चैप्टर 4 गोदान : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 4 Godan Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 4 Godan Novel By Munshi Premchand

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भोला की आज जितनी ख़ातिर हुई, और कभी न हुई होगी। गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लायी, रूपा तमाखू भर लायी। धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सुनने के लिए अधीर हो रही थी।

भोला ने चिलम हाथ में लेकर कहा – “अच्छी घरनी घर में आ जाये, तो समझ लो लक्ष्मी आ गयी। वही जानती है छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए।“

धनिया के हृदय में उल्लास का कंपन्न हो रहा था। चिंता और निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमल शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी।

होरी जब भोला का खांचा उठाकर भूसा लाने अंदर चला, तो धनिया भी पीछे-पीछे चली। होरी ने कहा – “जाने कहाँ से इतना बड़ा खांचा मिल गया। किसी भड़भूजे से मांग लिया होगा। मन-भर से कम में न भरेगा। दो खांचे भी दिये, तो दो मन निकल जायेंगे।“

धनिया फूली हुई थी। मलामत की आँखों से देखती हुई बोली – “या तो किसी को नेवता न दो, और दो तो भरपेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आये हैं कि चँगेरी लेकर चलते। देते ही हो, तो तीन खाँचे दे दो। भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लाये। अकेले कहाँ तक ढोयेगा। जान निकल जायेगी।“

“तीन खांचे तो मेरे दिये न दिये जायेंगे!”

“तब क्या एक खांचा देकर टालोगे? गोबर से कह दो, अपना खांचा भरकर उनके साथ चला जाये।“

‘गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है।’

“एक दिन न गोड़ने से ऊख न सूख जायेगी।“

“यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते। भगवान के दिये दो-दो बेटे हैं।“

“न होंगे घर पर। दूध लेकर बाज़ार गये होंगे।“

“यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद दे, लदा दे, लादने वाला साथ कर दे।“

“अच्छा भाई, कोई मत जाय। मैं पहुँचा दूंगी। बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है।“

“और तीन खांचे उन्हें दे दूं, तो अपने बैल क्या खायेंगे?”

“यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था। न हो, तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।“

“मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठाकर नहीं दे दिया जाता!”

“अभी ज़मींदार का प्यादा आ जाये, तो अपने सिर पर भूसा लादकर पहुँचाओगे तुम, तुम्हारा लड़का, लड़की सब। और वहाँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी फाड़नी पड़े।“

“ज़मींदार की बात और है।“

“हाँ, वह डंडे के ज़ोर से काम लेता है न।“

“उसके खेत नहीं जोतते?”

‘खेत जोतते हैं, तो लगान नहीं देते?”

“अच्छा भाई, जान न खा, हम दोनों चले जायेंगे। कहाँ-से-कहाँ मैंने इन्हें भूसा देने को कह दिया। या तो चलेगी नहीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।’

तीनों खाँचे भूसे से भर दिये गये। गोबर कुढ़ रहा था। उसे अपने बाप के व्यवहारों में ज़रा भी विश्वास न था। वह समझता था, यह जहाँ जाते हैं, वहीं कुछ-न-कुछ घर से खो आते हैं। धनिया प्रसन्न थी। रहा होरी, वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब-उतरा रहा था।

होरी और गोबर मिलकर एक खांचा बाहर लाये।

भोला ने तुरन्त अपने अँगोछे का बीड़ा बनाकर सिर पर रखते हुए कहा – “मैं इसे रखकर अभी भागा आता हूँ। एक खांचा और लूंगा।“
होरी बोला – “एक नहीं, अभी दो और भरे धरे हैं। और तुम्हें आना नहीं पड़ेगा। मैं और गोबर एक-एक खांचा लेकर तुम्हारे साथ ही चलते हैं।”

भोला स्तम्भित हो गया। होरी उसे अपना भाई बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानो उसके संपूर्ण जीवन को हरा कर दिया।

तीनों भूसा लेकर चले, तो राह में बातें होने लगीं।

भोला ने पूछा – “दशहरा आ रहा है, मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?”

“हाँ, तम्बू सामियाना गड़ गया है। अब की लीला में मैं भी काम करूंगा। राय साहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।“

“मालिक तुमसे बहुत ख़ुश हैं।“

“उनकी दया है।“

एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा – “सगुन करने के रुपये का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा।“

होरी ने मुँह का पसीना पोंछकर कहा – “उसी की चिंता तो मारे डालती है”

दादा – “अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। ज़मींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातोंरात ढोकर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता। ज़मींदार तो एक ही हैं; मगर महाजन तीनतीन हैं, सहुआइन अलग, मंगरू अलग और दातादीन पण्डित अलग। किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। ज़मींदार के भी आधे रुपए बाक़ी पड़ गये। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिये तो काम चला। सब तरह किफ़ायत कर के देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसी लिए हुआ है कि अपना रक्त बहायें और बड़ों का घर भरें। मूलका दुगना सूद भर चुका; पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सर्दी-गर्मी में, तीरथ-बरत में हाथ बांधकर ख़रच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। राय साहब ने बेटे के ब्याह में बीस हज़ार लुटा दिये। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मंगरू ने अपने बाप के िक्तया-करम में पाँच हज़ार लगाये। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसा ही मरजाद तो सबका है।
भोला ने करुण भाव से कहा – “बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो भाई?”

“आदमी तो हम भी हैं।“

“कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ? आदमी वह हैं, जिनके पास धन है, अख़्तियार है, इलम है, हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उसपर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफ़ा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।’

बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखों और भविष्य के सर्वनाश से ज़्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएं पर बोझ रखकर पानी पीने के लिए बैठ गये। गोबर ने बनिये से लोटा मांगा और पानी खींचने लगा।

भोला ने सहृदयता से पूछा – “अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।“

होरी आद्रर् कंठ से बोला – “कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूं। मेरे जीते जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपनी जवानी धूल में मिला दी, वही मेरे मुद्दई हो गये और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो, घर देखनेवाला भी कोई चाहिए कि नहीं। लेना-देना, धरना उठाना, संभालना-सहेजना, यह कौन करे। फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़ू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देख-भाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर संभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था? जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है। नहीं सब को दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खायँ चार दफ़े, तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुर्गती हुई है, वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी अपनी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काटती थी, ख़ुद भूखी सो रही होगी; लेकिन बहुओं के लिए जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपनी देह पर गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार गहने बनवा दिये। सोने के न सही चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये। मेरे सिर से बला टली।

भोला ने एक लोटा पानी चढ़ाकर कहा – “यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या, यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देखकर मुँह नहीं बंद कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गांजे के दम लगाओगे, मगर आये किसके घर से? ख़रचा करना चाहते हो तो कमाओ; मगर कमाई तो किसी से न होगी। ख़रच दिल खोलकर करेंगे। जेठा कामता सौदा लेकर बाज़ार जायेगा, तो आधे पैसे ग़ायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी है, वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। सांझ हुई और ढोल-मजीरा लेकर बैठ गये। संगत को मैं बुरा नहीं कहता। गाना-बजाना ऐब नहीं; लेकिन यह सब काम फ़ुरसत के हैं। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो, आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिर; सानी-पानी मैं करूं, गाय-भैंस मैं दुहूँ, दूध लेकर बाज़ार मैं जाऊं। यह गृहस्थी जी का जंजाल है, सोने की हँसिया, जिसे न उगलते बनता है, न निगलते। लड़की है, झुनिया, वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आये थे। कितना अच्छा घर-बर था। उसका आदमी बम्बई में दूध की दुकान करता था। उन दिनों वहाँ हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छूरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निबाह नहीं। जाकर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूंगा; मगर वह राज़ी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती हैं। घर में महाभारत मचा रहता है। विपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नहीं।

इन्हीं दुखड़ों में रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटा; मगर बहुत गुलज़ार। अधिकतर अहीर ही बसते थे। और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी जिस पर दस-बारह गायें-भैंसें खड़ी सानी खा रही थीं। ओसारे में एक बड़ा-सा तख़्त पड़ा था जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूँटी पर ढोलक लटक रही थी किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुख़ीर् थी। मालूम होता था, अभी रोकर उठी है। उसके मांसल, स्वस्थ, सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था। मुँह बड़ा और गोल था, कपोल फूले हुए, आँखें छोटी और भीतर धंसी हुई, माथा पतला; पर वक्ष का उभार और गात का वही गुदगुदापन आँखों को खींचता था। उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी।
भोला को देखते ही उसने लपककर उनके सिर से खांचा उतरवाया। भोला ने गोबर और होरी के खांचे उतरवाये और झुनिया से बोले – “पहले एक चिलम भर ला, फिर थोड़ा-सा रस बना ले। पानी न हो तो गगरा ला, मैं खींच दूं।  होरी महतो को पहचानती है न?”

फिर होरी से बोला – “घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया। पुरानी कहावत है — नाटन खेती बहुरियन घर। नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुयें क्या घर संभालेंगी। जब से इसकी माँ मरी है, जैसे घर की बरकत ही उठ गयी। बहुयें आटा पाथ लेती हैं। पर गृहस्थी चलाना क्या जानें। हाँ, मुँह चलाना ख़ूब जानती हैं। लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे। सब-के-सब आलसी हैं, कामचोर। जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ। मर जाऊंगा, तो आप सिर पर हाथ धरकर रोयेंगे। लड़की भी वैसी ही है। छोटा-सा अढ़ौना भी करेगी, तो भुन-भुनाकर। मैं तो सह लेता हूँ, ख़सम थोड़े ही सहेगा।

झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में लोटे का रस लिये बड़ी फुतीर् से आ पहुँची। फिर रस्सी और कलसा लेकर पानी भरने चली। गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़ाकर झेंपते हुए कहा – “तुम रहने दो, मैं भरे लाता हूँ।

झुनिया ने कलसा न दिया। कुएं के जगत पर जाकर मुस्कराती हुई बोली — तुम हमारे मेहमान हो। कहोगे एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया।

“मेहमान काहे से हो गया। तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ।“

“पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न दिखाये, तो मेहमान ही है।“

“रोज़-रोज़ आने से मरजाद भी तो नहीं रहती।“

झुनिया हँसकर तिरछी नज़रों से देखती हुई बोली – “वही मरजाद तो दे रही हूँ। महीने में एक बेर आओगे, ठंडा पानी दूँगी। पंद्रहवें दिन आओगे, चिलम पाओगे। सातवें दिन आओगे, ख़ाली बैठने को माची दूंगी। रोज़-रोज़ आओगे, कुछ न पाओगे।“

“दरसन तो दोगी?”

“दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी।“

यह कहते-कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी। उसका मुँह उदास हो गया। वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चिन्त थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह उस द्वार को सदैव बंद रखती है। कभी-कभी घर के सूनेपन से उकताकर वह द्वार खोलती है; पर किसी को आते देखकर भयभीत होकर दोनों पट भेड़ लेती है।

गोबर ने कलसा भरकर निकाला। सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पीकर लौटे। भोला ने कहा – “कल तुम आकर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा रही है।“

गोबर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थी और मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था। गाय इतनी सुंदर और सुडौल है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी।

होरी ने लोभ को रोककर कहा – “मंगवा लूंगा, जल्दी क्या है?”

“तुम्हें जल्दी न हो, हमें तो जल्दी है। उसे द्वार पर देखकर तुम्हें वह बात याद रहेगी।“

“उसकी मुझे बड़ी फ़िकर है दादा!”

“तो कल गोबर को भेज देना।“

दोनों ने अपने-अपने खांचे सिर पर रखे और आगे बढ़े। दोनों इतने प्रसन्न थे, मानो ब्याह करके लौटे हों। होरी को तो अपनी चिर संचित अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष था, और बिना पैसे के। गोबर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गयी थी। उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी।

अवसर पाकर उसने पीछे की तरफ़ देखा। झुनिया द्वार पर खड़ी थी, मन आशा की भांति अधीर, चंचल।

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