युवा नरेश ऑस्कर वाइल्ड की कहानी | The Young King Oscar Wilde Story In Hindi

युवा नरेश ऑस्कर वाइल्ड की कहानी, The Young King Oscar Wilde Story In Hindi, Yuwa Naresh Oscar Wild Ki Kahani 

The Young King Oscar Wilde Story In Hindi

यह रात उसके राज्याभिषेक के लिए निर्धारित रात से पहले की एक रात थी और युवा नरेश अपने सुन्दर कक्ष में अकेला बैठा हुआ था। सब दरबारी उन दिनों प्रचलित औपचारिक व्यवहार का निर्वाह करते हुए उसके समक्ष धरती पर सर झुकाते हुए, उसकी अनुमति प्राप्त कर, राजमहल के महा- कक्ष में, शिष्टाचार के प्राध्यापक से कुछ अंतिम पाठ सीखने के लिए जा चुके थे; जहाँ कुछ ऐसे दरबारी भी थे जिनका शिष्टाचार अभी भी बहुत सहज था, जो कि एक दरबारी के लिए, मुझे कहने की आवश्यकता ही नहीं हैं, एक बहुत गंभीर अपराध है।

किशोर- क्योंकि वह अभी किशोर ही था – क्योंकि वह अभी केवल सोलह वर्ष का ही था- उनके चले जाने पर दु:खी नहीं था, और वह आराम की गहरी नि:श्वास छोड़ते हुए कढ़ाईदार गद्दे के नर्म कोमल सिरहानों पर पसर गया था और वहाँ व्यग्र आँखें किए हुए और मुँह बाये किसी भूरे वनदेव, या शिकारियों द्वारा बिछाए गए जाल में ताज़ा फाँसे हुए किसी तरुण जंगली शावक -सा लेटा हुआ था।

और वास्तव में शिकारी ही उसे ढूँढ कर लाये हुए थे, जिन्हें वह लगभग संयोगवश मिला था, नंगा और हाथ में बाँसुरी लिए हुए, वह एक ग़रीब गडरिए (जिसने उसे पाला-पोसा था, और जिसे वह सदा अपना पिता ही समझता था ) के रेवड़ के पीछे चल रहा था। यह किशोर, बूढ़े राजा की इकलौती बेटी के एक अजनबी के साथ गंधर्व विवाह से जन्मा बेटा था ( अजनबी राजकुमारी से कहीं बहुत नीचे की हैसियत का था, और जिसने, कुछ लोग कहा करते थे, अपने बाँसुरी वादन के अद्भुत जादू से युवा राजकुमारी को अपने मोह-पाश में बाँध लिया था जबकि कुछ लोग रिमिनि के कलाकार का नाम भी लेते थे जिसे राजकुमारी कुछ अधिक ही सम्मान देती थी, और जो गिरजे में अपने कार्य को अधूरा छोड़कर, अचानक शहर से लुप्त हो गया था ) जिसे एक सप्ताह से भी कुछ कम आयु में, उसकी सोई हुई माँ के बिस्तर से चुरा कर, शहर से एक दिन की दूरी पर स्थित जंगल के दूरस्थ भाग में रहने वाले एक नि:संतान साधारण किसान दम्पति को सौंप दिया गया था। दु:ख, अथवा प्लेग, जैसा कि दरबारी वैद्य ने कहा था, अथवा, जैसा कि कुछ लोगों ने बताया था, मसालेदार शराब के जाम में मिलाकर दिए गए तीखे इटेलियन विष ने, श्वेत लड़की, जिसने इस बच्चे को जन्म दिया था, को होश में आने के एक घण्टे के भीतर ही मौत की नींद सुला दिया था, और जब नवजात को अपने घोड़े की काठी के आगे डाले हुए एक विश्वस्त सन्देशवाहक, थके-मान्दे घोड़े की पीठ से झुकते हुए, गडरिए की झोंपड़ी के अक्खड़ दरवाज़े को खटखटा रहा था, राजकुमारी का शव शहर से दूर परित्यक्त गिरजे में खोदी गई एक खुली क़ब्र में डाला जा रहा था जहाँ, लोग कहते थे कि अद्भुत और अद्वितीय सुन्दरता से सम्पन्न एक युवक का शव भी पड़ा था, जिसके हाथ गाँठदार रस्सी से पीछे की ओर बँधे हुए थे और जिसकी छाती पर घोंपे हुए छुरों के बहुत-से लाल घाव थे।

कहानी तो, कम-अज़-कम, ऐसी ही थी, जिसे लोग एक-दूसरे से फुसफुसा कर कहा करते थे। यह निश्चित ही था कि मृत्यु शैया पर लेटे हुए बूढ़े राजा ने या तो अपने महापाप के प्रायश्चित से, अथवा केवल इस इच्छा से वशीभूत हो कर कि उसका राज्य उसके वंशजों से किसी और के हाथ न चला जाए, किशोर को बुलवा लिया था, और, परिषद की उपस्थिति में, उसे अपना उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया था।

और ऐसा प्रतीत होता है कि अपने पहचाने जाने के पहले क्षण से ही उसने सुन्दरता के प्रति अनुराग के वे संकेत दर्शा दिए थे, जो उसके भावी जीवन को इतना अधिक प्रभावित करने वाले थे। उसकी सेवा के लिए स्थापित कक्षों में उसके लिए तैयार किए हुए नर्म कपड़ों और कीमती आभूषणों को देखकर उसके होंठों से फूटने वाली आनन्दातिरेक की उसकी चीख़, और खुरदरे चर्म के कुरते और बकरी के चमड़े के खुरदरे लबादे को उतार फेंकते हुए उसके लगभग पागल हर्षोन्माद के बारे में उसके परिचारक प्राय: बात करते थे। साथ ही साथ उसे अपने जंगली जीवन की स्वतन्त्रता की भी वास्तव में बहुत याद आती थी। और उसके लिए स्वाभाविक ही था उसका दरबार की क्लिष्ट औपचारिकताओं पर झुँझलाना जो प्रतिदिन उसे अधिकांश समय के लिए व्यस्त रखती थीं, परन्तु उसका अद्भुत महल -आनन्द-महल, जैसा कि लोग कहा करते थे-जिसका स्वामी उसने अब स्वयं को पाया था, उसे अपने आनन्द के लिए ताज़ा बने हुए नये संसार-सा प्रतीत होता था : और जैसे ही वह स्वयं को परिषद समिति अथवा दर्शन कक्ष से बचा पाता, सुनहले कांसे के शेरों से सजे हुए बड़े ज़ीने के चमकदार नील-लोहित काँच की सीढ़ियाँ उतर, सौन्दर्य में दर्द की, और एक तरह से बीमारी से उबरने की, दवा ढूँढ रहे व्यक्ति की तरह कक्ष -कक्ष और गलियारा-गलियारा भटकता था।

इन खोजी-यात्राओं, (जैसा कि वह इन्हें कहा करता था-और, वास्तव में, ये यात्राएँ उसके लिए अद्भुत जगहों से होकर गुज़रने वाली समुद्री यात्राओं की तरह थीं) में कभी-कभी दुबले-पतले, सुन्दर बालों वाले, झूलते हुए चोग़े और भड़कीले फड़फड़ाते हुए रिबन पहने हुए दरबारी परिचर उसके साथ होते थे, परन्तु प्राय: वह अकेला ही होता था, एक निश्चित तीव्र नैसर्गिक प्रवृति ( जो लगभग एक शकुन विद्या या भविष्यवाणी ही थी) से अनुभव करते हुए कि कला के रहस्यों को एकान्त में ही बेहतर सीखा जा सकता है और यह कि बुद्दिमता की तरह सुन्दरता भी, एकाकी साधक से ही प्रेम करती है।

इस काल में उससे कितनी ही विचित्र कहानियाँ जोड़ दी गई थीं। कहा जाता था कि एक हृष्ट-पुष्ट नगरपति – जो नागरिकों की ओर से आलंकारिक भाषण देने आया था – ने वेनिस से हाल ही में लाई गई महान कलाकृति के समक्ष सच्ची प्रशंसा में झुकते हुए उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था, और इससे कुछ नए देवताओं की पूजा की घोषणा की प्रतीति हुई थी। एक और अवसर पर कई घण्टे उसकी कमी खली थी, और एक लम्बी तलाश के बाद उसे, महल के एक छोटे से कक्ष में एक उत्तरी कँगूरे में यूनानी मणि पर उकेरी हुई एडोनिस (सुन्दरता और कामना के अत्यन्त सुन्दर यूनानी देवता) की आकृति को, भाव-समाधिस्थ व्यक्ति की तरह टकटकी बाँधे निहारते हुए देखा गया था। कहानी तो यही प्रचलित थी कि प्राचीन प्रतिमा (जो पत्थर का पुल बनाने के अवसर पर नदी की सतह से मिली थी और जिस पर हैड्रियन के बिथिनियाई दास का नाम उकेरा हुआ था) के संगमरमरी माथे पर अपने गर्म होंठ गड़ाते हुए भी उसे देखा गया था। उसने एक रात एंडिमियन (यूनानी पौराणिक कथाओं में वर्णित एक अत्यन्त सुन्दर युवक जिससे चाँद की देवी ‘सेलीन’ रोज़ रात को मिलने आती थी) की चांदी की प्रतिमा पर चाँदनी के प्रभाव को निहारते हुए भी बिताई थी।

सभी दुर्लभ और अमूल्य वस्तुएँ निश्चित रूप से उसे अत्याधिक आकर्षित करती थीं, और उन्हें मँगाने की उत्सुकता में वह कई व्यापारियों को दूरस्थ स्थानों को भेजता था, कुछ व्यापारियों को वह उत्तरी समुद्रों के अशिष्ट मछुआरों के साथ तृणमणि के अवैध व्यापार के लिए भेजता था, कुछ व्यापारियों को वह मिस्र भेजता था, उस विचित्र हरे फ़ीरोज़े के लिए जो केवल राजाओं की क़ब्रों में ही उपलब्ध होता है और जिसमें, कहा जाता है कि जादुई गुण भी होते हैं, रेशमी कालीनों और रंग-रोग़न किए हुए बर्तनों के लिए कुछ व्यापारियों को फ़ारस भेजता था, और बाक़ी व्यापारियों को जाली, रंगीन हाथी दाँत, चन्द्रशिलाओं, संगयशब के कंगनों, सन्दल की लकड़ी, नीली तामचीनी और ऊनी शालों के लिए भारत भेजता था।

परन्तु इस समय उसका सर्वाधिक ध्यान उसके अपने राज्याभिषेक के अवसर के पहरावे, सोने के जालीदार वस्त्र, और माणिक्य-जटित मुकुट, और मोतियों की रेखाओं और छल्लों से सुसज्जित राजदण्ड पर था। वास्तव में आज रात वह अपने राजसी गद्दे पर लेटे हुए, खुली अँगीठी में चीड़ की लकड़ी के बहुत बड़े जलते हुए ठेले को देखते हुए, इन्हीं चीज़ों के बारे में सोच रहा था। रूपांकन जो अपने समय के अत्यन्त प्रसिद्ध कलाकारों द्वारा किए गए थे, उसके समक्ष कई महीने पहले प्रस्तुत कर दिए गए थे, और उसने आदेश भी दे दिए थे कि कारीगरों को इन्हें कार्यरूप देने के लिए रात-दिन काम करना होगा और यह कि उनके कार्य के अनुरूप जवाहर ढूँढने के लिए समस्त विश्व को खंगालना होगा। कल्पना में उसने अपने- आपको राजसी पोषाक में गिरजे की ऊँची वेदिका पर खड़े देखा, और एक मुस्कान उसके बाल-सुलभ होंठों पर आकर खेलने के लिए ठहर गई, और उस मुस्कान ने उसकी काली और कल्पनाशील आँखों में चमक बिखेर दी।

कुछ समय बाद वह अपने स्थान से उठा, और उसने चिमनी के उत्कीर्ण सायबान का सहारा लेते हुए, धीमे-से प्रकाशित कक्ष को देखा। दीवारों पर बहुमूल्य पर्दे ‘सुन्दरता की विजय’ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। कक्ष में एक बहुत बड़ी आलमारी थी जिसका एक कोना मणिकाँचन और लाजवर्द से भरा था, और खिड़की के ठीक सामने खड़ी थी अद्भुत ढंग से सजी हुई एक और आलमारी, जिस पर वेनिसी शीशे के कुछ उत्कृष्ट चषक पड़े थे तथा गहरी धारियों वाले सुलेमानी पत्थर का एक जाम था। बिस्तर की रेशमी चादर पर, नींद के थके हाथों से गिरे हुए होने का आभास देते, हल्के पीले रंग के पोस्ता फूल काढ़े हुए थे और हाथी दाँत की लम्बी धारीदार बाँसुरियाँ मख़मली चँदवे को थामे हुए थीं, चँदवे से शतुर्मुर्ग़ पंखों के बड़े-बड़े गुच्छे फेन की भाँति नक़्क़ाशीदार छत की हल्की पीली चाँदी की ओर निकले हुए थे। उसके सिर से ऊपर रोग़नदार दर्पण-थामे-नार्सीसस की हरी कांस्य प्रतिमा दिखाई दे रही थी। मेज़ पर जम्बुमणि का एक सपाट-सा कटोरा पड़ा था।

बाहर, वह गिरजे के बहुत बड़े गुम्बद को जो धुँधले घरों पर बुलबुले की तरह लटका हुआ था, और थके हुए प्रहरियों को, जो कि नदी किनारे वाली धुँधली छत पर ऊपर-नीचे टहल रहे थे, देख पा रहा था। दूर,एक उद्यान में, बुलबुल गा रही थी। खुली खिड़की से चमेली की भीनी-भीनी ख़ुशबू आ रही थी। उसने अपने भूरे कुण्डलों को माथे से हटाया, और एक वीणा को उठाकर अपनी उँगलियों को उसके तारों पर भटक जाने दिया। उसकी बोझिल पलकें झुक रही थीं और एक अजीब –सी प्रेम-विह्वलता उसपर हावी हो गई। इससे पहले उसने इतनी उत्सुकता से, या इतने असीम आनन्द से सुन्दर चीज़ों के रहस्य और जादू को अनुभव नहीं किया था।

जब घण्टाघर ने आधी रात का गजर बजाया तो उसने एक घंटी को छुआ और परिचरों ने अन्दर आकर उसके सर पर गुलाब-जल उँडेलते हुए, तथा उसके सिरहाने पर फूल छिड़कते हुए, उसके लम्बे झूलते लबादे को विधिवत रूप से खुलवा लिया। कमरे से परिचरों के चले जाने के कुछ ही क्षणों बाद, उसे नींद आ गई।

नींद आते ही उसने एक सपना देखा, और यह उसका सपना था।

उसने देखा कि वह एक लम्बी अटारी में, करघों की खड़खड़ाहट में खड़ा था। दिन की बहुत ही अपर्याप्त रोशनी जालीदार खिड़कियों से झाँक पा रही थी, और उसे अपने -अपने करघों पर झुके हुए बुनकरों की मरियल आकृतियाँ दिखला रही थी। हल्के पीले, बीमार-से दिखने वाले बच्चे बड़ी –बड़ी आड़ी कड़ियों पर पाँव के बल बैठे हुए थे। जैसे ही ढिरकियाँ ताने पर दौड़ती थीं, बच्चे करघे के भारी डण्डों को उठाते,और जब ढिरकियाँ रुक जातीं वे डण्डों को गिराते थे जिससे धागों पर दबाव पड़ता था। बच्चों के चेहरे ऐसे थे मानों उन पर आकाल ने चिकोटी काट ली हो, और उनके पतले हाथ काँप रहे थे। मेज़ों पर झुकी कुछ मरियल-सी औरतें सिलाई कर रही थीं। उस जगह भयानक दुर्गंध फैली हुई थी। हवा गन्दी और बोझिल थी, दीवारों से नमी बह कर टपक रही थी।

युवा नरेश एक बुनकरों में से एक के पास जाकर खड़ा हो गया और उसे देखने लगा।

और बुनकर ने उसे क्रुद्ध होकर देखा, और कहा,“तुम मुझे क्यों देख रहे हो? क्या तुम्हें हमारे स्वामी ने हमारी जासूसी के लिए रखा है?”

“तुम्हारा स्वामी कौन है?” युवा नरेश ने पूछा।

“हमारा स्वामी !” वह कटुता से चिल्लाया, “ वह भी मेरे ही जैसा मनुष्य है। वास्तव में, हम दोनों में अन्तर केवल इतना है कि वह बढ़िया कपड़े पहनता है जबकि मैं चीथड़े पहनता हूँ, और जबकि मैं भूख के कारण कमज़ोर हूँ, वह ज़रूरत से ज़्यादा खाकर भी ज़रा-सा भी बीमार नहीं होता।

“धरती स्वतन्त्र है, “ युवा नरेश ने कहा, “और तुम किसी के दास नहीं हो।”

“युद्ध में,” बुनकर ने उत्तर दिया, “ सबल निर्बल को दास बनाता है और शांति में धनी निर्धन को दास बनाता है, हमें जीवित रहने के लिए काम करना पड़ता है, और वे हमें इतनी कम मज़दूरी देते हैं कि हम मरने को विवश हैं, हम उनके लिए सारा दिन ख़ून पसीना एक करते हैं और वे अपनी तिजोरियाँ में सोना ठूँसते हैं, हमारे बच्चे असमय मुरझा जाते हैं, और जिन्हें हम प्रेम करते हैं उनके चेहरे कठोर और अशुभ हो जाते हैं, अँगूरों को मसलते हम हैं, और शराब और लोग पीते हैं। अनाज हम बीजते हैं, और हमारे अपने पास दाना तक नहीं है, हम ज़ंजीरों में हैं, लेकिन हमारी ज़ंजीरों को कोई आँख नहीं देखती; और हम दास हैं, यद्यपि लोग हमें स्वतंत्र कहते हैं। ”

“क्या सबका हाल यही है?” युवा नरेश ने पूछा।

“सबका हाल यही है,” बुनकर ने उत्तर दिया, “जवानों का भी बूढ़ों का भी,औरतों का भी, मर्दों का भी,बच्चों का भी और बुढ़ापे के कारण क्षीण लोगों का भी। व्यापारी हमें पीस रहे हैं, और जो वे चाहते हैं, हमें करना पड़ता है। पादरी मज़े में है और माला जपता रहता है, और हमारी परवाह किसी को नहीं है। दरिद्रता अपनी भूखी आँखों के साथ, हमारी धूप-रहित गलियों से होकर रेंगती आती है, और उसके पीछे पीछे आता पाप अचानक दिखाता है अपना चेहरा। दु:ख हमें सुबह जगाता है, शर्म सारी रात हमारे पास बैठी रहती है। लेकिन इन बातों का तुम्हारे लिए क्या अर्थ है ? तुम हम में से नहीं हो। तुम्हारा चेहरा तो बहुत प्रसन्न है।” और वह नाक -भौं सिकोड़ते हुए वहाँ से हट गया और उसने ढरकी को करघे से परे फेंक दिया , और युवा नरेश ने देखा कि इस में तो सोने का धागा चढ़ा हुआ था। अत्याधिक भय ने उसे जकड़ लिया, और उसने बुनकर से कहा, “और यह वस्त्र क्या है जो तुम बुन रहे हो?”

“यह वस्त्र युवा नरेश के राज्याभिषेक के लिए है।” उसने उत्तर दिया,“तुम्हें इससे मतलब?”

युवा नरेश बहुत ज़ोर से चीखते हुए, नींद से जाग उठा। और उसने स्वयं को अपने ही कक्ष में पाया और उसकी दृष्टि खिड़की के बाहर धुँधली हवा में लटके हुए बहुत बड़े मधु-रंगी चाँद पर पड़ी।

वह फिर सो गया, और उसने सपना देखा, और यह उसका सपना था।

उसने सोचा कि वह एक बहुत बड़े पोत की छत पर लेटा था और पोत को सौ दास खे रहे थे। उसके पास ही एक गलीचे पर पोत का स्वामी बैठा हुआ था। वह आबनूस की लकड़ी की तरह काला था। उसकी पगड़ी गहरे लाल रंग के रेशम की थी। चांदी की बड़ी-बड़ी बालियों का भारी बोझ उसके कानों की लोलकियों को खींच रहा था। वह हाथी दाँत की तुला थामे हुए था।

दास कमर पर लिपटे हुए चीथड़ों को छोड़ लगभग नंगे ही थे। और प्रत्येक दास अपने साथ वाले दास के साथ ज़ंजीरों से जकड़ा हुआ था। गर्म सूर्य भी उन पर अपनी क्रूरता चमका रहा था। पोत की मार्गिका से ऊपर नीचे जाते हुए हब्शी उन पर चमड़े के कोड़े बरसा रहे थे। वे अपनी पतली भुजाएँ फैलाए, पानी में अपनी भारी पतवारों के साथ पोत को खे रहे थे। पतवारों से नमक की फुहारें उड़ रही थीं।

अंतत: वे एक खाड़ी में पहुँचे और, स्थिति का आकलन करने लगे। तट से हल्की-सी हवा ने आकर छत और बहुत बड़े तिकोने पाल वाले पोत को सुन्दर लाल धूल से ढाँप दिया। जंगली गधों पर सवार तीन अरबों ने आकर उनपर भाले फेंके। पोत के स्वामी ने एक रंगीला तीर उनमें से एक के गले पर मारा। वह तट की फेन में गिरा, और उसके साथी सरपट भाग खड़े हुए। पीले पर्दे में लिपटी, ऊँट पर बैठी हुई एक औरत कभी –कभार, पीछे रह गए शव को देखती हुई, धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे चलती रही।

जैसे ही उन्होंने लंगर डाल कर पोत को किनारे लगाया, हब्शी पोत के फलके से रस्सियों की भारी भरकम सीसा युक्त सीढ़ी निकाल लाए। पोत के स्वामी ने सीढ़ी के सिरों को लोहे के दो सीखचों के साथ बाँध कर एक तरफ़ से समुद्र में फेंक दिया। फिर हब्शियों ने एक सबसे युवा दास को पकड़ा, उसकी बेड़ियाँ तोड़ डालीं और उसके नथुनों और कानों में मोम भर कर उसकी कमर के साथ एक भारी पत्थर बाँध दिया। थका- माँदा दास सीढ़ी से रेंगता हुआ, समुद्र में ओझल हो गया। वह जहाँ से उतरा था वहाँ से कुछ बुलबुले उठे। अन्य दास उत्सुकतावश दूसरी ओर देखते रहे। पोत के मन्दान पर शार्कों को आकर्षित करने वाला व्यक्ति बैठा हुआ था और नीरस ढँग से लगातार ढोल पीटे जा रहा था।

कुछ समय बाद गोताख़ोर पानी से निकल आया और हाँफता हुआ सीढ़ी से चिपक गया। उसके दायें हाथ में एक मोती था। हब्शियों ने वह मोती उसके हाथ से ले लिया, और दास को फिर पानी में फेंक दिया। दास अपनी पतवारों पर सो गए। बार -बार गोताख़ोर पानी से ऊपर आता, और हर बार अपने साथ एक सुन्दर मोती निकाल कर लाता था। पोत का स्वामी उन मोतियों को तोल कर हरे चमड़े के छोटे-से थैले में रख देता था।

युवा नरेश ने कुछ कहने का प्रयास किया। लेकिन उसे ऐसा लगा कि उसकी जीह्वा उसके तालू से चिपक गई थी, और होंठों ने हिलने से इन्कार कर दिया था। हब्शी आपस में चहक रहे थे, और उन्होंने चमकदार मनकों की एक माला को लेकर झगड़ा शुरू कर दिया था। दो सारस, पोत के इर्द-गिर्द मँडरा रहे थे।

फिर गोताख़ोर अंतिम बार ऊपर आया, और इस बार जो मोती साथ लाया वह ओरमज़ के सब मोतियों में से सुन्दर था। इसका आकार पूर्णिमा के चाँद-सा था, और यह मोती भोर के तारे से भी अधिक सफ़ेद था। लेकिन दास का चेहरा अद्भुत रूप से पीला था, और जैसे ही वह छत के ऊपर गिरा, उसके नथुनों और कानों से रक्त फूट पड़ा। वह कुछ समय के लिए काँपा, और ठण्डा हो गया। हब्शियों ने अपने काँधे उचकाए और उसके शव को समुद्र में फेंक दिया।

और फिर पोत का स्वामी हँसा, और, उसने हाथ बढ़ाकर, मोती ले लिया, और जब उसने मोती को देखा तो उसे अपने माथे से लगा कर सर झुका लिया। ‘यह मोती,’ उसने कहा, ‘युवा नरेश के राजदण्ड को सुशोभित करेगा,’ और उसने हब्शियों को लंगर उठाने का संकेत दे दिया।’

यह सुन कर युवा नरेश ज़ोर से चीख़ा, और नींद से जाग उठा और खिड़की से उसने मद्धम सितारों को बीनती हुई उषा की लम्बी उँगलियाँ देखीं। और वह फिर सो गया, और उसने सपना देखा और यह उसका सपना था।

उसे लगा कि वह एक धुँधले जंगल में भटक रहा था, जिसमें अद्भुत फल और सुन्दर ज़हरीले फूल लटक रहे थे, वहाँ से गुज़रते हुए साँप उस पर फुँफकार रहे थे, और सुन्दर सुग्गे, चीख़ते हुए टहनियों से उड़ रहे थे। गर्म दलदल में बड़े- बड़े कछुए सो रहे थे। पेड़ बन्दरों और मोरों से अटे पड़े थे।

जंगल की बाहरी सीमा तक पहुँचने तक वह आगे से आगे बढ़ता रहा, और वहाँ उसने असंख्य लोगों को सूखी नदी की सतह पर कठोर परिश्रम करते हुए देखा। वे एक चट्टान पर चींटियों के झुंड की तरह इकठ्ठे थे। वे ज़मीन में गहरे गढ़े खोद कर उनमें घुस रहे थे। उनमें से कुछ लोग चट्टानों को कुल्हाड़ों से फाड़ रहे थे, कुछ लोग रेत में छटपटा रहे थे। वे केक्टसों को जड़ों से उखाड़ रहे थे और सिन्दूरी मंजरियों को रौंद रहे थे। वे बहुत जल्दी में थे, और एक दूसरे को पुकार कर बता रहे थे कि काम जल्दी करना है, और कोई भी बेकार नही बैठा था।

एक गुफ़ा के अँधेरे से ‘मृत्युदेव’ और ‘धन-लोलुपता’ उन्हें देख रहे थे, और मृत्युदेव ने कहा, ‘मैं बहुत थक चुका हूँ; मुझे इनमें से एक तिहाई दे दो, और मुझे जाने दो।’

लेकिन धनलोलुपता ने इन्कार करते हुए अपना सिर हिलाया। ‘वे मेरे दास हैं, ’ उसने उत्तर दिया।

और मृत्युदेव ने उसे कहा, ‘तुम्हारे हाथ में क्या है?

‘मेरे पास अनाज के तीन दाने हैं,’ उसने उत्तर दिया; ‘लेकिन तुम्हें इससे मतलब?’

‘मुझे इनमें से एक दे दो,’ मृत्युदेव चिल्लाए ‘मेरे बग़ीचे में बोने के लिए; सिर्फ़ एक, और मैं चला जाऊँगा।”

‘मैं तुझे कुछ नहीं दूँगी,’ धनलोलुपता ने कहा, और उसने अपना हाथ अपने कपड़ों की तह में छुपा लिया।

और मृत्युदेव हँसे, और उन्होंने एक प्याला निकाला, और प्याले को पानी के तालाब में डुबोया, और प्याले में से निकलकर एक सिरहन-सी को लोगों में फैल गई, और एक तिहाई लोग मर गए, उसके बाद ठण्डी धुन्ध आ गई, और पानी के साँप उसके साथ-साथ चल रहे थे।

और जब धनलोलुपता ने इतने लोगों को मरे हुए देखा, तो वह छाती पीट-पीटकर रोने लगी, उसने अपना बंजर सीना पीट लिया, और ज़ोर -ज़ोर से रोई। ‘तुमने मेरे एक तिहाई दासों को मार दिया है।’ वह चिल्लाई, ‘ तुम यहाँ से चले जाओ। तार्तार के पहाड़ों में युद्ध होने वाला है, और दोनों पक्षों के राजा तुम्हें पुकार रहे हैं, अफ़ग़ानियों ने काला बैल काट दिया हैं और वे युद्ध –स्थल की ओर बढ़ रहे हैं, वे अपने भालों को ढालों के साथ टकरा चुके हैं, और उन्होंने लोहे के टोप धारण कर लिए हैं। तुम मेरी घाटी को क्या समझकर रुके हुए हो? यहाँ से चले जाओ, और फिर यहाँ कभी मत आना। ’

‘नहीं,’ मृत्युदेव ने उत्तर दिया, और उन्होंने एक काला पत्थर निकाला, और जंगल में फेंक दिया, और जंगली विषगर्जर के झुरमुट से आग की ज्वाला का लबादा पहने ज्वर निकल आया । ज्वाला भीड़ में से गुज़री, और उसने लोगों को छू लिया, और वह जिन-जिन लोगों को छूती गई वे सब मरते गए। वह जहाँ -जहाँ से गुज़री, उसके क़दमों तले की घास मुर्झा गई।

धनलोलुपता काँप उठी, और उसने अपने सर में धूल डाल ली। ‘तुम क्रूर हो,’ वह चिल्लाई, ‘भारत के चार-दीवारियों वाले शहरों में अकाल पड़ा है और समरकन्द के जल-कुण्ड सूख चुके हैं। मिस्र के चार-दीवारों वाले शहरों में अकाल पड़ा है,और जंगलों से टिड्डी-दल वहाँ आ गए हैं। नील नदी में बाढ़ नहीं आई है, और पादरियों ने आइसिस और ओर्सिस को श्राप दे दिया है। तुम वहाँ जाओ, जहाँ तुम्हारी आवश्यकता है, और मेरे दासों को छोड़ दो।’

‘नहीं, ’ मृत्युदेव ने उत्तर दिया, ‘लेकिन जब तक तुम मुझे अनाज का दाना नहीं दोगी, मैं नहीं जाऊँगा।’

‘मैं तुम्हें कुछ नहीं दूँगी,’ धनलोलुपता ने कहा।

मृत्युदेव फिर हँसे, और उन्होंने उँगलियों से सीटी बजाई, और एक औरत हवा में उड़ती हुई आई। उसके माथे पर प्लेग लिखी थी, दुबले –पतले गिद्धों का झुण्ड उसके इर्द –गिर्द मँडरा रहा था। उसने अपने पंखों से सारी घाटी को ढँक लिया, और वहाँ कोई भी जीवित नहीं बचा।

और धनलोलुपता चीख़ती हुई जंगल के रास्ते भाग गई। और मृत्युदेव अपने लाल घोड़े पर सवार होकर हवा से भी तेज़ गति से उड़ गए।

और घाटी की सतह के कीचड़ से ड्रैगन और शल्कों वाली भयानक चीज़ें रेंगती हुई निकल आईं। गीदड़ रेत पर कूदते हुए और अपने नथुनों से हवा को सूँघते हुए आ गए।

और युवा नरेश रोने लगा, और उसने कहा,‘ये मरने वाले लोग कौन थे और क्या ढूँढ रहे थे ?’

‘वे युवा नरेश के मुकुट के लिए जवाहर ढूँढ रहे थे,’ उसके पीछे खड़े एक आदमी ने कहा।

और युवा नरेश चौंक उठा, और घूम कर उसने एक तीर्थयात्री के वेश में एक व्यक्ति को देखा जो हाथ में चांदी का दर्पण थामे हुए था। उसका चेहरा पीला पड़ गया, और उसने कहा,“ किस नरेश के लिए?’

और तीर्थयात्री ने कहा : ‘इस दर्पण में झाँको और तुम उसे देख सकोगे।‘

उसने दर्पण में झाँका, और, अपना चेहरा देखकर ज़ोर से चीख़ा और उसकी नींद खुल गई, तेज़ धूप छनकर कमरे में आ रही थी,और उद्यान के पेड़ों और उनकी महक में पंछी गा रहे थे।

और राजमहल के उच्चतम अधिकारी और अन्य अधिकारियों ने भीतर आकर उसे अभिवादन किया, और परिचर उसके लिए स्वर्ण के वस्त्र ले आए, और उसके सामने मुकुट और राजदण्ड रख दिया।

और युवा नरेश ने उन्हें देखा, वे बहुत सुन्दर थे। आजतक उसने जो देखे थे उससे भी कहीं अधिक सुन्दर। लेकिन उसे अपने स्वप्न याद आ गए, और उसने अपने अधिकारियों से कहा : इन्हें ले जाओ, क्योंकि मैं इन्हें धारण नहीं करूँगा।’

और दरबारी चकित हो गए, कुछ तो हँसने लगे,क्योंकि उन्होंने सोचा कि वह मज़ाक़ कर रहा था।

लेकिन उसने फिर उनसे कठोरता से बात की, और कहा : इन वस्तुओं को मेरी नज़रों से दूर कर दो, भले ही यह मेरे राज्याभिषेक का दिन है, मैं इन्हें धारण नहीं करूँगा। क्योंकि दु:ख के करघे पर, और पीड़ा के सफेद हाथों द्वारा बुनी गई है मेरी पोषाक। लोगों के रक्त से सना है जवाहर का हृदय, और मृत्यु है मोतियों के हृदयों में।’ और उसने उन्हें अपने तीन स्वप्न सुना दिए।

युवा नरेश के स्वप्न सुन कर दरबारियों ने एक दूसरे को देखा और और बुदबुदा कर कहने लगे, ‘निश्चित रूप से यह पागल है; क्योंकि स्वप्न तो स्वप्न है, कल्पना तो कल्पना है। ये बातें वास्त्विकता तो नहीं हैं कि इनकी ओर ध्यान देना आवश्यक हो। और जो लोग हमारे लिए परिश्रम करते हैं, हमें उनके जीवन से क्या लेना-देना है? क्या कोई तब तक रोटी नहीं खाएगा जब तक कि वह किसान को न देख ले, या तब तक शराब नहीं पियेगा जब तक वह शराब बनाने वाले को न देख ले?’’

और राजमहल के उच्चतम अधिकारी ने युवा नरेश से बात की, और कहा, ‘ स्वामी, आपसे प्रार्थना है कि आप अपने इन दु:स्वप्नों को एक तरफ़ रख दें, और यह उजली पोषाक पहन लें, और यह मुकुट धारण कर लें क्योंकि लोग कैसे जानेंगे कि आप नरेश हैं, अगर आप नरेश की पोषाक में नही हैं?’

और युवा नरेश ने उस अधिकारी को देखा। ‘क्या वास्तव में ऐसा है?’ उसने पूछा, ‘क्या वे मुझे नहीं पहचानेंगे अगर मैं नरेश की पोषाक नहीं पहनूँगा?’

‘स्वामी, वे आपको नहीं पहचानेंगे।’

‘मैं समझता था कि ऐसे पुरुष भी हो गुज़रे हैं जो राजाओं जैसे भी हुआ करते थे,’ उसने उत्तर दिया, ‘लेकिन हो सकता है कि तुम ठीक ही कह रहे हो, लेकिन फिर भी मैं न तो यह पोषाक पहनूँगा, और न ही इस मुकुट से अपना राज्याभिषेक करवाऊँगा, मैं तो जैसा महल में आया था वैसा ही यहाँ से जाऊँगा।’

और उसने वहाँ से सब लोगों को चले जाने के लिए कहा, एक परिचारक को छोड़कर, जिसे उसने अपने साथ के लिए रख लिया, वह भी उससे एक वर्ष छोटा किशोर ही था। युवा नरेश ने उसे अपनी सेवा में रखा, और स्वच्छ पानी में नहाने के बाद, उसने एक बड़ी रँगदार अलमारी खोली जिसमें से उसने चमड़े का कुर्ता और बकरी की खाल

का वह चोग़ा निकाला जिसे वह रेवड़ की मरियल भेड़ों की रखवाली करते हुए पहनता था। उसने ये वस्त्र पहने और हाथ में गडरिए वाला खुरदरा दण्ड पकड़ लिया।

और नन्हें परिचारक ने चकित हो कर अपनी बड़ी–बड़ी और नीली आँखें खोली, और मुस्कुराकर उससे कहा,

‘स्वामी, मैं आपकी पोषाक और राजदण्ड तो देख पा रहा हूँ, परन्तु, आपका मुकुट कहाँ है?’ और युवा नरेश ने बाल्कनी पर चढ़ रही जंगली कँटीली झाड़ी की एक टहनी को तोड़कर उसका छोटा-सा वृत बनाया, और सिर पर धारण कर लिया।

‘यही होगा मेरा मुकुट,’ उसने उत्तर दिया।

और वह इसी पहरावे में अपने कक्ष से महाकक्ष में प्रवेश कर गया, जहाँ अभिजात्य लोग उसकी प्रतीक्षा में थे। और अभिजात्य लोगों ने आनन्द लिया, और उनमें से कुछ लोगों ने उसे पुकार कर कहा, ‘स्वामी, लोगों को नरेश की प्रतीक्षा है और आप उन्हें भिखारी के दर्शन करवाने जा रहे हैं,’ और कुछ अन्य जो योग्य थे, ने कहा, ‘यह तो राज्य के लिए कलंक है, और हमारा नरेश बनने योग्य नहीं है। ’ उसने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया, लेकिन आगे बढ़ता रहा और ज़ीने के चमकदार नील-लोहित काँच की सीढ़ियाँ उतर गया, और कांसे के मुख्य द्वारों से निकल कर वह अपने घोड़े पर सवार हो गया, और गिरजे की ओर बढ़ चला, नन्हा परिचर उसके पीछे-पीछे भाग रहा था।

लोग हँसे और कहने लगे, “ नरेश का विदूषक घुड़सवारी कर रहा है,’ और उन्होंने उसका उपहास उड़ाया।

और उसने लगाम खींची और कहा,‘ नहीं, लेकिन मैं तो नरेश हूँ।’ और उसने उन्हें अपने स्वप्न सुना दिए।

और भीड़ में से एक व्यक्ति आगे बढ़ा और बहुत कड़वे लहजे में उससे बोलने लगा, “श्रीमान, क्या आप नहीं जानते कि धनवानों की विलासता से निर्धनों का जीवन चलता है ? आपकी सज-धज से हमारा पालन-पोषण होता है, आपके दुर्गुण हमें रोटी देते हैं। क्रूर स्वामी के लिए श्रम करना कटुतापूर्ण है, परन्तु कोई स्वामी ही न होना और भी कटुतापूर्ण है। आपको लगता है कि हमें कौए रोटी देंगे ? और आपके पास इन चीज़ों का उपाय भी क्या है ? क्या आप ग्राहक को कहेंगे,‘तुम इस भाव ख़रीदोगे’ और विक्रेता को कहेंगे, ‘तुम इस भाव बेचोगे’, मुझे नहीं लगता। अपने महल में जाइए और अपना नील लोहित और भव्य वस्त्र धारण कीजिए। आपको हमसे और हमारे दुखों से क्या लेना-देना? ”

‘क्या धनी और निर्धन भाई- भाई नहीं हैं ? ’ युवा नरेश ने पूछा।

‘हैं, और धनवान भाई का नाम केन (आदम और हव्वा के दो बेटों में से बड़ा बेटा जिसने अपने छोटे भाई एबल को मार दिया था) है।’

युवा नरेश की आँखों में आँसू आ गए, और वह बुदबुदाते हुए लोगों में से निकलता हुआ आगे बढ़ता रहा, और नन्हा परिचर भयभीत हो कर भाग लिया। जब वह गिरजे के द्वार पर पहुँचा, सैनिकों ने अपने परशु निकाल लिए और कहा, ‘तुम यहाँ क्या ढूँढ रहे हो ? इस द्वार से नरेश के अतिरिक्त और कोई प्रवेश नहीं कर सकता। उसका चेहरा क्रोध से लाल हो गया, और उसने कहा, ‘मैं नरेश हूँ,’ और उनके परशुओं को एक तरफ़ करके वह गिरजे में प्रवेश कर गया।

और जब बूढ़े धर्माध्यक्ष ने उसे गडरिए के वस्त्रों में अन्दर आते हुए देखा, वह चकित हो कर अपने आसन से उठ गया, और उससे मिलने गया और कहा, ‘मेरे बच्चे, क्या यह राजसी परिधान है ? और मैं किस मुकुट से तुम्हारा राज्याभिषेक करूँगा ? और मैं तुम्हें कौन –सा राजदण्ड थमाऊँगा ? निश्चित रूप से आज तुम्हारे लिए आनन्द का दिवस है, अवमानित होने का नहीं।’

‘क्या आनन्द वह पहनेगा जिसे दु:ख ने रचा है? ’ युवा नरेश ने कहा। और उसने अपने तीन स्वप्न धर्माधीश को सुना दिए।

और जब धर्माधीश ने उन्हें सुना तो उसने त्योरियाँ चढ़ा लीं, और कहा, ’मेरे बच्चे, मैं एक वृद्ध व्यक्ति हूँ और अपने जीवन की शरद ऋतु में हूँ, और मैं जानता हूँ कि विश्व में बहुत दुष्कर्म भी होते हैं। वहशी लुटेरे पहाड़ों से उतरकर आते हैं और बच्चों को उठा कर ले जाते हैं और हब्शियों को बेच देते हैं। कारवानों की प्रतीक्षा में शेर लेटे रहते हैं और ऊँटों पर झपट पड़ते हैं, जंगली सूअर घाटी की सारी फ़स्लें उखाड़ देते हैं और गीदड़ पहाड़ियों के ऊपर लगी बेलों को चबा डालते हैं। समुद्री लुटेरे तटों पर तबाही ढा देते हैं और नौ सैनिकों के जहाज़ों को जला देते हैं, और उनके जाल छीन लेते हैं। नमक के दलदलों में रहते हैं कोढ़ग्रस्त लोग; सरकण्डों के बने होते हैं उनके घर, और कोई उनके निकट जा नहीं सकता। भिखारी शहरों में घूमते रहते हैं और वे कुत्तों के साथ बैठकर खाना खाते हैं, क्या तुम यह सब कुछ होना बन्द कर सकते हो? क्या तुम किसी कोढ़-ग्रस्त के साथ शयन करोगे ? या किसी भिखारी के साथ बैठ कर खाना खाओगे? क्या शेर तुम्हारा कहा मानेंगे, और क्या जंगली सूअर तुम्हारे आदेश का पालन करेंगे ? जिसने दु:ख की रचना की है क्या वह तुमसे अधिक बुद्धिमान नहीं है? इसीलिए जो तुमने किया है, उसके लिए मैं तुम्हारी प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ अपितु तुमसे अनुरोध कर रहा हूँ कि वापस राजमहल को लौट जाओ, प्रसन्नतापूर्वक वह वस्त्र धारण करो जो एक राजा को शोभा देता है, और मैं तुम्हें स्वर्ण-मुकुट पहना कर तुम्हारा राज्याभिषेक करूँगा, और मोतियों से जड़ा हुआ राजदण्ड तुम्हें प्रदान करूँगा। और जहाँ तक तुम्हारे सपनों की बात है, तुम उन पर तनिक भी विचार न करो। सारे संसार का भार एक व्यक्ति के लिए बहुत अधिक है सारे संसार का दु:ख भी एक हृदय के लिए बहुत अधिक है।’

‘आप इस घर में ऐसा कह रहे है?’ युवा नरेश ने कहा, और वह धर्माध्यक्ष को पीछे छोड़ता हुआ, वेदिका की सीढ़ियाँ चढ़ गया, और ईसा की प्रतिमा के समक्ष खड़ा हो गया।

वह ईसा की प्रतिमा के समक्ष खड़ा हो गया, उसके दायें – बायें, सोने के अद्भुत बर्तन पड़े थे, पीली मदिरा का चषक था और पवित्र तेल की शीशी पड़ी थी। वह ईसा की प्रतिमा के समक्ष दण्डवत हुआ, और जवाहरात–जड़े गिरजे में बड़ी-बड़ी मोम-बत्तियाँ जगमगा उठीं, और अगरबती का धुआँ बारीक नीली मालाओं की तरह गुंबद की ओर लहराने लगा। उसने अपना सिर प्रार्थना में झुकाया और पादरी अपने कड़कदार चोग़ों में रेंगते हुए वेदिका से दूर हो गए।

अचानक, बाहर की गली से, एक जंगली शोरगुल के साथ, म्यानों से तलवारें खींचे हुए, सिरों पर बँधे पंख लहराते हुए, रंगदार लोहे की ढालें थामे हुए, अभिजात्य लोग प्रविष्ट हुए। ‘कहाँ है स्वप्न दृष्टा ?’ वे चिल्लाए, ‘ कहाँ है नरेश, जिसने भिखारी का पहरावा पहना है- वह लड़का जो हमारे राज्य के लिए कलंक है, हम अवश्य उसे काट डालेंगे, क्योंकि वह नहीं है हम पर शासन करने योग्य।’

और युवा नरेश एक बार फिर नत-मस्तक हुआ, उसने फिर प्रार्थना की, और प्रार्थना करने के बाद वह उठा, उसने घूमकर उदास हो कर उन्हें देखा।

और, रंगदार खिड़कियों से धूप छनकर उस पर आ रही थी और धूप की किरणों ने उसके शरीर पर जालीदार वस्त्र बुन दिया जो सुन्दर था उससे भी अधिक सुन्दर, जो पहले उसके लिए बुना गया था। सूखा दण्ड जो वह थामे हुए था, हरा भरा हो उठा और उसपर कुमुदिनियाँ खिल उठीं जो मोतियों से अधिक सफ़ेद थीं। और सूखी कँटीली झाड़ी भी खिलखिला उठी और उसपर मुस्कुरा उठे लाल गुलाब जो लाल माणिक्यों से भी अधिक लाल थे। श्रेष्ट मोतियों से श्वेत थीं कुमुदिनियाँ और उनकी टहनियाँ थीं चाँदी -सी चमकदार। माणिकों से अधिक लाल थे गुलाब और उनके पत्ते थे स्वर्णिम।

वह खड़ा था उनके सामने राजसी वस्त्रों में, और जवाहर-जटित गिरजे के द्वार खुल गए। असंख्य किरणों वाली प्रदर्शिका के काँच से अद्भुत रह्स्यमय प्रकाश चमक उठा। वहाँ खड़ा था वह राजसी पोषाक में, और उस स्थान पर प्रभु की अनुकम्पा बरस रही थी और प्रकीरित आलों में संत हिलते हुए दिखाई देने लगे। भव्य राजसी पहरावे में, वह उनके समक्ष खड़ा था। संगीत निकला वाद्यराज से और शहनाई -वादकों ने बजाई शहनाई, और गायक गाने लगे।

और लोग विस्मय में दण्डवत हो गए, अभिजात्य लोगों की तलवारें म्यानों में वापस चली गईं और उन्होंने उसे सम्मान दिया, और धर्माध्यक्ष का चेहरा पीला पड़ गया, उसके हाथ काँपने लगे। और उसने कहा, ‘ मुझसे महान (परमपिता) ने किया है तुम्हारा राज्याभिषेक’ और धर्माध्यक्ष युवा नरेश के सामने दण्डवत हो गया। युवा नरेश ऊँची वेदिका से उतर आया, लोगों में से होता हुआ राजमहल को लौट गया। परन्तु किसी में उसका चेहरा देखने का साहस नहीं था क्योंकि उसका चेहरा एक देवदूत के चेहरे जैसा था।

(अनुवाद: द्विजेन्द्र द्विज)

**समाप्त**

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