चैप्टर 10 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 10 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 10 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 10 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 10 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 10 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

मुंशी वज्रधर विशालसिंह के पास से लौटे, तो उनकी तारीफों के पुल बांध दिए। रईस हो तो ऐसा हो। आंखों में कितना शील है ! किसी तरह छोड़ते ही न थे। यों समझो कि लड़कर आया हूँ। प्रजा पर तो जान देते हैं। बेगार की चर्चा सुनी, तो उनकी आंखों में आंसू भर गए। उनके जमाने में प्रजा चैन करेगी। यह तारीफ सुनकर चक्रधर को विशालसिंह से श्रद्धा-सी हो गई। उनसे मिलने गए और समिति के संरक्षकों में उनका नाम दर्ज कर लिया। तब से कुंवर साहब समिति की सभाओं में नित्य सम्मिलित होते थे। अतएव अबकी उनके यहां कृष्णाष्टमी का उत्सव हुआ, तब चक्रधर पर अपने सहवर्गियों के साथ उसमें शरीक हुए।

कुंवर साहब कृष्ण के परम भक्त थे। उनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाते थे। उनकी स्त्रियों में इस विषय में मतभेद था। उनके व्रत भी अलग-अलग थे। तीज के सिवा तीनों कोई एक व्रत न रखती थीं। रोहिणी कृष्ण की उपासिका थी, तो वसुमती रामनवमी का उत्सव मनाती थी, नवरात्रि का व्रत रखती, जमीन पर सोती और दुर्गा पाठ सुनती। रही रामप्रिया, वह कोई व्रत न रखती थी। कहती-इस दिखावे से क्या फायदा? मन शुद्ध चाहिए, यही सबसे बड़ी भक्ति है। जब मन में ईर्ष्या और द्वेष की ज्वाला दहक रही हो, राग और मत्सर की आंधी चल रही हो, तो कोरा व्रत रखने से क्या होगा! ये उत्सव आपस में प्रीति बढ़ाने के लिए मनाए जाते हैं। जब प्रीति के बदले द्वेष बढ़े, तो उनका न मनाना ही अच्छा !

संध्या हो गई थी। बाहर कंवल, झाड़ आदि जलाए जा रहे थे। चक्रधर अपने मित्रों के साथ बनाव-सजाव में मसरूफ थे। संगीत-समाज के लोग आ पहुंचे थे। गाना शुरू होने ही वाला था कि वसुमती और रोहिणी में तकरार हो गई। वसुमती को यह तैयारियां एक आंख न भाती थीं। उसके रामनवमी के उत्सव में सन्नाटा-सा रहता था। विशालसिंह उस उत्सव में उदासीन रहते थे। वसुमती इसे उनका पक्षपात समझती थी। उसके विचार से उनके इस असाधारण उत्साह का कारण कृष्ण की भक्ति नहीं, रोहिणी के प्रति स्नेह था। वह दिल में जल-भुन रही थी। रोहिणी सोलहों शृंगार किए पकवान बना रही थी। कदाचित् वसुमती को जलाने ही के लिए आप ही आप गीत गा रही थी। घर के सब बरतन उसी के यहां बिधे हुए थे। उसका यह अनुराग देख-देखकर वसुमती के कलेजे पर सांप-सा लोट रहा था। वह इस रंग में भंग मिलाना चाहती थी। सोचते-सोचते उसे एक बहाना मिल गया। महरी को भेजा, जाकर रोहिणी से कह-घर के बरतन जल्दी से खाली कर दें। दो थालियां, दो बटलोइयां, कटोरे, कटोरियां मांग लो? उनका उत्सव रात भर होगा, तो कोई कब तक बैठा उनकी राह देखता रहेगा? उनके उत्सव के लिए दूसरे क्यों भूखों मरें! महरी गई, तो रोहिणी ने तन्नाकर कहा-आज इतनी जल्दी भूख लग गई। रोज तो आधी रात तक बैठी रहती थी, आज आठ बजे ही भूख सताने लगी। अगर ऐसी ही जल्दी है, तो कुम्हार के यहां से हाडियां मंगवा लें। पत्तल मैं दे दूंगी।

वसुमती ने यह सुना, तो आग हो गई- हांडियां चढ़ाएं मेरे दुश्मन ! जिनकी छाती फटती हो, मैं क्यों हांडी चढाऊं? उत्सव मनाने की बड़ी साध है, तो नए बासन क्यों नहीं मंगवा लेती? अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी भर बरतन भेज दें। क्या जबरदस्ती दूसरों को भूखों मारेंगी?

रोहिणी रसोई से बाहर निकलकर बोली-बहन, जरा मुंह संभालकर बातें करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।

वसुमती-अपमान तो तुम करती हो, व्रत के दिन यों बन-ठनकर इठलाती फिरती हो। देवता रंग-रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं !

रोहिणी-मैं बनती-ठनती हूँ, तो दूसरे की आंखें क्यों फूटती हैं? भगवान के जन्म के दिन भी न बनूं-ठनूं? उत्सव में तो रोया नहीं जाता !

वसुमती-तो और बनो-ठनो, मेरे अंगूठे से। आंखें क्यों फोड़ती हो? आंखें फूट जाएंगी, तो चल्लू भर पानी भी न दोगी!

रोहिणी-आज लड़ने ही पर उतारू हो आई हो क्या? भगवान सब दु:ख दें, पर बुरी संगत न दें। लो, यही गहने-कपड़े आंखों में गड़ रहे हैं? न पहनूंगी। जाकर बाहर कह दें, पकवान, प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें। मुझे क्या, मेरे मन का हाल भगवान् आप जानते हैं, पड़ेगी उन पर जिनके कारण यह सब हो रहा है।

यह कहकर सेहिणी अपने कमरे चली गई। सारे गहने-कपड़े उतार फेंके और मुंह ढांपकर चारपाई पर पड़ रही। ठाकुर साहब ने यह समाचार सुना, तो माथा कूटकर बोले-इन चाण्डालिनों से आज शुभोत्सव के दिन भी शांत नहीं बैठा जाता। इस जिंदगी से तो मौत ही अच्छी है। घर में आकर रोहिणी से बोले-तुम मुंह ढांपकर सो रही हो, या उठकर पकवान बनाती हो?

रोहिणी ने पड़े-पड़े उत्तर दिया-फट पड़े वह सोना जिससे टूटे कान। ऐसे उत्सव से बाज आई, जिसे देखकर घर वालों की छाती फटे।

विशालसिंह-तुमसे तो बार-बार कहा कि उसके मुंह न लगा करो। एक चुप सौ वक्ताओं को हरा सकता है। दो बातें सुन लो, तो तीसरी बात कहने का साहस न हो। फिर तुमसे बडी भी तो ठहरीं; यों भी तुमको उनका लिहाज करना ही चाहिए।

जिस दिन वसुमती ने विशालसिंह को व्यंग्य-बाण मारा था, जिसकी कथा हम कह चके हैं, उसी दिन से उन्होंने उससे बोलना-चालना छोड़ दिया था। उससे कुछ डरने लगे थे, उसके क्रोध की भयंकरता का अंदाजा पा लिया था। किंतु रोहिणी क्यों दबने लगी? यह उपदेश सुना, तो झंझलाकर बोली-रहने भी दो, जले पर नमक छिड़कते हो। जब बड़ा देख-देखकर जले, बात-बात पर कोसे, तो कोई कहाँ तक उनका लिहाज करे? उन्हें मेरा रहना जहर लगता है, तो क्या करूं? घर छोड़कर निकल जाऊं? वह इसी पर लगी हुई हैं। तुम्हीं ने उन्हें सिर चढ़ा लिया है। कोई बात होती है, तो मुझी को उपदेश करने दौड़ते हो, सीधा पा लिया है न ! उनसे बोलते हुए तो तुम्हारा भी कलेजा कांपता है। तुम न शह देते तो उनकी मजाल थी कि यों मुझे आंखें दिखातीं !

विशालसिंह-तो क्या मैं उन्हें सिखा देता हूँ कि तुम्हें गालियां दें?

रोहिणी-और क्या करते हो ! जब घर में कोई न्याय करने वाला नहीं रहा, तो इसके सिवा और क्या होगा? सामने तो चुडैल की तरह बैठी हुई हैं, जाकर पूछते क्यों नहीं? मुंह में कालिख क्यों नहीं लगाते? दूसरा पुरुष होता तो जूतों से बात करता, सारी शेखी किरकिरी हो जाती। लेकिन तुम तो खुद मेरी दुर्गति कराना चाहते हो। न जाने क्यों तुम्हें ब्याह का शौक चर्राया था?

कुंवर साहब ज्यों-ज्यों रोहिणी का क्रोध शांत करने की चेष्टा करते थे, वह और भी बिफरती जाती थी और बार-बार कहती थी, तुमने मेरे साथ क्यों ब्याह किया? यहां तक कि अंत में वह भी गर्म पड़ गए और बोले-और पुरुष स्त्रियों से विवाह करके कौन-सा सुख देते हैं, जो मैं तुम्हें नहीं दे रहा हूँ? रही लड़ाई-झगड़े की बात। तुम न लड़ना चाहो, तो कोई जबर्दस्ती तुमसे न लड़ेगा। आखिर रामप्रिया भी तो इसी घर में रहती है।

रोहिणी-तो मैं स्वभाव ही से लड़ाकू हूँ?

विशालसिंह-यह मैं थोड़े ही कहता हूँ।

रोहिणी-और क्या कहते हो? साफ-साफ कहते हो फिर मुकरते क्यों हो। मैं स्वभाव से ही झफड़ालू हूँ। दूसरों से छेड़-छेड़कर लड़ती हूँ। यह तुम्हें बहुत दूर की सूझी। वाह, क्या नई बात निकाली है ! कहीं छपवा दो, तो खासा इनाम मिल जाएगा।

विशालसिंह-तुम बरबस बिगड़ रही हो। मैंने तो दुनिया की बात कही थी और तुम अपने ऊपर ले गईं।

रोहिणी-क्या करूं, भगवान् ने बुद्धि ही नहीं दी। वहां भी ‘अंधेर नगरी और चौपट राजा’ होंगे। बुद्धि तो दो ही प्राणियों के हिस्से में पड़ी है, एक आपकी ठकुराइन के-नहीं-नहीं, महारानी के-और दूसरे आपके। जो कुछ बची-खुची, वह आपके सिर में लूंस दी गई।

विशालसिंह-अच्छा, उठकर पकवान बनाती हो कि नहीं? कुछ खबर है, नौ बज रहे हैं। रोहिणी-मेरी बला जाती है। उत्सव मनाने की लालसा नहीं रही।

विशालसिंह-तो तुम न उठोगी?

रोहिणी-नहीं, नहीं, नहीं! या और दो-चार बार कह दूं?

वसुमती सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियों की बातें तन्मय होकर सुन रही थीं, मानो कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो, कि कब यह चूके और कब मैं दबा बैलूं। क्षण-क्षण में परिस्थिति बदल रही थी। कभी अवसर आता हुआ दिखाई देता था, फिर निकल जाता था। यहां तक कि अंत में प्रतिद्वंद्वी की एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर दे दिया। विशालसिंह को मुंह लटकाए रोहिणी की कोठरी से निकलते देखकर बोली-क्या मेरी सूरत देखने की कसम खा ली है, या तुम्हारे हिसाब से मैं घर में हूँ ही नहीं! बहुत दिन तो हो गए रूठे, क्या जन्म भर रूठे ही रहोगे? क्या बात है, इतने उदास क्यों हो?

विशालसिंह ने ठिठककर कहा-तुम्हारी ही लगाई हुई आग को तो शांत कर रहा था; पर उल्टे हाथ जल गए। यह क्या रोज-रोज तूफान खड़ा करती हो? चार दिन की जिंदगी है इसे हंस-खेलकर नहीं काटते बनता? मैं तो ऐसा तंग हो गया हूँ कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊं। सच कहता हूँ जिंदगी से तंग आ गया। यह सब आग तुम्हीं लगा रही हो।

वसुमती-कहाँ भागकर जाओगे? नई-नवेली बहू को किस पर छोड़ोगे? नए ब्याह का कुछ सुख तो उठाया ही नहीं।

विशालसिंह-बहुत उठा चुका, जी भर गया।

वसुमती-बस, एक ब्याह और कर लो, एक ही और, जिसमें चौकड़ी पूरी हो जाए।

विशालसिंह-क्या बैठे-बैठे जलाती हो? विवाह क्या किया था, भोग-विलास करने के लिए या तुमसे कोई बड़ी सुंदरी होगी?

वसुमती-अच्छा, आओ, सुनते जाओ।

विशालसिंह-जाने दो, लोग बाहर बैठे होंगे।

वसुमती-अब यही तो नहीं अच्छा लगता। अभी घंटे-भर वहां बैठे चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहे तो नहीं देर हुई; मैं एक क्षण के लिए बुलाती हूँ तो भागे जाते हो। इसी दोअक्खी की तो तुम्हें सजा मिल रही है!

यह कहकर वसुमती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया, घसीटती हुई अपने कमरे में ले गई और चारपाई पर बैठाती हुई बोली-औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। उसे तो तब चैन आए, जब घर में अकेली वही रहे। जब देखो तब अपने भाग्य को रोया करती है, किस्मत फूट गई, मां-बाप ने कुएं में झोंक दिया, जिंदगी खराब हो गई। यह सब मुझसे नहीं सुना जाता, यही मेरा अपराध है। तुम उसके मन के नहीं हो, सारी जलन इसी बात की है। पूछो, तुझे कोई जबरदस्ती निकाल लाया था, या तेरे मां-बाप की आंखें फूट गई थीं? वहां तो यह मंसूबे थे कि बेटी मुंहजोर है ही, जाते ही जाते राजा को अपनी मुट्ठी में करके रानी बन बैठेगी ! क्या मालूम था कि यहां उसका सिर कुचलने को कोई और बैठा हुआ है। यही बातें खोलकर कह देती हैं, तो तिलमिला उठती है और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है। दो दिन, चार दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं। यह निरंतर का नियम है कि लोहे को लोहा ही काटता है। कुमानस के साथ कुमानस बनने ही से काम चलता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने नारियों के विषय में जो कहा है, बिल्कुल सच है।

विशालसिंह-यहां वह खटबांस लेकर पड़ी है, अब पकवान कौन बनाए?

वसमती-तो क्या जहां मुर्गा न होगा, वहां सबेरा ही न होगा? आखिर जब वह नहीं थी, तब भी तो जन्माष्टमी मनाई जाती थी। ऐसा कौन-सा बड़ा काम है? मैं बनाए देती हूँ। भगवान और ही बंटे हुए हैं, या मुझे जन्माष्टमी से कोई बैर है!

विशालसिंह ने पुलकित होकर कहा-बस, तुम्हारी इन्हीं बातों पर मेरी जान जाती है। कुलवंती स्त्रियों का यही धर्म है। आज तुम्हारी धानी साड़ी गजब ढा रही है। कवियों ने सच कहा है. यौवन प्रौढ़ होकर और भी अजेय हो जाता है। चंद्रमा का पूरा प्रकाश भी तो पूर्णिमा ही को होता है।

वसुमती-खुशामद करना कोई तुमसे सीख ले।

विशालसिंह-जो चीज कम हो, वह और मंगवा लेना।

विजय के गर्व से फूली हुई वसुमती आधी रात तक बैठी भांति-भांति के पकवान बनाती रही। द्वेष ने बरसों की सोई हुई कृष्ण-भक्ति को जागृत कर दिया। वह इन कामों में निपुण थी। श्रम से उसे कुछ रुचि-सी थी। निठल्ले न बैठा जाता था। रोहिणी जिस काम को दिन भर मरमरकर करती, उसे वह दो घंटे में हंसते-हंसते पूर्ण कर देती थी। रामप्रिया ने उसे बहुत व्यस्त देखा, तो वह भी आ गई और दोनों मिलकर काम करने लगीं।

विशालसिंह बाहर गए और कुछ देर तक गाना सुनते रहे; पर वहां जी न लगा। फिर भीतर चले आए और रसोईघर के द्वार पर मोढ़ा डालकर बैठ गए। भय था कि कहीं रोहिणी कुछ कह न बैठे और दोनों फिर न लड़ मरें।

वसुमती ने कहा-बाहर क्या हो रहा है?

विशालसिंह-गाना शुरू हो गया है। तुम इतनी महीन पूरियां कैसे बनाती हो? फट नहीं जातीं!

वसुमती-चाहूँ तो इससे भी महीन बेल दूं, कागज मात हो जाए।

विशालसिंह-मगर खिलेंगी न?

वसुमती-खिलाकर दिखा दूं, डब्बे-सी न फूल जायें तो कहना। अभी महारानी नहीं उठीं क्या? इसमें छिपकर बातें सुनने की बुरी लत है। न जाने क्या चाहती है। बहुत औरतें देखीं; लेकिन इसके ढंग सबसे निराले हैं। मुहब्बत तो इसे छू नहीं गई। अभी तुम तीन दिन बाहर कराहते रहे; पर कसम ले लो, जो उसका मन जरा भी मैला हुआ हो। हम लोगों के प्राण तो नखों में समा गए थे। रात-दिन देवी-देवता मनाया करती थीं। वहां पान चबाने, आईना देखने और मांग-चोटी करने के सिवा और दूसरा कोई काम ही न था। ऐसी औरतों पर कभी विश्वास न करें।

विशालसिंह-सब देखता हूँ, और समझता हूँ, निरा गधा नहीं हूँ।

वसुमती-यही तो रोना है कि तुम देखकर भी नहीं देखते, समझकर भी नहीं समझते। जहां उसने मुस्कराकर, आंखें मटकाकर बातें की, मस्त हो गए। लल्लो-चप्पो किया करते हो। थर-थर कांपते रहते हो कि कहीं रानी नाराज न हो जाएं। आदमी में सब ऐब हों, किंतु मेहर-बस न हो। ऐसी कोई बड़ी सुंदर भी तो नहीं है।

रामप्रिया-एक समय सखि सुअर सुंदर! जवानी में कौन नहीं सुंदर होता?

वसुमती-उसके माथे से तों तुम्हारे तलुवे अच्छे। सात जन्म ले, तो भी तुम्हारे गर्द को न

पहुंचे।

विशालसिंह-मैं मेहर-बस हूँ?

वसुमती-और क्या हो?

विशालसिंह-मैं उसे ऐसी-ऐसी बातें कहता हूँ कि वह भी याद करती होगी। घंटों रुलाता हूँ।

वसुमती-क्या जाने, यहां तो जब देखती हूँ, उसे मुस्कराते देखती हूँ! कभी आंखों में आंसू न देखा।

रामप्रिया-कड़ी बात भी हंसकर कही जाए, तो मीठी हो जाती है।

विशालसिंह-हंसकर नहीं कहता। डांटता हूँ, फटकारता हूँ। लौंडा नहीं हूँ कि सूरत पर लटू हो जाऊं।

वसुमती-डांटते होगे; मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कोई नई बात नहीं है। मैं तुमसे लाख रूठी रहूँ, लेकिन तुम्हारा मुंह जरा भी गिरा देखा और जान निकल गई। सारा क्रोध हवा हो जाता है। वहां जब तक जाकर पैर न सहलाओ, तलुओं से आख न मलो, देवीजी सीधी ही नहीं होतीं। कभी-कभी तुम्हारी लंपटता पर मुझे हंसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए जिसका अन्याय देखे, उसे डांटे दे, बुरी तरह डांट दे, खून पी लेने पर उतारू हो जाए। ऐसे ही पुरुषों से स्त्रियां प्रेम करती हैं। भय बिना प्रीति नहीं होती। आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी आंखों से गिरा। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भकुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रास ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।

रामप्रिया मुंह फेरकर मुस्कराई और बोली-बहन, तुम सब गुर बताए देती हो, किसके माथे जाएगी?

वसुमती-हम लोगों की लगाम कब ढीली थी?

रामप्रिया-जिसकी लगाम कभी कड़ी न थी, वह आज लगाम तानने से थोड़े ही काबू में आई जाती है और भी दुलत्तियां झाड़ने लगेगी।

विशालसिंह-मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं की। आज ही देखो, कैसी फटकार बताई।

वसुमती-क्या कहना है, जरा मूंछे खड़ी कर लो, लाओ, पगिया मैं सवार दूं। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें कीं कि भागते ही बना!

सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमती ने द्वार की ओर देखा। रोहिणी रसोई के द्वार से दबे पांव चली जा रही थी। मुंह का रंग उड़ गया। दांतों से ओठ दबाकर बोली-छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो, क्या रंग लाती है।

विशालसिंह ने पीछे की ओर सशंक नेत्रों से देखकर कहा-बड़ा गजब हुआ। चुडैल सब सुन गई होगी। मुझे जरा भी आहट न मिली।

वसुमती-उंह, रानी रूठेंगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहाँ तक डरे? आदमियों को बलाओ, यह सामान यहां से ले जाएं।

भादों की अंधेरी रात थी। हाथ को हाथ न सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गई है या किसी विराट जंतु ने उसे निगल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश तिमिर सागर में पांव रखते कांपता था। विशालसिंह भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवाकर बाहर रखवाने में लगे हुए थे। कोई केले छील रहा था, कोई खीरे काटता था। कोई दोनों में प्रसाद सजा रहा था। एकाएक रोहिणी एक चादर ओढ़े हुए घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशालसिंह दहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देखकर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी न पूछा, कहाँ जाती हो, क्या बात है। मूर्ति की भांति खड़े रहे। दिल ने कहा-जिसने इतनी बेहयाई की, उससे और क्या आशा की जा सकती है? वह जहां जाती हो, जाए; जो जी में आए, करे। जब उसने मेरा सिर ही नीचा कर दिया, तो मुझे उसकी क्या परवाह? बेहया, निर्लज्ज तो है ही, कुछ पूढू और गालियां देने लगे, तो मुंह में और भी कालिख लग जाए। जब उसको मेरी परवाह नहीं, तो मैं क्यों उसके पीछे दौडूं? और लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।

इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आए, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आंखें लाल किए कह रहे हैं-अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूँ। अगर वह स्त्री होकर इतना आपे से बाहर हो सकती है, तो मैं पुरुष होकर उसके पैरों पर सिर न रखूगा। इच्छा हो जाए, मैंने तिलांजलि दे दी। अब इस घर में कदम न रखने दूंगा। (चक्रधर को देखकर) आपने भी तो उसे देखा होगा?

चक्रधर-किसे? मैं तो केले छील रहा था। कौन गया है?

विशालसिंह-मेरी छोटी पत्नीजी रूठकर बाहर चली गई हैं। आपसे घर का वास्ता है। आज औरतों में किसी बात पर तकरार हो गई। अब तक तो मुंह फुलाए पड़ी रहीं, अब यह सनक सवार हुई। मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊं! आप धक्के खाएंगी। उसके सिर पर कुबुद्धि सवार है।

चक्रधर-किधर गई हैं. महरी?

महरी-क्या जानूं, बाबूजी? मैं तो बरतन मांज रही थी। सामने ही गई होंगी।

चक्रधर ने लपककर लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दाएं-बाएं निगाहें दौड़ाते, तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गए होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखलाई दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई जगह तलाश कर रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपककर समीप जा पहुंचे और कुछ कहना ही चाहते थे कि रोहिणी खुद बोली-क्या मुझे पकड़ने आए हो? अपना भला चाहते हो, तो लौट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं उन पापियों का मुंह न देखूगी।

चक्रधर-आप इस अंधेरे में कहाँ जाएंगी? हाथ को हाथ सूझता नहीं।

रोहिणी-अंधेरे में डर उसे लगता है, जिसका कोई अवलंब हो। जिसका संसार में कोई नहीं, उसे किसका भय? गला काटने वाले अपने होते हैं, पराए गला नहीं काटते। जाकर कह देना, अब आराम से टांगें फैलाकर सोइए, अब तो कांटा निकल गया।

चक्रधर-आप कुंवर साहब के साथ बड़ा अन्याय कर रही हैं। बेचारे लज्जा और शोक से खड़े रो रहे हैं।

रोहिणी-क्यों बातें बनाते हो? वह रोएंगे, और मेरे लिए? मैं जिस दिन मर जाऊंगी, उस दिन घी के चिराग जलेंगे। संसार में ऐसे अभागे प्राणी भी होते हैं। अपने मां-बाप को क्या कहूँ? ईश्वर उन्हें नरक में भी चैन न दे। सोचे थे, बेटी रानी हो जाएगी, तो हम राज करेंगे। यहां जिस दिन डोली से उतरी, उसी दिन से सिर पर विपत्ति सवार हुई। पुरुष रोगी हो, बूढा हो, दरिद्र हो; पर नीच न हो। ऐसा नीच और निर्दयी आदमी संसार में न होगा। नीचों के साथ नीच बनना ही पड़ता है।

चक्रधर-आपके यहां खड़े होने से कुंवर साहब का कितना अपमान हो रहा है, इसकी आपको जरा भी फिक्र नहीं?

रोहिणी-तुम्हीं ने तो मुझे रोक रखा है।

चक्रधर-आखिर आप कहाँ जा रही हैं?

रोहिणी-तुम पूछने वाले कौन होते हो? मेरा जहां जी चाहेगा, जाऊंगी। उनके पांव में मेंहदी नहीं रची हुई थी। उन्होंने मुझे घर से निकलते भी देखा था। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छा हुआ, सिर से बला टली। दुतकार सहकर जीने से मर जाना अच्छा है।

चक्रधर-आपको मेरे साथ चलना होगा।

रोहिणी-तुम्हें यह कहने का क्या अधिकार है?

चक्रधर-जो अधिकार सचेत को अचेत पर, सजान को अजान पर होता है, वहा अधिकार मुझे आपके ऊपर है। अंधे को कुएं में गिरने से बचाना हर एक प्राणी का धर्म है।

रोहिणी-मैं न अचेत हं, न अजान, न अंधी। स्त्री होने ही से बावली नहीं हो गई हूँ। जिस घर में मेरा पहनना-ओढ़ना-हंसना बोलना, देख-देखकर दूसरों की छाती फटती है, जहां कोई अपनी बात तक नहीं पूछता, जहां तरह-तरह के आक्षेप लगाए जाते हैं, उस घर में कदम न रखूगी।

यह कहकर रोहिणी आगे बढ़ी कि चक्रधर ने सामने खड़े होकर कहा-आप आगे नहीं जा सकतीं।

रोहिणी-जबरदस्ती रोकोगे?

चक्रधर-हां, जबरदस्ती रोङगा।

रोहिणी-सामने से हट जाओ।

चक्रधर-मैं आपको एक कदम भी आगे न रखने दूंगा। सोचिए, आप अपनी अन्य बहनों को किस कुमार्ग पर ले जा रही हैं? जब वे देखेंगे कि बड़े-बड़े घरों की स्त्रियां भी रूठकर घर से निकल खड़ी होती हैं, तो उन्हें भी जरा-सी बात पर ऐसा ही साहस होगा या नहीं? नीति के विरुद्ध कोई काम करने का फल अपने ही तक नहीं रहता, दूसरों पर उसका और भी बुरा असर पड़ता है।

रोहिणी-मैं चुपके से चली जाती थी, तुम्हीं तो ढिंढोरा पीट रहे हो।

चक्रधर-जिस तरह रण से भागते हुए सिपाही को देखकर लोगों को उससे घृणा होती है-यहां तक कि उसका वध कर डालना भी पाप नहीं समझा जाता, उसी तरह कुल में, कलंक लगाने वाली स्त्रियों से भी सबको घृणा हो जाती है और कोई उनकी सूरत तक नहीं देखना चाहता। हम चाहते हैं कि सिपाही गोली और आग के सामने अटल खड़ा रहे। उसी तरह हम यह भी चाहते हैं कि स्त्री सब झेलकर अपनी मर्यादा का पालन करती रहे ! हमारा मुंह हमारी देवियों से उज्ज्वल है और जिस दिन हमारी देवियां इस भांति मर्यादा की हत्या करने लगेंगी, उसी दिन हमारा सर्वनाश हो जाएगा।

रोहिणी रुंधे हुए कंठ से बोली-तो क्या चाहते हो कि मैं फिर उसी आग में जलू?

चक्रधर-हां, यही चाहता हूँ। रणक्षेत्र में फूलों की वर्षा नहीं होती। मर्यादा की रक्षा करना उससे कहीं कठिन है।

रोहिणी-लोग हंसेंगे कि घर से निकली तो थी बड़े दिमाग से, आखिर झख मारकर लौट आई।

चक्रधर-ऐसा वही कहेंगे, जो नीच और दुर्जन हैं। समझदार लोग तो आपकी सराहना ही करेंगे।

रोहिणी ने कई मिनट तक आगा-पीछा करने के बाद कहा-अच्छा चलिए, आप भी क्या कहेंगे। कोई बुरा कहे या भला। हां, कुंवर साहब को इतना जरूर समझा दीजिएगा कि जिन महारानी को आज वह घर की लक्ष्मी समझे हुए हैं, वह एक दिन उनको बड़ा धोखा देंगी। मैं कितनी ही आपे से बाहर हो जाऊं, पर अपना ही प्राण दूंगी; वह बिगड़ेंगी तो प्राण लेकर छोड़ेंगी। आप किसी मौके से जरूर समझा दीजिएगा।

यह कहकर रोहिणी घर की ओर लौट पड़ी; लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक असर पड़ा और कहाँ तक स्वयं अपनी सहज बुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर सकता है? वह लौटते वक्त लज्जा से सिर नहीं गड़ाए हुए थी, गर्व से उसकी गर्दन उठी हुई थी। उसने अपनी टेक को मर्यादा की वेदी पर बलिदान कर दिया था; पर उसके साथ ही उन व्यंग्य वाक्यों की रचना भी कर ली थी, जिससे वह कुंवर साहब का स्वागत करना चाहती थी।

जब दोनों आदमी घर पहुंचे, तो विशालसिंह अभी तक वहां मूर्तिवत् खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्त जन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।

रोहिणी ने दहलीज में कदम रखा; मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आंख उठा कर भी न देखा। जब वह अंदर चली गई, तो उन्होंने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले-मैं तो समझता था किसी तरह न आएगी; मगर आप खींच ही लाए। क्या बहुत बिगड़ती थी?

चक्रधर ने कहा-आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती हैं। हां, मिजाज नाजुक है; बात बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।

विशालसिंह-मैं यहां से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए तो ज्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुँच जाते तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जानेवाली स्त्री है। आपका यह एहसान कभी न भूलूंगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी-सी मालूम हो रही है, बैंड भी बज रहा है। क्या माजरा है?

चक्रधर-हां, मशालें और लालटेनें हैं। बहुत से आदमी भी साथ हैं। और लोग भी आंगन में उतर आए और सामने देखने लगे। सैकड़ों आदमी कतार बांधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे, आगे-आगे दो अश्वारोही भी नजर आते थे। बैंड की मनोहर ध्वनि आ रही थी। सब खड़े-खड़े देख रहे थे; पर किसी की समझ में न आता था कि माजरा क्या है !

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