तृप्ति, प्रसन्नता और संतुष्टि का कारण स्पष्ट हो गया। समीप की अमराई के पीछे गोलोक चटर्जी के घर तीव्र प्रकाश औक कोलाहल से वहाँ हुए उत्सव का पता चलता था। अभी तक खाने वाले उच्च स्वर में पूड़ी, दही, मिठाई की मांग कर रहे थे।

प्रियनाथ ने कहा, “गोलोक के विवाह का भोज हो रहा है। चटर्जी खिलाने-पिलाने में उदारता दिखाता है। आज भी उसने पाँच गाँवों के सभी लोगों-शूद्रों, बनियों तथा ब्राह्मणों-को निमंत्रण दिया लगता है।”

आश्चर्य में पड़ी संध्या ने पूछा, “किसके विवाह का निमंत्रण! नाना गोलोक ने फिर से विवाह किया है?”

“हाँ, गोलोक ने परसों प्राणकृष्ण की लड़की से विवाह रचाया है।”

“क्या हरिमति के साथ? अरे, वह तो उसकी पोती की आयु की है।”

“हाँ-हाँ हरिमति के साथ। लड़की बड़ी हो गयी, बाप गरीब ब्राह्मण था। चटर्जी ने दोनों के उद्धार का पुण्य कमा लिया।”

“बाबू जी, यह पुण्य नहीं, घोर पाप है। यहाँ से जल्दी चलो, मेरा सिर चकराने लगा है। कुछ देर और यहाँ रुके, तो मैं मूर्छित होकर गिर पडूंगी।”

यह कहती हुई संध्या पिता को घसीटकर स्टेशन की ओर चल दी। गाड़ी के आने के समय से आधा घण्टा पहले स्टेशन पर पहुंच गये। गाँव का छोटा-सा स्टेशन था और रात का समय था, अतः अधिक लोग नहीं थे। प्लेटफोर्म के एक ओर वृक्ष के नीचे अकेली बैठी एक स्त्री ने प्रियनाथ को देखते ही कपड़े से सिर को ढक लिया।

प्रियनाथ एक ओर हट गये, किन्तु संध्या ने पहचान लिया और फिर आश्चर्य प्रकट करती हुई बोली, ज्ञानदा दीदी, तुम यहाँ, इस समय और वह भी अकेली…।”

ज्ञानदा संध्या को अपने पास खींचकर उससे लिपट गयी और फिर बिलखने लगी। संध्या तो अपने ही दुःख को गहनतम मानकर व्यथित थी, उसे क्या मालूम है कि इस गाँव में उससे भी अधिक दुःखी, अपमानित और कलंकित कोई दूसरी महिला भी है? संध्या को ज्ञानदा के दुर्भाग्य की कोई जानकारी नहीं थी। सब कुछ जानने वाले प्रियनाथ भी परेशान हो उठे।

संध्या ने पूछा, “दीदी, तुम्हें कहाँ जाना है?”

गला रूंध जाने के कारण ज्ञानदा कुछ साफ नहीं कह सकी, रुक-रुककर बोली, “मैं क्या जानूं कि मुझे कहाँ जाना है?”

इसके बाद काफी देर तक खामोशी छायी रही। गाड़ी के आने का समय समीप होने के कारण टिकट खरीदना था, अतः प्रियनाथ ने पूछा, “ज्ञानदा, क्या तुमने टिकट खरीद लिया है या तुम्हारा टिकट भी खरीदना है?”

ज्ञानदा ने सिर हिलाकर कहा, “खरीदा तो नहीं है।” टप-टप आँसू बहती हुई ज्ञानदा बोली, “बाबू, आप लोगों को कहाँ जाना है?”

“वृन्दावन।”

“क्या संध्या भी वृन्दावन जायेगी?”

“हाँ।”

आँचल की गांठ को खोलकर रुपये प्रियनाथ के चरणों में रखती हुई ज्ञानदा बोली, “मेरे पास यही पचास रुपये है। मुझे नहीं मालूम कि वृन्दावन का कितना भाड़ा लगता है। एक टिकट मेरे लिए भी खरीद लीजिये और मुझे केवल वहाँ तक ले चलिये। वहाँ पहुँचते ही मैं अपने आप आपसे अलग हो जाऊंगी। आपको किसी संकट में नहीं डालूगी।”

प्रियनाथ कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, “चलो, हमारे साथ ही चलो। जो भी होगा, देखा जायेगा।”

***समाप्त***

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :

देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बिराज बहू ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बड़ी दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

मझली दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

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