चैप्टर 6 ब्राह्मण की बेटी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 6 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 6 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 6 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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संध्या के अंधकार के गहरा जाने पर भी अरुण ने अपने कमरे में रोशनी नहीं की थी। वह अपनी स्टडी टेबल पर पैर रखे छत की ओर देखे जा रहा था। मेज पर खुली पड़ी पुस्तक को देखकर लगता है कि अरुण इस पुस्तक को पढ़ रहा होगा। इसके साथ पढ़ने की इच्छा बनी रहने के कारण उसने पुस्तक को बंद नहीं किया होगा। वास्तव में, संध्या के घर से लौटने के दिन से ही वह काम पर नहीं जा सका था। उसके दिमाग मे एक ही बात ने हलचल मचा रखी है कि अब वह लोगों के लिए अस्पृश्य हो गया है। उसके स्पर्श मात्र से लोगों को नहाना पड़ता है।

अचानक द्वार पर आहट पाकर वह अपने चिंतन से बाहर निकला और उसने आवाज देकर पूछा, “कौन है?”

“मैं संध्या हूँ।” कहती हुई संध्या किवाड़ खोलकर कमरे में एक और खड़ी हो गयी।

मेज पर पैर उठाकर अरुण खड़ा हो गया और आश्चर्य प्रकट करता हुआ बोला, “संध्या तुम ऐसे समय यहाँ? आओ, भीतर आकर बैठ जाओ।”

संध्या बोली, “मेरे पास बैठने का समय नहीं है। मैं ताल पर मुँह-हाथ धोने के बहाने तुमसे एक निवेदन करने तुम्हारे पास चली आयी हूँ।”

“बोलो संध्या, क्या कहने आयी हो? क्या मैं तुम्हें किसी बात के लिए इंकार कर सकता हूँ?”

“मुझे इस बात का पता है और इसी भरोसे चली आयी हूँ।” कहकर कुछ देर के लिए संध्या चुप हो गयी, फिर बोली, “मुझे बाबू जी से मालूम हुआ कि तुमने उस दिन से काम पर जाना बंद कर दिया है। घर से बाहर निकले तक नहीं। क्या इसका कारण क्या बता सकोगे?”

“मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं था, तो काम पर कैसे जाता?”

“स्वास्थ्य खराब होने पर काम-धंधे पर न जाना समझ में तो आता है, किन्तु तुम्हारे संबंध में यह सत्य नहीं है। यदि सचमुच तुम्हारी तबीयत खराब होती, तो तुमने बाबू जी से कहा होता?”

अरुण की चुप्पी पर संध्या भी कुछ देर के लिए चुप हो गयी और फिर बोली, “मुझे वास्तविकता की जानाकारी है। अरुण भैया, मेरा तुमसे अनुरोध है कि तुम हमारे घर आने की सोचना तक नहीं।”

अरुण धीमे-से बोला, “सिर्फ तुम्हारे घर की नहीं, पूरे गाँव की यह कहानी है, इसीलिए सोचता हूँ कि इस गाँव को छोड़कर किसी ऐसे स्थान पर डेरा जमा दूं, जहाँ मनुष्य के साथ मनुष्य-जैसा व्यवहार किया जाता हौ, किसी निर्दोष को अकारण अपमानित न किया जाता हो।”

संध्या ने पूछा, “क्या अपने जन्मस्थान से नाता तोड़ सकोगे?”

“जब जन्मभूमि ही नहीं अपनाना चाहती, तो क्या किया जा सकता है? अब तुम ही देखो, मैं तुम्हारी दृष्टि में इतना पतित हो गया कि तुम्हें अपने मुँह में रखा पान तक थूकना पड़ा। इस प्रकार लोगों की घृणा का पात्र बन जाने पर भी क्या जन्मभूमि कहकर किसी स्थान से चिपका रहा जा सकता है?”

संध्या उत्तर न दे पाने के कारण सिर झुकाकर चुप खड़ी रही। अरुण ने कहा, “आचार की पवित्रता के नाम पर यह संस्कार तुम लोगों को उत्तराधिकार में मिले हैं। एक दिन इन धर्मगुरुओं को यह सोचना पड़ेगा कि उनकी इस आचार-व्यवस्था से समाज के दीन-हीन लोगों के दिलों पर क्या बीतती है, उन्हें कितना अधिक परेशान होना पड़ता है?”

कुछ देर तक सोचती संध्या बोली, “समाज के इस व्यवहार के लिए क्या तुम स्वयं भी कुछ कम उत्तरदायी नहीं हो?”

“क्या मालूम, तुम्हारे कथन में कितनी सत्य है? अच्छा संध्या, इसका कोई प्रायश्चित तो होगा! क्या इस बारे में तुम मुझे कुछ बता सकती हौ?”

“प्रायश्चित तो है, किन्तु एक दिन तुम्हें यह सब करने में अपना अपमान लगा था और इससे तुम इसके लिए सहमत नहीं हुए थे। यदि आज तुम्हारा विचार बदल भी गया हो, तो भी तुम्हे इस गाँव मे रहने की सलाह दूंगी।”

अरुण बोला, “किन्तु कहीं भी चले जाने पर तुम्हारी घृणा को भुलाकर सुख-चैन से रह पाना मेरे लिए संभव नहीं होगा।”

संध्या बोली, “अपने प्रति मेरे दृष्टिकोण की तुम चिंता ही क्यों करते हो?”

“संध्या, क्या यह तुम कह रही हो?”

संध्या बोली, “अरुण भैया, तुमने मुझे अपनी मर्यादा, लज्जा और संकोच आदि की रक्षा ही कहां करने दी है? मैंने कितनी बार संकेतों से तुम्हें जताना चाहा कि हमारा संबंध नहीं जुड़ सकता। फिर भी, तुम मुझसे कुछ सकारात्मक सुनने की इच्छा से याचक बनकर डटे रहे। मेरे माता-पिता किसी प्रकार राजी हो भी जाएं, किन्तु मैं तो अपने उच्च बाह्मण वंश को मिट्टी में नहीं मिला सकती।”

आश्चर्यचकित अरुण बोला, “क्या मैं ब्राह्मण वंश में उत्पन्न नहीं हुआ हूँ?”

“निःसंदेह, तुम भी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हो, किन्तु बिल्ली और सिंह को एक ही पलड़े में तो नहीं रखा जा सकता।”

संध्या ने यह सब कह तो दिया, किन्तु वह अपने कथन के औचित्य पर विचार करने लगी।

अरुण चुप ही नहीं हो गया, अपितु उसने अपनी विस्मित और व्यथित दृष्टि भी संध्या के चेहरे से हटा ली।

संध्या ने बलपूर्वक हँसने की चेष्टा करते हुए कहा, “अरुण भैया, मैं भली प्रकार से जानती हूँ कि मैंने तुम्हारा इतना अधिक अपमान किया है कि वर्षों तक चाहकर भी तुम इसे भुला नहीं सकोगे। मैं तो यहाँ तक कह सकती हूँ कि इतना कठोर कभी किसी ने किसी के प्रति किया ही नहीं होगा।”

अरुण ने कहा, “छोड़ो इस विवाद को। पहले तुम अपने आने के प्रयोजन के बारे में बताओ?”

संध्या केवल मुस्करा दी और बोली, “संसार में एक से बढ़कर एक आश्चर्य होते देखे जाते हैं।” फिर थोड़ी देर चुप्पी के बाद सहमे स्वर में वह बोली, “अरुण भैया, मेरा सम्मान तुम्हारे हाथ में है। यदि तुमने मेरा कहा न माना, तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी।”

अरुण बिना कुछ जाने क्या कहता? वह संध्या के चेहरे पर केवल प्रश्नवाचक दृष्टि से ताकता रहा।

संध्या बोली, “एक कोड़ी के बार ने अपनी विधवा बहू और पोती को अपने घर में निकाल बाहर किया है। मेरे बापू उन दोनों को ले आये थे और मैंने उन्हें अपने पिछवाड़े आश्रय दिया था।”

“कहाँ?”

“अपनी गौशाला में, किन्तु बाह्मणों का मुहल्ला होने के कारण उन शूद्रों के लिए वहाँ रहना संभव नहीं हो पा रहा है।”

“क्यों।”

“यह भी कोई पूछने की बात है? समाज के ठेकेदारों को शूद्रों का दिखना कहां रास आता है? पानी के लिए उन्हें हमारे तालाब पर आना पड़ेगा, फिर वे लोग रास्ते में बकरी को मांड पिलाते है। गोलोक-जैसे ऊंचे ब्राह्मण छींटा पड़ने अथवा छू जाने की आशंका से त्रस्त हैं। उन लोगों के विरोध को देखकर माँ ने उन्हें अपने घर से निकाल देने का विचार बनाया है। अरुण भैया, तुम उन निराश्रित एवं अभाव-पीड़ितों को सिर छिपाने के लिए अपना थोडा़-सा स्थान दे दो।”

अरुण बोला, “मंजूर है, किन्तु उन्हें कहाँ स्थान दिलाना चाहती हो?”

“यह मैं क्या बताऊं? मैं तो केवल इतना जानती हूँ कि तुम्हारे सिवाय मेरा अपना कहलाने वाला दूसरा कोई नहीं।”

थोड़ा सोचकर अरुण बोला, “मेरा उड़िया माली अपने घर गया है। क्या उसकी कोठरी में इनका गुजर-बसर हो सकेगा?”

बिना कुछ उत्तर दिये संध्या ने सिर झुकाकर “क्यों नहीं” का संकेत दिया।

अरुण बोला, “तो ठीक, उन्हें भेज देना, कोठरी खोल दूंगा। माली के आने पर देख लिया जायेगा।”

संध्या चुप रहकर अनपे को संभालने का प्रयास करने लगी। फिर धीरे-से बोली, “इस समय मेरे मुँह में पान नहीं। हाथ-मुँह भी धोकर आयी हूँ। क्या थें प्रणाम करके तुम्हारी चरणरज ले सकती हूँ?”

कहती हुई संध्या घुटने टेककर अरुण को प्रणाम किया और उसके पैरों की धूलि को सिर पर रखा। इसके बाद बाहर निकली संध्या देखते-ही-देखते अदृश्य हो गयी।

अरुण ने संध्या को वापस बुलाने अथवा उससे कुछ पूछने की कोई चेष्टा नहीं की। उसे अदृश्य होने तक वह टकटकी लगाकर उसे देखता रहा।

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :

देवदास ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बिराज बहू ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

बड़ी दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

मझली दीदी ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय 

 

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