चैप्टर 11 कांच की चूड़ियाँ उपन्यास गुलशन नंदा | Chapter 11 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

Chapter 11 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

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Chapter 11 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

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सूरज की पहली किरण ने जब चंदन घाटी को छुआ, तो चिता के शोले बंसी के शरीर को राख बना रहे थे। गंगा चिता के पास मौन खड़ी उन अंगारों को देख रही थी, जिनकी गोद में उसका बापू ऐसी नींद सो रहा था, जिससे कभी कोई न बच पाया। गंगा की आंखों में आंसू सूख चुके थे। उसे लगा कि उसका शरीर भी राख का एक निर्जीव ढेर बन गया है, जिसमें न कोई विचार है न कोई भावना।

चिता के पास ही बैठे गांव के जाने पहचाने व्यक्ति और बहुत से मजदूर जीवन का यह अंतिम दृश्य देख रहे थे। इस दुर्घटना पर सबको हार्दिक खेद था। कुछ दूर हटकर मंगलू और प्रताप भी बैठे थे। मंगलू फूट-फूट कर रो रहा था। प्रताप गांव वालों के सम्मुख भीगी पलकों से बंसी के स्वामी भक्ति के गुण गा रहा था। वह कह रहा था कि बंसी की इस अकस्मात मृत्यु से उसका बांया हाथ अलग हो गया है। खेद था कि वह जीवन में उसके लिए कुछ न कर पाया, किंतु इस दुख की घड़ी में उसने बंसी से अनाथ बच्चों की सहायता करने का आश्वासन दिलाया। नाटकीय ढंग से उसने जेब से पांच सौ निकाले और एक ओर बैठी गंगा की झोली में डाल दिए। गंगा मौन और उदास बैठी रही। वह किसी पर अपने दुखी मन की व्यथा प्रकट न कर सकी। पास बैठे लोग प्रताप की इस दयालुता की प्रशंसा कर रहे थे। उन्हें क्या पता कि जिस मालिक को वह देवतास्वरूप समझ रहे हैं, उसी चांडाल के माथे पर बंसी की हत्या का पाप है। वही इन बच्चों को अनाथ बनाने का उत्तरदायी है। इस समय वह रोकर, दान देकर अपने पाप पर पर्दा डालना चाहता है, गरीब का मुँह बंद करना चाहता है। किंतु मूर्ख है वह, इस बात की भी क्या आवश्यकता है उसे? यदि वह अबला उसके पाप को प्रकट भी कर दे, तो भी उसका क्या बिगाड़ सकती है? क्या यह समाज उसकी सुनेगा? और सुनेगा तो क्या मान भी लेगा? और मान भी लेगा, तो क्या उसके सतीत्व को लौटा देगा? किसी ने उससे बदला लेने का साहस है?

धीरे-धीरे सब लोग चले गए। चिता के अंगारे राख होने लगे। किंतु गंगा अपने दुख प्रवाह में जाने कहाँ बह रही थी। वह अपने स्थान से तनिक नहीं हिली। उसे अत्यंत खेद था कि बापू की मृत्यु का कारण वही बनी। उसके उठ जाने पर इस संसार में ऐसा कौन था, जो उससे सहानुभूति करेगा। उसकी आँखों में दो आँसू उमड़ आये। उसने दृष्टि घुमा कर देखा, श्मशान घाट में वह अकेली ही थी। बापू की देह जल चुकी थी। काकी और रूपा मंदिर से निकल रही थी। उसे भी उनके संग स्नान के नदी पर जाना था। वह धीरे से अपने स्थान पर से उठी। एक दृष्टि जलती हुई चिता पर डाली और एक अपनी हथेली में पड़े नोटों की गड्डी पर। उसे विचार आया कि कैसा विचित्र संसार है। बापू तो जीवन भर एक एक पैसे को तरसता रहा और बेटी जरा सी देर में पांच सौ कमा कर ले आई। उसके होठों पर एक फीकी सी मुस्कान आई और नोटों की गड्डी जलती हुई चिता के शोलों की भेंट कर दी। सबेरे शामों में बदलते रहे और शामें रातों में। शरत और मंजू ने तो रो-रोकर मन का बोझ हल्का कर लिया, किंतु गंगा के मन पर धरा पत्थर हर दिन प्रतिदिन बोझिल ही होता चला गया। उसके सुहावने सपने अब नाग से बन कर उसे डसने लगे। गालों की लालिमा मटमैली सांझ के समान मंद पड़ गई। होठों की मधुर मुस्कान समाप्त हो गई। कोमल पंखुड़ियाँ मुरझाकर सूख गई। चौबेजी का ऋण, भाई-बहनों की देखरेख और जीवन की अनेकों जिम्मेदारियाँ, वह दिन-रात परिश्रम में व्यस्त रहने लगी। रूपा सखी के दुख से भली-भांति परिचित थी। वह लाख यत्न करती कि किसी प्रकार उसका मन लगाये रखे, पर गंगा थी कि चिंता के सागर में डूबी जाती थी। कुछ ही दिनों में फूल-सा खिला चेहरा ऐसा हो गया, मानो वर्षों से बीमार हो एक दिन। सवेरे ही वह गंगा के यहाँ गई और उसे चिंता में कोई देख कर बोली, “अपना नहीं, तो इन बच्चों का तो ध्यान रखो। तुम न मुस्कुराओगी, तो इन्हें कैसे हँसना आयेगा…आखिर जीवन तो चलाना ही है। ऐसे कब तक चलेगा?”

“रूपा! यह भी कोई बस की बात है?”

“क्यों नहीं? मन अपना मस्तिक अपना। इन पर इतना भी बस नहीं तो जीना क्या?”

“हां बहन वही सोचती हूँ। जब इन पर बस न चले, तो मर जाना ही भला।”

“पगली हो गई है तूतो…जो मुँह में आया कह दिया। अच्छा छोड़ एक शुभ सूचना है।”

“क्या?”

“कल शहर से मोहन भैया आ रहे हैं।”

मोहन का नाम सुनकर गंगा के हृदय के एक कोने में दबी कसक सी उठी और वह और उदास हो गई।

रूपा ने उसे प्रसन्न करने के लिए कहा, “वह तुम्हारे ही लिए आ रहे हैं। कुछ अपना ध्यान कर। कल से इस मुखड़े पर चिंता के बादल, यह उलझे हुए बाल, यह सिलवटों वाले वस्त्र, दुखियों वाली वेशभूषा न चलेगी।”

“अब यहाँ आकर क्या लेंगे…” गंगा ने सामने की दीवार की ओर देखते हुए कहा।

“कैसी बातें करती हो गंगा? जो हुआ, उसे भूल जाओ। मोहन भैया को अपने दुख सुख का साझेदार बना लो। कितनी ही चिंतायेंघट जायेंगी।”

“यह संभव नहीं रूपा। मैं किस मुँह से उनका सामना करूंगी। अब यह मैला आंचल..”

“बस…नाम ले लेना कभी उस बात का। सदा के लिए मिटा दे उसे मन से…”

“हाँ हाँ रूपा ठीक ही कहती है गंगा।” काकी जो अभी-अभी भीतर आई थी, उनकी अधूरी बात सुनकर बोली।

इस बात पर दोनों चौंक पड़ी। काकी ने स्नेह से गंगा को छाती से लगा लिया और बोली, “हर समय चिंता में डूबी रही, तो जीना दूभर हो जाएगा बेटी। चिंता को मिटा डालना ही पड़ेगा हृदय से। उठ घर में मन लगा, देख तो क्या दशा हो गई है इतने दिनों में…यह घड़े में पानी कितने दिनों का बासी भरा है। कभी तूने यह भी सोचा है कि तुझी से तो घर में प्रकाश है। तेरे ही बल पर यह दीवारें खड़ी है बेटी। धीरज धर।”

दूसरे दिन मोहन शहर से आ गया। गंगा को उसके सामने आने का साहस न हुआ। काकी ने उसे दो एक बार बुलवा भी भेजा, किंतु उसने किसी न किसी बहाने आने से इंकार कर दिया। मोहन से भेंट के विचार से ही उसका हृदय धड़कने लगा। इसी वजह से वह आज नदी भी नहीं गई थी कि कहीं अकस्मात ही मोहन से भेंट न हो जाये। मन की व्यग्रता को कम करने के लिए उसने घर की बिखरी चीजों को समेटना आरंभ कर दिया। तभी एकाएक मोहन भीतर आया और गंगा को खोया-खोया देखकर दबे पांव उसके निकट जा खड़ा हुआ। गंगा सहसा पलटी और मोहन को सामने देखकर आश्चर्य से बोली, “आप!”

“हाँ गंगा! बापू के बारे में सुन रहा न गया। बहुत दिन से आने की सोच रहा था, पर छुट्टी न मिल पाई। नई नई नौकरी जो ठहरी…इसलिए…!”

गंगा चुपचाप खड़ी रही और मोहन उसके दुखी मन को शांति देने के लिए जाने क्या-क्या कहता रहा। गंगा का मन कहीं और ही था। वह सोच रही थी कि किस प्रकार अपना मुँह उसको दिखाये। यह पापी शरीर कैसे उसके पास ले आए…उसका हृदय बड़ी तीव्रता से धड़क रहा था और शरीर में कंपन था। मोहन की कोई बात उसने नहीं सुनी और आँखें धरती में गड़ाये देखती रही। मोहन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा। वह कांपकर रह गई और झट उससे अलग हो गई। वह क्षण भर उसे देखता रहा और फिर बढ़कर अब उसकी बांह पकड़ते बोला, “मैं आ गया हूँ गंगा। मुझे अपने दुख का संगी बना लो। अब मैं तुम्हें इस दशा में नहीं देख सकता।” यह कहते हुए उसके स्वर में एक दुख था, एक पीड़ा थी।

“नहीं मोहन नहीं! यह संभव नहीं!” वह सटपटाकर बोली और हाथ छुड़ाने का प्रयत्न करने लगी।

मोहन ने कसकर उसका हाथ थाम लिया और धीरे से सहलाते हुए बोला, “जान पड़ता है मेरी दी हुई कांच की चूड़ियाँ टूट गई।”

इस बात पर गंगा का चेहरा एकाएक फीका पड़ गया और घबराई दृष्टि से उसने मोहन को देखा।

 “घबराओ नहीं…चूड़ियाँ टूट सकती हैं…किंतु मेरा प्यार तो नहीं जा सकता। वह तो तुम्हारे मन में है…तुम्हारी आँखों में है…तुम्हारी लजीली दृष्टि मुझसे कुछ कहना चाहती है। यह होंठ शायद साथ नहीं दे पा रहे।“

“अब मैं तुम्हें क्या बताऊं?” वह तड़प उठी।

“तुम्हें यही चिंता है न कि शरत और मंजू का क्या होगा। इस घर का क्या होगा…वह तुम मुझ पर रहने दो। विश्वास रखो, इन दोनों को अपने बच्चों के समान रखूंगा…बस, अब तो मुस्कुरा दो।”

“नहीं नहीं नहीं…” गंगा बलपूर्वक हाथ छुड़ाकर अपने कमरे की ओर भागी। इससे पूर्व कि मोहन वहाँ पहुँचता, गंगा ने भीतर से किवाड़ बंद कर लिए। जब बहुत खटखटाने पर भी उसे भीतर की सटकनी न खोली, तो मोहन किवाड़ के साथ लगकर बोला, “तुम भले ही इन किवाड़ों को बंद कर लो…किंतु मन के किवाड़ भी मुझसे बंद कर लो…यह तुम्हारे लिए संभव नहीं। तुम सामने आए या न आओ, पर मेरा यह फैसला सुन लो कि मैं अब गाँव से अकेला नहीं जाऊंगा, तुम भी मेरे संग चलोगी…मैं तुमसे ब्याह करने आया हूँ गंगा।”

मोहन अपना निर्णय सुनाकर लेट गया। गंगा ने फिर भी किवाड़ न खोले और फूट-फूट कर रोने लगी…उसकी बुद्धि कुछ काम न कर पा रही थी।

उसी रात जब वह शरत और मंजू को सुलाकर अपने विचारों में खोई बैठी थी, तो रूपा चुपके से आकर उसके कान में कहा, “माँ ने भैया की बात मान ली है। वह शहर जाने से पहले तुम्हें ब्याह कर ले जायेगा।

“नहीं रूपा…नहीं नहीं…” वह तड़प उठी।

“हाँ हाँ झूठ नहीं है उस गंगा। माँ ने तुम्हारे ब्याह का पूरा जिम्मा अपने ऊपर लिया है।“

“पर तू तो जानती है…यह ब्याह नहीं हो सकता।”

“क्यों?”

“उस लड़की से कौन ब्याह करेगा, जिसके आंचल पर पाप का धब्बा लग चुका हो।”

“उसे क्या पता इस अत्याचार का।”

“पर मैं तो जानती हूँ…और इस बात को अपने प्रीतम से छुपाकर उसे धोखा दूं…मन इस पाप की आज्ञा नहीं देता।“

“पगली न बन…भूल जा इस बात को…इसे हृदय की गहराइयों में ही दबा रहने दे और जो खुशी सामने है, उसे गले लगा।”

“जब मन पर ही बोझ रहेगा, तो हर प्रसन्नता अंधकार बन जायेगी।”

“नहीं गंगा! तू पुरुषों को नहीं समझती। वह मेरा भैया हो या कोई और व्यक्ति, वह जितने बाहर से साहसी दिखते हैं, भीतर से उतने की कायर भी हैं। डरती हूँ, यदि मोहन भाई यह जान गए कि तुम पर क्या बीती है, तो कौन उनका प्यार डगमगा न जाये। वह तुम्हारे अपने होते हुए भी पराए न बन जाये। मन को हल्का करते-करते कहीं जीवन को नष्ट न कर लेना।“

रूपा की बातों में सच्चाई थी। वह अपनी सखी का भला चाहती थी। उसकी खुशियों के लिए उसी से प्रार्थना कर रही थी। उसने अपने प्यार की सौगंध खिलाकर उसे वचन ले दिया कि वह इस रहस्य को सदा के लिए भूल जाएगी। गंगा ने से गले लगा लिया और सिसकियाँ भरने लगी।

रूपा चली गई और गंगा कुछ निश्चय न कर पाई। अपने पाप का बोझ छिपाकर वह अपने प्रियतम के प्रेम को कलंकित न करना चाहती थी। थोड़ी देर तक वह असमंजस में डूबी रही थी। उसने उठकर बत्ती को ऊँचा किया। कुछ सोचकर पास खड़ी मंजू की कॉपी से कागज निकाला और उस पर अपने पिता की गाथा लिख दी। ऐसा करते समय उसे यूं अनुभव हुआ मानो मन का बोझ हल्का हो गया हो।

गंगा ने कागज को लपेटा और धीरे से नंगे पांव बाहर आंगन में आई। आकाश पर हल्के-हल्के बादल छाए हुए थे। बादलों से छनकर आती फीकी चांदनी में सब ओर सन्नाटा छाया हुआ था। क्षण भर के लिए उसने चारों ओर दृष्टि घुमाई और फिर मन को कड़ा करके छत पर चली आई।

रूपा के घर की छत गंगा के घर की छत से मिली हुई थी। रूपा के घर के ऊपर वाले कमरे में अभी तक प्रकाश था। शायद वह अभी तक जाग रहा था। यह कुछ ही पल का गंगा कोसों दूर लग रहा था।

उसने साहस बटोरा और द्वार फांद कर उस खिड़की के पास आ ठहरी, जिसमें से प्रकाश छन कर बाहर आ रहा था। घबराई दृष्टि से वह भीतर झांकने लगी।

मोहन बिस्तर पर कोई पुस्तक पढ़ते-पढ़ते सो गया था। अभी तक उसका चेहरा पुस्तक में ढका हुआ था। गंगा ने घबराई हुई दृष्टि से कमरे को नापा और पास होकर हाथ भीतर बढ़ाया। जिस पत्र में उसने हृदय के छिपे गहरे रहस्य को छुपाया था, उसे वह मोहन तक पहुँचा देना चाहती थी।

अचानक आहट हुई और उसने घबराकर अपना हाथ खींच लिया। मोहन हड़बड़ाकर उठा और पुकारा, “कौन?”

गंगा तेजी के साथ दीवार से चिपक गई। उसका हृदय घायल पंछी के समान फड़फड़ा रहा था। शीघ्रता में मेज पर फेंका हुआ पत्र शायद नीचे गिर पड़ा। वह बिस्तर से उठकर खिड़की के पास चला आया। तब तक गंगा सरक कर अपनी छत पर पहुँच चुकी थी। मोहनी एक दृष्टि उस दिन की हुई छाया को देखा। उसे विचार भी आया कि शायद यह गंगा हो, किंतु फिर कुछ सोच कर बिस्तर पर आ लेटा और सो गया।

गंगा पुरु रात सो न सकी। ज्यों ज्यों रात बीतती  गई, उसकी व्याकुलता बढ़ती गई। उसकी दृष्टि घर की पुरानी छत को निहारती रही। अपने ही विचार कई रूप धारण करके उसे सताते रहे। वह सोच रही थी कि मोहन ने वह पत्र साथ पढ़ लिया होगा। उसका रहस्य जान लेने पर जाने उसका उसके प्रति क्या व्यवहार होगा। उसने अपने हाथों प्यार का गला दबोच दिया था, स्वयं वह अपने विनाश की ओर जाने लगी थी। उसे इस विनाश से बचने का कोई उपाय दिखाई न दे रहा था।

सुबह में अंधेरे की वह मंदिर में चली गई। शायद प्रकाश से उसे डर लगने लगा था। उसमें किसी का सामना करने का साहस न था। मंदिर में आते ही वहभगवान के चरणों में गिर पड़ी और प्रार्थना करने लगी, “हे शक्तिमान! मुझे मनोबल प्रदान करो कि मैं इस कड़ी आपत्ति का सामना कर सकूं। मुझे शांति दी।” तभी छत से लटके घड़ियाल की ध्वनि मंदिर की दीवारों में गूंज उठी और दूसरे ही क्षण मोहन का हाथ गंगा के हाथ पर था।

“भगवान इसे अकेले नहीं…हम दोनों को शक्ति और शांति दो।”

क्षण भर के लिए गंगा की सांस मानो रुक गई। उसने सिर उठाया, पर मोहन से दृष्टि मिलाते हुए लजा गई। उसने अपना हाथ खींचते का प्रयत्न किया, पर मोहन ने उसे अलग होने का अवसर न दिया और मुस्कुराते हुए बोला, “गंगा, अब तुम्हारे मन का भाव मेरे हृदय की धड़कन बन चुका है। अब हम दो नहीं एक हैं। अब तो भगवान से एक ही प्रार्थना है कि वह अब तुम्हारे जीवन खवैया को एक ऐसी शक्ति दे कि यह नाव डगमगाए नहीं।”

गंगा की आँखों से प्रसन्नता के आँसू छलकने लगे। न जाने मन ही मन वह शंका के किस का अंधकार में खो रही थी। उसने सोचा था कि पत्र को पढ़कर मोहन शायद बिना उसे मिले ही लौट जाएगा। किंतु अब अपने हाथ को प्रीतम के हाथ में पाकर वह अतीत की सब चिंताओं को भूल सी गई। एकाएक भाग ने पलटा खाया और उसकी आशा का बुझता हुआ दीपक जगमगा उठा। उसने मोहन से कुछ कहना चाहा, होंठ थरथराये, किंतु आवाज में साथ न दिया।

मोहन ने उसका हाथ ऊपर उठाया और उसकी आँखों में झांकते हुए बोला, “हाँ गंगा! वचन दो भगवान के सामने…वचन दो कि अब हम एक हैं…हमारे दुख सुख एक है…वचन दो कि तुम अपने प्यार से अतीत के दुखों को बिसरा दोगी और मेरे भविष्य का स्वर्ग बसाओगी।”

गंगा की आँखों में आँसू छलक उठे और उसने गर्दन झुका ली। तभी मूर्ति के सामने खड़े पुजारी ने शंख बजाया और मंदिर की कई घंटियाँ एक साथ बज उठी। आरती का समय हो गया था। वे दोनों भी हाथ जोड़कर खड़े हो गए।

न जाने क्यों आज शंख और घंटियों की ध्वनि में गंगा को शाहनायियों की आवाज सुनाई दे रही थी। उसे लग रहा था , जैसे अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों की खुशियाँ एक साथ निकट होकर प्रत्यक्ष हो गई हों।

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