चैप्टर 1 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 1 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 1 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 1 Kayakalp Novel By Munshi Premchand | Chapter 1 Kayakalp Munshi Premchand Ka Upanyas 

Chapter 1 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

दोपहर का समय था; चारों तरफ अंधेरा था। आकाश में तारे छिटके हुए थे। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था, मानो संसार से जीवन का लोप हो गया हो। हवा भी बंद हो गई थी। सूर्यग्रहण लगा हुआ था। त्रिवेणी के घाट पर यात्रियों की भीड़ थी-ऐसी भीड़, जिसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वे सभी हिंदू , जिनके दिल में श्रद्धा और धर्म का अनुराग था, भारत के हर एक प्रांत से इस महान् अवसर पर त्रिवेणी की पावन धारा में अपने पापों का विसर्जन करने के लिए आ पहुंचे थे, मानो उस अंधेरे में भक्ति और विश्वास ने अधर्म पर छापा मारने के लिए अपनी असंख्य सेना सजाई हो। लोग इतने उत्साह से त्रिवेणी के संकरे घाट की ओर गिरते-पड़ते लपके चले जाते थे कि यदि जल की शीतल धारा की जगह अग्नि का जलता हुआ कुंड होता, तो भी लोग उसमें कूदते हुए जरा भी न झिझकते?

कितने आदमी कुचल गए, कितने डूब गए, कितने खो गए, कितने अपंग हो गए, इसका अनुमान करना कठिन है। धर्म का विकट संग्राम था। एक तो सूर्यग्रहण, उस पर यह असाधारण अद्भुत प्राकृतिक छटा ! सारा दृश्य धार्मिक वृत्तियों को जगाने वाला था। दोपहर को तारों का प्रकाश माया के पर्दे को फाड़कर आत्मा को आलोकित करता हुआ मालूम होता था। वैज्ञानिकों की बात जाने दीजिए, पर जनता में न जाने कितने दिनों से यह विश्वास फैला हुआ था कि तारागण दिन को कहीं किसी सागर में डूब जाते हैं। आज वही तारागण आंखों के सामने चमक रहे थे, फिर भक्ति क्यों न जाग उठे ! सद्वृत्तियां क्यों न आंखें खोल दें!

घंटे भर के बाद फिर प्रकाश होने लगा, तारागण फिर अदृश्य हो गए, सूर्य भगवान की समाधि टूटने लगी।

यात्रीगण अपने-अपने पापों की गठरियां त्रिवेणी में डाल-डालकर जाने लगे। संध्या होते-होते घाट पर सन्नाटा छा गया। हां, कुछ घायल, कुछ अधमरे प्राणी जहां-तहां पड़े कराह रहे थे और ऊंचे कगार से कुछ दूर पर एक नाली में पड़ी तीन-चार साल की एक लड़की चिल्ला-चिल्लाकर रो रही थी।

सेवा-समितियों के युवक, जो अब तक भीड़ संभालने का विफल प्रयत्न कर रहे थे, अब डोलियां कंधों पर ले-लेकर घायलों और भूले-भटकों की खबर लेने आ पहुंचे। सेवा और दया का कितना अनुपम दृश्य था !

सहसा एक युवक के कानों में उस बालिका के रोने की आवाज पड़ी। अपने साथी से बोला-यशोदा, उधर कोई बच्चा रो रहा है।

यशोदानंदन-हां मालूम तो होता है। इन मूर्खों को कोई कैसे समझाए कि यहां बच्चों को लाने का काम नहीं। चलो, देखें।

दोनों ने उधर जाकर देखा, तो एक बालिका नाली में पड़ी रो रही है। गोरा रंग था, भरा हुआ शरीर, बड़ी-बड़ी आंखें, गोरा मुखड़ा, सिर से पांव तक गहनों से लदी हुई। किसी अच्छे घर की लड़की थी। रोते-रोते उसकी आंखें लाल हो गई थीं। इन दोनों युवकों को देखकर डरी और चिल्लाकर रो पड़ी। यशोदा ने उसे गोद में उठा लिया और प्यार करके बोला-बेटी, रो मत, हम तुझे तेरी अम्मां के घर पहुंचा देंगे। तुझी को खोज रहे थे। तेरे बाप का क्या नाम है?

लड़की चुप तो हो गई, पर संशय की दृष्टि से देख-देखकर सिसक रही थी। इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सकी।

यशोदानंदन ने फिर चुमकारकर पूछा-बेटी, तेरा घर कहाँ है?

लड़की ने कोई जवाब न दिया।

यशोदा-अब बताओ महमूद, क्या करें ?

महमूद एक अमीर मुसलमान का लड़का था। यशोदानंदन से उसकी बड़ी दोस्ती थी। उसके साथ यह भी सेवा-समिति में दाखिल हो गया था। बोला-क्या बताऊं ? कैंप में ले चलो, शायद कुछ पता चले।

यशोदानंदन-अभागे जरा-जरा से बच्चों को लाते हैं और इतना भी नहीं करते कि उन्हें अपना नाम और पता तो याद करा दें।

महमूद-क्यों बिटिया, तुम्हारे बाबूजी का क्या नाम है?

लड़की ने धीरे से कहा-बाबू दी !

महमूद-तुम्हारा घर इसी शहर में है या कहीं और?

लड़की-मैं तो बाबूजी के साथ लेल पर आयी थी!

महमूद-तुम्हारे बाबूजी क्या करते हैं?

लड़की-कुछ नहीं करते।

यशोदानंदन-इस वक्त अगर इसका बाप मिल जाए तो सच कहता हूँ, बिना मारे न छोडूं। बचा गहने पहनाकर लाए थे, जाने कोई तमाशा देखने आए हों !

महमूद-और मेरा जी चाहता है कि तुम्हें पीटूं। मियां-बीवी यहां आए तो बच्चे को किस पर छोड़ आते ! घर में और कोई न हो तो?

यशोदानंदन-तो फिर उन्हीं को यहां आने की क्या जरूरत थी?

महमूद-तुम एथीइस्ट (नास्तिक) हो; तुम क्या जानो कि सच्चा मजहबी जोश किसे कहते हैं?

यशोदानंदन-ऐसे मजहबी जोश को दूर से ही सलाम करता हूँ। इस वक्त दोनों मियां-बीवी हाय-हाय कर रहे होंगे।

महमूद-कौन जाने, वे भी यहां कुचल-कुचला गए हों। लड़की ने साहसकर कहा-तुम हमें घल पहुंचा दोगे? बाबूदी तुमको पैछा देंगे।

यशोदानंदन-अच्छा बेटी, चलो तुम्हारे बाबूजी को खोजें।

दोनों मित्र बालिका को लिए कैंप में आए, पर यहां कुछ पता न चला। तब दोनों उस तरफ गए, जहां मैदान में बहुत से यात्री पड़े हुए थे। महमूद ने बालिका को कंधे पर बैठा लिया और यशोदानंदन चारों तरफ चिल्लाते फिरे-यह किसकी लड़की है? किसी की लड़की तो नहीं खो गई? यह आवाजें सुनकर कितने ही यात्री हां-हां, कहाँ-कहाँ करके दौड़े, पर लड़की को देखकर निराश लौट गए।

चिराग जले तक दोनों मित्र घूमते रहे। नीचे-ऊपर, किले के आस-पास, रेल के स्टेशन पर, अलोपी देवी के मन्दिर की तरफ यात्री-ही-यात्री पड़े हुए थे, पर बालिका के माता-पिता का कहीं पता न चला। आखिर निराश होकर दोनों आदमी कैंप लौट आए।

दूसरे दिन समिति के और कई सेवकों ने फिर पता लगाना शुरू किया। दिन-भर दौड़े, सारा प्रयाग छान मारा, सभी धर्मशालाओं की खाक छानी पर कहीं पता न चला।

तीसरे दिन समाचार-पत्र में नोटिस दिया गया और दो दिन वहां और रहकर समिति आगरे लौट गई। लड़की को भी अपने साथ लेती गई। उसे आशा थी कि समाचार-पत्रों से शायद सफलता हो। जब समाचार-पत्रों से कुछ पता न चला, तब विवश होकर कार्यकर्ताओं ने उसे वहीं के अनाथालय में रख दिया। महाशय यशोदानंदन ही उस अनाथालय के मैनेजर थे।

क्रमश:

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