मैं फ़िलॉस्फर नहीं हूँ गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी | Main Philosopher Nahin Hoon Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani 

मैं फ़िलॉस्फर नहीं हूँ गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी, Main Philosopher Nahin Hoon Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani, Main Philosopher Nahin Hoon Gajanan Madhav Muktibodh Hindi Short Story 

Main Philosopher Nahin Hoon Gajanan Madhav Muktibodh Ki Kahani 

मैं आप से पहले ही कह चुका हूँ कि मैं लिख नहीं सकता, क्योंकि दिमाग़ में ख़यालात इतने बारीक आते हैं कि जिनको ज़ाहिर करने के लिए मुझे भाषा नहीं मिलती। आप ख़ुद जानते हैं, कि जिस दुपहर को आप को नींद नहीं आती और न पढ़ने-लिखने में मन लगता है, तब ख़यालात ग़ज़ब की बेतरतीबी से दिमाग़ में आते-जाते रहते हैं। और न जाने क्यों उनकी इस हालत से मन व्याकुल हो उठता है, और चाहता है कि वह घर के शीतल और अँधेरे कोने के एकान्त के समान किसी शांत गहराई में डूब जाये, रम जाये। जब मन में ऐसी शीतल एयर अगाध गहराई में मुक्तमग्न हो जाने के ख़यालात आते हैं तब चिलचिलाती धूप बाहर चराचर को अपने गरम-गरम स्पर्शों से जलाये डालती है, भूने डालती है। तब मन का अकेला पँछी अपने नीड़ खोजने के लिए बेतरतीब ख़यालात की ममी में से होकर निकलता है, और उड़ता चलता है, और उड़ता चलता है।

और सूरज की तेज़ी से व्याकुल होती हुई, बिस्तर पर पड़ी हुई, आदमी की देह पंखा करती रहती है अपने को। तभी घर की कॉर्निश में छायादार जगह पर रहने वाली कबूतरों की टुऊ टुऊ घर के सूने में समाये हुए मौन को चीर डालती है, फाड़े डालती है।

उजड़े हुए घर में रहने वाली अशरीर आत्मा के समान एक अजीब वेदना हृदय के सूने को करुणान्त स्वर से गुंजाती रहती है। तब हृदय भागना चाहता है, अपने से ही, किसी ऐसी जगह की तलाश में जहाँ उसे आश्रय मिल सके, जहाँ अपने जर्र-जर्र जीवन को वह टिका सके।

और, जनाब, मुआफ़ कीजिए, मैं कोई ले मैन-साधारण आदमी नहीं हूँ। मैं कॉलेज में प्रोफ़ेसर हूँ, और घर में जनक हूँ। और थियासाफ़िकल लॉज में फ़िलासफ़र के नाम से मशहूर हूँ। और, कुछ मत पूछिए, मैं कुछ-कुछ क्रांतिकारी भी हूँ और थोड़ा-सा साम्यवादी हूँ। कवि मैं जन्म से ही हूँ, पर अब मैंने कविता लिखना छोड़ दिया है, क्योंकि राजनीति के अभ्यास में दत्तचित्त हूँ। मैं हमेंशा मटीरियलिस्ट हूँ, घर में ऐथीस्ट हूँ। फिलॉसॉफिकल क्लब में प्रैग्मैटिस्ट हूँ। इसीलिए सब-कुछिस्ट हूँ।

सो, साहब, मैं साधारण आदमी नहीं हूँ, असाधारण हूँ, और साहित्य में युगधर्म का पक्षपाती हूँ। पर क्यों जी, यह तो बतलाओ, कि दुनिया को जिस रूप में वह है उस रूप को अत्यंत सत्य मानते हुए मन क्यों उचट जाता है? उस माने हुए सत्य की भयंकर व्यर्थता का भान क्यों जीवन के फल को अंदर से कुरेदने लगता है?

जितना अधिक,जनाब, मैं इस बात को फ़ील करता हूँ उतना ही अधिक वास्तव सत्य से चिपटकर रहता हूँ। यानी जिस तरह देवदास शराब को पी कर अपने दिल के घाव को भुलाये रखता था,वैसे ही मैं भी अपने इस गहरे संताप को कतई भूल जाने के निमित्त स्वयं को विस्तृत संसार के कर्मों में लीन कर देता हूँ। सांसारिक सत्यों की व्यर्थता के संताप को अपने दिल से दूर रखने की चेष्टा किया करता हूँ। क्योंकि मेरा ख़याल है कि जगत में जगत का होकर रहना चाहिए।

लेकिन यार, कोई अपने को कहाँ तक बचाए। वैसे तो मैं अकेला रहना बिल्कुल पसंद नहीं करता और मन को भी किसी-न-किसी काम में जुटाए रहता हूँ। परन्तु कभी-कभी किसी एकाध मित्र के साथ बाहर निकलना ही पड़ता है। और कभी-कभी जब इसी तरह मैं बाहर प्रकृति के आँगन में निकल पड़ता हूँ अपने एकाध मित्र के साथ, तब मज़ेदार बातचीत तो एक ओर रह जाती है, और मेरा मन उस निसर्ग सौंदर्य को देख कर अपने से ही उचट जाता है। तब कभी-कभी मैं चाहने लगता हूँ कि प्रकृति की रंगबिरंगी संवेदनाओं को अपने मन के दरवाज़े के बाहर ठेलकर फेंक दूँ। और हमेशा को उनके लिए दरवाज़ा बंद कर दूँ। पर ये संवेदनाएँ, क्या कुछ कम शक्तिशाली होती हैं? मैं जितनी सरलता से कह जाता हूँ उतनी ही सरलता से कर नहीं सकता, और मन उचटता ही रहता है। जिस तरह लोग अपना मन रमाने के लिए जंगल के कोलाहल से फटे हुए कान के पर्दों को कोकिल के स्वर के स्पर्श से ज्वलंत करने के लिए आते हैं, वही निशाकुल संध्या के समय जबकि नदी के सुदूर किनारे पर लगी हुई वृक्षावलियाँ अंधकारमय होकर पीले श्यामल नभ में कजरारी दिखने लगती हैं, और उस कजरारेपन की गहन गम्भीरता नदी के लहरिल जल में मग्न हो जाती है, मैं उस अत्यंत शांत वेला में नदी के छोटे से घाट पर पानी पीता हुआ अपने से कितना विरक्त अनुभव करता हूँ?

जनाब, मैंने बी.ए. में फ़िलॉसफ़ी ली थी,और फ़र्स्ट क्लास में पास हुआ। एम. ए. फ़िलॉसफ़ी ली और युनिवर्सिटी में फ़स्ट क्लास फस्ट आया। तभी मेरा एक मित्र कहने लगा, “चश्मे के काँच में से झाँकती हुई तुम्हारी आँखें अब अधिक गंभीर मालूम होने लगी हैं।” लेकिन मैं सच कहता हूँ जब मैंने दिमाग़ से पूछा, “क्या सचमुच तुम गंभीर हो गए हो?”

तो, दिमाग़ से उत्तर आया, “नहीं, मैं बिलकुल कोरा हूँ, टैब्यूला रासा।”

मैं चुप रहा और मुस्कराते हुए लोगों के अभिवादन स्वीकार करमे लगा। मैं रिसर्च-स्कॉलर हो गया। “फिलॉस्फरज़ ने ऑन्टोलॉजी, एपिस्टेमालाजी और एक्श्यालाजी में कन्फ्यूज़न कर दिया।” मैंने खोज करना आरम्भ कर दिया। “शंकराचार्य का ऐब्सोल्यूट हेगल के ऐब्सोल्यूट से भिन्न है, हाँ है तो,” और मेरी विचारधारा चलने लगी।

जब मैं डॉक्टर ऑफ फ़िलॉसफ़ी की डिग्री लेकर यूनिवर्सिटी का गाऊन पहिने हुए बाहर निकला तो पता चला कि इतने सालों की मेहनत और बुद्धि-व्यय के बाद मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ। मैंने धीरे से अपने से पूछा, “कहो, भाई, अब तो तुम पढ़-लिख गए हो।”

और एक आवाज़ आई, “मैं बिलकुल कोरा हूँ —टैब्यूला रासा।”

मैंने देखा यूनिवर्सिटी के मैदान पर अपार जनसमूह मेरा अभिवादन करने के लिए उत्सुक खड़ा है। किन्तु वह मेरे लिए प्राणहीन, निःस्पन्द और कोरा है। सब ओर मुझे कोरा सूनापन दिखलाई दिया। मैं गरदन नीची डाले हुए भीड़ में एक ओर गुम हो जाना चाहता था कि मेरे एक मित्र ख़ुशी के सागर में तैरते हुए मेरे समीप आए, और लगे कान्ग्रेच्युलेशनज़ देने।

मैंने कहा, “जनाब, चलिये इधर चाय पी आएं।” उसने कहा, “जनाब मैं बनारसी हूँ, मिठाई खाऊँगा।” मैंने कहा, “तो, हटिये, मुझे जाने दीजिये। चाय की तलब लग रही है।”

मेरे चेहरे पर की उदासी अब क्रोध में परिवर्तित होते देखकर हमारे मित्रवर बोले, “अच्छा तो, डा. के. एल. राय कह रहे थे कि प्रो त्रिमूर्ति की ख़ाली जगह पर आपको हेड ऑफ द डिपार्टमेण्ट नियुक्त किया गया है।”

मैं उछल पड़ा, उदासी भाग गयी, क्रोध हट गया।

मैंने कहा, “अच्छा, तो तुम मिठाई खाओ, मैं चाय पियूँगा।”

मैंने सोचा, “अभी मैं कितना उदास था, अब कितना ख़ुश हूँ। सचमुच जीवन बिलकुल लॉजीकल नहीं है।”

मैं अपने विद्यार्थियों को मेटाफ़िज़िक्स पढ़ाया करता हूँ। लोग मेरी बहुत तारीफ़ करते हैं। प्रान्त भर में मैं प्रसिद्ध हूँ। लेकिन, जनाब, मैं आप से सच कहता हूँ कि पढ़ाते-पढ़ाते ऐसा जी होता है कि कप-भर चाय पी लूँ और उन से साफ़-साफ़ कह दूँ कि “मुझे कुछ नहीं आता है। मुझ पर विश्वास मत करो। मेरी विद्वत्ता इन्द्रजाल है। इसके साथ फंसोगे तो जीवनभर धोखा खाओगे, और मुझे नहीं भूलोगे।” तब मुझे ऐसा लगता है मानो मेरे दिल में ख़ून बह रहा हो।

(कर्मवीर, खंडवा, 30 सितम्बर, 1939 में प्रकाशित। रचनावली के दूसरे संस्करण में पहली बार संकलित)

**समाप्त**

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