चैप्टर 10 कांच की चूड़ियाँ उपन्यास गुलशन नंदा | Chapter 10 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

Chapter 10 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

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हरी भरी घास की खेती झूम रही थी। जहाँ तक दृष्टि जाती, मलमल सी बिछी दिखाई देती। रूपा खेत की मुंडेर पर भागती गंगा को खोज रही थी।

“गंगा, अरी ओ गंगा!” सखी को दूर से ही देख कर उसने पुकारा। निरंतर भागने से उसकी सांस फूल गई थी और बालों की लट सिर से गालों पर खिसक आई थी।

उसे यों तेजी से भागते देखा गंगा स्वयं दौड़ कर उसके पास आ गई और उसकी दशा देख कर बोली –

“क्या बात है? इतनी उतावली क्यों हो रही है?”

“मिठाई खिला। मोहन की चिट्ठी आई है।”

“ओह, मैं समझी तुम्हें कोई ससुराल से देखने आया है।”

“चल हट! एक तो हम मीलों दौड़ कर तुम्हारे प्रीतम्त का संदेश लाकर दें। तिस पर हमी से छेड़खानी!”

“रूठ गई लाडो। अच्छा बोल क्या लिखा है?”

“अगले महीने छुट्टी मिली, तो गाँव आयेगा…हमसे मिलने।”

“और क्या लिखा है?”

“तुम्हारे बाबू को राम-राम लिखी है।”

“और..?”

“मेरी गुड़िया के लिए शहर से गुड्डा लायेंगे।”

“बस…?”

“उस पत्र को दो-चार बार ऊपर से नीचे तक पढ़ा, किंतु तुम्हारा कहीं नाम नहीं।”

“पुरुष होते ही ऐसे हैं। ज़रा आँख से ओझल हुए, तो दिल से दूर हो बैठे।” गंगा यह कहकर काम पर लौटने लगी।

“अरे जाती कहाँ है…जानती है और क्या लिखा है?” रूपा ने पलट कर उसकी बांह पकड़ ली और होठों तले जीभ दबाते हुए बोली, “उंहूं…”

“इस बार को गुड्डा वह आ रहा है, वह मेरी गुड़िया के लिए नहीं, बल्कि मेरे लिए है…”

“मैं नहीं समझी…”

“मोहन भैया ने मेरे लिए एक लड़का देखा है।” रूपा ने लजा ते हुए कहा और दातों तले अंगूठा लेकर दूसरी ओर मुँह फेर कर खड़ी हो गई।

“ओह, कौन है वह?” गंगा चमककर बोली।

“कोई डॉक्टर है…उनका मित्र।”

“यह बात तुम्हारे भैया ने अच्छी की है कि तुम्हारे लिए एक डॉक्टर बाबू चुना है।”

“क्यों?”

“तुम्हारा दिमाग जो कभी-कभी खराब हो जाता है। उसकी दवा-दारू तो करता रहेगा।” गंगा ने उसे छेड़ा।

रूपा यों पलटी मानो रूठ गई हो। गंगा ने सामने आकर मुस्कुराकर उसकी ओर देखा। रूपा ने कंधे झटककर मुँह फेर लिया और गांव की ओर हो ली। गंगा ने आगे बढ़कर उसे रोक लिया और उससे लिपट गई। दोनों की हँसी एक साथ छूट गई। गंगा ने रूपा के पास मुँह ले जाकर धीमे स्वर में पूछा, “सच मेरे लिए कुछ नहीं लिखा तेरे भैया ने।”

“कलम से तो नहीं, जाने आँखों से बहुत कुछ लिखा है।”

रूपा के इस पहेली से उत्तर पर गंगा झेंप गई। रूपा ने कुछ देर रुककर लिफाफे से एक फोटो निकाली और मुस्कुराकर सखी के हाथ में दे दी। यह फोटो मोहन की थी। वास्तव में उसके मन की पूरी दशा आँखों द्वारा प्रकट कर दी थी।

रूपा के चले जाने के बाद गंगा वहीं खेत की मुंडेर पर बैठ गई और मन के मीत की तस्वीर को देखने लगी। उसके मन में एक गुदगुदी सी हुई। वह अपने मोहन के साथ एक सुनहरे भविष्य की कल्पना में खो गई – आने वाला जीवन कितना सुखद और मधुर होगा। एकाएक इसी विचार ने उसकी सुनहरी कल्पना को छिन्न-भिन्न कर दिया। उसे स्मरण हो आया कि उसका बाबू बीमार था और उसे काम के तुरंत बाद बापू की दवाई लेने शहर जाना था। आज की मजदूरी को मिलाकर उसके पास दस रुपये जमा हो जायेंगे, जिनसे वह बापू की दवाई ला सकेगी। यद्यपि बंसी इसके पक्ष में न था कि उस पर इतना व्यय किया जाये, फिर भी गंगा ने मन ही मन निश्चय कर दिया था कि वह स्वयं बापू का इलाज करके ही रहेगी। उसने मोहन की तस्वीर को एक बार फिर देखकर चोली में छुपा लिया और काम में लग गई।

जब वह दवाई लेकर शहर से लौटी, तो अंधेरा घिर आया था। आकाश पर छाई घटा ने वातावरण को कुछ डरावना सा बना दिया था। दूर तक सड़क पर कोई न था। बढ़ते हुए अंधेरे को देखकर उसके मन में भय ने स्थान बना लिया। उसके हृदय की धड़कन तेज हो गई। इस उजाड़ मार्ग से अधिक भय तो उसे बापू का लग रहा था। वह उसके लिए चिंतित होगा। देर भी तो बहुत हो गई है। वह मन ही मन बापू के क्रोध को कम करने के उपाय सोचने लगी। दवाई के अतिरिक्त वह उसके लिए तंबाकू और कुछ अन्य वस्तुयें भी ले आई थी। वह सोचने लगी कि जाते ही बापू के गले में बाहें डाल देगी। वह सस्नेह उससे कहेंगे, “गंगा, कितनी बार कहा है कि देर से न आया कर। जब तक तू घर नहीं आती। मेरा मन न जाने कैसी कैसी आशंका में डूबा रहता है।”

एकाएक मोटर के हॉर्न ने उसकी विचारधारा भंग कर दी। वह डरकर सड़क के किनारे हो गई। उसके पास से जीप गाड़ी गुजरी और कुछ दूर जाकर रुक गई। गंगा ने ध्यान से देखा, जीप प्रताप की थी।

गंगा ने चाहा कि वह चुपचाप आँख बचाकर आगे बढ़ जाए, क्योंकि वह उसका सामना न करना चाहती थी। किंतु प्रताप ने उसका नाम लेकर पुकारा और मुस्कुराकर बोला, “इतनी देर से कहाँ से आ रही हो?”

“शहर से…” सहमी हुई गंगा ने उत्तर दिया।

“शहर क्यों गई थी?”

“बापू बीमार हैं। दवा लाने गई थी।”

“इतनी दूर अकेले जाने की क्या आवश्यकता थी? हमें कहलवा दिया होता। किसी से मंगवा देते।” प्रताप के स्वर में सहानुभूति थी। गंगा मौन रही, परंतु उसकी इस दया को उसने आँखों ही आँखों में तौलने का एक विफल प्रयत्न किया। प्रताप मुस्कुराकर झट बोला –

“फिर कभी आवश्यकता हो, तो संकोच न करना। इस सड़क पर इस समय अकेले जाना खतरे से खाली नहीं। आओ तुम्हें गाँव तक पहुँचा दूं।”

“नहीं मालिक!”

“इसमें आपत्ति क्या है? शीघ्र ही घर पहुँच जाओगी। बंसी बिचारा चिंता कर रहा होगा।”

“यदि देर से पहुँची, तो केवल चिंता ही करेगा। परंतु इस गाड़ी में जाने से तो वह मेरा लहू पी जायेगा।”

“क्यों?”

“जब गरीब लालच में आकर किसी अमीर का उपहार स्वीकार कर लेता है, तो उसे पछताना पड़ता है, इसलिए।” यह कह कर गंगा चुपचाप आगे बढ़ गई।

गंगा के मुँह से ये बातें सुनकर प्रताप तड़प उठा। उसे यूं लगा कि गंगा ने उसके मनोभाव पढ़ लिये हों। क्रोध में उसने जीत स्टार्ट की और धूल उड़ाता आगे चला गया। उड़ती हुई धूल से बचने के लिए गंगा ने आंचल से मुँह ढांप लिया। शायद अमीरों के पास गरीबों को देने के लिए यह धूल ही है।

बड़ी शाम ढले तक गंगा घर न लौटी, तो बंसी व्याकुल हो उठा। वह रह-रह कर बिछौने पर करवटें बदलता और फिर मन को सांत्वना देने के लिए बच्चों को गली के नुक्कड़ पर भेज देता। जब मंजू ने आकर बापू को चंपा द्वारा ज्ञात संदेश दिया कि गंगा शहर गई है, तो वह क्रोध से लगभग पागल हो गया। उसे बेटी की असावधानी अच्छी नहीं लगी। उसे तो अपने बापू का जीवन चाहिए…पर पगली  यह नहीं जानती कि उसके बापू को अपने जीवन से अधिक अपनी बेटी की इज्जत प्यारी थी। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह उसका काम छुड़वा देगा। चाहे वह भीख ही क्यों न मांगे।

देर तक प्रतीक्षा ने उसके धैर्य के बांध तोड़ दिये। जब अंधेरा और बढ़ गया, तो वह बिछौने से उठ बैठा और बैसाखी का सहारा लेकर बाहर जाने लगा।

“कहाँ जा रहे हो बाबू?” मंजू ने पिता को बाहर जाते देखकर पूछा।

“कहीं नहीं! अभी आया तुम्हारे दीदी को देखकर।” बोझिल स्वर में वह बोला।

“किंतु बाबा! डॉक्टर ने चलना फिरना तो मना कर रखा है।” बंसी ने बात सुनी अनसुनी कर दी और फिर बैसाखी टेकता हुआ आंगन के बाहर आ गया। शरद चुपचाप खड़ा बापू को देख रहा था। वह झट से लालटेन उठा लाया और बापू को देखकर बोला, “बाहर अंधेरा है बाबू!”

बंसी ने लालटेन थाम ली और धीरे-धीरे बच्चों की आँखोंसे ओझल हो गया।

गंगा मन ही मन बातों का तालमेल बिठा रही थी, जो बापू के पास जाकर घर कहनी होगी। वह जानती थी कि घर पहुँचते ही बापू उस पर बरस पड़ेंगे, किंतु उनका ममतापूर्ण हृदय शीघ्र उसे क्षमा कर देगा। ज्यों-ज्यों विलंब होता जाता, उसकी चाल तेज होती जाती।

निर्जन सड़क को पार करके वह गाँवके निकट आ पहुँची थी। घाटी में बसे गाँव का धुंधला प्रकाश अब स्पष्ट नजर आने लगा था और उसके मन का भय कम हो चला था। गाँव के जलते दीपक उसके लिए आशा की किरण बन गए थे। सहसा इस नीरवता में अपना नाम सुनकर वह चौंकी। भय से उसके शरीर में सिहरन दौड़ गई। हाथ में लालटेन थामे कोई उसी की ओर बढ़ा आ रहा था। निकट आने पर गंगा ने उसे ध्यानपूर्वक देखा। यह मंगलू था, जिसका मुँह लालटेन की पीली रोशनी में बड़ा भयानक लग रहा था।

“गंगा! तेरा बापू…” अचानक रुक कर करुण आवाज में मंगलू ने गंगा को पुकारा।

“क्या हुआ बाबू को?”

“तुम्हें खोजने निकला था। अंधेरे में खड्ढे में जा गिरा।” वह लड़खड़ाई आवाज में बोला।

“कहाँ?” गंगा की चीख निकल गई और होंठ थरथरा कर रह गए। उसने सिर में पिटारी उतारकर वहीं रख दी और मंगलू के होठों को देखने लगी, जो अभी तक कांप रहे थे।

“वह तो भगवान ने सुन ली। मालकिन डोली में मंदिर से लौट रही थी। शोर सुना, तो डोली रोकने और बंसी काका को अपने घर लिवाकर ले गई…बंगले में!” मंगलू ने इस ढंग से बात कही, मानो उसे बंसी से अत्यधिक सहानुभूति हो। गंगा पिटारी को वहीं छोड़कर ‘बापू बापू’ चिल्लाती ठेकेदार के बंगले की ओर भागी। मंगलू भी हाथ में लालटेन थामे उसके पीछे-पीछे भागने लगा।

गंगा की आवाज घाटी में उसी समय गूंजी, जब बंसी उसकी खोज में बैसाखी टेकता गाँव की पगडंडी पर चला आ रहा था। दूर से बेटी की आवाज सुनकर वह घबरा गया और उसने अपनी चाल तेज कर दी। उसे बैसाखी के सहारे शीघ्र चलने का अभ्यास न था। हर पल पल लड़खड़ा कर गिरने लगता, फिर किसी प्रकार संभलकर आगे बढ़ जाता। उसे यूं लग रहा था, मानो गंगा किसी आपत्ती में फंसी उसे सहायता के लिए पुकार रही हो। दूर प्रताप के बंगले की ओर एक लालटेन भागी जा रही थी। धुंधले  प्रकाश में थोड़े फासले पर उसने दो परछाइयाँ सी देखी। बंसी का कलेजा धड़कने लगा। तेज चलने से उसकी सांस फूलने लगी।

यद्यपि उसने पूरी दम से बेटी का नाम लेकर पुकारा, किंतु बीमारी, दु:ख और बुढ़ापे ने उसे इतना दुर्बल बना दिया था कि वह आवाज केवल उसके अपने ही कानों तक सीमित रह गई। गंगा दूर जा चुकी थी, उस तक आवाज कहाँ पहुँच पाती। उसने अपनी गति और तेज कर दी।

इधर गंगा हांफती हुई प्रताप के बंगले में पहुँची। फाटक खुला था। उसने क्षण भर रुककर मंगलू के चेहरे को देखा, जहाँ धूल को पसीने ने छुपा लिया था। मंगलू ने रुककर छत के कोने के उस कमरे की ओर संकेत किया, जहाँ प्रकाश दिखाई दे रहा था। गंगा अधीर हुई झट बरामदा फर्लांग कर सीढ़ियाँ चढ़ गई; जहाँ कमरे का द्वार खुला हुआ था।

एकाएक देहरी पर पांव रखते ही वह डर से कांपकर रह गई। सामने प्रताप बैठा अपनी मूंछों को संवार रहा था। वह पलटी और बाहर भागने लगी। झट से पीछे से किसी ने किवाड़ बंद कर दिये। गंगा के पांव तले से धरती खिसक गई। उसने क्रोध से पलटकर प्रताप की ओर देखा। प्रताप हँस रहा था। साथ ही मेज़ पर शराब की बोतल और गिलास रखे थे। गंगा फिर पलटी और दोनों हाथों से किवाड़ को धकेलने का प्रयत्न करने लगी, पर बंद किवाड़ न खुले। उसकी व्यर्थ चीख-पुकार वहीं दबकर रह गई। घबराकर उसने कमरे की लंबी चौड़ी दीवारों को देखा। वह जाल में फंस चुकी थी। बाहर निकलने का कोई मार्ग न था। प्रताप ने पास रखी बोतल से गिलास में शराब उड़ेली और एक ही घूंट में पीकर लड़खड़ाता हुआ वह गंगा की ओर बढ़ा। सहमी हुई गंगा पीछे हटकर दीवार से चिपक कर खड़ी हो गई। प्रताप ने झूमते हुए आगे बढ़कर उसकी कलाई पकड़नी चाही। गंगा अलग होकर दूसरे सोफे से जा चिपकी। प्रताप एक शिकारी बाज के समान तेजी से उसकी ओर लपका और उसे लपेट में ले लिया। गंगा जोर से चिल्लाई, “मालकिन मालकिन…”

प्रताप सिंह भद्दी हँसी हँसकर रह गया और होठों को सिकोड़ते में बोला, “व्यर्थ चिल्लाने से क्या बनेगा… बन्नो! तुम्हारी मालकिन को तो शहर के लगभग महीना हो चला।”

“तभी धोखे से मुझे यहाँ ले आए हो।”

“और क्या करता? सीधी उंगलियों से जब घी न निकले, तो उन्हें टेढ़ा करना ही पड़ता है। तुम उस समय जीप में आती, तो अच्छा था…” यह कहकर प्रताप ने उसे अपनी ओर खींचना चाहा। गंगा ने जोर से अपने दांत उसकी कलाई में गाड़ दिये। प्रताप तड़पकर अलग हो गया, पर शीघ्र ही फिर एक शिकारी के समान उस पर झपटा। गंगा पीछे हटती गई और सामने की दीवार से जा लगी। प्रताप की पुतलियों में भयानक वासना नंगी नाच रही थी। उसने मेज पर रखी शराब की बोतल में से गिलास भरा और गटागट पीकर झूमते हुए बोला –

“अरे डरती क्यों हो हमसे गोरी! आओ न…” कहते हुए वह गिलास में थोड़ी शराब डालकर गंगा के निकट आया और गंगा के चेहरे पर झुकता बोला, “प्यारी!”

“कमीना, धूर्त, ब दमाश!” निर्बल की व्यवस्था ने गालियों का रूप धारण कर लिया।

प्रताप एक भद्दी हँसी हँसा और बदबूदार सांस गंगा के मुँह पर छोड़ते हुए बोला, “ऐसे न मानेगी तू!”

कुछ और बस न चला, तो गंगा ने उसके मुँह पर थूक दिया। प्रताप क्रोध में आपे से बाहर हो गया। उसने झट चेहरे को उसी के आंचल से पोंछा और गिलास में भरी शराब गंगा के चेहरे पर दे मारी। गंगा तिल मिलाकर दूसरी ओर भागी। तब प्रकाश ने पूरे बल से उसकी कलाई थाम ली। एक झन सी हुई और मोहन की पहनाई हुई कांच की चूड़ियाँ टुकड़े-टुकड़े होकर फर्श पर गिर गई। गंगा की कलाई घायल हो गई हो गई। वह चीखी, चिल्लाई, प्रार्थना की, पर उसकी हाहाकार कमरे की चार दिवारी में दबकर रह गई। प्रताप को बड़ी कठिनाई के बाद शिकार हाथ लगा था। वासना की आग आखेट की विवशता से और बढ़ती है। गंगा अजगर की लपेट में थी। उसे यूं लगा, मानो भगवान स्वयं शैतान से डरता है। तभी तो उसे मनमानी करने की खुलेआम छूट थी।

बाहर बरामदे में बैठा मंगलू अपने मालिक की अगली आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा था। गंगा के रोने बिलखने की आवाज व उसकी चीख पुकार उसके कानों में गूंज रही थी। उसके मस्तिष्क पर अबला के सतीत्व लुट ने का दृष्टि चलचित्र के समान चल रहा था। पाप की इस कल्पना से उसका मन घबराने लगा। इस विचार से छुटकारा पाने के लिए उसने चिलम के लंबे कश भीतर खींचे और सामने रखी लालटेन को देखने लगा, जिसकी बत्ती शायद अंतिम श्वास ले रही थी। ऐसे ही भीतर धीरे-धीरे गंगा की सिसकियां धीमी पड़ रही थी। एकाएक लालटेन भभकी, रोशनी तेज हुई और बुझ गई। चिमनी पर एक कालिमा जमी और तड़ाक से टूट गई। तभी एक कड़कती आवाज सुनाई दी, “मंगलू…!” मंगलोर कांप उठा, चिलम हाथ से छूटकर धरती पर जा गिरी और उसने गर्दन उठाकर देखा। बंसी फन उठाये अजगर के समान उसके सिर पर खड़ा पूछ रहा था –

“मंगलू गंगा कहाँ है?” यह कहते हुए क्रोध से बंसी कांप रहा था। बैसाखी को बगल में दबाए हुए उसने दोनों हाथों से मंगलू को दबोचना चाहा। मंगलू की आँखों तले अंधेरा छा गया। वह संभला और दूसरे ही क्षण भर बंसी की पकड़ से बाहर हो गया।

बंसी ने उस बंद द्वार को देखा, जिससे मध्यम प्रकाश छन कर बाहर आ रहा था। बड़ी कठिनाई से बैसाखी के सहारे अपने शरीर को घसीटते हुए वह सीढ़ियाँ चढ़कर उस द्वार के सामने खड़ा हो गया। सहसा धमाके के साथ किवाड़ खुला और गंगा बाहर निकली।

उलझे बाल, मसले हुए बेढंगे वस्त्र और मुख पर बेबसी, दुख और झुंझलाहट…बंसी के मुँह से चीख निकल गई और वह बैसाखी को वहीं छोड़ दोनों हाथों से अपनी बेटी को सहारा देने को बढ़ा, किंतु गंगा चिल्लाकर अलग हो गई, “मत छुओ बापू! मत छुओ…अब इस पापी शरीर को मत छुओ…” गंगा सीढ़ियों से नीचे उतर गई। बंसी उसे पुकारता ही रह गया, किंतु वहाँ रह गई केवल उसके स्वर की गूंज और गंगा देखते देखते रात के अंधेरों में लिप्त हो गई बंसी लौटा और क्रोध में पागल सा हुआ प्रताप के कमरे में खुले किवाड़ से भीतर चला आया। प्रताप शीशे के गिलास में मदिरा डाल रहा था। बंसी को देखते ही उसका नशा हिरन हो गया। क्रोध से बंसी की आँखों में लहू उतर आया था। उसने घृणापूर्वक अपने मालिक को देखा। उसकी दृष्टि विषाक्त हो रही थी। कालीन पर कांच के टुकड़े बिखरे हुए थे, जो कुछ देर पूर्व उसकी बेटी की कलाइयों की शोभा थे। अब सब कुछ लूट जाने का शोक मना रहे थे। बंसी को लगा कि मानो यह कांच के टुकड़े उसकी भोली-भाली बेटी की बिखरी हुई आकांक्षायें हों।

बंसी की आँखें आग उगल रही थी। उसने प्रताप को ऐसे देखा जैसे उसके प्राण ले लेगा।

“यूं घूर-घूर कर क्या देख रहा है?” प्रताप ने साहस स्थिर रखने के लिए मदिरा एक ही घूंट में गले के नीचे उतार ली।

बंसी तेजी से उसकी ओर झपटा। प्रताप पीछे हटकर फिर चिल्लाया, “अरे पागल हो गया क्या? तेरी गंगा चली गई…मैं उसे नहीं लाया…वह खुद आई थी…अरे कोई है…अरे मंगलू पकड़ो इसे…” प्रताप के हाथ पैर कांपने लगे और वह दीवार के सहारे उससे दूर खिसकने लगा।

बंसी दृढ़ निश्चय से उस पर झपटा और दूसरे ही क्षण उसके हाथ प्रताप की मोटी गर्दन पर थे। प्रताप की आँखें फटी की फटी रह गई। उसके शरीर में विरोध की वह शक्ति समाप्त हो चुकी थी। बंसी की उंगलियाँ उसके गले में फंसती चली जा रही थी। बंसी का घृणित स्वर और ऊँचा होता चला गया, “कमीने…कुत्ते…चांडाल…मैं आज तेरे प्राण लेकर  ही रहूंगा।”

बंसी का हृदय दुख, शोक और घृणा से जल रहा था। एकाएक आवेग में उसको हृदय का दौरा पड़ा। उसे लगा कि उसके मस्तिष्क की नसें फट रही हैं। उसके हाथ प्रताप की गर्दन पर ढीले पड़ने लगे और फिर वह अपने को संभाल न सका। दूसरे क्षण बंसी धरती पर गिर पड़ा।

प्रताप अब तक बुत बना दीवार के सहारे खड़ा एकटक उसे ही देखे जा रहा था। उसके संज्ञा हीन शरीर में कुछ गर्मी सी आने लगी। बंसी की आँखें खुली की खुली रह गई। उसका रक्तहीन मुख पीला पड़ गया। उसकी लड़खड़ाती जुबान से यह अंतिम शब्द निकले, “पापी तू बच गया…मेरी आह तुझे बर्बाद कर कर देगी…मेरी मासूम गंगा की बर्बादी का बदला इस घाटी पत्थर लेंगे…ये ही निर्जीव पत्थर लेंगे…” यह कहते-कहते बंसी की जुबान अकड़ गई, आँखें पथरा गई और लहू की काली सी लकीर उसके मुँह से निकलकर होंठों के बाहर आ गई।

प्रताप की पथराई आँखों के सामने यह सब हुआ और वह चुपचाप देखता रहा। बंसी की मृत्यु ने उसे शक्तिहीन कर दिया। वह भयभीत हो उठा। रह-रहकर उसके अंतिम शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे – “गंगा की बर्बादी का पता इस पार्टी के पत्थर लेंगे।”

ज्यों ज्यों बंसी की मृत्यु का समय बढ़ता गया, प्रताप के हृदय की धड़कन तेज होती गई। उसने आगे बढ़कर कांपते हाथों से मदिरा को गिलास में डालना चाहा, किंतु बोतल उसके हाथों से फर्श पर गिर के चूर-चूर हो गई और टूटी बोतल से बही शराब बंसी के मुख से निकले लहू में जा मिली।

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