चैप्टर 15 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 15 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 15 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 15 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 15 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 15 Badnaam Gulshan Nanda Novel

अपने जीवन की पूरी कहानी सुनने के बाद सविता यानी बुढ़िया अन्दर चली गयी।

उसके चले जाने के बाद मैंने अपनी पत्नी की ओर देखा- वह सिर झुकाकर रो रही थी । अचरज से मैंने पूछा – “यह क्या ? तुम रो रही हो ?”

” रोने की बात ही है।” मेरी पत्नी ने कहा- “इतना होने पर भी यह औरत अब तक जिन्दा बची हुई है । क्या यह साहस और त्याग की बात नहीं है ?

‘जिसको जीना होता है, उसको दुनिया में कोई नहीं मार सकता।” और मैंने भी अपनी आंखें पोंछ लीं, क्योंकि दर्द भरी कहानी को सुनकर मेरा भी हृदय भर आया था। आंखों में आंसू आ गए थे।

“बहुत कष्ट हुआ है, बेचारी को ।” 

“कष्ट ही क्यों ? यों कहो कि यह गुरमुरे रेगिस्तान में पैदल सफर करके यहां तक आ पहुंची है।” मैं कहने लगा- “इसी का नाम जिन्दगी है, जिसमें संघर्ष हो, व्यथा हो, पीड़ा हो !! जिसको आदमी सहन सके । यदि यह इस कहानी की पीड़ा को अपने माता- पिता, बहन या बच्ची की तरह नहीं सहन कर सकती, तो इसका उन्हीं की तरह अन्त जरूरी है। तभी तो हमको अपनी अनोखी कहानी सुना रही है, वर्ना यह कहाँ होती और हम लोग कहाँ होते ।” 

“आप यहाँ ठहरियेगा क्या ?”

“नहीं ठहरने का कोई विचार नहीं है ।” मैंने कहा- “मगर तुमको याद होगा कि कहानी सुनाने से पूर्व वह नौकर से हमारे भोजन के लिए कह चुकी थी। इसी से शायद कहानी समाप्त होते वह अन्दर यह देखने चली गई है कि भोजन तैयार हुआ या नहीं।”

“भोजन का समय तो हो ही गया है।”

“समय पार कर रहा है।” मैंने कहा – “उनकी कहानी ही इतनी दिलचस्प थी कि भूख महसूस ही नहीं हुई थी।”

“भोजन के बाद क्या घर चला जाएगा ?’

“हां, घर तो चलना ही होगा।” मैंने कहा- “मगर मुझको तुरन्त’ ही वापस आना होगा।”

“क्या ?” अचरज से मेरी पत्नी ने पूछा ।

‘इसका रहस्य में पीछे बतलाऊंगा ।” मैं बोला- “यदि तुम उस रहस्य को जानना चाहती हो, तो यहीं रुक जाना। मेरे वहां से लौटने के बाद सारा रहस्य आपसे आप खुल जायेगा । “

“तो मैं यहीं रुक जाऊंगी।” मेरी पत्नी ने कहा- “कहीं नौकर घबरा न जाये ।”

“वह नहीं घबरायेगा।” मैं इतना ही कह पाया था कि अंदर से बुढ़िया का नौकर आया और कहा- “भोजन तैयार है। मालकिन आप लोगों को बुला रही हैं ।”

“चलो।” और कहने के साथ हम तीनों उसके साथ अन्दर पहुंचे, वहाँ चौका लग गया था । तीन पीढ़े रखे हुए थे। हर पीढ़े के बांयी ओर एक लोटा और एक शीशे का गिलास रखा हुआ था, जिसमें पानी भरा हुआ था। हम दोनों के पीछे पर बैठते ही हमारे सम्मान में बुढ़िया भी एक पीड़े पर बैठी।

हम सभी ने भोजन किया। कभी-कभी आपस में हंसी भी हो जाती थी, जब मेरा पुत्र विजय कुछ इस प्रकार से बालू की सब्जी खाता था। वह एकदम नटखट था। दही तो उसने सारे चेहरे पर पोत लिया था। मेरी पत्नी कभी कभी दोनों दशा में मेरी ओर देख कर आंखों में कुछ कहती थी। मगर मैं कुछ नहीं बोल रहा था।

भोजनोपरान्त हम सभी लोग बैठक में आये। मुझको पान खाने को मिला। पान को जैसे ही मैंने मुह में डाला, बुढ़िया की आवाज सुनाई दी- ‘शर्त के अनुसार उसकी बात को मैंने बीच में ही काट दिया “हाँ, आपकी इस कहानी को पुस्तक का रूप तुरन्त ही दे दूंगा। मगर उस पुस्तक का नाम क्या रखा जायेगा ?”

” नाम आप ही रखिएगा ।”

 “नहीं, यह उचित नहीं है ।” मैंने कहा।

“तो पत्थर की मूर्ति’ ही रखियेगा, क्योंकि हमारे जीवन का अन्तिम केन्द्र यही मूर्ति है और इसी मूर्ति के कारण आप मेरे यहाँ तक पहुंच सके हैं। मूर्ति के कारण ही तो आपका हमारा साथ हुआ है ।” बुढ़िया ने कहा।

“हाँ ।” मैंने कहा – “हमारा केन्द्र तो यही पत्थर की मूर्ति है ।”

“बस!”

” पुस्तक लिखना तो मेरे लिए एकदम आसान है।” मैं बोला, “मैं सोच रहा हूँ कि कहानी का अन्त किस तरह का होना चाहिए।”

 “जैसा आप समझें ।”

“यदि अंत में कल्पना का स्थान दिया जाए, तो किताब का अर्थ ही बदल जा सकता है ।” मैंने कहा- “अच्छा होता, इसका अंत आप ही करती या कुछ सुझाव इसके बारे में देतीं ।”

वह मौन रह गयी । उसने कुछ कहा नहीं ।

“मूर्ति को तो मैं लेता जाऊं न ?” 

” जी, हां !” उसने कहा- “आप इसको ले जायें ।”

मैंने कहा – ” मैं मूर्ति को लेकर शहर चला जाऊंगा । मेरी श्रीमतीजी तब तक यहीं रहेंगी, क्योंकि शहर से मैं तुरन्त ही वापस लौटूंगा। और आशा है, वहीं से मैं कहानी का अंत लेता आऊंगा। मुझे पूरी उम्मीद है कि उस अंत से आप प्रसन्न ही होंगी और विशेष प्रसन्न होंगी।”

बुढ़िया ने कुछ नहीं कहा।

वहाँ से नौकर के सिर पर मूर्ति रखवाकर मैं शहर आया। घर में मूर्ति को मेरे नौकर की मदद से रखा गया। तब बुढ़िया के नौकर को वापस भेज दिया और कह दिया कि मैं जल्दी ही आ रहा हूँ। वह वहाँ से चला गया।

उसके जाने के बाद अपने नौकर को डांट-डपट कर उसके दाढ़ी और मूंछों को कटवाया और साफ कपड़े पहना कर कहा – “तुम मेरे पीछे-पीछे आई ।” 

यहाँ हमने ‘आप’ कहना उचित नहीं समझा, शायद वह भांप न जाए या उसको शक न हो जाए, उसने कुछ प्रतिवाद नहीं किया और मेरे पीछे-पीछे चला आया ।

बुढ़िया के गांव में प्रवेश किया। नौकर ने मुझसे कुछ नहीं पूछा कि मैं कहां ले जा रहा हूं। यहां तक कि मैं बैठक में पहुंच गया, जहां मेरी पत्नी और विजय बैठे थे। मैं वहाँ पहुंचा और बैठ गया। मेरा नौकर एक ओर खड़ा था। उसी समय बुढ़िया अन्दर से आयी। उसके आते ही में खड़ा हो गया और कहा – “इस आदमी को आप पहचानिये तो ।”

बुढ़िया ने उसको ध्यान से देखा और पैरों पर गिरकर बोली, “नाथ ! ” दोनों पति-पत्नी युगों के बाद आज मिल गये ।

मेरा नौकर सखीचंद ही था ।

**समाप्त**

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