घिसटता कम्बल रांगेय राघव की कहानी | Ghisatata Kambal Rangeya Raghav Ki Kahani 

घिसटता कम्बल रांगेय राघव की कहानी, Ghisatata Kambal Rangeya Raghav Ki Kahani, Ghisatata Kambal Rangeya Raghav Story In Hindi

Ghisatata Kambal Rangeya Raghav Ki Kahani 

प्रभात की जिस बेला में कोयल का बोल सुनाई देता है, रागिनी उसे अपने सुहाग का एकमात्र शुभ लक्षण समझकर हर्ष से गद्गद् हो उठती है। दूर एक पेड़ है, वरना उस मुहल्ले में पत्थरों, ईंटों और उनकी कठोरता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह दूर-दूर तक देखती है। कहीं कुछ भी नहीं दिखाई देता। लौटकर जाती है, चूल्हे पर पानी रख देती है और घुटनों पर सिर रखकर सोचने लगती है। कुछ भी नहीं है चिंता करने के योग्य, क्योंकि जो है वह चिंता ही है, चिंता के अतिरिक्त और कुछ नहीं।

पानी में से एक आवाज आ रही है। उसकी ओर देखा। कुछ नहीं उबलने की ध्वनि आ रही है। तो क्या इस जीवन में यह जो विभिन्न ध्वनियां सुनाई दे रही हैं, वे और कुछ नहीं, केवल एक उबाल का उपहास है, जिसका रूप धीरे-धीरे धुआं बनकर उड़ता जा रहा है, ताकि शून्य में अपने-आप लय हो जाए? कोई समझने का प्रयत्न करे, क्योंकि समझकर चलना कठिन है। अच्छा है वह बटोही, जो नहीं जानता कि जंगल में शेर-चीतों के अतिरिक्त बटमार भी हैं, लुटेरे भी हैं…

और रागिनी ने पतीली उतारकर रख दी। एक विवाह और विवाह के बाद, जैसे यात्री के कंधे पर पड़ा कंबल जो लटकता रहता है, मैला होता रहता है…कोई कहे कि मुसाफिर, देख तो पीछे तू अपने ही निशान मिटा रहा है, और लौटकर देखते समय कंबल भी उठ जाता है। यात्री समझता है कि संसार उससे उपहास कर रहा था, क्योंकि संसार को अपनी हीनता का कितना विक्षोभ है, अपदार्थ निर्वीर्यता। याद आ रहा है धीरे-धीरे एक बीता हुआ इतिहास, इसे इतिहास न कहकर विषाद की एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा कहा जाए तो क्या कुछ अनुचित है?

दाल भी कितनी खराब है कि कमबख्त गलती ही नहीं। जाओ बाजार, बनिया कहेगा, ‘इससे सस्ती तो है ही नहीं।

रागिनी झुंझला उठी। एक घंटा तो होने को आया। कोई हद है…

फिर उबाल। जमीन की यह फसल इतनी कठोर है, फिर स्वयं वह ही कैसे इतनी जल्दी दब गई। क्योंकि वह मनुष्य है?

रागिनी मुस्कराई। कैसी बर्बरता है। लेकिन प्यार कहां है आजकल?

उफ! कैसी मिर्चों की झांस उठ रही है। सौ बार सोच चुकी हूं कि जाकर पड़ोसिन से कहूं कि बहिन, एक घर में रहते हैं तो समझौता करके ही रहना होगा। नहीं भाती हमें तुम्हारी यह बात कि मिर्चें हवा के रूख में कूटने बैठ जाती हो।

पड़ोसिन बड़बड़ाती है। आजकल के स्कूलों की छोकरियां, जैसे परमात्मा ने इन्हें औरत क्या बनाया, दुनिया पर एक अहसान-सा कर दिया…

रागिनी का वह स्कूल का जीवन भी कितना भला था। वे मास्टरनियां कहां मिलेंगी अब? तब वह प्रेम करना चाहती थी। हर महीने ‘माया’ पढ़ती थी। पढ़ने को तो मन अब भी चाहता है, क्योंकि उसमें वह है जो वैसे नहीं होता, हो नहीं सकता…

दाल तो नहीं ही गलेगी। दोपहर चढ़ जाएगी, दिन ढ़ल जाएगा…

विपिन ने प्रवेश किया। नहा-धोकर पट्टे पर आसन ग्रहण किया और कहा-क्यों खाना बन गया?

‘बन कहां से गया? दाल तो ऐसी लाए हो जैसे भानमती का पिटारा। इसके सीझने की बेला आए, न उसके खत्म होने की।’

मां-बाप से नहीं पटी है तभी तो दोनों अलग रहते हैं। शहर में नौकरी लग गई है। यह वही कहानी है जो आज बरसों से होती चली आई है। क्योंकि दोनों एक-दूसरे को चाहते हैं। रागिनी नहीं चाहती उसके पति पर सबका अधिकार हो। जो उसका स्वामी है, वह उसकी दासी है तो इसलिए न कि अधिक से अधिक उसकी स्वामिनी भी हो सके।

एक मुस्कान की कटार चमकती है, दूसरे की मुस्कान कटार बनकर उस स्नेह की मार को रोकती है, फिर दुधारा इधर भी काटता है, उधर भी, और वह पैनी गर्म-गर्म लोहे की टुकड़ी इधर भी उतरती है उधर भी, और वह उनकी परवशता की घृणा का प्यार है, जैसे बहेलिए से डरे हुए दो पक्षी एक-दूसरे के पंखों में सिर छिपाकर गर्म होने का यत्न करते हैं!

‘हूं’ विपिन का स्वर भारी है-तो गोया दालवाले को भी हमारा साला होना चाहिए।

रागिनी चिढ़ गई। उसने कहा, ‘जी हां, साला नहीं तो भाई होना ही चाहिए।’

एक तरेर। रस्सी खिंच गई है। उस पर अभिमान नट बनकर अपना कौशल दिखाता हुआ चल रहा है, जैसे सैनिक शिक्षा पाते समय हाथों से पकड़कर झूलते हुए रस्सा थामकर नदी पार करते हैं।

पति और पत्नी। दास और दासी। अभिमान और ऐंठन। अच्छी भाषा में देवता और पुजारिन, एक रुपया और चवन्नी।

विपिन कहता है, ‘तो मैं जा रहा हूं। सरकार की नौकरी है। वहां जाने के लिए जरूरी नहीं है कि दाल खाकर ही जाना चाहिए।’

‘तुम्हें मेरी कसम है। खाने के लिए सारा जीवन है। वही नहीं है तो फिर सारा संसार किसलिए है?’

और विपिन कहता है, ‘खाने को या तो है ही नहीं या है भी तो उसके खाने का समय नहीं है।’

रागिनी के मुंह पर उदासी चढ़ती है, जैसे पारदर्शी फाउंटेननेप में स्याही चढ़ती हुई दिखाई देती है…

विपिन देखता है कि कितना क्षुद्र है वह! संसार में अनेक कार्य हैं, अनेक-अनेक महापुरूष हैं, अनेक-अनके शक्तियां हैं, किंतु वह कहीं भी कुछ नहीं है। उसकी असमर्थता ऐसी है जैसे टूटे हुए गिलास के शीशे के टुकड़े। वह केवल घिसटता चला जा रहा है।

उन आंखों में एक उदास छाया है, उनमें दर्द है, प्राणों की कसक है। व्यक्ति का प्यासा हृदय है, किंतु घड़ी में दस बज रहे हैं, जैसे प्रेम की सीता की ओर दस मुखों से रावण बोलता हुआ देख रहा हो, घूर रहा हो…

शाम हो गई है। फिर वही दाल है जो सीझना नहीं चाहती। जानती है कि वह सीझने के ही लिए है कि दुनिया उसे खाकर पचा जाए। फिर भी नहीं सीझती। कैसी पथरीली जिद है।

रागिनी फिर उठ गई। जाकर मुंह धोया। तौलिए से मुंह पोंछकर माथे में बिंदी लगाई।

एक बार दरपन में मुख देखा। यह कोई पद्मिनी का-सा रूप नहीं। किंतु फिर भी इसमें वह कुछ तो है ही जो अपने मन के सूनेपन को अपने-आप गुदगुदा दे, जिसे देखकर संसार कह सके इसे कुछ चाहिए, कुछ चाहिए।

विपिन के सिर में दर्द है। वह लेटा हुआ है। रागिनी ने कमरे में जाकर धीरे-से लालटेन जला दी, सिरहाने बैठकर सिर पर हाथ रखा। कुछ हल्का-सा ज्वर था। गर्म शरीर अच्छा लगा। हाथ फिराकर कहा-क्यों बदन गर्म है? कुछ हरारहत लगती है?

‘हां! आज कुछ ज्यादा होगी। कोई ऐसी बात नहीं। तुम जानती हो आठ घंटे की ड्यूटी, जिसमें सोलह घंटे की डांट…’

‘क्या मतलब है?’ रागिनी ने चौंककर पूछा।

‘मेरे भाई, दो आदमी के आठ और आठ सोलह ही तो हुए?’

दोनों हंस पड़े। इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। कर भी क्या सकते हैं क्लर्की छोड़ देगा तो कोई दूसरा पतिंगा शमा पर जलने आ जाएगा। दिल्ली का विराट नगर है। इस छोटे क्वार्टर में कितना अपनापन है? कुछ ऐसी बात भी नहीं कि हम क्या किसी से कम हैं?

रागिनी कुछ नहीं बोलती। चुपचाप सिर पर हाथ फिराती रहती है जैसे कोई चाय की चिकनी प्याली है। दूसरी बार लगता है कहीं दाल पर से ढक्कन तो नहीं उतार रही।

मन एक केंद्र है जिससे जगह-जगह के लिए बाण छूटा करते हैं।

मांस का हाथ है, वही मनुष्य-देह की तपिश से आकर्षित हो रहा है।

रागिनी दोनों हाथों से उसका मुख अपनी ओर मोड़कर कहती है-तो क्या हमलोग कभी भी सुखी नहीं रहेंगे?

सुख! एक दर्दनाक सपना, जिसके अंत में जैसे मनुष्य चिल्लाकर बिस्तरे से उठकर भागता है।

विपिन धीरे-से हंसा। उसने हल्की-सी मुस्कराहट से कहा, ‘पगली! सुख और किसे कहते हैं?’

रागिनी के मन पर कोई सांत्वना का घड़ा उड़ेल रहा है।

विपिन ने कहा, ‘तुम समझती हो, धन ही हमारे सुखों का मोल है? नहीं रागिनी! प्रेम ही हमारे जीवन की सांत्वना है, एक बड़ा भारी आधार है। यदि मैं इस दुःखी संसार में तुमसे छूट जाऊं तो तुम समझती हो मैं यह अपमान का जीवन बिता सकूंगा?

रागिनी ने समझा। मन के किसी भीतरी भाग में प्रश्न हुआ, ‘तो क्या यह स्नेह किसी घोर घृणा का परिणाम है?’

विपिन ने उसकी गोद में सिर रखकर कहा, ‘रानी! डूबते को तिनके का सहारा चाहिए, किनारे पर खड़ा होकर शोर मचानेवाला तो कभी मदद नहीं देगा!

तो क्या दोनों ही डूब रहे हैं। रागिनी ने उसका हाथ अपनी मुट्ठी में दबा लिया। विपिन को लगा जैसे बिजली का तार उसके हाथ से जकड़ गया हो।

उसके बार एक बुखार है। रागिनी ने उसके बालों पर स्नेह से हाथ फेरा जैसे रेशम का कीड़ा अपनी मुंह से उगले रेशम में चहलकदमी कर रहा हो।

देर तक वे एक-दूसरे का मुख देखते हैं। पीलापन तो है ही, कितना असंतोष भी है। यदि समाज का ढ़ांचा इसके लिए दोषी है तो देवता के सामने इनकी बलि क्यों हो रही हैं?

‘रागिनी!’ विपिन ने कहा, ‘कितना अंधियारा छा गया है बाहर?’

रागिनी ने मुख मोड़कर कहा, ‘तुम जो वह ब्लाउज का कपड़ा देख आए थे, लाए नहीं?’

‘अच्छा, वह जो वह सीखनी पहनती है?’

‘हां!’ क्यों जी यह सिख तो इतनी ही तनखाह में, ऐसी हालत में ही बड़े खुश रहते हैं। इनके साथ क्या बात है?’

विपिन हंसा, स्नेह से उत्तर दिया, ‘वे ऊपर के दिखावे के जो ज्यादा शौकीन होते हैं, वे सोचते ही कम हैं।

‘तो तुम इतना सोचते क्यों हो? हम क्या बिना सोचे सुखी नहीं हो सकते हैं?’

विपिन चुप है। लगता है जैसे दीपक फक् करके बुझ जाएगा!!!

घड़ी बज उठी है। दाल सीझ चुकी होगी। वह उठी। केवल बैठे रहने ही से तो कल का जीवन नहीं चलेगा। सुबह-शाम खाना पकाने के लिए है, बाकी समय पचाने के और विकृत मल को निकालकर अपने को स्वच्छ समझने की प्रतारणा के लिए।

वह उठ खड़ी हुई। द्वार की ओर चली। मुड़कर देखा, विपिन करवट बदल रहा था। उसकी पीठ इधर थी। वह विश्रांत था। बीच में दो शब्दों को मिलाकर एक करने वाली वह छोटी लकीर अब नहीं बन रही थी। रागिनी ने जाकर देखा-दाल अभी भी सीझ ही रही थी, सीझी नहीं थी…

मन में आया उठाकर फेंक दे, किंतु साहस नहीं हुआ। जीवन भी तो इस दाल के ही समान है, उसे फेंक दे उठाकर, किंतु इतना सामर्थ्य है कहां! और रात को भी कोयल बोल ही उठती है कभी-कभी।

**समाप्त**

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