होली का उपहार मुंशी प्रेमचंद की कहानी | Holi Ka Uphaar Munshi Premchand Ki Kahani

होली का उपहार मुंशी प्रेमचंद की कहानी (Holi Ka Uphaar Munshi Premchand Ki Kahani) Holi Ka Uphaar Story By Munshi Premchand 

Holi Ka Uphaar Munshi Premchand

Holi Ka Uphaar Munshi Premchand

(1)

मैकूलाल अमरकांत के घर शतरंज खेलने आये, तो देखा, वह कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रहे हैं। पूछा – “कहीं बाहर की तैयारी कर रहे हो क्या भाई? फ़ुर्सत हो, तो आओ, आज दो-चार बाजियाँ हो जाये।”

अमरकांत ने संदूक में आईना-कंघी रखते हुए कहा – “नहीं भाई, आज तो बिल्कुल फ़ुर्सत नहीं है। कल ज़रा ससुराल जा रहा हूँ। सामान-आमान ठीक कर रहा हूँ।”

मैकू – “तो आज ही से क्या तैयारी करने लगे? चार कदम तो हैं। शायद पहली बार जा रहे हो?”

अमर- “हाँ यार! अभी एक बार भी नहीं गया। मेरी इच्छा तो अभी जाने को न थी; पर ससुरजी आग्रह कर रहे हैं।”

मैकू – “तो कल शाम को उठना और चल देना। आधे घण्टे में तो पहुँच जाओगे।”

अमर – “मेरे हृदय में तो अभी से जाने कैसी धड़कन हो रही है। अभी तक तो कल्पना में पत्नी-मिलन का आनंद लेता था। अब वह कल्पना प्रत्यक्ष हुई जाती है। कल्पना सुंदर होती है, प्रत्यक्ष क्या होगा, कौन जाने।”

मैकू – “तो कोई सौगात ले ली है? खाली हाथ न जाना, नहीं तो मुँह ही सीधा न होगा।”

अमरकांत ने कोई सौगात न लिया था। इस कला में अभी अभ्यस्त न हुए थे।

मैकू बोला – “तो अब ले लो भले आदमी! पहली बार जा रहे हो, भला वह दिल में क्या कहेंगी?”

अमर – “तो क्या चीज ले जाऊं? मुझे तो इसका ख़याल ही नहीं आया। कोई ऐसी चीज़ बताओ, जो कम खर्च और बालानशीन हो; क्योंकि घर भी रुपये भेजने हैं, दादा ने रुपये मांगे हैं।”

मैकू माँ-बाप से अलग रहता था। व्यंग्य करके बोला – “जब दादा ने रुपये मांगे हैं, तो भला कैसे टाल सकते हो! दादा का रुपये मांगना कोई मामूली बात तो है नहीं?”

अमरकांत ने व्यंग्य न समझकर कहा – “हाँ इसी वजह से तो मैंने होली के लिए कपड़े भी नहीं बनवाये। मगर जब कोई सौगात ले जाना भी ज़रूरी है, तो कुछ-न-कुछ लेना ही पड़ेगा। हल्के दामों की कोई चीज़ बतलाओ।”

दोनों मित्रों में विचार-विनिमय होने लगा। विषय बड़े ही महत्व का था। उसी आधार पर भावी दांपत्य-जीवन सुखमय या इसके प्रतिकूल हो सकता था। पहले दिन बिल्ली को मारना अगर जीवन पर स्थायी प्रभाव डाल सकता है, तो पहला उपहार क्या कम महत्व का विषय है? देर तक बहस होती रही; पर कोई निश्चय न हो सका।

उसी वक्त एक पारसी महिला एक नये फैशन की साड़ी पहने हुए मोटर पर निकल गयी। मैकूलाल ने कहा – “अगर ऐसी एक साड़ी ले लो, तो वह ज़रूर खुश हो जाये। कितना सूफियाना रंग है। और वज़ा कितनी निराली! मेरी आँखों में तो जैसे बस गयी। हाशिम की दुकान से ले लो। २५ रुपए में आ जाएगी।”

अमरकांत भी उस साड़ी पर मुग्ध हो रहा था। वधू यह साड़ी देखकर कितनी प्रसन्न होगी और उसके गोरे रंग यह पर कितनी खिलेगी, वह इसी कल्पना में मग्न था। बोला – “हाँ यार, पसंद तो मुझे भी है; लेकिन हाशिम की दुकान पर तो पिकेटिंग हो रही है।”

“तो होने दो। खरीदने वाले खरीदते ही हैं। अपनी इच्छा है, जो चीज चाहते हैं, खरीदते हैं, किसी के बाबा का साझा है।”

अमरकांत ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा – “यह तो सत्य है; लेकिन मेरे लिए स्वयंसेवकों के बीच से दुकान में जाना संभव नहीं है। फिर तमाशाइयों की हरदम भीड़ भी तो लगी रहती है।”

मैकू ने मानो उसकी कायरता पर दया करके कहा – “तो पीछे के द्वार से चले जाना। वहाँ पिकेटिंग नहीं होती।”

“किसी देशी दुकान पर न मिल जायेगी?”

“हाशिम की दुकान के सिवा और कहीं न मिलेगी।”

(2)

संध्या हो गयी थी। अमीनाबाद में आकर्षण का उदय हो गया था। सूर्य की प्रतिभा विद्युत-प्रकाश के बुलबुलों में अपनी स्मृति छोड़ गयी थी।

अमरकांटे दबे पाँव हाशिम की दुकान के सामने पहुँचा। स्वयंसेवकों का धरना भी था और तमाशाइयों की भीड़ भी। उसने दो-तीन बार अंदर जाने के लिए कलेजा मजबूत किया, पर फुटपाथ तक जाते-जाते हिम्मत ने जवाब दे दिया।”

मगर साड़ी लेना ज़रूरी था। वह उसकी आँखों में बस गयी थी। वह उसके लिए पागल हो रहा था।

आखिर उसने पिछवाड़े के द्वार से जाने का निश्चय किया। जाकर देखा, अभी तक वहाँ कोई वालण्टियर न था। जल्दी से एक सपाटे में भीतर चला गया और बीस-पचीस मिनट में उसी नमूने की एक साड़ी लेकर फिर उसी द्वार पर आया; पर इतनी ही देर में परिस्थिति बदल चुकी थी। तीन स्वयंसेवक आ पहुँचे थे। अमरकांत एक मिनट तक द्वार पर दुविधे में खड़ा रहा। फिर तीर की तरह निकल भागा और अंधाधुंध भागता चला गया। दुर्भाग्य की बात! एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई चली आ रही थी। अमरकांत उससे टकरा गया। बुढ़िया गिर पड़ी और लगी गालियाँ देने – “आँखों में चर्बी छा गयी है क्या? देखकर नहीं चलते? यह जवानी ढै जाएगी एक दिन।”

अमरकांत के पाँव आगे न जा सके। बुढ़िया को उठाया और उससे क्षमा मांग रहे थे कि तीनों स्वयंसेवकों ने पीछे से आकर उन्हें घेर लिया। एक स्वयंसेवक ने साड़ी के पैकेट पर हाथ रखते हुए कहा – “बिल्लाती कपड़ा ले जाए का हुक्म नहीं ना। बुलाइत है, तो सुनत नाहीं हौ।”

दूसरा बोला – “आप तो ऐसे भागे, जैसे कोई चोर भागे?”

तीसरा – “हज्जारन मनई पकर-पकरि के जेहल में भरा जात अहैं, देश में आग लगी है, और इनका मन बिल्लाती माल से नहीं भरा।”

अमरकांत ने पैकेट को दोनों हाथों से मजबूत करके कहा – “तुम लोग मुझे जाने दोगे या नहीं।”

पहले स्वयंसेवक ने पैकेट पर हाथ बढ़ाते हुए कहा – “जाए कसन देई। बिल्लाती कपड़ा लेके तुम यहाँ से कबौं नाहीं जाय सकत हौ।”

अमरकांत ने पैकेट को एक झटके से छुड़ाकर कहा – “तुम मुझे हर्गिज नहीं रोक सकते।”

उन्होंने कदम आगे बढ़ाया, मगर दो स्वयंसेवक तुरन्त उसके सामने लेट गये। अब बेचारे बड़ी मुश्किल में फंसे। जिस विपत्ति से बचना चाहते थे, वह ज़बरदस्ती गले पड़ गयी। एक मिनट में बीसों आदमी जमा हो गये। चारों तरफ से उन पर टिप्पणियाँ होने लगीं।

“कोई जण्टुलमैन मालूम होते हैं।”

“यह लोग अपने को शिक्षित कहते हैं। छि:! इस दुकान पर से रोज दस-पाँच आदमी गिरफ्तार होते हैं; पर आपको इसकी क्या परवाह!’

“कपड़ा छीन लो और कह दो, जाकर पुलिस में रपट करें।”

“बेचारे बेड़ियाँ-सी पहने खड़े थे। कैसे गला छूटे, इसका कोई उपाय न सूझता था। मैकूलाल पर क्रोध आ रहा था कि उसी ने यह रोग उनके सिर मढ़ा। उन्हें तो किसी सौग़ात की फिक्र न थी। आये वहाँ से कि कोई सौग़ात ले लो।

कुछ देर तक लोग टिप्पणियाँ ही करते रहे, फिर छीन-झपट शुरू हुई। किसी ने सिर से टोपी उड़ा दी। उसकी तरफ लपके, तो एक ने साड़ी का पैकेट हाथ से छीन लिया। फिर वह हाथों-हाथ गायब हो गयी।

अमरकांत ने बिगड़करक़र कहा – “मैं पुलिस में रिपोर्ट करता हूँ।”

एक आदमी ने कहा – “हाँ-हाँ, ज़रूर जाओ और हम सभी को फांसी चढ़वा दो!”

सहसा एक युवती खद्दर की साड़ी पहने, एक थैला लिए आ निकली। यहाँ यह हुड़दंग देखकर बोली – “क्या मुआमला है? तुम लोग क्यों इस भले आदमी को दिक कर रहे हो?”

अमरकांत की जान में जान आयी। उसके पास जाकर फ़रियाद करने लगे – “ये लोग मेरे कपड़े छीनकर भाग गये हैं और उन्हें गायब कर दिया। मैं इसे डाका कहता हूँ, यह चोरी है। इसे मैं न सत्याग्रह कहता हूँ, न देशप्रेम।”

युवती ने दिलासा दिया – “घबड़ाइए नहीं! आपके कपड़े मिल जायेंगे। होंगे तो इन्हीं लोगों के पास! कैसे कपड़े थे?”

एक स्वयंसेवक बोला – “बहनजी, इन्होंने हाशिम की दुकान से कपड़े लिये हैं।”

युवती – “किसी की दुकान से लिये हों, तुम्हें उनके हाथ से कपड़ा छीनने का कोई अधिकार नहीं है। आपके कपड़े वापस ला दो। किसके पास हैं?”

एक क्षण में अमरकांत की साड़ी जैसे हाथों-हाथ गयी थी, वैसे ही हाथों- हाथ वापस आ गयी। ज़रा देर में भीड़ भी गायब हो गयी। स्वयंसेवक भी चले गये। अमरकांत ने युवती को धन्यवाद देते हुए कहा – “आप इस समय न आयी होतीं, तो इन लोगों ने धोती तो गायब कर ही दी थी, शायद मेरी खबर भी लेते।”

युवती ने सरल भर्त्सना के भाव से कहा – “जन-संपत्ति का लिहाज सभी को करना पड़ता है; मगर आपने इस दुकान से कपड़े लिये ही क्यों? जब आप देख रहे हैं कि वहाँ हमारे ऊपर कितना अत्याचार हो रहा है, फिर भी आप न माने। जो लोग समझकर भी नहीं समझते, उन्हें कैसे कोई समझाये!”

अमरकांत इस समय लज्जित हो गये और अपने मित्रों में बैठकर वे जो स्वेच्छा के राग अलापा करते थे, वह भूल गये। बोले – “मैंने अपने लिए नहीं खरीदे हैं, एक महिला की फ़रमाइश थी; इसलिए मजबूर था।”

“उन महिला को आपने समझाया नहीं?”

“आप समझातीं, तो शायद समझ पातीं, मेरे समझाने से तो न समझीं।”

“कभी अवसर मिला, तो ज़रूर समझाने की चेष्टा करूंगी। पुरुषों की नकेल महिलाओं के हाथ में है! आप किस मुहल्ले में रहते हैं?”

“सआदगंज में।”

“शुभनाम?”

“अमरकांत!”

युवती ने तुरन्त ज़रा-सा घूंघट खींच लिया और सिर झुकाकर संकोच और स्नेह से सने स्वर में बोली – “आपकी पत्नी तो आपके घर में नहीं है, उसने फ़रमाइश कैसे की?”

अमरकांत ने चकित होकर पूछा – “आप किस मुहल्ले में रहती हैं?”

“घसियारी मण्डी।”

“आपका नाम सुखदादेवी तो नहीं है?”

“हो सकता है, इस नाम की कई स्त्रियाँ हैं।”

“आपके पिता का नाम ज्वालादत्तजी है?”

“उस नाम के भी कई आदमी हो सकते हैं।”

अमरकांत ने जेब से दियासलाई निकाली और वहीं सुखदा के सामने उस साड़ी को जला दिया।

सुखदा ने कहा – “आप कल आयेंगे?”

अमरकांत ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा – “नहीं सुखदा! जब तक इसका प्रायश्चित न कर लूंगा, न आऊंगा।”

सुखदा कुछ और कहने जा रही थी कि अमरकांत तेजी से कदम बढ़ाकर दूसरी तरफ चले गये।

(3)

आज होली है; मगर आजादी के मतवालों के लिए न होली है, न बसंत। हाशिम की दुकान पर आज भी पिकेटिंग हो रही है, और तमाशाई आज भी जमा हैं। आज के स्वयंसेवकों में अमरकांत भी खड़े पिकेटिंग कर रहे हैं। उनकी देह पर खद्दर का कुर्ता है और खद्दर की धोती। हाथ में तिरंगा झण्डा लिये हैं।

एक स्वयंसेवक ने कहा – “पानीदारों को यों बात लगती है। कल तुम क्या थे, आज क्या हो! सुखदा देवी न आ जातीं, तो बड़ी मुश्किल होती।”

अमर ने कहा – “मैं उनके लिए तुम लोगों को धन्यवाद देता हूँ। नहीं तो मैं आज यहाँ न होता।”

“आज तुम्हें न आना चाहिए था। सुखदा बहन तो कहती थीं, मैं आज उन्हें न जाने दूंगी।”

“कल के अपमान के बाद अब मैं उन्हें मुँह दिखाने योग्य नहीं हूँ। जब वह रमणी होकर इतना कर सकती हैं, तो हम तो हर तरह के कष्ट उठाने के लिए बने ही हैं। खासकर जब बाल-बच्चों का भार सिर पर नहीं है।”

उसी वक्त पुलिस की लारी आयी, एक सब इंस्पेक्टर उतरा और स्वयंसेवकों के पास आकर बोला – “मैं तुम लोगों को गिरफ्तार करता हूँ।”

‘वन्दे मातरम्’ की ध्वनि हुई। तमाशाइयों में कुछ हलचल हुई। लोग दो-दो कदम और आगे बढ़ आये। स्वयंसेवकों ने दर्शकों को प्रणाम किया और मुस्कराते हुए लारी में जा बैठे। अमरकांत सबसे आगे थे। लारी चलना ही चाहती थी, कि सुखदा किसी तरफ से दौड़ी हुई आ गयी। उसके हाथ में एक पुष्पमाला थी, लारी का द्वार खुला था। उसने ऊपर चढ़कर वह अमरकांत के गले में डाल दी। आँखों से स्नेह और गर्व की दो बूंदे टपक पड़ीं। लारी चली गयी। यही होली थी, यही होली का आनंद-मिलन था।

उसी वक्त सुखदा दुकान पर खड़ी होकर बोली- “विलायती कपड़े खरीदना और पहनना देशद्रोह है!”

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