चैप्टर 41 रंगभूमि मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 41 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

Chapter 41 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

Table of Contents

Chapter 41 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

Prev | Next | All Chapters

प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भाँति वह केवल बतलाए हुए मार्ग पर आँखें बंद करके चलने पर ही संतुष्ट न थे; उनकी निगाह आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ भी रहती थी। विशेषज्ञों में एक संकीर्णता होती है, जो उनकी दृष्टि को सीमित कर देती है। वह किसी विषय पर स्वाधीन होकर विस्तीर्ण दृष्टि नहीं डाल सकते, नियम, सिध्दांत और परम्परागत व्यवहार उनकी दृष्टि को फैलने नहीं देते। वैद्य प्रत्येक रोग की औषधि ग्रंथों में खोजता है; वह केवल निदान का दास है, लक्षणों का गुलाम; वह यह नहीं जानता कि कितने ही रोगों की औषधि लुकमान के पास भी न थी। सहज बुध्दि अगर सूक्ष्मदर्शी नहीं होती, तो संकुचित भी नहीं होती। वह हरएक विषय पर व्यापक रीति से विचार कर सकती है, जरा-जरा-सी बातों में उलझकर नहीं रह जाती। यही कारण है कि मंत्री-भवन में बैठा हुआ सेना-मंत्री सेनापति पर शासन करता है। प्रभु सेवक से पृथक हो जाने से मि. जॉन सेवक लेशमात्र भी चिंतित नहीं हुए थे। वह दूने उत्साह से काम करने लगे। व्यवहार-कुशल मनुष्य थे। जितनी आसानी से कार्यालय में बैठकर बहीखाते लिख सकते थे, उतनी ही आसानी से अवसर पड़ने पर एंजिन के पहियों को भी चला सकते थे। पहले कभी-कभी सरसरी निगाह से मिल को देख लिया करते थे, अब नियमानुसार और यथासमय जाते। बहुधा दिन को भोजन वहीं करते और शाम को घर जाते। कभी रात को नौ-दस बजे जाते। वह प्रभु सेवक को दिखा देना चाहते थे कि मैंने तुम्हारे ही बलबूते पर यह काम नहीं उठाया है; कौवे के न बोलने पर भी दिन निकल ही आता है। उनके धन-प्रेम का आधार संतान-प्रेम न था। वह उनके जीवन का मुख्य अंग, उनकी जीवन-धार का मुख्य-श्रोत था। संसार के और सभी धंधे इसके अंतर्गत थे।

मजदूरों और कारीगरों के लिए मकान बनवाने की समस्या अभी तक हल न हुई थी। यद्यपि जिले के मजिस्टे्रट से उन्होंने मेल-जोल पैदा कर लिया था, चतारी के राजा साहब की ओर से उन्हें बड़ी शंका थी। राजा साहब एक बार लोकमत की उपेक्षा करके इतने बदनाम हो चुके थे कि उससे कहीं महत्तवपूर्ण विजय की आशा भी अब उन्हें वे चोटें खाने के लिए उत्तोजित न कर सकती थी। मिल बड़ी धूम से चल रही थी, लेकिन उसकी उन्नति के मार्ग में मजदूरों के मकानों का न होना सबसे बड़ी बाधा थी। जॉन सेवक इसी उधोड़-बुन में पड़े रहते थे।

संयोग से परिस्थितियों में कुछ ऐसा उलट-फेर हुआ कि विकट समस्या बिना विशेष उद्योग के हल हो गई। प्रभु सेवक के असहयोग ने वह काम कर दिखाया, जो कदाचित् उनके सहयोग से भी न हो सकता था।

जब से सोफिया और विनयसिंह आ गए थे, सेवक-दल बड़ी उन्नति कर रहा था। उसकी राजनीति की गति दिन-दिन तीव्र और उग्र होती जाती थी। कुँवर साहब ने जितनी आसानी से पहली बार अधिकारियों की शंकाओं को शांत कर दिया था, उतनी आसानी से अबकी बार न कर सके। समस्या कहीं विषम हो गई थी। प्रभु सेवक को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना मुश्किल न था, विनय को घर से निकाल देना,उसे अधिकारियों की दया पर छोड़ देना, कहीं मुश्किल था। इसमें संदेह नहीं कि कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थे, जाति-प्रेम में पगे हुए,स्वच्छंद, नि:स्पृह और विचारशील। उनको भोग-विलास के लिए किसी बड़ी जाएदाद की बिलकुल जरूरत न थी। किंतु प्रत्यक्ष रूप से अधिकारियों के कोपभाजन बनने के लिए वह तैयार न थे। वह अपना सर्वस्व जाति-हित के लिए दे सकते थे; किंतु इस तरह कि हित का साधन उनके हाथ में रहे। उनमें वह आत्मसमर्पण की क्षमता न थी, जो निष्काम और नि:स्वार्थ भाव से अपने को मिटा देती है। उन्हें विश्वास था कि हम आड़ में रहकर उससे कहीं अधिक उपयोगी बन सकते हैं, जितने सामने आकर। विनय का दूसरा ही मत था। वह कहता था, हम जाएदाद के लिए अपनी आत्मिक स्वतंत्रता की हत्या क्यों करें? हम जाएदाद के स्वामी बनकर रहेंगे, उसके दास बनकर नहीं। अगर सम्पत्तिा से निवृत्तिा न प्राप्त कर सके, तो इस तपस्या का प्रयोजन ही क्या? यह तो गुनाहे बेलज्जत है। निवृत्तिा ही के लिए तो यह साधना की जा रही है। कुँवर साहब इसका यह जवाब देते कि हम इस जाएदाद के स्वामी नहीं, केवल रक्षक हैं। यह आनेवाली संतानों की धरोहर-मात्र है। हमको क्या अधिकार है कि भावी संतान से वह सुख और सम्पत्तिा छीन लें, जिसके वे वारिस होंगे? बहुत सम्भव है, वे इतने आदर्शवादी न हों, या उन्हें परिस्थिति के बदल जाने से आत्मत्याग की जरूरत ही न रहे। यह भी सम्भव है कि उनमें वे स्वाभाविक गुण न हों, जिनके सामने सम्पत्तिा की कोई हस्ती नहीं। ऐसी ही युक्तियों से वह विनय का समाधान करने की विफल चेष्टा किया करते थे। वास्तव में बात यह थी कि जीवन-पर्यंत ऐश्वर्य का सुख और सम्मान भोगने के पश्चात् वह निवृत्तिा का यथार्थ आशय ही न ग्रहण कर सकते थे। वह संतान न चाहते थे, सम्पत्तिा के लिए संतान चाहते थे। जाएदाद के सामने संतान का स्थान गौण था। उन्हें अधिकारियों की खुशामद से घृणा थी, हुक्काम की हाँ में हाँ मिलना हेय समझते थे; किंतु हुक्काम की नजरों में गड़ना, उनके हृदय में खटकना, इस हद तक कि वे शत्रुता पर तत्पर हो जाएँ, उन्हें बेवकूफी मालूम होती थी। कुँवर साहब के हाथों में विनय को सीधी राह पर लाने का एक ही उपाय था, और वह यह कि सोफिया से उसका विवाह हो जाए। इस बेड़ी में जकड़कर उसकी उद्दंडता को वह शांत करना चाहते थे; लेकिन अब जो कुछ विलम्ब था, वह सोफिया की ओर से। सोफिया को अब भी भय था कि यद्यपि रानी मुझ पर बड़ी कृपा-दृष्टि रखती हैं, पर दिल से उन्हें यह सम्बंध पसंद नहीं। उसका यह भय सर्वथा अकारण भी न था। रानी भी सोफिया से प्रेम कर सकती थीं और करती थीं, उसका आदर कर सकती थीं और करती थीं, पर अपनी वधू में वह त्याग और विचार की अपेक्षा लज्जाशीलता, सरलता, संकोच और कुल-प्रतिष्ठा को अधिक मूल्यवान समझती थीं, संन्यासिनी वधू नहीं, भोग करनेवाली वधू चाहती थीं। किंतु वह अपने हृदयगत भावों को भूलकर भी मुँह से न निकालती थीं। न ही वह इस विचार को मन में आने ही देना चाहती थीं, इसे कृतघ्नता समझती थीं।

कुँवर साहब कई दिन तक इसी संकट में पड़े रहे। मि. जॉन सेवक से बातचीत किए बिना विवाह कैसे ठीक होता? आखिर एक दिन इच्छा न होने पर भी विवश होकर उनके पास गए। संधया हो गई थी। मि. जॉन सेवक अभी-अभी मिल से लौटे थे और मजदूरों के मकानों की स्कीम सामने रखे हुए कुछ सोच रहे थे। कुँवर साहब को देखते ही उठे और बड़े तपाक से हाथ मिलाया।

कुँवर साहब कुर्सी पर बैठते हुए बोले-आप विनय और सोफिया के विवाह के विषय में क्या निश्चय करते हैं? आप मेरे मित्र और सोफिया के पिता हैं, और दोनों ही नाते से मुझे आपसे यह कहने का अधिकार है कि अब इस काम में देर न कीजिए।

जॉन सेवक-मित्रता के नाते चाहे जो सेवा ले सकते हैं, लेकिन (गम्भीर भाव से) सोफिया के पिता के नाते मुझे कोई निश्चय करने का अधिकार नहीं। उसने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया। नहीं तो उसे इतने दिन यहाँ आए हो गए, क्या एक बार भी यहाँ तक न आती? उसने हमसे यह अधिकार छीन लिया।

इतने में मिसेज सेवक भी आ गईं। पति की बातें सुनकर बोलीं-मैं तो मर जाऊँगी, लेकिन उसकी सूरत न देखूँगी। हमारा उससे अब कोई सम्बंध न रहा।

कुँवर-आप लोग सोफिया पर अन्याय कर रहे हैं। जब से वह आई है, एक दिन के लिए भी घर से नहीं निकली। इसका कारण केवल संकोच है, और कुछ नहीं। शायद डरती है कि बाहर निकलूँ, और किसी पुराने परिचित से साक्षात् हो जाए, तो उससे क्या बात करूँगी। थोड़ी देर के लिए कल्पना कर लीजिए कि हममें से कोई भी उसकी जगह होता, तो उसके मन में कैसे भाव आते। इस विषय में वह क्षम्य है। मैं तो इसे अपना दुर्भाग्य समझ्रूगा, अगर आप लोग उससे विरक्त हो जाएँगे। अब विवाह में विलम्ब न होना चाहिए।

मिसेज सेवक-खुदा वह दिन न लाए! मेरे लिए तो वह मर गई, उसका फातेहा पढ़ चुकी, उसके नाम को जितना रोना था, रो चुकी!

कुँवर-यह ज्यादती आप लोग मेरे रियासत के साथ कर रहे हैं। विवाह एक ऐसा उपाय है, जो विनय की उद्दंडता को शांत कर सकता है।

जॉन सेवक-मेरी तो सलाह है कि आप रियासत को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के सिपुर्द कर दीजिए। गवर्नमेंट आपके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेगी और आपके प्रति उसका सारा संदेह शांत हो जाएगा। तब कुँवर विनयसिंह की राजनीतिक उद्दंडता का रियासत पर जरा भी असर न पड़ेगा; और यद्यपि इस समय आपको यह व्यवस्था बुरी मालूम होगी, लेकिन कुछ दिनों बाद जब उनके विचारों में प्रौढ़ता आ जाएगी, तो वह आपके कृतज्ञ होंगे और आपको अपना सच्चा हितैषी समझेंगे। हाँ, इतना निवेदन है कि इस काम में हाथ डालने से पहले आप अपने को खूब दृढ़ कर लें। उस वक्त अगर आपकी ओर से जरा भी पसोपेश हुआ, तो आपका सारा प्रयत्न विफल हो जाएगा, आप गवर्नमेंट के संदेह को शांत करने की जगह और भी उकसा देंगे।

कुँवर-मैं जाएदाद की रक्षा के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। मेरी इच्छा केवल इतनी है कि विनय को आर्थिक कष्ट न होने पाए। बस,अपने लिए मैं कुछ नहीं चाहता।

जॉन सेवक-आप प्रत्यक्ष रूप से तो कुँवर विनयसिंह के लिए व्यवस्था नहीं कर सकते। हाँ, यह हो सकता है कि आप अपनी वृत्तिा में से जितना उचित समझें, उन्हें दे दिया करें।

कुँवर-अच्छा, मान लीजिए, विनय इसी मार्ग पर और भी अग्रसर होते गए, तो?

जॉन सेवक-तो उन्हें रियासत पर कोई अधिकार न होगा।

कुँवर-लेकिन उनकी संतान को तो यह अधिकार रहेगा?

जॉन सेवक-अवश्य।

कुँवर-गवर्नमेंट स्पष्ट रूप से यह शर्त मंजूर कर लेगी?

जॉन सेवक-न मंजूर करने का कोई कारण नहीं मालूम पड़ता।

कुँवर-ऐसा तो न होगा कि विनय के कामों का फल उनकी संतान को भोगना पड़े? सरकार रियासत को हमेशा के लिए जब्त कर ले? ऐसा दो-एक जगह हुआ है। बरार ही को देखिए।

जॉन सेवक-कोई खास बात पैदा हो जाए, तो नहीं कह सकते; लेकिन सरकार की यह नीति कभी नहीं रही। बरार की बात जाने दीजिए। वह इतना बड़ा सूबा है कि किसी रियासत में उसका मिल जाना राजनीतिक कठिनाइयों का कारण हो सकता है।

कुँवर-तो मैं कल डॉक्टर गांगुली को शिमले से तार भेजकर बुलाए लेता हूँ?

जॉन सेवक-आप चाहें, तो बुला लें। मैं तो समझता हूँ, यहीं से मसबिदा बनाकर उनके पास भेज दिया जाए या मैं स्वयं चला जाऊँ और सारी बातें आपकी इच्छानुसार तय कर आऊँ।

कुँवर साहब ने धन्यवाद दिया और घर चले गए। रात-भर वह इसी हैस-वैस में पड़े रहे कि विनय और जाह्नवी से इस निश्चय का समाचार कहूँ या न कहूँ। उनका जवाब उन्हें मालूम था। उनसे उपेक्षा और दुराग्रह के सिवा सहानुभूति की जरा भी आशा नहीं। कहने से फायदा ही क्या? अभी तो विनय को कुछ भय भी है। यह हाल सुनेगा, तो और भी दिलेर हो जाएगा। अंत को उन्होंने यह निश्चय किया कि अभी बतला देने से कोई फायदा नहीं, और विघ्न पड़ने की सम्भावना है। जब काम पूरा हो जाएगा, तो कहने-सुनने को काफी समय मिलेगा।

मिस्टर जॉन सेवक पैरों-तले घास न जमने देना चाहते थे। दूसरे ही दिन उन्होंने एक बैरिस्टर से प्रार्थना-पत्र लिखवाया और कुँवर साहब को दिखाया। उसी दिन वह कागज डॉक्टर गांगुली के पास भेज दिया गया। डॉक्टर गांगुली ने इस प्रस्ताव को बहुत पसंद किया और खुद शिमले से आए। यहाँ कुँवर साहब से परामर्श किया और दोनों आदमी प्रांतीय गवर्नर के पास पहुँचे। गवर्नर को इसमें क्या आपत्तिा हो सकती थी, विशेषत: ऐसी दशा में जब रियासत पर एक कौड़ी भी कर्ज न था? कर्मचारियों ने रियासत के हिसाब-किताब की जाँच शुरू की और एक महीने के अंदर रियासत पर सरकारी अधिकार हो गया। कुँवर साहब लज्जा और ग्लानि के मारे इन दिनों विनय से बहुत कम बोलते,घर में बहुत कम आते, आँखें चुराते रहते थे कि कहीं यह प्रसंग न छिड़ जाए। जिस दिन सारी शतर्ें तय हो गईं, कुँवर साहब से न रहा गया, विनयसिंह से बोले-रियासत पर तो सरकारी अधिकार हो गया।

विनय ने चौंककर पूछा-क्या जब्त हो गई?

कुँवर-नहीं, मैंने कोर्ट ऑफ वार्ड्स के सिपुर्द कर दिया!

यह कहकर उन्होंने शर्तों का उल्लेख किया और विनीत भाव से बोले-क्षमा करना, मैंने तुमसे इस विषय में सलाह नहीं ली।

विनय-मुझे इसका बिलकुल दु:ख नहीं है, लेकिन आपने व्यर्थ ही अपने को गवर्नमेंट के हाथ में डाल दिया। अब आपकी हैसियत केवल एक वसीकेदार की है, जिसका वसीका किसी वक्त बंद किया जा सकता है।

कुँवर-इसका इलजाम तुम्हारे सिर है।

विनय-आपने यह निश्चय करने से पहले ही मुझसे सलाह ली होती, तो यह नौबत न आने पाती। मैं आजीवन रियासत से पृथक् रहने का प्रतिज्ञापत्र लिख देता और आप उसे प्रकाशित करके हुक्काम को प्रसन्न रख सकते थे।

कुँवर-(सोचकर) उस दशा में भी यह संदेह हो सकता था कि मैं गुप्त रीति से तुम्हारी सहायता कर रहा हूँ। इस संदेह को मिटाने के लिए मेरे पास और कौन साधन था?

विनय-तो मैं इस घर से निकल जाता और आपसे मिलना-जुलना छोड़ देता। अब भी अगर आप इस इंतजाम को रद्द करा सकें, तो अच्छा हो। मैं अपने खयाल से नहीं, आप ही के खयाल से कह रहा हूँ। मैं अपने निर्वाह की कोई राह निकाल लूँगा।

कुँवर साहब सजल नयन होकर बोले-विनय, मुझसे ऐसी कठोर बातें न करो। मैं तुम्हारे तिरस्कार का नहीं, तुम्हारी सहानुभूति और दया का पात्र होने योग्य हूँ। मैं जानता हूँ, केवल सामाजिक सेवक से हमारा उध्दार नहीं हो सकता। यह भी जानता हूँ कि हम स्वच्छंद होकर सामाजिक सेवा भी नहीं कर सकते। कोई आयोजना, जिससे देश में अपनी दशा को अनुभव करने की जागृति उत्पन्न हो, जो भ्रातृत्व और जातीयता के भावों को जगाए, संदेह से मुक्त नहीं रह सकती। यह सब जानते हुए मैंने सेवा-क्षेत्र में कदम रखे थे। पर यह न जानता था कि थोड़े ही समय में यह संस्था यह रूप धारण करेगी और इसका परिणाम यह होगा! मैंने सोचा था, मैं परोक्ष में इसका संचालन करता रहूँगा;यह न जानता था कि इसके बदले मुझे अपना सर्वस्व-और अपना ही नहीं, भावी संतान का सर्वस्व भी-होम कर देना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें इतने महान् त्याग की सामर्थ्य नहीं।

विनय ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपने या सोफी के विषय में उन्हें कोई चिंता न थी, चिंता थी सेवक-दल के संचालन की। इसके लिए धन कहाँ से आएगा? उन्हें कभी भिक्षा माँगने की जरूरत न पड़ी थी। जनता से रुपये कैसे मिलते हैं, यह गुर न जानते थे। कम-से-कम पाँच हजार माहवार का खर्च था। इतना धन एकत्र करने के लिए एक संस्था की अलग ही जरूरत थी। अब उन्हें अनुभव हुआ कि धन-सम्पत्ति इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। पाँच हजार रुपये माहवार, 60 हजार रुपये साल के लिए 12 लाख का स्थायी कोश होना आवश्यक था। कुछ बुध्दि काम न करती थी। जाह्नवी के पास निज का कुछ धन था, पर वह उसे देना न चाहती थीं और अब तो उसकी रक्षा करने की और भी जरूरत थी, क्योंकि वह विनय को दरिद्र नहीं बनाना चाहती थीं।

तीसरे पहर का समय था। विनय और इंद्रदत्ता, दोनों रुपयों की चिंता में मग्न बैठे हुए थे सहसा सोफिया ने आकर कहा-मैं एक उपाय बताऊँ?

इंद्रदत्ता-भिक्षा माँगने चलें?

सोफिया-क्यों न एक ड्रामा खेला जाए! ऐक्टर हैं ही, कुछ परदे बनवा लिए जाएँ, मैं भी परदे बनाने में मदद दूँगी।

विनय-सलाह तो अच्छी है, लेकिन नायिका तुम्हें बनना पड़ेगा।

सोफिया-नायिका का पार्ट इंदुरानी खेलेंगी, मैं परिचारिका का पार्ट लूँगी।

इंद्रदत्ता-अच्छा, कौन-सा नाटक खेला जाए? भट्टजी का ‘दुर्गावती’ नाटक।

विनय-मुझे तो ‘प्रसाद’ का ‘अजातशत्रु’ बहुत पसंद है।

सोफिया-मुझे ‘कर्बला’ बहुत पसंद आया। वीर और करुण, दोनों ही रसों का अच्छा समावेश है।

इतने में एक डाकिया अंदर दाखिल हुआ और एक मुहरबंद रजिस्टर्ड लिफाफा विनय के हाथ में रखकर चला गया। लिफाफे पर प्रभु सेवक की मुहर थी। लंदन से आया था।

विनय-अच्छा, बताओ, इसमें क्या होगा?

सोफिया-रुपये तो होंगे नहीं, और चाहे जो हो। वह गरीब रुपये कहाँ पाएगा? वहाँ होटल का खर्च ही मुश्किल से दे पाता होगा?

विनय-और मैं कहता हूँ कि रुपयों के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।

इंद्रदत्ता-कभी नहीं। कोई नई रचना होगी।

विनय-तो रजिस्ट्री कराने की क्या जरूरत थी?

इंद्रदत्ता-रुपये हो तो, तो बीमा न कराया होता?

विनय-मैं कहता हूँ, रुपये हैं, चाहे शर्त बद लो।

इंद्रदत्ता-मेरे पास कुल पाँच रुपये हैं, पाँच-पाँच की बाजी है।

विनय-यह नहीं। अगर इसमें रुपये हों, तो मैं तुम्हारी गर्दन पर सवार होकर यहाँ से कमरे के उस सिरे तक जाऊँगा। न हुए, तो तुम मेरी गर्दन पर सवार होना। बोलो?

इंद्रदत्ता-मंजूर है, खोलो लिफाफा।

लिफाफा खोला गया, तो चेक निकला। पूरे दस हजार रुपये का। लंदन बैंक के नाम। विनय उछल पड़े। बोले-मैं कहता न था! यहाँ सामुद्रिक विद्या पढ़े हैं। आइए, लाइए गर्दन।

इंद्रदत्ता-ठहरो-ठहरो, गर्दन तोड़के रख दोगे क्या! जरा खत तो पढ़ो, क्या लिखा है, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं? लगे सवारी गाँठने।

विनय-जी नहीं, यह नहीं होने का। आपको सवारी देनी होगी। गर्दन टूटे या रहे, इसका मैं जिम्मेदार नहीं। कुछ दुबले-पतले तो हो नहीं,खासे देव तो बने हुए हो।

इंद्रदत्ता-भाई, आज मंगल के दिन नजर न लगाओ। कुल दो मन पैंतीस सेर तो रह गया हूँ। राजपूताना जाने के पहले तीन मन से ज्यादा का था।

विनय-खैर, देर न कीजिए, गर्दन झुकाकर खड़े हो जाइए।

इंद्रदत्ता-सोफिया, मेरी रक्षा करो। तुम्हीं ने पहले कहा था, इसमें रुपये न होंगे। वही सुनकर मैंने भी कह दिया था।

सोफिया-मैं तुम्हारे झगड़ों में नहीं पड़ती। तुम जानो, यह जानें। यह कहकर उसने खत शुरू किया-

प्रिय बंधुवर,

मैं नहीं जानता कि मैं यह पत्र किसे लिख रहा हूँ। कुछ खबर नहीं कि आजकल व्यवस्थापक कौन है। मगर सेवक-दल से मुझे अब भी वही प्रेम है, जो पहले था। उसकी सेवा करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। आप मेरा कुशल समाचार जानने के लिए उत्सुक होंगे। मैं पूना ही में था कि वहाँ के गवर्नर ने मुझे मुलाकात करने को बुलाया। उनसे देर तक साहित्य-चर्चा होती रही। एक ही मर्मज्ञ हैं। हमारे देश में ऐसे रसिक कम निकलेंगे। विनय (उसका कुछ हाल नहीं मालूम हुआ) के सिवा मैंने और किसी को इतना काव्य-रस-चतुर नहीं पाया। कितनी सजीव सहृदयता थी! गवर्नर महोदय की प्रेरणा से मैं यहाँ आया, और जब से आया हूँ, आतिथ्य का अविरल प्रवाह हो रहा है। वास्तव में जीवित राष्ट्र ही गुणियों का आदर करना जानते हैं। बड़े ही सहृदय, उदार, स्नेहशील प्राणी हैं। मुझे इस जाति से अब श्रध्दा हो गई है, और मुझे विश्वास हो गया कि इस जाति के हाथों हमारा अहित कभी नहीं हो सकता। कल यूनिवर्सिटी की ओर से मुझे एक अभिनंदन-पत्र दिया गया। साहित्य-सेवियों का ऐसा समारोह मैंने काहे को कभी देखा था! महिलाओं का स्नेह और सत्कार देखकर मैं मुग्ध हो गया। दो दिन पहले इंडिया-हाउस में भोज था।

आज साहित्य-परिषद् ने निमंत्रित किया है। कल ‘लिबरल’ एसोसिएशन दावत देगा। परसों पारसी समाज का नम्बर है। उसी दिन यूनियन क्लब की ओर से पार्टी दी जाएगी। मुझे स्वप्न में भी आशा न थी कि मैं इतना जल्द बड़ा आदमी हो जाऊँगा। मैं ख्याति और सम्मान के निंदकों में नहीं हूँ। इसके सिवा गुणियों को और क्या पुरस्कार मिल सकता है? मुझे कब मालूम हुआ कि मैं क्या करने के लिए संसार में आया हूँ? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? अब तक भ्रम में पड़ा हुआ था। अब से मेरे जीवन का मिशन होगा प्राच्य और पाश्चात्य को प्रेम-सूत्र में बाँधना, पारस्परिक द्वंद्व को मिटाना और दोनों में समान भावों को जागृत करना। मैं यही व्रत धारण करूँगा। पूर्व ने किसी जमाने में पश्चिम को धर्म का मार्ग दिखाया था; अब उसे प्रेम का शब्द सुनाएगा, प्रेम का पथ दिखाएगा। मेरी कविताओं का पहला संग्रह मैकमिलन कम्पनी द्वारा शीघ्र प्रकाशित होगा। गवर्नर महोदय मेरी उन कविताओं की भूमिका लिखेंगे। इस संग्रह के लिए प्रकाशकों ने मुझे चालीस हजार रुपये दिए हैं। इच्छा तो यही थी कि ये सब रुपये अपनी प्यारी संस्था को भेंट करता; पर विचार हो रहा है कि अमेरिका की सैर भी करूँ। इसलिए इस समय जो कुछ भेजता हूँ, उसे स्वीकार कीजिए। मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है। इसलिए धन्यवाद की आशा नहीं रखता। हाँ, इतना निवेदन करना आवश्यक समझता हूँ कि आपको सेवा के उच्चादर्शों का पालन करना चाहिए, और राजनीतिक परिस्थितियों से विरक्त होकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्रचार को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। मेरे व्याख्यानों की रिपोर्ट आपको यहाँ के समाचार-पत्रों में मिलेगी। आप देखेंगे कि मेरे राजनीतिक विचारों में कितना अंतर हो गया है। मैं अब स्वदेशी नहीं, सर्वदेशीय हूँ, अखिल संसार मेरा स्वदेश है; प्राणिमात्र से मेरा बंधुत्व है और भौगोलिक तथा जातीय सीमाओं को मिटाना मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रार्थना कीजिए कि अमेरिका से सकुशल लौट आऊँ।

आपका सच्चा बंधु

प्रभु सेवक

सोफिया ने पत्र मेज पर रख दिया और गम्भीर भाव से बोली-इसके दोनों ही अर्थ हो सकते हैं, आत्मिक उत्थान या पतन। मैं तो पतन ही समझती हूँ।

विनय-क्यों? उत्थान क्यों नहीं?

सोफिया-इसलिए कि प्रभु सेवक की आत्मा शृंगारप्रिय है। वह कभी स्थिर चित्ता नहीं रहे। जो प्राणी सम्मान से इतना फूल उठता है, वह उपेक्षा से इतना ही हताश भी हो जाएगा।

विनय-यह कोई बात नहीं। कदाचित् मैं भी इसी तरह फूल उठता। यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। यहाँ उनकी क्या कद्र हुई? मरते दम तक गुमनाम पड़े रहते।

इंद्रदत्ता-जब हमारे काम के नहीं रहे, तो प्रसिध्द हुआ करें। ऐसे विश्व-प्रेमियों से कभी किसी का उपकार न हुआ है, न होगा। जिसमें अपना नहीं, उसमें पराया क्या होगा?

सोफिया-सार्वदेशिकता हमारे कई कवियों को ले डूबी, इन्हें भी ले डूबेगी। इनका होना, न होना हमारे लिए दोनों बराबर है; बल्कि मुझे तो अब इनसे हानि पहुँचने की शंका है। मैं जाकर अभी इस पत्र का जवाब लिखती हूँ।

यह कहते हुए सोफिया वह पत्र हाथ में लिए हुए अपने कमरे में चली गई। विनय ने कहा-क्या करूँ, रुपये वापस कर दूँ।

इंद्रदत्ता-रुपये क्यों वापस करोगे? उन्होंने कोई शर्त तो की नहीं है! मित्रोचित सलाह दी है और बहुत अच्छी सलाह दी हैं हमारा भी तो वही उद्देश्य है। अंतर केवल इतना है कि वह समता के बिना ही बंधुत्व का प्रचार करना चाहते हैं, हम बंधुत्व के लिए समता को आवश्यक समझते हैं।

विनय-यों क्यों नहीं कहते कि बंधुत्व समता पर ही स्थित है?

इंद्रदत्ता-सोफिया देवी खूब खबर लेंगी।

विनय-अच्छा, अभी रुपये रखे लेता हूँ, पीछे देखा जाएगा।

इंद्रदत्ता-दो-चार ऐसे ही मित्र और मिल जाएँ, तो हमारा काम चल निकले।

विनय-सोफिया का ड्रामा खेलने की सलाह कैसी है?

इंद्रदत्ता-क्या पूछना, उनका अभिनय देखकर लोग दंग रह जाएँगे।

विनय-तुम मेरी जगह होते, तो उसे स्टेज पर लाना पसंद करते?

इंद्रदत्ता-पेशा समझकर तो नहीं, लेकिन परोपकार के लिए स्टेज पर लाने में शायद मुझे आपत्तिा न होगी।

विनय-तो तुम मुझसे कहीं ज्यादा उदार हो। मैं तो इसे किसी हालत में पसंद न करूँगा। हाँ, यह तो बताओ, सोफिया आजकल कुछ उदास मालूम होती है! कल इसने मुझसे जो बातें की, वे बहुत निराशाजनक थीं। उसको भय है कि उसी के कारण रियासत का यह हाल हुआ है। माताजी तो उस पर जान देती हैं, पर वह उनसे दूर भागती है। फिर वही आधयात्मिक बातें करती है, जिनका आशय आज तक मेरी समझ में नहीं आया-मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी नहीं बनना चाहती, मेरे लिए केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि काफी है, और जाने क्या-क्या। और मेरा यह हाल है कि घंटे-भर भी उसे न देखूँ, तो चित्ता विकल हो जाता है।

इतने में मोटर की आवाज आई और एक क्षण में इंदु आ पहुँची।

इंद्रदत्ता-आइए, इंदुरानी, आइए। आप ही का इंतजार था।

इंदु-झूठे हो, मेरी इस वक्त जरा भी चर्चा न थी, रुपये की चिंता में पड़े हुए हो।

इंद्रदत्ता-तो मालूम होता है, आप कुछ लाई हैं। लाइए, वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे।

इंदु-मुझसे माँगते हो? मेरा हाल जानकर भी? एक बार चंदा देकर हमेशा के लिए सीख गई। (विनय से) सोफिया कहाँ है? अम्माँजी तो अब राजी हैं न?

विनय-किसी की दिल की बात कोई क्या जाने।

इंदु-मैं तो समझती हूँ अम्माँजी राजी भी हो जाएँ, तो भी तुम सोफी को न पाओगे। तुम्हें इन बातों से दु:ख तो अवश्य होगा; लेकिन किसी आघात के लिए पहले से तैयार रहना इससे कहीं अच्छा है कि वह आकस्मिक रीति से सिर पर आ पड़े।

विनय ने आँसू पीते हुए कहा-मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुमान होता है।

इंदु-सोफिया कल मुझसे मिलने गई थी। उसकी बातों ने उसे भी रुलाया और मुझे भी। बड़े धर्मसंकट में पड़ी हुई है। न तुम्हें निराश करना चाहती है, न माताजी को अप्रसन्न करना चाहती है। न जाने क्यों उसे अब भी संदेह है कि माताजी उसे अपनी वधू नहीं बनाना चाहतीं। मैं समझती हूँ कि यह केवल उसका भ्रम है, वह स्वयं अपने मन के रहस्य को नहीं समझती। वह स्त्री नहीं है, केवल एक कल्पना है। भावों और आकांक्षाओं से भरी हुई। तुम उसका रसास्वादन कर सकते हो, पर उसे अनुभव नहीं कर सकते, उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। कवि अपने अंतरतम भावों को व्यक्त नहीं कर सकता। वाणी में इतना सामर्थ्य ही नहीं। सोफिया वही कवि की अंतर्तम भावना है।

इंद्रदत्ता-और आपकी यह सब बातें भी कोरी कवि-कल्पना हैं। सोफिया न कवि-कल्पना है और न कोई गुप्त रहस्य; न देवी है न देवता। न अप्सरा है न परी। जैसी अन्य स्त्रियाँ होती हैं, वैसी ही एक स्त्री वह भी है, वही उसके भाव हैं, वही उसके विचार हैं। आप लोगों ने कभी विवाह की तैयारी की, कोई भी ऐसी बात की, जिससे मालूम हो कि आप लोग विवाह के लिए उत्सुक हैं? तो जब आप लोग स्वयं उदासीन हो रहे हैं, तो उसे क्या गरज पड़ी हुई है कि इसकी चर्चा करती फिरे। मैं तो अक्खड़ आदमी हूँ। उसे लाख विनय से प्रेम हो, पर अपने मुँह से तो विवाह की बात न कहेगी। आप लोग वही चाहते हैं, जो किसी तरह नहीं हो सकता। इसलिए अपनी लाज की रक्षा करने को उसने यही युक्ति निकाल रखी है। आप लोग तैयारियाँ कीजिए, फिर उसकी ओर से आपत्तिा हो, तो अलबत्ता उससे शिकायत हो सकती है। जब देखती है,आप लोग स्वयं धुकुर-पुकुर कर रहे हैं, तो वह भी इन युक्तियों से अपनी आबरू बचाती है।

इंदु-ऐसा कहीं भूलकर भी न करना, नहीं तो वह इस घर में भी न रहेगी।

इतने में सोफिया वह पत्र लिए हुए आती दिखाई दी, जो उसने प्रभु सेवक के नाम लिखा था। इंदु ने बात पलट दी, और बोली-तुम लोगों को तो अभी खबर न होगी, मि. सेवक को पाँड़ेपुर मिल गया।

सोफिया ने इंदु को गले मिलते हुए पूछा-पापा वह गाँव लेकर क्या करेंगे?

इंदु-अभी तुम्हें मालूम ही नहीं? वह मुहल्ला खुदवाकर फेंक दिया जाएगा और वहाँ मिल के मजदूरों के लिए घर बनेंगे।

इंद्रदत्ता-राजा साहब ने मंजूर कर लिया? इतनी जल्दी भूल गए। अबकी शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा।

इंदु-सरकार का आदेश था, कैसे न मंजूर करते।

इंद्रदत्ता-साहब ने बड़ी दौड़ लगाई। सरकार पर भी मंत्र चला दिया।

इंदु-क्यों, इतनी बड़ी रियासत पर सरकार का अधिकार नहीं करा दिया? एक राजद्रोही राज को अपंग नहीं बना दिया? एक क्रांतिकारी संस्था की जड़ नहीं खोद डाली? सरकार पर इतने एहसान करके यों ही छोड़ देते? चतुर व्यवसायी न हुए, कोई राजा-ठाकुर हुए। सबसे बड़ी बात तो

यह है कि कम्पनी ने पच्चीस सैकड़े नफा देकर बोर्ड के अधिकांश सदस्यों को वशीभूत कर लिया।

विनय-राजा साहब को पद-त्याग कर देना चाहिए। इतनी बड़ी जिम्मेदारी सिर पर लेने से तो यह कहीं अच्छा होता।

इंदु-कुछ सोच-समझकर तो स्वीकार किया होगा। सुना, पाँडेपुरवाले अपने घर छोड़ने पर राजी नहीं होते।

इंद्रदत्ता-न होना चाहिए।

सोफिया-जरा चलकर देखना चाहिए, वहाँ क्या हो रहा है। लेकिन कहीं मुझे पापा नजर आ गए, तो? नहीं, मैं न जाऊँगी, तुम्हीं लोग जाओ।

तीनों आदमी पाँड़ेपुर की तरफ चले।

Prev | Next | All Chapters

प्रायश्चित प्रेमचंद की कहानी

अलग्योझा प्रेमचंद की कहानी

समरयात्रा प्रेमचंद की कहानी

Leave a Comment