सुभाषित रत्न १ माधवराव सप्रे की कहानी | Subhashit Ratna 1 Madhavrao Sapre Ki Kahani

सुभाषित रत्न १ माधवराव सप्रे की कहानी (Subhashit Ratna 1 Madhavrao Sapre Ki Kahani Hindi Short Story)

Subhashit Ratna 1 Madhavrao Sapre Ki Kahani

Subhashit Ratna 1 Madhavrao Sapre Ki Kahani

(१)

कुठारमालिका दृष्ट्‌वा कम्पिताः सकला द्रुमाः।

वृद्धस्तरुवाचेदं स्वजातिर्नैव दृश्यते॥

किसी समय एक माली बहुत-सी कुल्हाड़ियाँ रस्सी में बांध अपने बगीचे में गया। उसको देखते ही सब वृक्ष मारे डर के थर-थर काँपने लगे। तब उनमें से एक पुराने झाड़ ने कहा––”भाइयो! अभी से क्यों डरते हो! जब तक हम लोगों में से कोई भी बेंट, अर्थात् कुल्हाड़ी का डंडा इन कुल्हाड़ियों में शामिल न होगा, तब तक उनसे हमारा नाश नहीं हो सकता।” सच है, स्वजातीय अथवा आत्मीय जन के विश्वासघात से ही नाश होता है, अन्यथा नहीं।

(२)

गणिकागणकौ समानधर्मो

निजपञ्चाङ्गनिदर्शकावुभौ।

जनमानसमोहकारिणौ तौ

विधिना वित्तहरौ विनिर्मितौ॥

वेश्या और (कुत्सित) ज्योतिषी का बर्ताव एक ही सा जान पड़ता है। ज्योतिषी अपना पंचांग––पत्रा––दिखाता है और वेश्या भी अपने पंचांग दिखाती है। इसी प्रकार ये दोनों, लोगों के मन मोहने वाले हैं। कदाचित् ऐसा ही समझकर विधि ने इन दोनों को लोगों का द्रव्य अपहरण करने के लिए निर्माण किया है।

(३)

तीर्थानामवलोकनं परिचयः सर्वत्र वित्तार्जनं

नानाश्चर्यनिरीक्षणं चतुरता बुद्धे प्रशस्ता मिरः।

एते सन्ति गुणाः प्रवासविषये दोषोऽस्ति चैको महान्

यन्मुग्धामधुराधराधरसुधापानं विना स्थीयते।

तीर्थों का अवलोकन, सर्वत्र परिचय, द्रव्य-संपादन, अनेकानेक आश्चर्य पदार्थों का निरीक्षण, बुद्धि-चातुर्य और सुन्दर भाषा––इतने सब गुण प्रवास में हैं। परन्तु उसमें एक बड़ा भारी दोष भी है कि मुग्धांगना के मधुर अधर का अमृत-प्राशन किये बिना रहना पड़ता है।

(४)

सब लोग कंजूस की निन्दा करते हैं। कहते हैं कि जमीन में तिजोरी गाड़कर उस पर पलंग बिछाकर वह रात्रि के समय अकेला ही सोया करता है। भार्या का संग नहीं करता। कारण यह है कि न जाने कदाचित् लड़के-बच्चे हो जायँ और फिर उसके वित्त का हरण कर लें। परन्तु एक कवि ऐसी उत्प्रेक्षा करता है कि नहीं––

कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति।

अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति॥

कृपण के समान दाता न तो आज तक कभी हुआ है और न आगे होगा। दूसरे लोग तो दान देते समय द्रव्य का स्पर्श भी करते हैं, परन्तु कृपण स्वकीय द्रव्य को बिना छुए ही दे देता है (अर्थात् मत्यु के अनन्तर)।

(५)

अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथावुभावपि।

बहुब्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरुषो भवान्॥

एक दिन एक विद्वान महाशय राजा की सभा में गये। कहने लगे कि––हे राजेन्द्र, आप और हम दोनों ही लोकनाथ हैं। फरक इतना ही है कि आप श्रीमान हैं और मैं याचक हूँ––अतएव याचक होने के कारण मेरे नाम में ‘लोकनाथ’ बहुब्रीहि समास है, जैसे––लोक है नाथ जिसके, वह लोकनाथ और आपके नाम में ‘लोकनाथ’ षष्ठी तत्पुरुष समास है, जैसे––लोकों का नाथ, लोकनाथ। उक्त महाशय का बुद्धि-चातुर्य देख राजा बहुत प्रसन्न हुए और उनकी योग्य संभावना की।

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