चैप्टर 4 रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Chapter 4 Ruthi Rani Novel By Munshi Premchand

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रानी की हठ

रानी उमादे अपनी जिद पर कायम रही। राव जी से न बोलती है, न उन्हें अपने पास बैठने देती है। राव जी आते हैं, तो वह उनका बड़े अदब से स्वागत करती है मगर फिर अलग जा बैठती है। उसके माशूकाना अंदाज और शक्लसूरत से राव जी को बहुत मोह लिया है। वह बहुत चाहते हैं कि और कुछ न हो तो व जरा हंसकर बोल ही दे। मगर रानी उनको बिल्कुल खातिर में नहीं लाती। इसके साथ ही साथ वह भारीली से भी कुछ खिंची-खिंची रहती है। भारीली अपने मामूली काम किए जाती है और आंख बचाकर राव जी से हंस-बोल लेती है।

राव जी समझते थे कि भारीली ही ने मेरी जान बचायी। वह उनसे कहती कि आप ही की बदौलत यह नाकदरी हो रही है। अब मेरी लाज आपके हाथ है। अगर आपने मन मैला किया तो मैं कहीं की न रहूंगी। राघोजी ज्योतिषी ने भी कहा कि अगर भारीली मुझसे भेद न बताती तो जो सेवा मैंने आपकी की है वह हरगिज न कर सकता था।

राव जी इतना तो जानते थे कि रावल जी की बुरी नीयत की खबर मुझे ज्योतिषी जी ने दी और ज्योतिषी जी को भरीली से इसका पता लगा मगर वह यह न जानते थे कि भारीली से कहने वाला कौन था। उनका हाल तो जब मालूम होता कि रानी उमादे अपने मुंह से कुछ कहती। मगर वह तो भारीली, राव जी और ज्योतिषी, सबों से ऐसी खिन्न हो रही थी कि जबान ही न खोलती थी। उसका धर्म यह कहता कि तेरा यों रूठे रहना शोभा नहीं देता। मगर उसका दिल नहीं मानता था। वह जब तबीयत को दबाकर कुछ बातचीत करने की नीयत करती तो कोई जबान पकड़ लेता, बेचारी अपने दिल से लाचार थी।

भारीली उमादे की इस खामोशी से डरती रहती है कि कहीं मुझ पर बरस न पड़े। एक दिन दिल कड़ा करके वह उसके पैरों पर गिर पड़ी और गिड़गिड़ा कर कहने लगी कि बाई जी, आप जो चाहें सोचें, आपको अख्तियार है। मगर मैंने तो उस वक्त भी आपकी भलाई ही की थी, जब आपने मुझे राव जी को लेने के लिए भेजा था क्योंकि महल के बाहर निकलते ही मुझे संदेह हुआ कि कोई आदमी जनाने भेष में राव जी पर ताक लगाए हुए है। इसलिए मैंने उन्हें आपके महल में लाना खतरे से खाली न समझा और अपने घर लिवा ले गयी। राव जी नशे में मतवाले हो रहे थे। रात-भर सोते रहे और मैं कटार लिए खड़ी रही। जब उनकी नींद खुली और वह अपने होश में आए तो मैं आपकी खिदमत में हाजिर हो गई। अगर इसमें मेरी कुछ खता हो तो माफ करें।

उमादे ने यह सब बातें सुन तो लीं पर मुंह से कुछ न बोली। भारीली खिसियानी होकर चली गयी।

बारात जोधपुर पहुंच गई। दीवान और मंत्री बड़ी धूमधाम से अगवानी को आए। कोसों दूर तक फौज और तमाशाइयों का तांता लगा था। किले में पहुंचते ही रानीवास की तरफ से बाजों के साथ फूल-पत्तों से सजा हुआ एक कलसा आया। राव जी उसमें अशर्फियां डालकर अन्दर चले गए। वहां उनकी मां रानी पद्माजी ने बेटे और बहू पर से अशर्फियां निछावर कीं। बेटे और बहू ने उनके पैर चूमे। अंदर जाकर देवी-देवताओं की पूजा की गयी और उमादे एक सजे हुए महल में उतारी गयी।

राव जी के और भी कई रानियां थीं और उनके बाल-बच्चे भी थे। पटरानी आमेर के राजा भीम की बेटी लाछनदेई थी। राव जी का बेटा कुमार राम इसी रानी से पैदा हुआ था। झाले की रानी सरूपदेई सब रानियों में सुन्दर थी। उसने राव जी का मिजाज बिलकुल अपने काबू में कर रखा था। मगर जब से उसको मोतबर खबर मिली थी कि उमादे मुझसे सुन्दरता में कहीं बढ़-चढ़कर है तब से उसकी छाती पर सांप लोट रहा था। डरती थी कि कहीं राजा साहब मुझे नजरों से गिराकर उसी के वश में न हो जाएं। लेकिन जब आज उसने सुना कि वह पहली ही रात को रूठ गयीं और यहां आकर भी खिंचाव है तब उसकी जान में जान आयी।

मां से रुखसत होकर राव जी झाली रानी सरूपदेई के महल में तशरीफ ले गए। उसने बड़ी खुशी से दौड़कर राव जी के पैर छुए और अपना मोतियों का अनमोल हार तोड़कर उन पर मोती निछावर किए। वह उमादे के खिंचे होने और झल्लेपन से बहुत खिन्न और दुःखी हो रहे थे। रानी सरूपदेई की इस गरमा-गरमी और जोश-तपाक से बहुत खुश हुए और उसे शादी का सब हाल सुनाने लगे। रानी ने सुनकर अर्ज की– ‘‘अगर आप कहें तो एक दिन मैं भी भट्टानी जी से मिल आऊँ।’’

राव जी– ‘‘भट्टानी क्या हैं, एक भाटा हैं।’’

सरूपदेई– (हंसकर) ‘‘वाह, आपने बड़ी इज्जत की। भाटा क्यों होने लगीं, भट्टानी हैं।’’

राव जी– ‘‘हां भट्टानी तो हैं मगर पत्थर की बनी हैं। घमण्ड की सच्ची मूरत।’’

सरूपदेई– ‘‘ईश्वर ने रूप दिया है तो घमण्ड क्यों न करें। क्या आपको यह बात भी न भायी।’’

राव जी– ‘‘आखिर घमण्ड की भी कोई हद होती है।’’

सरूपदेई– ‘‘भला जो एक बड़े घर की बेटी हो, बड़े राव की रानी हो नवेली दुल्हन हो, नौजवान हो, सुंदर हो, उसके घमण्ड की क्या हद हो सकती है। मुझ जैसे गरीब घर की क्या घमण्ड करेगी।’’

राव जी– ‘‘यह सब तुमने ठीक कहा। मगर उसका स्वभाव सचमुच बहुत कठोर और रूखा है। तुम उससे मिलकर खुश न होगी।’’

सरूपदेई– ‘‘अच्छा, तो आप तशरीफ ले चलिए, हम सब आपके साथ-साथ चलेंगे।’’

राव जी– (हंसकर) ‘‘ठीक है, तुम्हारे साथ चलाकर अपनी बेइज्जती कराऊं।’’

सरूपदेई– (गर्म होकर) ‘‘वह क्या उसका बाप भी आपकी बेइज्जती नहीं कर सकता।’’

राव जी– ‘‘और चाहे तो पति की बहुत कुछ तौहीन कर सकती है। अगर तुम्हारे सामने वह मुझसे मुखातिब न हुई तो बतलाओ मेरी बेइज्जती हुई या नहीं?’’

सरूपदेई– ‘‘जब आप इतनी-सी बात में अपनी बेइज्जती समझेंगे तो उसका घमण्ड क्यों कर निभेगा और कौन निभाएगा?’’

राव जी– ‘‘हां, यही देखना है।’’

उमादे और उसकी सौतिनें

रानी सरूपदेई ने सब रानियों से कहला भेजा कि भट्टानी से मिलने के लिए तैयारी कीजिए। दूसरे दिन सब रानियां बन-ठनकर बड़े ठस्से से उमादे के महल में आयीं। उमादे ने उठकर रानी लाछलदेई को सबसे ऊपर बिठाया और ज्यादातर उसी से बातचीत की; बाकी सब रानियों से मामूली तौर पर मिली और बहुत कम बोली। इसलिए वह दिल में बहुत कुड़बुड़ाई और उसकी शकल-सूरत को देखकर तो उनके दिलों पर दाग पड़ गए।

लौटने पर लाछलदेई तो अपने महल में चली गई, बाकी रानियां सरूपदेई के महल में जमा होकर मशविरा करने लगीं और बहुत दिमाग खर्च करने के बाद यह राय तय कर पायीं कि उमादे तो रूठी ही है राव जी को भी जोड़-तोड़ लगाकर उससे खफा करा देना चाहिए ताकि वह उसके महल में जाना बिलकुल छोड़ दें। क्योंकि अगर कभी उसने हंसकर राव जी की तरफ देख लिया तो वह उसी के हो जाएंगे। इतने में राव जी आ गए और पूछा– ‘‘कहो भट्टानी जी कैसी हैं?’’

सरूपदेई– ‘‘हैं तो बहुत अच्छी, पर अल्हड़ बछड़ी है।’’

राव जी– ‘‘तब तो दुलत्तिया भी झाड़ती होंगी।’’

सरूपदेई– ‘‘हमें इससे क्या, जो पास जाए वह लात खाए।’’

राव जी– ‘‘जिसे दुलत्तियां खानी होंगी, वही पास जाएगा।’’

सरूपदेई– ‘‘सौ बात की एक बात तो यही है।’’

तब राव जी ने दूसरी रानी से भी राय पूछी। रानी पार्वती ने कहा– ‘‘महाराज, वह बड़ी घमंडिन है। अपने बराबर हमें क्या मांजी को भी नहीं समझती।’’

झाला रानी हीरादेई ने फरमाया– ‘‘महाराज, कुछ न पूछिए, अपने सिवा वह सबको जानवर समझती हैं।’’

आहड़ी रानी लाछलदेई बोलीं– ‘‘मैं तो जाकर पछतायी। उसकी मां ऐसी जिद्दी छोकरी न जाने कहां से लाई। उसकी आंखों में न लाज है न बातचीत में लोच। मैं तो आपको उसके पास न जाने दूंगी।’’

सोगरा रानी लाडा ने कहा– ‘‘वह तो मारे घमण्ड के मरी जाती है। न आए की इज्जत है न गए की खातिर। ऐसी महारानी के पास कोई जाकर क्या करे।’’

चौहानी रानी इन्दर बोलीं– ‘‘महाराज, मैंने बहुत औरतें देखीं, एक से एक सुन्दर, मगर ऐसा फिरा हुआ मिजाज किसी का न देखा। न जाने उसके गोरे बदन में कौन सा भूत समा गया है।’’

रानी राजबाई ने फरमाया—‘‘गोरी-चि्ट्टी हैं तो क्या, लच्छन तो दो कौड़ी के भी नहीं हैं। बड़े घर आ गयी हैं, नहीं तो सारा घमण्ड धरा रहता।’’

झाला रानी नौरंगदेई बोली—‘‘जवानी के नशे में दीवानी हो रही है। यही नहीं जानतीं, जवानी सब पर आती है, कुछ उसी पर नहीं है। कल जवानी जाती रहेगी तो यह सब दिमाग खाक में मिल जाएगा।’’

यह सब जहरीली बातें सुन-सुनकर राव जी को भी गुस्सा आ गया। उन्होंने उमादे के यहां आना-जाना कम कर दिया। कभी जाते तो उसे एक निगाह देखकर चले आते। उमादे भी सिर्फ उनके आदर के लिए खड़ी हो जाती, कुछ बातचीत न करती।

राव जी की दो और भट्टानी रानियां थीं, उनसे वह उमादे के बारे में कुछ बातचीत न करते क्योंकि वह जानते थे कि उन्हें उमादे कि शिकायत नागवार गुजरेगी। वह भी राव जी से कुछ न कहतीं पर जी में यही चाहती थीं कि अगर उनका और उमा का मिलाप हो जाता, तो बहुत अच्छा होता। एक दिन मौका ढूंढ़कर उन्होंने कछवाहा रानी लाछलदेई से कहा कि उमादे नादानी में अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रही है। अभी कमसिन है, सौतों के दांव-पेंच को क्या जाने ! अगर यही कैफियत रही तो बेचारी की जिन्दगी अजीरन हो जाएगी। आप देखती हैं कि अब राव भी उसके यहां कम जाते हैं। मगर उसकी अकड़ अभी तक ज्यों की त्यों है। रावजी को ऐसी बेरुखी नहीं दिखलानी चाहिए। वह भरी अभी अल्हड़ है। अगर नादानी करे तो माफी के काबिल है। मगर राव जी अक्लमंद होकर क्यों रूठते हैं?

लाछलदेई बहुत नेक और समझदार औरत थीं। उन्होंने वादा किया कि मैं राव जी से इसका जिक्र करूंगी। लिहाजा एक दिन शाम के वक्त वह राव जी की खिदमत में हाजिर हुई और इधर-उधर की बातचीत करते-करते पूछा– ‘‘आपने अपनी नई रानी के पास आना-जाना क्यों कम कर दिया?’

राव जी– मैं तो बराबर आता-जाता था, मगर उसी ने रूठकर मजा किरकिरा कर दिया।’’

रानी लाछल०– ‘‘वह रूठी क्यों, मुझे इसका भेद अब तक न खुला।’’

राव जी– ‘‘भारीली की बदौलत।’’

लाछल०– ‘‘फिर आप भारीली को क्यों इतना मुंह लगाते हैं? वह उमा के बराबर की नहीं है।’’

राव जी– ‘‘इसमें मेरी क्या खता है? उमादे ही ने उसे मेरे पास भेजा था।’’

लाछल०– ‘‘ठीक है, मगर चाहिए कि भारीली अपनी जगह रहे और उमा उमा की जगह।’’

राव जी– “मैं भी तो यही चाहता हूं, पर उमा नहीं मानती। उसके जी का कुछ हाल ही नहीं खुलता कि आखिर क्या मंशा है। तुम जरा पता तो लगाओ।”

लाछल०– ‘‘बहुत अच्छा, कोई मौका आने दीजिए।’’

रानी लाछलदेई ने यह सब बातें उमा से कहीं। उसने उनको धन्यवाद दिया मगर इसका कुछ नतीजा न निकाला। हां, उमा को यह मालूम हो गया कि यहां भी एक औरत ऐसी है जो मेरे दुःख को समझ सकती है, अब वे अक्सर लाछल से मुलाकात करके उससे दिल बहलातीं और उसे जीजी बाई कहती उसके लड़के कुमार राम को भी बहुत प्यार करतीं।

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