मुरदों का गाँव धर्मवीर भारती की कहानी | Murdon Ka Gaon Dharamvir Bharati Ki Kahani 

मुरदों का गाँव धर्मवीर भारती की कहानी, Murdon Ka Gaon Dharamvir Bharati Ki Kahani Hindi Short Story 

Murdon Ka Gaon Dharamvir Bharati Ki Kahani

उस गाँव के बारे में अजीब अफवाहें फैली थीं। लोग कहते थे कि वहाँ दिन में भी मौत का एक काला साया रोशनी पर पड़ा रहता है। शाम होते ही कब्रें जम्हाइयाँ लेने लगती हैं और भूखे कंकाल अँधेरे का लबादा ओढ़कर सड़कों, पगडंडियों और खेतों की मेंड़ों पर खाने की तलाश में घूमा करते हैं। उनके ढीले पंजरों की खड़खड़ाहट सुनकर लाशों के चारों ओर चिल्लानेवाले घिनौने सियार सहमकर चुप हो जाते हैं और गोश्तखोर गिद्धों के बच्चे डैनों में सिर ढाँपकर सूखे ठूँठों की कोटरों में छिप जाते हैं।

इसी वजह से जब अखिल ने कहा कि चलो, उस गाँव के आँकड़े भी तैयार कर लें, तो मैं एक बार काँप गया। बहुत मुश्किल से पास के गाँव का एक लड़का साथ जाने को तैयार हुआ। सामने दो मील की दूरी पर पेड़ों के झुरमुटों में उस गाँव की झलक दिखाई दी। मील भर पहले ही से खेतों में लाशें मिलने लगीं। गाँव के नजदीक पहुँचते-पहुँचते तो यह हाल हो गया कि मालूम पड़ता था, भूख ने इन गाँव के चारों ओर मौत के बीज बोए थे और आज सड़ी लाशों की फसल लहलहा रही है। कुत्ते, गिद्ध, सियार और कौए उस फसल का पूरा फायदा उठा रहे थे।

इतने में हवा का एक तेज झोंका आया और बदबू से हम लोगों का सिर घूम गया। मगर फिर जैसे उस दुर्गंध से लदकर हवा के भारी और अधमरे झोंके सूखे बाँसों के झुरमुटों में अटककर रुक गए। सामने मुरदों के गाँव का पहला झोंपड़ा दीख पड़ा। तीन ओर की दीवारें गिर गई थीं और एक ओर की दीवार के सहारे आधा छप्पर लटक रहा था। दीवार की आड़ में एक कंकाल पड़ा था। साथवाला लड़का रुका, “यह! यह निताई धीवर है।”

“कहाँ?” अखिल ने पूछा।

“वह, वह निताई धीवर सो रहा है!” लड़के ने कंकाल की ओर संकेत किया, “वह धीवर था और गाँव का सबसे पट्ठा जवान। अकाल पड़ा। भूख से उसकी माँ मर गई। उसके पास खाने को न था, फिर लकड़ी लाकर चिता सजाना तो असंभव था। उसने अपनी नाव बाहर खींची, माँ के शरीर को नाव में रखा, ऊपर से सूखी घास रखी और आग लगा दी। रहा-सहा सहारा भी चला गया और एक दिन वह भी यहीं भूखा सो गया। यहीं, इसी जगह उसकी माँ ने भी दम तोड़ा था।” वह लड़का बोला।

हवा का झोंका फिर चला और खोखले बाँसों से गुजरती हुई हवा सन्नाटे में फिसल पड़ी। लड़का चीख पड़ा, “वह साँस ले रही है, सुना नहीं आपने?”

“कौन?”

“वह, वह जुलाहिन साँस ले रही है।”

“क्या वाहियात बकता है!” अखिल ने झुँझलाकर डाँटा, “कौन जुलाहिन?”

“आपको नहीं मालूम? वह सामने झोंपड़ी है न, उसी में जुलाहे रहते थे। उसमें से तीन भूख से मर गए। रह गए सिर्फ जुलाहा, जुलाहिन और उनका करघा; मगर भूख से उनकी नसें इतनी सुस्त थीं कि करघा भी बेकार था। उन्होंने पास के जंगल से जड़ें खोदकर खानी शुरू कीं। उनके दाँत नुकीले हो गए, जैसे सियारों की खीसें। जुलाहा बीमार पड़ गया। जुलाहिन जड़ें खोदने जाती थी। एक दिन जड़ें खोदते वक्त खुरपी उसके कमजोर हाथों से फिसल गई और बाएँ हाथ की तर्जनी और अँगूठा कटकर गिर गया। जब वह घर पहुँची तो भूखा व बीमार जुलाहा झल्ला उठा और चिल्लाकर बोला, ‘निकल जा मेरे घर से। अब तू बेकार है। न करघा चला सकती है, न जड़ें खोद सकती है।’ तब से जुलाहिन का पता नहीं है। मगर कुछ लोगों का कहना है कि वह भूत बनकर गाँव की कब्रों के पास घूमा करती है। वह अभी भी साँस ले रही थी, सुना नहीं आपने?”

अखिल ने मेरी ओर देखा और मैंने अखिल की ओर। हम दोनों आगे बढ़े और जुलाहों के झोंपड़े में घुसे। लड़का ठिठका, मगर हिम्मत दिलाने पर वह भी आगे बढ़ा। हम लोग अंदर गए। लड़के ने अंदर से किवाड़ बंद कर लिये और हम लोगों से सटकर खड़ा हो गया। वह डर से काँप रहा था। सामने आँगन में तीन कब्रें आसपास खुदी हुई थीं। बीच की कब्र में एक बड़ा सा छेद था। उसमें से एक बिज्यू निकला और हम लोगों को डरावनी निगाहों से पल भर देखकर सिर झटका और फिर कब्र में घुस गया। आँगन में किसी मुरदे के सड़ने की तेज बदबू फैल रही थी। अखिल ने अपना कैमरा सँभाला और फोटो लेने की तैयारी की। इतने में पीछे के किवाड़ खड़क उठे। मेरे रोंगटे खड़े हो गए। अखिल बोला, “कोई सियार होगा।”

किवाड़ को किसी ने जैसे बार-बार धक्का देना शुरू किया। मैंने सोचा, शायद जिंदा आदमी की गंध पाकर गाँव भर के मुरदे हम पर हमला करने आए हैं। मेरे खून का कतरा-कतरा डर से जम गया। लड़का बुरी तरह से चीख पड़ा। अखिल धीमे-धीमे गया, धीरे से किवाड़ खोल दिया। उसके बाद बुरी तरह से चीखकर भागा और मेरे पास आकर खड़ा हो गया। मैं बदहवास हो रहा था और आपको यकीन न होगा, मैंने दरवाजे पर क्या देखा।

मैंने जिसे देखा वह आदमी नहीं कहा जा सकता था। वह जानवर भी नहीं था, भूत भी नहीं। एक औरतनुमा शक्ल, जिसकी खाल जगह-जगह पर लटक आई थी, सिर के बाल झड़ गए थे, निचला होंठ झूल गया था और दाँत कुत्तों की तरह नुकीले थे। मालूम होता था, जैसे आदमी के ढाँचे पर छिपकली का चमड़ा मढ़ दिया गया हो। उसके दाएँ हाथ में एक खुरपी थी और बाएँ हाथ की दो अधकटी और तीन साबुत उँगलियों में कुछ जड़ें। वह पल भर दरवाजे के पास खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ी।

मैं चीखना चाहता था, मगर गला जवाब दे चुका था। वह हमारे बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई, जड़ें जमीन पर रख दीं और अपने तीन उँगलियोंवाले हाथ को मुँह के पास ले जाकर कुछ खाने का इशारा किया। हम लोगों की जान में जान आई। वह भूखी है, वह आदमी ही होगी; क्योंकि भूख आदमियत की पहचान है। अखिल ने अपने झोले में से केला निकाला और उसकी ओर फेंक दिया। उसने केला उठाया और मुँह के पास ले गई। मगर फिर रुक गई, उठी और झोंपड़ी के दूसरी ओर चल दी।

हम लोगों को कुतूहल हुआ। हम लोग भी पीछे-पीछे चले। वह औरत सहन के एक कोने में गई। वहीं एक मुरदा था, जिसकी सड़ाँध आँगन में फैल गई थी। देहाती लड़के ने उसे देखा और पहली बार उसके मुँह से आवाज निकली, “जुलाहा! यह तो जुलाहे की लाश है। यह जुलाहिन उसे भी भूत बनाने आई है।”

जुलाहिन लाश के पास गई। लाश सड़ रही थी और उसमें चींटियाँ लग रही थीं। उसने केला और जड़ें लाश के मुँह पर रख दीं और हँसी। हँसी की आवाज मुँह से नहीं निकली, मगर खीसों को देखकर अनुमान किया जा सकता है कि वह हँसी होगी। दूसरे ही क्षण वह बैठ गई और मुरदे की छाती पर सिर रख सुबकने लगी।

“यह जुलाहिन है? मगर यह तो कम-से-कम सत्तर बरस की होगी।”

“सत्तर बरस। No, it is dropsy, देखते नहीं, जहरीली जड़ें खाने से इसकी नसों में पानी भर गया है, मांस झूल गया है।” अखिल बोला, “इस मुरदे को हटाओ, वरना यह भी मर जाएगी।”

उसके बाद हम लोग झोंपड़े के भीतर आए। पास में एक गड्ढा था। सोचा, इसी में लाश डाल दी जाए। भीतर आए, लाश के पास से जुलाहिन को हटाया और उसकी लाश भी एक ओर लुढ़क गई। मैं घबरा गया, बेहोश-सा होने लगा। अखिल ने मुझे सँभाला। हम लोग थोड़ी देर चुप रहे। फिर मैं बोला—भारी गले से, “अखिल, उँगलियाँ कट जाने पर यह निकाल दी गई। फिर किस बंधन के सहारे, आखिर किस आधार के सहारे यह मरने से पहले जुलाहे के पास आई थी जड़ें लेकर? क्यों?”

अखिल चुप रहा—मुरदों के गाँव की दोनों आखिरी लाशें सामने पड़ी थीं।

“अच्छा उठो!” अखिल बोला।

हम लोगों ने लाशें उठाईं और गड्ढे में डाल दीं। एक ओर जुलाहा, दूसरी ओर जुलाहिन। बाँस के सूखे पत्तों से उन्हें ढाँक दिया। मैंने अपनी उँगली से धूल में गड्ढे के पास लिखा— “ताजमहल, 1943” और हम चल पड़े।

**समाप्त**

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