स्वर्ग और पृथ्वी धर्मवीर भारती की कहानी | Swarg Aur Prithvi Dharamvir Bharati Ki Kahani

स्वर्ग और पृथ्वी धर्मवीर भारती की कहानी Swarg Aur Prithvi Dharamvir Bharati Ki Kahan Hindi Story 

Swarg Aur Prithvi Dharamvir Bharati Ki Kahani

कल्पना ने आश्चर्य में भरकर वातायन के दोनों पट खोल दिए। सामने अनंत की सीमा को स्पर्श करता हुआ विशाल सागर लहरा रहा था। तट पर बिखरी हुई उषा की हलकी गुलाबी आभा से चाँदनी की चंचल लहरें टकराकर लौट रही थीं। प्रशांत नीरवता में केवल चाँदनी की लहरों का मंद-मर्मर गंभीर स्वर नि:श्वासें भर रहा था।

फिर यह स्वर कैसा? कल्पना विस्मय से स्तब्ध थी। यह कल्पना का पहला अनुभव था। चाँदनी के सागर के तट पर, स्वर्ग के एक उजाड़ कोने में हलके सुनहरे बादलों का एक प्रासाद था। शैशव से ही कल्पना उसमें निवास करती थी; पर वह स्वर्ग में रहते हुए भी स्वर्ग से अलग थी : वह एकांत पर विश्वास करती थी। उसके प्रासाद के चारों ओर का वातावरण इतना रहस्यमय और दुर्भेद्य था कि क्रीड़ारत चंचल देवकुमार भी उधर जाने का साहस न करते थे। कल्पना अपने सूनेपन की रानी थी। हलकी नीली आभावाले वातायन-पटों को खोलकर वह न जाने कब तक निहारा करती थी सामने फैले हुए चाँदनी के अनंत सागर को, उसमें लहराती हुई चंचल लहरों को। कभी-कभी स्वर्ग के घाटों पर देवियाँ मंगल कामना से प्रेरित होकर बहा देती थीं कुछ जलदीप, जो लहरों पर उठते-गिरते, जलते-बुझते उसके वातायन के सम्मुख से बह जाते थे और उन्हें देखते ही वह भयभीत होकर पट बंद कर लेती थी। चंचल लहरों का मंद स्वर हलके-हलके झकोरों के साथ थपकियाँ देता था। जल पक्षियों का मधुर सुकोमल संगीत उसे लोरी सुनाता था और वह पलकें मूँदकर सो जाती थी।

किंतु आज का सहसा गूँज उठनेवाला यह स्वर विचित्र था। उसने कल्पना की कि यदि इस सागर का तट उषा की हलकी गुलाबी आभा से न निर्मित होकर प्रखर धूप के काँपते हुए पीलेपन से बना होता और चाँदी की रेशमी लहरें कहीं उससे आकर टकराती तो जितना करुण क्रंदन उस वातावरण में छा जाता, कुछ वैसी ही करुणा इस स्वर में भी है, पर इस स्वर का उद्गम कहाँ से है? इस स्वर की लहर-लहर जैसे भिगो रही थी कल्पना के मन को एक आर्द्र उदासी से। वह वातायन से टिककर बैठ गई। उसकी आँखें शून्य गति से ढूँढ़ने लगीं—चाँदनी के अनंत विस्तार में उस अनंत रहस्य भरे गायक को। स्वर लहराता रहा। वह उसमें खो गई। धीरे-धीरे कुछ चंचल आँसू उसके नयनों से झाँकने लगे।

सखियाँ उद्विग्न हो उठीं। “कुमारी!” उन्होंने व्याकुल होकर पुकारा।

कुमारी की तंद्रा भंग हुई। उसने चौंककर उदासी से पूछा, “यह कैसा स्वर है, वेदना?”

वेदना बोली, “जाने भी दो, कल्पना! आज क्या तारों के हार न गूँथोगी?”

कल्पना बोली, “वेदना, मेरे प्रश्न का उत्तर दो। तारों के हार तो नित्य गँूथती हूँ, सखी! दुष्ट तारे कुम्हलाते भी तो नहीं। देखो न, असंख्य हार पड़े हैं। आज न जाने क्यों मन करता है कि कोई ऐसा होता, जिसके चरणों में इन हारों को समर्पित कर पाती। जाने दो इन हारों की वेदना। यह स्वर कैसा है?”

वेदना ने उत्तर न दिया।

“बोलो, वेदना! मेरे मन की उत्सुकता विकल हो रही है। ऐसा स्वर तो पहले कभी नहीं सुना था।”

वेदना ने देखा अन्य सखियों की ओर और वे एक विचित्र आशंका से भर गईं। वेदना किसी प्रकार प्रयत्न कर बोली, “यह स्वर! यह कुछ नहीं रानी! एक देवकुमार निर्वासित कर दिया गया है स्वर्ग से। वही संभवत: गाता हुआ इस ओर आ निकला है।”

“देवकुमार! कल्पना के देश की नीरवता और एकांत को भंग करने का साहस उसे कैसे हुआ?” कल्पना ने किंचित् रुष्ट होकर पूछा।

“वह ऐसा ही दु:साहसी है, कुमारी! स्वर्ग के निषिद्ध स्थानों में उसने प्रवेश किया, तारों के फूलों में उसने अपना सौरभ भर दिया। अपने गीतों में उसने किरणों के तीर चलाने प्रारंभ किए। इसी से तो देवराज ने उसे निर्वासन का दंड दे दिया। किंतु विश्वास करो, कुमारी! उसके मस्तक पर चिंता की रेखा भी न उभरी। कुछ ठिकाना है इस दु:साहस का?”

“स्वर्ग के नियमों का उल्लंघन! मेरे एकांत को सहसा भंग करने का साहस!” कल्पना क्रोध से काँप रही थी।

एकाएक झकोरों के साथ गायक का तीव्र स्वर कक्ष में गूँज गया। कल्पना के मन का क्रोध जैसे एकाएक धुल गया हो; परंतु फिर भी प्रयत्न कर वह तीव्र स्वर में बोली, “बुलाओ उस उद्दंड देवकुमार को!”

वेदना काँप गई, “नहीं-नहीं, कुमारी! वह यों ही आया है, यों ही चला जाएगा।”

कल्पना बोली, “मैं उसे दंड दूँगी, जाओ।”

“मैं डरती हूँ, कुमारी! उसका प्रवेश अमंगलकारी न सिद्ध हो। उसके स्वरों में इंद्रजाल की लहरें नाचती हैं। उसके नयनों में जादू की ज्योति चमचमाती है।”

“कल्पना इतनी दुर्बल नहीं है। जाओ।”

* * *

“तुमने यह दु:साहस क्यों किया, देवकुमार?”

देवकुमार कुछ सोच रहा था।

“मेरे प्रश्न का उत्तर दो, दु:साहसी युवक!”

“पर तुम्हारा प्रश्न क्या है?” देवकुमार ने चौंककर पूछा।

“इतनी उच्छृंखलता! मैंने अभी तुमसे कुछ पूछा था।” कल्पना क्रोध से काँप गई।

“क्षमा करो, देवि! मेरा मन तुम्हारे स्वरों की मिठास में ही डूब गया था। अर्थों की ओर मैंने ध्यान ही न दिया।” देवकुमार किंचित् मुसकराया, “जिस प्रश्न की ध्वनि इतनी मीठी है, उसका तात्पर्य कितना मादक होगा! फिर से प्रश्न पूछो, कुमारी। मन होता है, तुम सदा इसी प्रकार प्रश्न पूछती जाओ और मैं अनसुनी करता जाऊँ।”

सखियाँ अपने को वश में न रख सकीं, खिलखिलाकर हँस पड़ीं। रानी के मस्तक की रेखाएँ सुलझ गईं। गालों पर दो गुलाब चुपके से खिल गए। पर वह फिर सँभल गई।

“यह दु:साहस और फिर भी यह वाचालता एक देवकुमार को शोभा नहीं देती।” कल्पना के स्वर भी जैसे उखड़ रहे थे।

“देवकुमार! अब मैं ‘देवकुमार’ नहीं हूँ, देवि। मेरी व्यक्तिगत संज्ञा ‘प्रेम’ है और प्रेम आसन को नहीं सह सकता, चाहे वह स्वर्ग का आसन ही क्यों न हो। देवराज ने अपने अधिकार को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रेम को नियंत्रण में रखना चाहा और मैंने विद्रोह कर दिया। मुझे निर्वासन का दंड मिला। निराश्रित होकर चल पड़ा। सुना था, तुमने शैशव से ही अपने को स्वर्ग से दूर रखा है। सोचा था, तुम्हारे यहाँ आश्रय मिलेगा, पर तुम दंड दोगी। अच्छा है, दंड ही दो। तुम्हारा दंड भी कम सुखद न होगा, कुमारी!”

हँस पड़ी कुमारी। कब तक बा कठोरता के आडंबर में मन के नवीन स्पंदन को ढाँककर रखती, “तो तुम आश्रय की इच्छा से आए हो! कल्पना तुम्हें निराश न करेगी, प्रेम!”

“वेदना, इनका प्रबंध करो।”

वेदना किसी भावी अमंगल की कल्पना से काँप उठी।

* * *

“त्रदेवराज पधारे हैं, कुमारी!”

“आने दो।”

‘मैंने कहा था, प्रेम का आगमन अमंगल से पूर्ण है!’ वेदना ने सोचा।

देवराज आए। नयनों में रोष था, गति में संयम।

“कल्पना, तुमने एक विद्रोही को आश्रय दिया है। उसने निषिद्ध स्थानों में प्रवेश किया है—स्वर्ग का शासन भंग किया है।”

“निषिद्ध स्थान जैसे?”

“जैसे देवबालाओं के अज्ञान हृदय, मृगशावकों के भोले नयन और तरुणों की चंचल गति…।” कल्पना केवल किंचित् मुसकरा दी, “और कल्पना, उसने तुम्हारे वातावरण की नीरवता और एकांत को भी भंग किया है।”

“कल्पना इस नवीन परिवर्तन का स्वागत करती है। स्वर्ग के इस विभाजन और अन्याय्य शासन के विरोध में प्रेम ने समता और स्वतंत्रता की पुकार की है और कल्पना उससे सहानुभूति रखती है।”

“क्या मेरा शासन अन्याय्य है?” देवराज उत्तेजित हो उठे।

“यह कहना मेरी अशिष्टता होगी और न कहना असत्य।” कल्पना शांति से बोली।

देवराज खीझ गए, “अच्छा, अभी तो प्रेम को केवल निर्वासन मिला था, कल प्रभात में उसे प्राणदंड दिया जाएगा। मैं जाता हूँ।”

कल्पना सिसक रही थी। वेदना रुँधे गले से बोली, “चुप रहो, कुमारी! मैंने पहले ही कहा था, अनजान परदेसी से इतनी ममता बढ़ानी उचित नहीं है, कल्पना!”

“वेदना!” कुमारी सिसकियाँ रोककर बोली, “कल्पना करो कि एक पक्षी, जो जन्म से निराधार अंतरिक्ष में उड़ रहा हो और दूर-दूर तक केवल शून्य ही उसके परों को सहारा दे रहा हो, गति दे रहा हो और चुपके-चुपके उसके परों में थकान भी भर रहा हो—यदि उस पक्षी के थके हुए परों को विश्राम के लिए किसी सुकोमल टहनी का आसरा मिल जाए और दूसरे ही क्षण प्रबल झंझावात झकझोरकर उस टहनी को तोड़ दे, तब वह पक्षी क्या करेगा?”

“उसका वश ही क्या है, कुमारी! उसके थके हुए पर उड़ने में असमर्थ होंगे। उसी टहनी के साथ-साथ मुरझाए हुए फूल की भाँति वह पक्षी भी टूटकर गिर जाएगा, कुमारी!” वेदना ने निराश स्वर में कहा।

“वेदना! हाँ, ठीक है, वेदना!” कल्पना को जैसे कोई नई बात सूझ गई थी, “मेरी टहनी टूट जाएगी सखी, और मैं…मैं भी उसका साथ दूँगी।”

वेदना कुछ समझ न पाई।

* * *

“प्रेम!”

“हाँ, कुमारी!”

“तुम्हें अपना भविष्य ज्ञात है न?”

“ज्ञात है, रानी!” और प्रेम हँस पड़ा।

“तुम हँस रहे हो, प्रेम?” रानी के नयन भर आए।

“तुम रो रही हो, छिह। उधर देखो कुमारी!” प्रेम ने चाँदनी के सागर की ओर संकेत किया। चाँदनी की लहरें प्रासाद से टकराकर लौट रही थीं।

“मैं नहीं समझी, प्रेम!”

“नहीं समझी! देखो, युग-युगों से कितनी लहरें आकर प्रासाद के इन पत्थरों से टकराती हैं, पर प्रासाद के पत्थर अटल हैं। मुझे भी तुम एक नश्वर लहर समझना कुमारी, जो अनंत के किसी कोने से उमड़ी और टकराकर दूसरे ही क्षण लौट गई। ऐसी नश्वर लहरियों को पत्थर कभी भूलकर भी याद नहीं करते।”

“पत्थर! मैं पत्थरों की बात नहीं कर रही हूँ, प्रेम। उधर देखो, उसे भी समझने का प्रयत्न करो।”

प्रेम ने देखा। वेदना स्वर्ण-कलश में चाँदनी भरकर महल की ओर लौट रही थी। हलकी गुलाबी सिकता में उसके नन्हे-नन्हे पैरों के चिह्न बनते जाते थे।

“देखा! जो एक बार भी इसे कुचलकर चलता है, यह सिकता उसके चरण-चिह्नों को अपने हृदय में कितने स्नेह से अंकित कर लेती है, कुमार!”

“ठीक है कुमारी; पर देखना, कल तक पवन के झकोरे और चाँदनी की लहरियाँ इसे समतल कर देंगी। यदि किसी पथिक की स्मृति के पद-चिह्न कहीं सिकता पर अंकित हो गए हों तो समय के झकोरे उन्हें समतल कर ही देंगे। इसमें शोक क्यों करती हो कुमारी?”

“मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ?” कल्पना बोली।

पास के सरोवर के नीले जल में कमल खिल रहे थे। तारों के कुछ भौरे मकरंद-पान कर रहे थे। रानी ने एक कमल तोड़ा और प्रेम के पास फेंक दिया। भ्रमर उड़ा नहीं, मकरंद से चिपटा रहा।

“इसका क्या उत्तर है, प्रेम?”

“इसका उत्तर! तुम संभवत: पूछ रही हो कि कमल के टूटने पर भी भ्रमर उड़ा नहीं; पर रानी, ये तुम्हारे तारों के कमल अमर हैं। यदि ये नश्वर होते और किसी नश्वर क्षण में इन पर छा जाता पीलापन, उड़ जाता इनका मकरंद तो भ्रमर भी उड़कर दूसरे कमल पर जा बैठता। कमल सूखते रहते हैं रानी, भ्रमर सदा आश्रय ढूँढ़ लेते हैं।”

कल्पना निरुत्तर हो गई। प्रेम हँस पड़ा।

“कितनी भोली हो तुम, कुमारी! उत्तर देना भी न आया। कहो, कल्पना का सौंदर्य वास्तविकता से अधिक स्थायी होता है। कहो।”

“हाँ!” कल्पना को जैसे उत्तर मिल गया, “कल्पना का सौंदर्य वास्तविकता से अधिक स्थायी होता है। कुमार। प्रेम की लहरों से टकराने पर कल्पना के पत्थर टूट जाते हैं। कल्पना की सिकता पर प्रेम के पदचिह्न अमर होते हैं। प्रेम के कमल के सूखने पर कल्पना के भ्रमर उड़ नहीं जाते, वे उसी के साथ टूट जाते हैं, कुमार! कल्पना को प्रेम ने नया जीवन दिया है और कल्पना मृत्यु में भी प्रेम का साथ देगी।”

“मृत्यु? प्रेम ने न शासन में जीवित रहना सीखा है और न प्राण देना। कल्पना की शाखाओं पर किरणों की रेशमी डोर में झूलने की अपेक्षा मैं उन्मुक्त आकाश की स्वतंत्र छाया में, चाँदनी की लहरों के साथ मृत्यु-क्रीड़ा करना अधिक उचित समझता हूँ। इन लहरों को चीरकर सागर के उस पार पहुँचना कितना सुखद होगा और यदि डूब भी गया तो यह संतोष होगा कि कल्पना रानी के सागर ने ही मुझे आश्रय दिया है और तब उस पार का आनंद मुझे मझधार में ही मिल जाएगा। किंतु तुम यहीं रहो, रानी! तुम्हारा सुख मेरे साहस की प्रेरणा होगा।”

“तुम मेरे आश्रित हो न! मैं तुम्हारे साथ चलूँगी, तुम्हारी रक्षा में सन्नद्ध होकर। चाँदनी की लहरें कल्पना रानी का शासन मानती हैं। अपने कोमल स्पर्श से सहारा देकर वे तुम्हें ले चलेंगी उस पार। आओ।”

दोनों सागर की ओर बढ़े—सागर स्वागत के उल्लास में हिलोरें लेने लगा। कल्पना ने पैर बढ़ाए। सहसा प्रेम ने उसे पीछे खींच लिया और कहा, “ठहरो!”

नीचे पृथ्वी पर—

साँझ के गुलाबी बादलों में आँख-मिचौनी खेलते हुए विहगदल के रव को अनसुना करते हुए पेड़ों की काँपती छाया में चला जा रहा था एक पथिक अपने गेह को। रात घिर आई थी, बादल छा गए थे। एक घने वृक्ष के तले वह रुक गया आश्रय हेतु। हरे झुरमुट के पास, नगर के एक उच्च गृह के वातायन से झाँक रही थी एक बालिका। अँधेरा बढ़ रहा था, बादल छा रहे थे।

पर उस समय पृथ्वी पर न प्रेम था, न कल्पना।

बालिका के मन में वन-वन भटकनेवाले एक पथिक की याद तो आई; पर उसके मन में कोई पीड़ा न कसकी। उस समय पृथ्वी पर प्रेम न था।

पथिक के मन में एक अनजान पीड़ा तो कसक गई, पर उसे कोई याद न आया। उस समय पृथ्वी पर कल्पना न थी।

दोनों मूक थे। दोनों के अभाव घुटते रहे।

**समाप्त**

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