ज़िन्दगी की कतरन गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी, Zindagi Ki Katran Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani, Zindagi Ki Katran Gajanan Madhav Muktibodh Hindi Short Story
Zindagi Ki Katran Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani
नीचे जल के तालाब का नज़ारा कुछ और ही है। उसके आस-पास सीमेण्ट और कोलतार की सड़क और बँगले। किन्तु एक कोने में सूती मिल के गेरुए, सफ़ेद और नीले स्तम्भ के पोंगे उस दृश्य पर आधुनिक औद्योगिक नगर की छाप लगाते हैं। रात में तालाब के रुँधे, बुरे बासते पानी की गहराई सियाह हो उठती है, और ऊपरी सतह पर बिजली की पीली रोशनी के बल्बों का रेखाबद्ध निष्कम्प, प्रतिबिम्बि वर्तमान मानवी सभ्यता के सूखेपन और वीरानी का ही इज़हार करते-से प्रतीत होते हैं। सियाह गहराई के विस्तार पर ताराओं के धुँधले प्रतिबिम्बों की विकीरित बिन्दियाँ भी उस कृष्ण गहनता से आतंकित मन को सन्तोष नहीं दे पातीं वरन् उसे उघार देती हैं।
तालाब के इस श्याम दृश्य का विस्तार इतनी अजीब-सी भावना भर देता है कि उसके किनारे बैठकर मुझे उदास, मलिन भाव ही व्यक्त करने की इच्छा होती आयी है। उस रात्रि-श्याम जल की प्रतीक-विकरालता से स्फुट होकर मैंने अपने जीवन में सूनी उदास कथाएँ अपने साथियों के संवेदना-ग्रहणशील मित्रों को सुनायी हैं।
यह तालाब नगर के बीचोंबीच है। चारों ओर सड़कें और रौनक़ होते हुए भी उसकी रोशनी और खानगी उस सियाह पानी के भयानक विस्तार को छू नहीं पाती है। आधुनिक नगर की सभ्यता की दुखान्त कहानियों का वातारवण अपने पक्ष पर तैरती हुई वीरान हवा में उपस्थित करता हुआ यह तालाब बहुत ही अजीब भाव में डूबा रहता है।
फिर इस गन्दे, टूटे घाटवाले, वुरे-बासते तालाब के उखड़े पत्थरों-ढके किनारे पर निम्न मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे अहलकारों और मुंशियों का जमघट चुपचाप बैठा रहता है और आपस में फुसफुसाता रहता है। पैण्ट-पज़ामों और धोतियों में ढके असन्तुष्ट प्राणमन सई- साँझ यहाँ आ जाते हैं, और बासी घरेलू गप्पों या ताज़ी राजनीतिक वार्ताओं की चर्चाएँ घण्टा-आधा घण्टा छिड़कर फिर लुप्त हो जाती हैं और रात के साढ़े आठ बजे सड़कें सुनसान, तालाब का किनारा सुनसान हो जाता है।
एक दिन मैं रात के नौ बजे बर्माशेल में काम करनेवाले नये दोस्त के साथ जा पहुँचा था। हमारी बातचीत महँगाई और अर्थाभाव पर छिड़ते ही हम दोनों के हृदय में उदास भावों का एक ऐसा झोंका आया जिसने हमें उस विषय से हटाकर तालाब की सियाह गहराइयों के अपार जल-विस्तार की ओर खींचा। उस पर ध्यान केन्द्रित करते ही हम दोनों के दिमाग़ में एक ही भाव का उदय हुआ।
मैंने अटकते-अटकते, वाक्य के सम्पूर्ण विन्यास के लिए अपनी वाक्-शक्ति को ज़बरदस्ती उत्तेजित करते हुए उससे कहा, ‘‘क्यों भाई, आत्महत्या…आत्महत्या के बारे में जानते हो…उसका मर्म क्या है।
जवाब मिला, जैसे किसी गुहा में से आवाज़ आ रही हो, ‘‘क्यों, क्यों पूछ रहे हो ?’’
‘‘यो ही, स्वयं आत्हत्या के सम्बन्ध में कई बार सोचा था।’’
आत्म-उद्घाटन के मूड में, और गहरे स्वर से साथी ने कहा, ‘‘मेरे चचा ने खुद आत्हत्या की मैनचेस्टर गन से। लेकिन….’’
उसके इतने कहने पर ही मेरे अवरुद्ध भाव खुल-से गये। आत्महत्या के विषय में अस्वस्थ जिज्ञासा प्रकट करते हुए मैंने बात बढ़ायी, ‘‘हरेक आदमी जोश में आकर आत्महत्या करने की क़सम भी खा लेता है। अपनी उद्विग्न चिन्तातुर कल्पना की दुनिया में मर भी जाता है, पर आत्महत्या करने की हिम्मत करना आसान नहीं है। बायोलॉजिकल शक्ति बराबर जीवित रखे रहती है।’’
दोस्त का मन जैसे किसी भार से मुक्त हो गया था। उसने सचाई भरे स्वर में कहा, ‘‘मैं तो हिम्मत भी कर चुका था, साहब ! डूब मरने के लिए पूरी तौर से तैयार होकर मैं रात के दस बजे घर से निकला, पर इस सियाहपानी की भयानक विकरालता ने इतना डरा दिया था कि किनारे पर पहुँचने के साथ ही मेरा पहला ख़याल मर गया और दूसरे ख़याल ने ज़िन्दगी में आशा बाँधी। उस आशा की कल्पना को पलायन भी कहा जा सकता है। प्रथम भाव-धारा के विरुद्ध उज्ज्वल भाव-धारा चलने लगी। सियाहपानी के आतंक ने मुझे पीछे हटा दिया…बन्दूक़ से मर जाना और है, वीरान जगह पर रात को तालाब में मर जाने की हिम्मत करना दूसरी चीज़।’’
मित्र ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘आत्महत्या करनेवालों के निजी सवाल इतने उलझे हुए नहीं होते जितने उनके अन्दर के विरोधी तत्त्व, जिनके आधीन प्रवृत्तियों का आपसी झगड़ा इतना तेज़ हो जाता है कि नई ऊँचाई छू लेता है। जहाँ से एक रास्ता जाता है ज़िन्दगी की ओर, तो दूसरा जाता है मौत की तरफ़ जिसका एक रूप है आत्महत्या।’’
मित्र के थोड़े उत्तेजित स्वर से ही मैं समझ गया कि उसके दिल में किसी कहानी की गोल-मोल घूमती भँवर है।
उसके भावों की गूँज मेरी तरफ़ ऐसे छा रही थी मानो एक वातावरण बना रही हो।
मैं उसके मूड से आक्रांत हो गया था। मेरे पैर अन्दर नसों में किसी ठण्डी संवेदना के करेण्ट का अनुभव कर रहे थे।
उसके दिल के अन्दर छिपी कहानी को धीरे से अनजाने निकाल लेने की बुद्धि से प्रेरित होकर मैंने कहा, ‘‘यहाँ भी तो आत्महत्याएँ हुई हैं।
यह कहकर मैंने तालाब के पूरे सियाह फैलाव को देखा, उसकी अथाह काली गहराई पर एक पल नज़र गड़ायी। सूनी सड़कों और गुमसुम बँगलों की ओर दृष्टि फेरी और फिर अँधेरे में अर्ध-लुप्त किन्तु समीपस्थ मित्र की ओर निहारा और फिर किसी अज्ञेय संकेत को पाकर मैं किनारे से ज़रा हटकर एक ओर बैठ गया।
फिर सोचा कि दोस्त ने मेरी यह हलचल देख ली होगी। इसलिए उसकी ओर गहरी दृष्टि डालकर उसकी मुख-मुद्रा देखने की चेष्टा करने लगा।
दोस्त की भाव-मुद्र अविचल थी। घुटनों को पैरों से समेटे वह बैठा हुआ था उसका चेहरा पाषाण-मूर्ति के मुख के अविचल भाव-सा प्रकट करता था। कुछ लम्बे और गोल कपोलों की मांसपेशियाँ बिलकुल स्थिर थीं। या तो वह आधा सो रहा था अथवा निश्चित रूप से भावहीन मस्तिष्क के साँवले धुँधलेपन में खो गया था, किंवा किसी घनीभूत चेतना के कारण निस्तब्धता-सा लगता था। मैं इसका कुछ निश्चय न कर सका।
मेरी इस खोज-भरी दृष्टि से अस्थिर होकर उसने जवाब दिया, ‘‘क्यों, क्या बात है ?’’
उसके प्रश्न के शान्त स्वर से सन्तुष्ट होकर मैंने दोहराया, ‘‘इस तालाब में भी कइयों ने जानें दी हैं !’’
‘‘हाँ, किन्तु उसमें भी एक विशेषता है’’, उसके अर्थ भरे स्वर में हँसते हुए कहा। फिर वह कहता गया, ‘‘इस तालाब में जान देने आये हैं जिन्हें एक श्रेणी में रखा जा सकता है। ज़िन्दगी से उकताये और घबराये पर ग्लानि के लम्बे काल में उस व्यक्ति ने न मालूम क्या-क्या सोचा होगा ! अपनी ज़िन्दगी की ऊष्मा और आशय समाप्त होता जान, उसने अनजाने-अँधेरे पानी की गहराइयों में बाइज़्ज़त डूब मरने का हौसला किया और उसे पूरा कर डाला। तुम तो जानते हो, अधेड़ तो वह था ही, बाल-बच्चे भी न थे। कोई आगे न पीछे। उसकी लाश पानी में न मालूम कहाँ अटक गयी थी। तालाब से सड़ी बास आती थी। किन्तु जब लाश उठी तो उसकी तेलिया काली धोती दूर तक पानी में फैली हुई थी।….’’ उसी तरह तुम्हारा तिवारी। वह-पुरे की तेलिन, पाराशर के घर की बहू। ‘‘ये सब सामाजिक-पारिवारिक उत्पीड़न के ही तो शिकार थे ?’’
उसके इन शब्दों ने मुझमें अस्वस्थ कुतूहल को जगा दिया। मेरी कल्पना उद्दीप्त हो उठी। आँखों के सामने जलते हुए फॉसफोरसी रंग के भयानक चित्र तैरने लगे, और मैं किसी गुहा के अन्दर सिकुड़ी ठण्डी नलीदार मार्ग के अँधेरे में उस आग के प्रज्वलित स्थान की ओर जाता-सा प्रतीत हुआ जो उस गुहा के किसी निभृत कोण में क्रुद्ध होकर जल रही है—जिस आग में (मानो किन्हीं क्रूर आदिम निवासियों ने, जो वहाँ दीखते नहीं, लापता है) मांस के वे टुकड़े भूने जाने के लिए रखे हैं जो मुझे ज्ञात होते से लगते हैं कि वे किस प्राणी के हैं, किस व्यक्ति के हैं।
**समाप्त**
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