सुभाषित रत्न २ माधवराव सप्रे की कहानी | Subhashit Ratna 2 Madhavrao Sapre Ki Kahani

सुभाषित रत्न २ माधवराव सप्रे की कहानी (Subhashit Ratna 2 Madhavrao Sapre Ki Kahani Hindi Short Story)

Subhashit Ratna 2 Madhavrao Sapre Ki Kahani

Subhashit Ratna 2 Madhavrao Sapre Ki Kahani

एक दिन एक विद्वान ब्राह्मण किसी धनवान मनुष्य के पास गया और कहने लगा––”महाराज! मैं कुटुम्ब-वत्सल पंडित हूँ। आजकल भयंकर कराल-रूपी दुष्काल ने चारों ओर हाहाकार मचा दिया है। अन्न महंगा हो जाने के कारण अपना चरितार्थ नहीं चला सकता। आप श्रीमान हैं। परमेश्वर ने आपको अटूट सम्पत्ति दी है। कृपा करके मुझे अपना आश्रय दीजिये। इससे मेरी विद्वत्ता की सार्थकता होगी और आपका नाम भी होगा। बिना आश्रय के पंडितों की योग्यता प्रकट नहीं होती। कहा है कि–’बिनाश्रयं न शोभन्ते पण्डिता वनिता लता’–अर्थात्, पण्डित, वनिता और लता बिना आश्रय के शोभा को प्राप्त नहीं होते। अतएव हे महराज, मुझे आश्रयदान दे यश-सम्पादन कीजिये।”

पण्डित जी का उक्त प्रस्ताव सुनकर धनिक महाशय ने कहा–”पण्डित जी, सुनो, द्रव्य-प्राप्ति के लिए हमें कई प्रकार के उद्योग करने पड़ते हैं। हमारे परिश्रम से कमाए हुए धन में तुम्हारा क्या हक्क है? हरएक मनुष्य को आश्रय देने से देश में आलस की वृद्धि होती है। क्या तुमने पाश्चात्य लोगों का मत नहीं सुना? तुम तो बड़े विद्वान् हो, फिर दरिद्री की नाईं भीख क्यों माँगते हो? जो विद्या तुमने सीखी है, उसके बल पर कुछ रोजगार करो; नहीं तो नौकरी करो।”

“सच है,” पंडित जी ने कहा, “महाराज, सच है। आप बहुत ठीक कहते हैं। हम विद्वान होकर ऐसे दरिद्री क्यों हैं, इस बात की। शंका जैसी आपको आई, वैसी ही मुझे भी आई थी। इस शंका का निवारण करने के लिए एक दिन मैं प्रत्यक्ष लक्ष्मी के पास गया और उससे पूछा कि –

पद्मे मूढजने ददासि द्रविणं विद्वत्सु किं मत्सरो

हे लक्ष्मी तू ऐसे (उस धनिक की ओर अँगुरी बताकर) मूढ़ लोगों को द्रव्य देती है और विद्वानों को नहीं देती, तो क्या तू विद्वानों का द्वेष करती है? इस पर लक्ष्मी ने उत्तर दिया कि–हे ब्राह्मण,

नाहं मत्सरिणी न चापि चपला नैवास्ति मूर्खे रतिः।

मूर्खेभ्यो द्रविणं ददामि नितरां तत्कारणं श्रूयतां

विद्वान् सर्वजनेषु पूजिततनुर्मूर्खस्य नान्याः गतिः॥

“मैं विद्वानों का मत्सर नहीं करती, मैं चंचल भी नहीं हूँ, और न मैं मूर्खों पर कभी प्रेम रखती हूँ। परन्तु मूर्ख मनुष्यों को नितरां मैं द्रव्य दिया करती हूँ। उसका जो कारण है, वह सुनो। विद्वान लोगों की तो सर्वत्र पूजा हुआ करती है और मूर्खों को कोई भी नहीं पूछता, इसलिए मैं मूर्खों को द्रव्य दिया करती हूँ क्योंकि उन्हें दूसरी गति ही नहीं है।”

महाराज, लक्ष्मी का यह उत्तर यथार्थ है। आज मुझे उसका अनुभव मिला। आप भी इसी मालिका में हैं, यह बात मुझे विदित न थी।” ऐसा कहकर पण्डित जी अपने घर चले आये।

जिस धनवान पुरुष की सभा में उक्त विद्वान महाशय गये थे, उनके पास चापलूसी करने वाले कई खुशामदी लोग भी बैठे हुए थे। अपने मालिक पर ऐसी मखमली झड़ने की नौबत देखकर उनमें से एक बोल उठा कि–”पंडित जी, ऐसे संस्कृत श्लोक कहने वाले यहाँ कई आते हैं। क्या आप समझते हैं कि आप बड़े सुभाषित-वक्ता हैं? कुछ ऐसी बात कहते जिससे हमारे सरकार खुश होते, तो तुम्हारा काम भी हो जाता।”

इस मुँह-देखी बातें करने वाले मनुष्य को अब क्या कहें, बिचारा सुभाषित का महत्व नहीं जानता। समयोचित भाषण करने से चतुर पुरुष को कितना आनंद होता है, यह उसको मालूम नहीं है। यद्यपि यह धनवान मनुष्य पैसे की गर्मी से अंधा हो गया है तो भी उसके मन को शिक्षा का कुछ संस्कार हुआ है। अतएव इसके सामने सुभाषित की प्रशंसा करना अनुचित न होगा। ऐसा अपने मन में सोचकर पंडित जी ने कहा–”हे महाराज,

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।

मूढैः पाखाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते॥

इस पृथ्वी में अन्न, जल और सुभाषित–ये ही तीन मुख्य रत्न हैं। मूर्ख लोग हीरा, माणिक आदि पत्थर के टुकड़ों को ‘रत्न’ कहते हैं।” यह सुनकर श्रीमान गृहस्थ अपने मन में बड़ा ही लज्जित हुआ।

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