चैप्टर 3 ब्राह्मण की बेटी : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 3 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 3 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 3 Brahman Ki Beti Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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जगद्धात्री और संध्या के सामने रासमणि जिस गोलोक चटर्जी की प्रशंसा के गीत गाते थकती न थी और जिसे साक्षात धर्मावतार और न्यायमूर्ति बताने में गौरव का अनुभव कर रही थी, वह प्रातःकालीन पूजा-पाठ से निबटकर बैठक में आ गये हैं और नौकर द्वारा रखे हुक्के को गु़ड़गु़ड़ा रहे हैं। आँख मीचकर तमाखू पीते तोंदिल बाबू ने भीतर द्वारा के खुलने की आवाज सुनी, तो बोले, “कौन?”

ओट मे खड़ी महिला बोली, “बिना खाये-पिये क्यो चले आये हो? क्या मेरी किसी गलती पर रुष्ट हो?”

गोलोक बोले, “क्रोध और अभिमान के दिन तो तुम्हारी दीदी के जाने के साथ लद गये। अब मुझे किसी पर क्रोध करने का अधिकार ही कहाँ हैं?”

इसी के साथ गहरी-लंबी सांस छोड़कर वह बोले, “अच्छा, गोकुल भगवान के तिरोभाव का दिन है, अतः प्रातः उपवास करके सायंकाल को ही मेरा खाना-पीना होगा। शाम को भी थोड़ा-सा गंगाजल और दूध के सिवाय कुछ नहीं ले सकूंगा। इस तरह भगवान के ध्यान में दिन कट जाने में ही मैं अपने जीवन की सार्थकता मानता हूँ।”

ओट में खड़ी होकर बात करती स्त्री ने द्वार खोलकर निश्चित कर लिया कि कमरे में कोई तीसरा नहीं है। बेखटके भीतर चली आयी। यह स्त्री विधवा है, किन्तु इसकी आयु अधिक नहीं है और देखने में भी सुंदर एवं आकर्षक है। चौबीस-पच्चीस साल की इस युवती ने सफेद रेशमी धोती पहन रखी है। इसने हाथों मे कंगन नहीं पहन है, किन्तु गले में सोने का हार पहन रखा है, जिसके पेण्डुलम में इसके इष्टदेव की मूर्ति है। यह स्त्री मुस्कराकर गोलोक से बोली, “आपको तो सदैव मजाक सुझता है, किन्तु आपको यह तो सोचना चाहिए कि लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे? मुझे अब सदा के लिए यहाँ तो रहना नहीं है। जिसकी सेवा के लिए आयी थी, उसे तो भगवान ने अपने पास बुला लिया, अब मुझे अपने बूढ़े सास-ससुर की सेवा भी तो करनी है, इसके लिए अपने गाँव लौटना है।”

गोलोक हुक्का। गुड़ग़ुड़ाते हुए गंभीर स्वर में बोले, “अपनी घर गृहस्थी के लिए रिश्ते-नाते की किसी को बलपूर्वक रोककर नहीं रखा जा सकता है। यदि अपना भाग्य ही फूटा न होता, असमय में गृहलक्ष्मी ही क्यों दगा दे जाती? मधुसूदन, मधुसूदन! ठीक है, जाना चाहती है, तो चली जाना। बहिन की सेवा तुमने जी-जान से की है, इसके लिए तुम गाँव में दृष्टान्त स्थापित कर चली हो।”

ज्ञानदा चुप रही और गोलोक ने धोती के पल्लू से अपनी आँखें पोंछी और फिर वह चुपचाप हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। थोडी़ देर बाद वह गंभीर स्वर में बोले, “सती लक्ष्मी, इतने दिन लेकर आयी थी, सो चली गयी, उसके लिए दुःख करना व्यर्थ है, किन्तु मेरी घर-गृहस्थी तो उजड़ गयी। सारी लड़कियां अपने ससुराल में अपना घर संभाल रही हैं, उनका मुझे कोई चिंता नहीं, किन्तु चिंता है, तो इस छोटे बच्चे की है। यह बिना माँ का लड़का कैसे जी पायेगा? इसे कौन संभालेगा? केवल इसी की चिंता है।”

रुंधे गले से ज्ञानदा बोली, “आप इतना अधिक घबराते क्यों है? इसकी भी कोई व्यवस्था हो जायेगी।”

उदास और बुझे स्वर में गोलोक ने कहा, “यही तो नहीं हो रहा। मधुसूदन, तुम्हारा सहारा है। अब मेरा मन न तो घर-गृहस्थी में और न ही जमींदारी में रमता है। सब कुछ विष-सा लगता है। जितने दिन जीना पड़े, व्रत-उपवास और भोजन-पूजन में बीते-यही एकमात्र इच्छा है। एक समय मुट्ठी-भर भात मिल जाये, तो ठीक, न मिले, तो ठीक, किन्तु उस नन्हें का ध्यान आते ही प्राणों पर बन आती है। मधुसूदन! तुम्हारा ही भरोसा है।”

ज्ञानदा की आँखे भी अश्रुपूर्ण ही उठी। गोलोक की स्त्री उसकी ममेरी बहिन होने पर भी सगी-बहिन-जैसी थी। दोनों में गहरा अनुराग था। इसीलिए अपनी असाध्य बीमारी में उसने ज्ञानदा को अपने पास बुलाया था और ज्ञानदा भी काम छोड़कर भागी चली आयी थी। रुग्णा की सेवा में उसने दिन-रात एक कर दिया था। किन्तु उसे बचा न सकी। जाते समय लक्ष्मी अपने दस साल के बेटे को अपनी इस बहिन की गोद में डाल गयी।

रुंधे गले से ज्ञानदा बोली, “मेरा यहाँ सदा के लिए रहना तो नहीं सकेगा। लोग-बाग क्या कहेंगे, जरा यह भी तो सोचिये।”

“इस गाँव में किसी को तुम्हारे विषय में मुंह खोलने की हिम्मत होगी, तो कोई कुछ कहेगा।” इससे अधिक भला यहा कहते और किसी प्रकार ज्ञानदा को आश्वस्त करते? स्वयं ज्ञानदा भी इस गाँ मे गोलोक के प्रभाव से भली प्रकार परिचित थी।

गोलोक बोले, “इस गाँव किसी आदमी द्वारा मेरी आलोचना करने का अर्थ होगा-अपना राशन-पानी समाप्त समझना। अतः यहाँ के लोगों द्वारा कुछ कहे जाने के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं। तुम्हारी बहिन तुम्हें बहुत चाहती थी, इसका प्रमाण यह है कि मरेत समय यह अपनी संतान तुम्हे सौंप गयी। मुझे भी तो सौंप सकती थी।”

अपने आंसुओं को बलपूर्वक रोकती हुई ज्ञानदा बोली, “जीजा जी, यह सब तो ठीक है, किन्तु आप भी तो देखिये कि मेरे बूढ़े सास-ससुर जीवित है और मेरे सिवाय उनकी सेवा करने वाला दूसरा कोई नहीं हैं।”

ज्ञानदा को कथन को महत्व ने देते हुए गोलोक ने बड़ी उपेक्षा से कहा, “अरी, तेरह साल में विधवा हुई, पति को अपनी आँखो से देखा तक नहीं और फिर वह जीवित भी नहीं, फिर भी उसके माँ-बाप के प्रति अपने कर्तव्य की दुहाई देती हो। काहे का तुम्हारा कर्तव्य? छोड़ो इस बेकार की बात को।”

“जीजा जी, पति न रहने पर जीते-जी उनके माता-पिता की सेवा के कर्तव्य से मुक्त तो नहीं हो जाती।”

कुछ देर तक चुप रहने के बाद गंभीर स्वर में गोलोक बोले, “तो फिर ठीक है, हमें भगवान के भरोसे छोड़कर चली जाओ, किन्तु छोटी मालकिन, एक बात मत भूलना।”

“छोटी मालकिन!” संबोधन पर नाराजगी प्रकट करती हुई ज्ञानदा बोली, “जीजा जी, क्यों आप मेरी खिल्ली उड़वाने पर तुले हुए हो? लगा सुनकर मुस्कराते हैं। क्या आप मुझे मेरे नाम से नहीं पुकार सकते?”

“ठीक है नाम लेकर पुकारूंगा।”

यह कहते हुए गोलोक के उज्जवल चेहरे पर विषाद की काली छाया धिर आयी। एक लंबी आह भरकर अपने को सुनाते हुए-से धीमी आवाज में गोलोक बोले, “जिसकी छाती दिन-रात प्रचण्ड धधक रही हो, क्या वह कभी किसी से मजाक कर सकता है? मेरे सबंध में हंसी-मजाक की बात करना, तो मुझ पर मिथ्या आरोप लगाना होगा। फिर भी, कभी-कभी, खैर जाने दो, किसी को नाराज करने का क्या लाभ हैं? आज तक, जब किसी को भी अप्रसन्न करने से बचता रहा हूँ, तो आज फिर ऐसी मूर्खता किसलिए? मैं जानता हूँ कि जीवन कांटों पर चलना है, विषय-भोगों का परिणाम भंयकर है, संसार भी तो दुःखों का घर है। प्रभो, मधुसूदन, मुझे कब अपने चरणों में स्थान दोगे? कब कष्टों से मुक्ति दिलाओगे?”

बिलखती और आँसू बहाती ज्ञानदा चुपचाप देखती रही।

गोलोक बोल, “देखो छोटी मालकिन, लड़की वाले पीछे पड़े हैं, उनका तर्क भी सही है कि दस साल का बच्चा बिना माँ के कैसे पलेगा? फिर मेरा शेष जीवन भी बिना गृहस्वामिनी कैसा कटेगा? बाल सफेद अवश्य हो गये है, किन्तु ये मेरी आयु बड़ी होने के सूचक नहीं, अपितु दुःख-शोक की अधिकता के ही सूचक है, इसलिए असमय में ही सफेद हो गये हैं। फिर भी, मुझे दोबारा बंधन में पड़ना अच्छा नहीं लगता, किन्तु बिना इसके निर्वाह भी तो नहीं। मेरे लिए एक ओर खाई है, तो दूसरी और कुंआ है।”

उदास चेहरे से नकली हंस हंसती हुई ज्ञानदा बोली, “इसमे सोचना-विचारने की क्या बात है, विवाह कर ही लीजिये।”

“अरी, तुम क्या कहती हो, इस आयु में विवाह कर लूं? तुम-जैसी लक्ष्मी के रहते क्या मैं इस बारे में सोच भी सकता हूँ? हाँ, एक बात है, साली को बिना कोई नाम दिये सदा के लिए घर में रखा भी नहीं जा सकता। तुम्हारी बहिन तो तुम्हे अपनी इच्छा बता ही गयी है। तुम उसके वचन का मान रख लो।”

किसी को भीतर झांकते देखकर गोलोक ने पूछा, “कौन है?”

नौकर ने सूचित किया, “चोंगदरा साहब आये हैं।”

मुंह बिगाड़कर गोलोक ने कहा, “अब काम-धंधे में मन कहा लगता है। दिन-रात काम, पैसा, बहुत हो लिया, मैं किसे अपनी छाती फाड़कर दिखाऊं कि कैसी प्रचण्ड ज्वाला धधक रही है। मधुसूदन! कब इस झंझट से मुक्त करोगे।” फिर नौकर की ओर उन्मुख होकर वह बोले, “खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है? जा, उसे भीतर आने को कहा।”

ज्ञानदा उठ खड़ी हुई और जाने से पहले पूछने लगी, “तो क्या सचमुच कुछ नहीं खाओगे?”

ज्ञानदा बोली, “पर्व है, तो क्या हुआ? थोड़ा-सा दूध, फल और गंगाजल लेने में कोई दोष नहीं। आप जल्दी से आइये, मैं सब कुछ तैयार करती हूँ।” कहती हुई ज्ञानदा दरवाजा बंद कर चली गयी।

इधर नौकर के पीछे एक शरीफ आदमी सामने के द्वार से कमरे में प्रविष्ट हुआ। गोलोक ने हँसकर उसका स्वागत किया और उसे अपने पास बिठाया। नौकर को आदेश किया, “भोलू, शूद्रों वाला हुक्का तैयार करके इनके आगे पेश कर।”

गोलोक के चरण-स्पर्श करके लंबी सांस छोड़ता हुआ विष्णु चोंगदार बोला, “बड़े बाबू, क्या पूछते हो, सांस लेने की फुर्सत नहीं। बड़ा भारी झंझट है, फिर भी पाँच सौ और तीन सौ की दो खेपें तो किसी तरह भिजवा दी हैं।”

दक्षिणी अफ्रीका में सेना की खुराक के लिए भेड़-बकरियों की आपूर्ति में यह चोंगदार मुखर्जी बाबू का हिस्सेदार है। ठेके की शर्त के अनुसार इन्हें तीन हजार पशु भेजने हैं। अतः आठ सौ संख्या सुनकर गोलोक चिंतित हो उठे और बोले, “तीन हजार ठेका और कुल आठ सौ की आपूर्ति! कैसी बात करते हो?”

चिंतित स्वर में चोंगदार बोला, “बाबू साहब! भेड़-बकरियां मिलती ही नहीं, तो क्या किया जाये? आठ-सौ को जुटाने में भी नाक में दम आ गया। हाँ, रामपुर में हरेन ने पाँच-सात दिन में लगभग सौ पशु रेल से भेजने का विश्वास दिलाया है। हमें तो सिर्फ रेलगाड़ी से पशुओं को उतारना है और जहाज पर चढ़ाना है। तीन महीने का समय मिला हुआ है। अतः अभी से काहे की चिंता? सब ठीक हो जायेगा।”

आश्वस्त होकर गोलोक ने कहा, “बंधु, मझे तो तुम्हारा ही भरोसा है। मेरी अवस्था तो अब तुम जानते ही हो। मैं तो गृहस्थ होते हुए भी एक प्रकार से सन्यासी हूँ। तुम्हारी भाभी के चले जाने के बाद रुपये-पैसे में मोह ही नहीं रहा। मैं तो केवल उस अबोध बालत के लिए जी रहा हूँ।”

चोंगदार बोला, “यह सब तो स्वाभाविक है। इस बार रुपया तो अहमद कमायेगा। ससुरे को सात सौ का ठेका मिला है। वह और भी बड़ा ठेका ले सकता था, किन्तु रुपये का जुगाड़ नहीं कर सका।”

“धीमे-से गोलोक ने पूछा, “क्या उसे भैंसों का ठेका मिला है?”

“हाँ, और क्या? भेड़-बकरियों का सौदा होता, तो क्या मैं हाथ से जाने देता?”

मुंह पर हाथ रखकर, राम-राम, शिव-शिव कहते हुए गोलोक ने कहा, “सुबह-सबह ऐसी चर्चा ठीक नहीं। वह म्लेच्छ है, धर्म-अधर्म कुछ भी नहीं जानता, कमाने दो। क्या दस हजार कमा लेगा?”

“इससे कही ज्यादा। यदि लंबी खिंच गयी. तो लाला के वारे-न्यारे हो जायेंगे।”

गोलोक ने कहा, “उसे लगाना भी तो बहुत पड़ेगा? लगता है कि ठेके के दस्तावेज दिखाकर किसी लाला से कर्ज ले लेगा।”

चोंगदार बोला, “होने को तो सब हो सकता है। मुझसे तो कह भी रहा था…।”

जानने के उत्सुक गोलोक ने पूछा, “कितना रुपया मांग रहा था? क्या सूद के बारे में भी उसने कुछ बताया था?”

चोंगदार बोला, “चार पैसा तो निश्चित है, शायद इससे अधिक भी…।”

गोलोक बिड़ाकर बोला, “खुद तो एक के दो करेगा और सूद इतना थोड़ा देगा?” हाँ, यदि वह दस आना और छः आना (आज की भाषा में साठ प्रतिशत और चालीस प्रतिशत) की साझेदारी पर काम करना चाहे, तो उसे मेरे पास आने को कह देना।”

आशंकित चोगदार बोला, “क्या आप रुपया देंगे? यदि राज खुल गया तो…।”

गोलोक एकदम सावधान हो गया। संभलकर बोला, “मधुसूदन, रक्षा करो। मैं भी कहां बहक गया था? मैं रुपया क्यों देने लगा? उसने मांगे, तो भी मना कर दूंगा। राज खुलने वाली बात की चिंता भी मत करो। उसके और तुम्हारे सिवाय किसी को भी भनक क्यो पड़ने लगी? अच्छा, एक बात सोचो, बनिये से उधार लेकर कोई लड़की का ब्याह रचाये, मामला-मुकदमा करे या रण्डी नचाये, इससे लाला को क्या करना है? उसे तो केवल अपने रुपया लेके से ही गरज है, इसलिए सोचता हूँ कि मैं उस रुपया नहीं दूंगा, तो कोई दूसरा दे देगा। किसी का काम तो रुकता नहीं है।”

चोंगदार के मन के भाव को भांपने के लिए कुछ देर तक उसे चेहरे को ताकने के बाद गोलोक मुखर्जी बोले, “मैं रुपया देने की बात नहीं कर रहा था। मैं तो एक साधारण प्रचलन की बात कर रहा था। वस्तुतः महाजन को भी आसामियों की आवश्यकता पड़ती है। मेरे बारे में तो तुम प्रारंभ से जानते ही हो कि ब्राह्मण का बेटा अपने धर्म-कर्म, सिद्धान्त और न्याय आदि के विषय में कितना दृढ़ है। अधर्म के लाख रुपये पर बी मेरी दृष्टि ही नहीं पड़ती। भगवान मधुसूदन पर आस्था रखने के कारण ही आज मैं पाँच-पाँच गाँव का अधिष्ठाता हूँ। एक ही वाक्य ब्राह्मण को शूद्र और शूद्र को ब्राह्मण बनाने का सामर्थ्य रखता हूँ। मधुसूदन, तुम्हारा ही भरोसा है, एक बार जब बीमार पड़ा था, तब डॉक्टर जयगोपाल के सोडावाटर पीने के सुझाव को ठुकराते हुए मैंने साफ कहा था, मरने से डरकर जीवित रहने के लिए गोलोक अधर्म-मार्ग पर कभी भूलकर भी पैर नहीं रखेगा। मैं उन केनाराम का बेटा और हरराम मुखर्जी का धेवता हूँ, जिनके चरणोदक को पीने के लिए भण्डार हाटी के राजा को पालकी और सेवक भेजने पड़ते थे।”

प्रणाम करके उठ खड़ा हुआ चोंगदार बोला, “इसमें क्या संदेह है? आपकी कुलीनता और आचारनिष्ठा के तो संसार में डंके बजते हैं।”

प्रसन्न हुआ गोलोक लंबी सांस लेकर बोला, “मधुसूदन, तेरा ही भरोसा है।”

जाते हुए चोंगदार को अपने पास बुलाकर गोलोक ने उसे अपने समीप बुलाकर धीरे-से कहा, “हाँ, हरेन से रेलवे की रसीद मांग लेना।”

स्वीकृति में सिर हिलाकर चोंगदार बोला, “जी, हुजूर!”

गोलोक बोला, “पाँच सौ, जमा तीन सौ, जमा पाँच सौ कुल मिलाकर हुए तेरह सौ और शेष रहे सत्रह सौ। बची अवधि में सप्लाई हो जायेगी न?”

गोलोक गोल, “इसीलिए तुम्हें मैंने पूरे पाँच हजार का ठेका लेने की सलाह दी थी, किन्तु तुम्हें अपने ऊपर भरोसा ही नहीं था।”

चोंगदार बोला, “यदि इतने पशु न जुटा पाता तो…।”

गोलोक ने विवाद करना ठीक न समझते हुए कहा, “चलो, जो सोचा, वही ठीक है। धर्म-मार्ग पर चलकर, तनाव लिए बिना जो मिले, उसे ही बहुत समझना चहिए। अधर्म से लाखों का मिलना भी गलत है। मधुसूदन, तेरा ही भरोसा है।”

चोंगदार के चले जाने पर ढ़ोगी मुखर्जी हुक्का गुड़गड़ाने लगे। इस बीच नौकरानी ने आवाज दी, “मौसी जी कब से प्रतीक्षा में बैठी हैं।”

“क्यों सद्दी, क्या काम है उसे मुझसे?”

नौकरानी बोली, “थोड़ा-सा जलपान कर लेते तो…।”

हुक्का छोड़कर उठते हुए गोलोक ने कहा, “तेरी मौसी ने भी नाक में दम कर रखा है। उसका हुकुम माने बिना निर्वाह नहीं।”

लम्बी सांस छोड़ते हुए वह बोले, “गृहस्थ रहते हुए साधना करना कितना कठिन है? मधुसूद, तुम्हीं मार्गदर्शन करो, तुम्हारा ही सहारा है।”

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शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास :

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