चैप्टर 2 : मेरे हमदम मेरे दोस्त उर्दू नॉवेल हिंदी में | Chapter 2 : Mere Humdam Mere Dost Novel In Hindi

Chapter 2 Mere Humdam Mere Dost Novel 

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वो कीमती एयर-कंडिशन्ड कार में बैठी ख़ुद को अपने घर से, अपने लोगों से, अपने शहर से दूर जाता देख रही थी. उसके तसव्वुर (कल्पना) में उसकी माँ की बिल्कुल ताज़ा कब्र आ रही थी. पता नहीं कि वो वहाँ जाकर फ़ातिहा (prayers made on grave) पढ़ा भी करेगी कि नहीं? वो कुछ भी नहीं सोचना चाहती थी और बहुत कुछ सोचे जा रही थी.

उसे परसों शाम बाप के साथ टेलीफ़ोन पर होने वाली वो गुफ़्तगू भी याद आ रही थी. जिसके दौरान ये शख्स भी उसके बाप के पास मौजूद था.

वो अम्मी के तदफ़ीन (दफ़नाने) के बाद पड़ोसियों और चंद दूसरी जान-पहचान वाली ख्वातीनों के दरमियान घिरी बैठी थी.

वो जिन लफ़्ज़ों में हमदर्दी कर रहे थे और जिस तरह उसके हौल-नाक (भयंकर) मुस्तक़बिल (भविष्य) की तस्वीर-कशी (चित्रण) कर रहे थे, उनकी बातें सुनती हुई मुसलसल (लगातार) उस बात पर रो रही थी कि अब वो अकेली दुनिया में किस तरह जियेगी.

उसे उन लोगों की बातों से बहुत डर लग रहा था, बहुत वहशत हो रही थी, मगर वो उन्हें चुप नहीं करवा सकती थी. उसी वक़्त भाभी ने आकर उसे बाप के फोन के बारे में बताया था. वो भाभी के साथ नीचे आ गयी थी. ज़ीनत ख़ाला फोन पर बात कर रही थीं.

“ऐमन आ गयी है. आप उससे बात कर लें.”

उसे आता देखकर उन्होंने उनसे कहा और फिर रिसीवर उसके हाथ में पकड़ाते हुए बोली.

“तुम्हारे वालिद का फोन है.”

उसने रिसीवर उनके हाथ से ले लिया. वो ज़िन्दगी में पहली बार अपने बाप से बात करने जा रही थी. लेकिन ना उसका दिल तेज-तेज धड़क रहा था ना वो किसी किस्म की ख़ुशगवारी महसूस कर रही थी. उसने अपन चेहरे से आँसू साफ़ करते हुए रिसीवर कान से लगाकर उन्हें सलाम किया. उसके दिल में कोई हलचल नहीं हो रही थी. हालांकि उस एक फोन कॉल का उसकी माँ को कितनी शिद्दत से इंतज़ार था.

अपनी ज़िन्दगी के आखिरी बीस दिन उन्होंने इसी फोन कॉल का इंतज़ार किया था. उसके सलाम का उन्होंने बड़ी ही संजीदगी से जवाब दिया था. जीनत ख़ाला उन्हें अम्मी के इंतकाल की ख़बर पहले ही दे चुकी थी. इसलिए अब वो आगे की बात कर रहे थे.

“मैं और अल्मास आज रात अमरीका जा रहे हैं.” – उसके सलाम का जवाब देने के बाद उन्होंने जैसे कुछ सोचते हुए ये बात कही थी. वो उनके मुँह से अपनी गैर-मौजूदगी की बात सुनकर साकित (सन्न) रह गई थी. उस शख्स से उसने ज़िन्दगी में कोई उम्मीदें वाबस्ता नहीं की थी. लेकिन फिर भी इतना गैर-इंसानी रवैया उसके दिल को शदीद तकलीफ़ से दो-चार कर गया था. वो औरत अगर उनकी कुछ भी नहीं लगती थी, तब भी वो उनकी बेटी की माँ तो थी. क्या एक इंसानी ज़िन्दगी की इतनी सी भी एहमियत नहीं रखती. उन्होंने न उसकी माँ के मरने पर कोई ता’ज़ियती (संवेदना व्यक्त करना) जुमला बोला और ना ज़िन्दगी में पहली मर्तबा अपनी बेटी से मुखातिब होने पर उसकी खैरियत दरयाफ्त (पूछी) की थी.

“हैदर कल तुम्हें हैदराबाद जाना है?” कुछ देर बाद उसने उनकी आवाज़ सुनी. वो अब उससे मुखातिब नहीं थे. वो ग़ालिबान (संभवतः) अपने करीब मौजूद किस्सी फ़र्द (व्यक्ति) से कोई बात कर रहे थे. वो शख्स यकीनन बिल्कुल पास बैठा था, क्योंकि उसका जवाब भी उसने बिल्कुल वाज़ेह (स्पष्ट) तौर पर सुना था.

“जी तौफ़ीक भाई! कल शाम में जाना है और शादी में शिरकत करके रात में ही वापसी का इरादा है.” – वो चुपचाप रिसीवर कान से लगाये खड़ी थी.

वो दोनों आपस में जो भी बात कर रहे थे, वो उसे सुन पा रही थी, चंद सेकंड्स बाद उसने दोबारा अपने बाप की आवाज़ सुनी. वो अब उससे मुखातिब थे.

“परसों सुबह हैदर तुम्हें लेने आयेगा, हैदर मसूद! तुम्हें कल का दिन मिल रहा है, उसमें अपनी पैकिंग कर लो. जब तक मैं और अल्मास अमरीका से वापस नहीं आ जाते, तुम हैदर के घर पर ही रहोगी. परेशान मत होना. मैं अमरीका से जल्दी वापस आने की कोशिश करूंगा.”

पता नहीं उसकी परेशानी का ख़याल क्यों नकार गया था या फिर शायद ये जुमला यूं ही अख़लाक़न (morally) बोला गया था. अगर उसने अपनी मरी हुई माँ से वादा न किया होता, तो इसी वक़्त फोन पर उस शख्स को, जो उसका बाप था, ख़ुद पर ये अज़ीम उलू-ए-शान (इतना बड़ा) एहसान करने से रोक देती.

वो कहीं भी चली जाती, किसी गर्ल्स हॉस्टल में या कहीं भी, मगर उस शख्स का एहसान क़बूल नहीं करती. मगर उस शख्स को ख़त लिखने के बाद उसकी माँ ने उन गुजरे तमाम दिनों में उससे हर रोज़ बस एक ही बात कही थी.             

“ऐमन! मेरे बाद तुम तौफ़ीक़ के पास चले जाना. ये दुनिया बहुत ज़ालिम है. तुम तन्हा कैसे रहोगी. वो तुम्हारा बाप है. वो अगर तुमसे बहुत मोहब्बत न भी करेगा, तब भी वहाँ तुम महफ़ूज़ रहोगी.”

उन बीस दिनों में उन्होंने उससे ये वादा लिया था – अपनी कसम देकर, अपनी मोहब्बत का वास्ता देकर. वो जैसे उस बात से बखूबी आगाह थी कि वो अपने बाप से कितनी नफ़रत करती है, इसलिए उतनी शिद्दत से हर रोज़ वादा लिया करती थी. वो उनके दिल को ख़ुश करने के लिए वो वादा कर लिया करती थी. उसे यकीन था कि अम्मी बिल्कुल ठीक हो जायेंगी और उसे किसी दूसरे फ़र्द के पास जाने की कोई ज़रुरत पेश नहीं आयेगी.

मगर अम्मी उसे अपने वादे का पाबंद बनाकर मजबूर कर गयी थी और अब जब वो अजनबी शख्स के बराबर गाड़ी में बैठी थी और बहुत सी बातों के साथ-साथ उसका ज़ेहन उस शख्स के बारे में भी सोच रहा था. न जाने वो उसके बाप का क्या लगता था. बहरहाल इन दोनों का आपस में जो भी ताल्लुक था, वो शख्स उसके बारे में ये तो ज़रूर सोच रहा होगा कि मालूम नहीं उसकी माँ में क्या ख़राबी थी, जो उसके बाप का दिल बीवी की तरफ़ से साफ़ नहीं हुआ.

कितना हक़ीर (तुच्छ) और कमतर समझा होगा उसने उसे, जिस लड़की की उसके बाप के नज़दीक इतनी सी एहमियत ना हो कि वो उसे अपने पास बुलाने के लिए किसी अनजान आदमी को भेज दे. पिछले कई घंटों से ख़ुद को रोने से रोकने की कोशिश करते-करते वो उसके बराबर में गाड़ी में बैठी-बैठी ख़ुद से हार गयी थी. उसने ख़ुद को संभालने और रोने से बाज़ रखने की बहुत कोशिश की.

मगर उस पल आँसू पर बांध बांधना उसके लिए नामुमकिन था. उसने अपना मुँह पूरा का पूरा खिड़की की तरफ़ कर लिया.

वो बे-आवाज़ रो रही थी. कोई सिसकी कोई आवाज़ उसके मुँह से नहीं निकल रही थी. वो बिल्कुल साकित (सन्न) बैठी खिड़की से बाहर नज़रें जमाये आँसू बहा रही थी. वो ख़ुद को रोने से नहीं रोक सकती थी, तो कम-अज़-कम अपने बराबर बैठे शख्स से अपना रोना तो छुपा ही सकती थी.

यूं ही ख़ामोशी से बे-आवाज़ आँसू बहाते उसने जाने कितनी देर गुजारी होगी, जब अचानक उसने उस शख्स की आवाज़ सुनी. वो उससे मुखातिब था. बड़ी सुर’अत (जल्दी, फुर्ती) से, बहुत एहतियात से, बड़ी बेसाख्तगी (शीघ्रता, जल्दी से) से उसने अपने दुपट्टे से अपना चेहरा जल्दी से साफ़ किया. महज़ दो सेकंड्स के अंदर वो ख़ुद को नार्मल करने की कोशिश करती हुई खिड़की की तरफ़ से अपना मुँह हटाया और अपनी सीट पर बिल्कुल सीधी बैठ गयी.

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