चैप्टर 14 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 14 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 14 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 14 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 14 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 14 Badnaam Gulshan Nanda Novel

अखिल भारतीय पत्थर कला प्रदर्शनी के प्रबन्धक श्री जय- प्रकाश नारायण ने सारा हाल सविता से पूछा और सविता ने भी अपने दिल का सारा हाल कह दिया। उसने कोई बात नहीं गई, सारा हाल जानने के बाद प्रत्यक महोदय ने काफी दुःख प्रकट किया और कहा “जिस व्यक्ति के नाम से यह मूर्ति प्रदर्शनी में आई है, उस व्यक्ति की स्वीकृति के पश्चात, परिणाम निकलने के बाद ही आपको दी जाएगी। इसमें हमको किसी प्रकार का एतराज नहीं है।”

सविता ने हाथ जोड़कर निवेदन किया- “मूर्ति के अभिभावक के पास मुझको पहुँचवा दें या उनका सही पता बता दें, ताकि मैं उनकी स्वीकृति प्राप्त कर सकूँ ।”

प्रबन्धक ने कहा – “वे हैं तो बनारस के, लेकिन मूर्ति के साथ वे भी पटना में ही हैं, उनके पास हमारे ये आदमी आपको इसी मोटर पर पहुंचा देंगे। आप वहीं आसानी से पहुंच जायेंगी। जैसा भी हो, हमको पत्र द्वारा सूचना दिलवा भेजियेगा ।”

” इसके लिए धन्यवाद !” सविता ने कहा और उठकर खड़ी हो गई ।

यह देख सभी लोग उठकर खड़े हो गए और मोटर द्वारा वहां पहुंचे, जहां सविता को जाना था या जो इस मूर्ति के अभिभावक थे, सविता को वहां तक पहुंचाकर सभी लोग वापस प्रदर्शनी में आ गए और अपना काम देखने लगे।

उन महाशय के पास पहुंचकर उसने एक पत्र उनको दे दिया, जो प्रबन्धक महोदय ने दिया था। अतः सविता को अपना परिचय देने की आवश्यकता नहीं जान पड़ी।

परिचय जानने के बाद उन महाशय ने सविता को बैठक में बैठाया तथा नौकर से चाय भिजवा दी। थोड़ी देर बाद वह भी बैठक में या पहुंचे और पूछा – ” आपने कैसे तकलीफ की ?” 

” तकलीफ तो मैं आपको देने आई हूँ।” सविता ने कहा ।

“कहिये ।” उस व्यक्ति ने सविता की ओर देखा और नम्र वाणी में कहा -“जो कुछ मुझसे बन पड़ेगा, यथासाध्य में आपकी मदद करने की चेष्टा करूंगा।” 

सविता ने तपाक से बिना किसी भूमिका के कहा “मैं यहजानने आई हूं कि इस मूर्ति को आपने कहाँ पाया ?” “कौन-सी मूर्ति ?”

“वही पत्थर की मूर्ति ।” सविता ने सीधे शब्दों में कहा ।

“मैं समझा नहीं ?” उस व्यक्ति ने कहा- “आप जरा खोल- कर और साफ-साफ कहें, ताकि मुझको समझने में दिक्कत न हो।”

“जिस पत्थर की मूर्ति को प्रदर्शनी में आपने अपने नाम से जमा किया है, उस मूर्ति के बारे में मैं पूछ रही हूं।” सविता ने पूछा – ” कहां मिली वह मूर्ति आपको ?”

“वह मूर्ति मुझको कहीं मिली नहीं और न मैंने उसको खरीदा है ।” उस व्यक्ति ने कहा – “इस मूर्ति की एक अनोखी प्रोर लंबी कहानी है।”

‘लंबी कहानी ? ‘सविता ने मन ही मन कहा। मूर्ति किसी विशेष कारण से उनको मिल सकी है। यह अनुमान उसका सत्य भी था। इतनी मेहनत और लगन से बनाई गई मूर्ति को सखीचंद रुपयों से बेच नहीं सकता था। फिर तो उसने अपने जीवन की सारी कहानी इसी मूर्ति के माध्यम से कह दी थी। सखीचंद के सारे अरमानों का केन्द्र थी, यह मूर्ति । यह सही है कि किसी विशेष परिस्थिति में वह मूर्ति इनके हाथ लगी है। उसने कहा – “कृपया मैं उस कहानी को सुनना चाहती हूं।’

“उस कहानी से आपको दिलचस्पी क्यों है ?” सविता ने उस व्यक्ति की तरफ देखकर एक लंबी सांस ली और कहा- “उस कहानी में मेरा जीवन छिना है और मैं स्वयं उस कहानी में सम्मिलित हूँ ।”

“मैं समझा नहीं।” उस व्यक्ति ने कहा ।

“मूर्ति के कलाकार मेरे पति हैं।” सविता ने कहा – “काफी दिनों से उनका पता नहीं चला था, अतः पता लगाने के लिए हो आपके पास तक मैं बहुत कठिनाई से पहुंच सकी हूँ । आप ही पर सब कुछ निर्भर करता है। आपकी रजामन्दी से मेरा पूर्ण हो सकता है, सार्थक हो सकता है जीवन!”

“बड़ी अचरज की बात है ?”

“जी हां।” सविता ने कहा “अचरज की तो बात है ही । किन्तु इस दुनिया में सभी कुछ सम्भव है। कुछ इस किस्म का संयोग है कि मैं उस कलाकार से संबंधित हो गई हूँ ।”

“एक पत्थर का कलाकार और आप !” उस व्यक्ति ने कहा, “वास्तव में अचम्भे की बात है।”

मैं कहानी सुनना चाहती हूं।”

 “अभी ?”

“जी ।” सविता ने कहा – “यदि सभी संभव हो तो इसी समय ।”

“आप कुछ घबड़ाई हुई-सी लग रही हैं ?”

“मैं घबड़ाई हुई नही हं, बल्कि उतावली हो रही हूं।” सविता ने कहा- “खबर के लिए कि अब वे किस हालत में होंगे, कहाँ होंगे? मैं इसी कारण उनसे संबंधित कहानी को जल्दी सुनना चाहती हूँ ।”

“मगर नाश्ते का समय हो गया है।”

“इन सब बातों की आप तनिक भी चिंता न करें।” सविता ने कहा – ” मुझको सब्र करना कठिन-सा लग रहा है।”

“कहानी तो मैं आपको सुना दूंगा ही ।” उस व्यक्ति ने कहा, “मैं अन्दर जा रहा हूँ। नाश्ता भिजवा दे रहा हूँ। आप भी नाश्ता करके स्वस्थ हो लें, तब तक में भी नाश्ता से फुर्सत पा लेता हूं। तब मैं आपको पूरी कहानी एक ही सांस में सुनाऊंगा, क्योंकि आपकी कहानी में दुःख भरा हुआ है और उस दुख से अपने को दुखी होता स्वाभाविक है।”

” जैसा आप उचित समझें ।” सविता ने कहा । और वह व्यक्ति अंदर चला गया।

आधा घन्टा बाद वह फिर बैठक में आ गया। इस बार वह अकेला नहीं था। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी। दोनों अभी जवान ही थे, बाल-बच्चा भी नहीं हुआ था। इस कमरे में आते ही सविता का चेहरा खिल गया। दोनों खाली कुर्सियों पर बैठ गए । सविता ने उस जोड़े की ओर गौर से देखा ।

उस व्यक्ति ने कहा- – “इस पत्थर की मूर्ति की कहानी भी आपके जीवन की कहानी से कम दर्दनाक नहीं है। सही में मैंने वैसा कारीगर आज तक नहीं देखा। इस प्रतियोगिता में भाग लेने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं थी, मगर एक अच्छे कलाकार को सम्मान मिले, इसी उद्देश्य से उस मूर्ति को लेकर मैं यहां पाया हूं और परिणाम निकलने तक पटना में ही रहूंगा।”

सविता एकदम से मौन थी । उस व्यक्ति ने एक बार अपनी पत्नी की ओर देखा और देख-कर मुस्कराया। और मुस्कराकर कहने लगा- “आज से करीब दस साल पूर्व की बात है यह, जो मैं कह रहा हूं। इन (पत्नी) के हाथ की चूड़ी टूट गई थी। टूटी हुई चूड़ी की जगह नई चूड़ी के लिए यह काफी जिद कर रही थी। पत्थर की चूड़ी का दाम अधिक था, अतः मैं टाल-मटोल करने लगा और देखते ही देखते दो-चार महीने टाल गया। इनकी जिद आखिरी सीमा पर एक दिन पहुंच चुकी थी और मैं खरीदने की स्थिति में नहीं था। हम लोग आंगन में वाद-विवाद कर ही रहे थे कि दरवाजे पर एक भिखमंगा आया । …”

“उसकी उम्र क्या थी, उस समय ?” सविता ने पूछा ।

“यही पैंतालीस के लगभग था।”

 सविता बोली ” आगे कहिए।”

“रंग गोरा था। यहाँ तक कि सारा बदन गोरा था। देखने में काफी सुन्दर लगता था।” उस व्यक्ति ने कहना शुरू किया- “उस की दाढ़ी और बाल काफी मात्रा में बढ़े हुए थे। बाल अस्तव्यस्त थे, अतः भिखमंगे के साथ-साथ वह पागल के समान भी लग रहा था । किन्तु मुझे ऐसा लगा कि वह किसी अच्छे खानदान का आदमी है। परिस्थितिवश बाध्य होकर इस तरह के काम पर उतारू हो गया होगा। पत्नी से पिंड छुड़ाने तथा भीख देने के बहाने मैं बाहर आ पहुंचा। किन्तु उस समय अपनी जिद्द के कारण यह कब पीछा छोड़ने वाली थी, यह भी पीछे से भिखमंगे के पास पहुंच गयी, जहाँ मैं खड़ा था। मैंने उसका घर द्वार पूछा, ताकि बातो में फंसने के बाद यह चूड़ी की बात भूल जाए। मगर बात करते-करते भी यह अपनी चूड़ी की बात ही अलापती रही। हम दोनों की बातें वह भिखमंगा भी सुन रहा था। काफी देर के बाद, जब उस भिख मंगे से न रहा गया, तब उसने मुझसे पूछा – ‘बाबूजी ! बहिनजी कैसी चूड़ी खरीदने की बात कर रही हैं ?’ शायद वह समझ गया था कि पत्थर की चूड़ी के लिए हमारा वाक् युद्ध चल रहा था। वरना चूड़ी के नाम पर सोने की चूड़ी की बात ही सामने आ सकती है। मैंने कुछ सत्य और कुछ व्यंग्य भरे शब्दों में कहा – ‘इनके हाथ की एक पत्थर की चूड़ी टूट गयी है, अतः उसी के लिए आज सवेरे से जिद्द पर पड़ी हुई हैं कि आज ही खरीदा जाए। औरतों की जिद्द अच्छी नहीं होती। मैं यह सब भिखमंगे की आड़ में इन से कह रहा था। उसने कहा- ‘पत्थर की चूड़ी ? नमूने के तौर पर कुछ बची तो होंगी ।’ मैंने समझा, लगता है यह भिखमंगा कुछ पागल भी है। तभी मैं बोला- हाँ ! अभी तो दोनों हाथ की मिलाकर तीन चूड़ियां बच रही है। किन्तु तुमको इस नमूने की चूड़ियों से क्या लेना-देना है ?’ उसने गंभीर स्वर में कहा—‘बस, मैं एक नजर उनको देख लूं, तब जैसा होगा, कहूँगा।’ अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि यह पागल भी है। अतः मैंने इनसे कहा–“दिखा दो, अपने हाथ की उन चूड़ियों को, जो बची हुई हैं।’ यह बात सुनकर इन्होंने मुँह बिचकाया। इनका मुँह बिचकाना शायद उसने देख लिया था। कहा- ‘बहनजी ! दो क्षण के लिए आप एक चूड़ी मुझको दिखा दें, बस ।’ इन्होंने एक चूड़ी निकालकर मुझको दी और मैंने उसको वह चूड़ी दे दी। चूड़ी को उलट-पुलट कर उसने देखा और कहा- ऐसी या इससे अच्छी चूड़ी मैं दो दिनों में तैयार कर सकता है। उसकी इस बात से हम दोनों अवाक् रह गये। मगर मुझको पूर्ण विश्वास हो गया कि इसके पागल होने अब तनिक भी सन्देह नहीं है। मैंने मजाक में कहा – “क्या क्या चीज चाहिए, तुमको ?’ मेरे व्यंग्य को वह समझा या नहीं, मैं नहीं कह सकता। तब भी उसने सहज भाव से कहा – आप मेरे साथ बाजार चलें, मैं आवश्यक सामान खरीद लगा। आप इस भ्रम से नहीं रहें कि आपको ज्यादा खर्व पडेगा। जितना दाम चूड़ियों का होगा, उससे आधा दाम उन वस्तुओं का होगा।’ बाध्य होकर इनके कहने पर मैं उसके साथ बाजार गया। एक पत्थर का टुकड़ा और एक छोटा-सा सरिया खरीद कर उसने मुझको दे दिया और थोड़ा छड़ लेकर उसने कहा– ‘मात्र आठ आने पैसे आप मुझको दे दें और आप घर चलें, मैं इससे कलमें बनवा कर तुरन्त ही लौटूंगा ।’ सरिया और पत्थर का टुकड़ा लेकर मैं अपने घर आ गया। इसके बाद वह चुप हो गया ।

उसकी पत्नी इस पुरानी कहानी को नये सिरे से सुन रही थी, मगर चेहरे पर सतोष के चिन्ह थे ।

सविता अपने पति की दुःख-दर्द से भरी कहानी सुन रही थी जिसमें व्यथा भरी थी, परेशानी भरी थी और भरा था कला का जीवन !!! उसके चेहरे पर व्यग्रता के लक्षण थे। कभी चेहरा उदास हो जाता था, तो कभी आंखों में पानी भर आता था । तब भी वह शांत थी, मूर्तिवत् !!

सविता का नौकर भी जमीन पर बैठा इस अनोखी कहानी को सुन रहा था। मगर उसकी समझ में कुछ बाता था और कुछ नहीं आता था । सब मिलाकर वह समझ रहा था कि नए मालिक के बारे में ये लोग बातें कर रहे हैं। मगर बात का लक्षण क्या है, वह पूरी तरह समझ नहीं पाया था। उसके चेहरे के मात्र कभी बनते थे, तो कभी बिगड़ते भी थे। वह कभी कहने वाले की ओर देखता, तो कभी अपनी मालकिन की ओर। चारों ओर शांति थी । कभी कभी एक आध मोटर इस रास्ते से गुजर जाती। नहीं तो साइकिल की घंटियों की ‘टन टन’ की आवाज बरावर ही आ रही थी ।

सविता सोचने लगी- सखीचंद ने पागल का भेष बना लिया था । ऐसा क्यों ? उसके पास तो काफी रुपये थे, जब वह उससे बिछड़ा था । यदि वह चाहता, तो एक अच्छी सी दुकान खोलकर आराम की जिन्दगी व्यतीत कर सकता था। मगर उसने ऐसा नहीं किया और रुपये समाप्त होने के बाद भीख मांगने लगा। छिः छिः, ऐसा नीच काम भी किया जा सकता है। वे कलाकार थे ही, यदि किसी दुकान पर भी रह जाते, तो पेट भर कमा सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा भी नहीं किया। भीख मांगना तो उचित कर्म नहीं है,’ फिर….नहीं, नहीं. काम करने में उनका मन नहीं लगता होगा, तभी उन्होंने काम नहीं किया। सोचा होगा कि बच्ची और पत्नी से बिछुड़ कर अब रह ही क्या गया है, जिसको बचाकर रखा जाए । शायद इसी कारण भीख मांगने पर आमादा हो गये होंगे । मगर कलाकार का जीवन और चाह कभी छिप सकता है ? समय आते ही वह सामने आ गया और अपने हाथ की सफाई को प्रदर्शित करने को तैयार हो गया। भगवान जो न करे…

थोड़ी देर ठहरने के बाद अपना गला साफ करते हुए उसने कहना प्रारम्भ किया- “लोहे की छड़ो की छोटी-छोटी कलमें बनवाने के बाद वह दो घन्टे बाद आया। तब तक शाम हो गयी थी। उसकी सुविधानुसार भी भोजन किया और बैठक में उसको छोड़ कर हम लोग सोने चले गये। उसके ठहरने के लिए बैठक में ही इंतज़ाम किया गया था। मुझे या इनको कभी विश्वास नहीं था दूसरे दिन हम उसको अपने यहां देख सकेंगे। कभी-कभी हम सोच भी थे कि यदि वह चला भी जाएगा, तो लेकर क्या जायेगा। उसके पल्ले कुछ भी तो नहीं लगेगा, सिवाय कुछ मामूली सामान के। नगद के नाम पर कुछ भी नहीं मिल सकेगा। किन्तु सवेरे जब हमारी नींद खुली, तो हमने खट्ट खट्ट की आवाज सुनी। मुझे कुछ अचरज सा हुआ। बैठक का दरवाजा खोलने ही लगा कि मैं चक्कर खाकर गिर पड़ा। क्योंकि तीन चूड़ियों का आधा खाका लगभग तैयार हो गया था, केवल नक्काशी बाकी रह गयी थी। अच्छी तरह देखने- भालने के बाद मैं उसके पास गया और सारा हाल कहार सुना दिया। यह भी वहां आई और झांक कर देखा कि वह क्या कर रहा है तथा कैसे कर रहा है। इन्होंने अच्छी तरह देखने के बाद मुझसे धीरे से कहा- यह तो कोई अच्छा कारीगर मालूम पड़ता है। मैंने भी जवाब दिया- हाँ. यह अच्छे कारीगरों में से मालूम होता है। लगता है, समय के फेर में पड़कर यह इस दिशा को पहुंचा है।’ इसके बाद हमने उसको टोका नहीं। वह स्वतः ही काम करता रहा। हमने समय पर भोजन उसके कमरे में ही भिजवा दिया था। फिर भी मेरा ध्यान उसकी ओर था कि वह किस समय क्या करता है। दो बजे के लगभग वह उठा और नित्य- क्रिया से निबटने के बाद मुंह धोया और चटपट स्नान कर लिया और भोजन करने के बाद चूड़ियों को बनाने में जुट गया। इस काम में मुश्किल से उसने एक घंटे का समय गंवाया था। शाम को भी समय पर हमने भोजन भिजवा दिया था और हम भोजनोपरान्त सोने चले गये। पता नहीं उसने कब खाना खाया और सोया । सवेरे उठा तो वह सो रहा था। हमने उसके काम में एकदम बाधा नहीं दी । दस बजे वह सोकर उठा और नित्यक्रिया से निबटने के बाद मुंह धोकर नहाने की तैयारी कर ही रहा था कि मुझको देख लिया और उसने कहा – ‘बाबूजी ! चूड़ियाँ पूर्णतया तैयार हो गई हैं। उनको अब काम में लाया जा सकता है।’ और बैठक में से चूड़ियां लाकर मेरे हाथों में रख दीं। तब तक यह भी आ गई थीं। चूड़ियों की नक्काशी, सफाई और चमक देख कर हमारी आंखें बैंगन की भांति फट गयीं। सचमुच में उसने बहुत अच्छी चूड़ियां बनाई थीं ।” इतना कहकर वह चुप हो गया। अपनी छलछला आई आंखों को सविता ने पोंछा और बोली- “इसके बाद ?”

 सविता का नौकर भी यह सब चुपचाप मन लगाकर सुन रहा था। उसकी आंखों में भी जल भर आया था। उदास चेहरा हो गया था, उसका भी ।

उसने कहना शुरू किया – “चूड़ियां देने के बाद वह एक माह तक कुछ न बोला। हम समय पर खाना भिजवा देते थे। उसने कभी भी कोई फालतू चीज या एक पैसा भी नहीं मांगा | उसको बीड़ी या सिगरेट पीते भी हमने नहीं देखा। चाय के नाम पर तो उसकी नानी ही मर जाती थी। एक माह बाद उसने एक दिन मुझसे कहा – ‘बाबुजी ! मुझे बीस-पच्चीस रुपये वाले एक पत्थर की आवश्यकता है, अतः एक दस का नोट दीजियेगा। मेरे पास दस रुपये हैं।’ मैंने कुछ नहीं सोचा और न पूछा ही, चुपचाप एक दस का नोट निकाल कर उसको दे दिया और कहा – ‘तुम स्वयं ही बाजार जाकर खरीद लेना ।’ वह बाजार चला गया और आधा घन्टा बाद एक बड़ा-सा सफेद पत्थर लेकर लोटा । यह चकित थीं कि इतने बड़े पत्थर का क्या होगा । परन्तु मैंने ही इनको समझाया कि अब की बार यह कोई बड़ी सी मूर्ति बनायेगा । उसी रात को उसने उस पत्थर में काम लगा दिया। जब देखता तो ‘खट- खट’ की आवाज सुनता। जब कभी उसको बैठा हुआ देखता, तो पाता कि वह कलमों को पत्थर पर रगड़-रगड़ कर तेज कर रहा है। उसकी मेहनत और कला से प्रसन्न होकर हमने उसके लिए बढ़िया भोजन का इंतज़ाम करा दिया। असल में उसकी कारीगरी ने हमारे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा और सम्मान भर दिया था। एक दो तीन चार दिन करके दो माह बीत गये। वह लगातार काम करता रहा। कभी हमने उसको सोते हुए नहीं देखा। जब देखता तब बन्द कमरे में वह ‘खट् खट्’ कर रहा होता था । यहाँ तक कि उसके कपड़े भी काफी गंदे हो गये थे। हम चाहते थे कि उसका ध्यान उसके कपड़ों के प्रति आकर्षित करें, किन्तु हमको कभी मौका ही नहीं मिला’ या यों कहिए कि हमको मौका ही नहीं दिया। कभी-कभी हम ताक-झांक कर मूर्ति को देख लिया करते थे । मूर्ति पूर्णतया तैयार हो चुकी थी। उसके एक दिन बाद ही उसने कहा – ‘बाबूजी! मेरा काम अब समाप्त हो गया है । अब मैं यहाँ से चला जाऊंगा।’ मैंने कहा- ‘तुम अब यहां से कहीं नहीं जा सकते। मैं और पत्थर ला देता हूँ, तुम अपनी इच्छानुसार मूर्तियां बनाओ, चाहे बैठे रहो, परन्तु यहाँ से न जाओ ।’ उससे मुझको सहानुभूति-सी हो गयी थी। एक लालच-सा हो गया था। मैं नहीं चाहता था कि इतना अच्छा कारीगर मारा-मारा फिरे । कम से कम यहाँ भर पेट खाता और आराम से रहता तो है। लेकिन उसने जवाब दिया यह मेरे हाथ की अंतिम कला है, कारीगरी है। अब मैं अपना देश छोड़ दूंगा या यों कहिये कि अपनी कलम तोड़ दी है, मैंने। बहुत दिनों की साध थी कि एक मूर्ति बनाकर अपनी याद को इस धरती पर छोड़ जाऊं। आज वर्षों का स्वप्न पूरा हो गया। अब यदि मैं मर भी जाऊं, तो मुझे तनिक भी गम न होगा। इस मूर्ति के रूप में मेरा जीवन सफल हो गया।’ इतना कहने के बाद वह चुप हो गया और अपने नौकर को कुछ इशारा किया।

सविता ने उस व्यक्ति की ओर देखा और अपनी आंखो को पोंछ लिया।

सविता के नौकर ने भी उस व्यक्ति की ओर ताका और एक लम्बी सांस छोड़कर और सुनने की प्रतीक्षा करने लगा ।

तब तक नौकर एक में चार कप चाय बनाकर ले आया और ना-ना करते-करते चारों ने चाय पी ।

उसने चाय पीकर कहा – “और मेरे लाख मना करने के बावजूद भी वह चला गया। इन्होंने तो उसको रोकने के लिए उसका हाथ तक पकड़ लिया था, उस दिन । किन्तु इस पर उसने इनका पैर स्पर्श किया और चला गया। मूर्ति के बारे में उसने कुछ साफ-साफ कहा नहीं था, लेकिन वह अपने साथ ले भी नहीं गया था। मूर्ति मेरे ही पास रह गयी, तो हमने कुछ कहा नहीं। अतः उसके चले “जाने के बाद मूर्ति हमारे पास ही रह गई ।” सविता की आंखों से आंसू की धारा बह चली थी, जिसको वह बार-बार पोंछ रही थी। सारा वातावरण मरघट की भांति शांत था। उस व्यक्ति की पत्नी से, जो सारी कहानी जानती थी, नहीं रहा गया।

नौकरों की आंखें छलछला आयी थीं।

“आप रो क्यों रही हैं ?” उसकी पत्नी ने पूछा । इसका उत्तर सविता ने कुछ नहीं दिया। वह सोच रही थी कि इनके पास से सखीचंद को गये हुए दस साल हो गये । उसका कुछ भी पता नहीं चल सका है। प्रतिज्ञा के अनुसार अब वह कारीगरी करेगा नहीं। पैसा उसके पास है नहीं। तब वह इस समय क्या कर रहा होगा ? क्या भिखमंगा बनकर अपना समय दोनों को भांति गुजार रहा होगा ? या किसी होटल में प्लेटें धोने का काम कर रहा होगा ? इसका ध्यान आते ही उसका हृदय दुःख से मर गया।

“आपने कहा या कि पूरी कहानी सुनने के बाद यह बताएंगी कि मूर्ति से क्या लगाव हो सकता है।” उस व्यक्ति ने कहा ।

“”हाँ, बताऊँगी।” सविता ने कहा- “किन्तु एक शर्त पर ।” “वह क्या ?” उसकी पत्नी ने पूछा ।

“यदि आपको सम्बन्ध जानने के बाद मेरे ऊपर तरस आ जाये, तो आप उस मूर्ति को मुझे दे देंगे ?” “सम्भव हुआ तो ..”

बीच से ही बात काटकर सविता ने पूछा – “उस मूर्ति में क्या- क्या दिखलाया गया है ? “

‘दो युवतियाँ, एक बच्चा और एक गंवार युवक ! ” व्यक्ति ने कहा । उस पर सविता ने कहा- ‘ध्यान से देखने के बाद युवक और उसमें की एक युवती को आप पहचान सकेंगे ?”

“क्यों नहीं ?” उस आदमी ने कहा- ” बशर्तें कि उन आदमियों को मैंने कभी देखा हो।

“तो अभी आप मेरे साथ चलें ।” सविता ने कहा – “हाथ कंगन को आरसी क्या । चलकर देख ही लिया जाए।”

उस आदमी ने अपनी पत्नी की ओर देखा और पत्नी ने अपने पति की ओर । जैसे वह आंखों ही आंखों में पूछ रहे हों कि क्या अभी प्रदर्शनी में चलना ठीक होगा ? दोनों की आँखों ने जवाब दिया कि चलना अच्छा होगा, क्योंकि यह बुढ़िया इसके लिए काफी बेचैन है। दूसरे उस मूर्ति से इसका गहरा सम्बन्ध जान पड़ता है, ऐसी अवस्था में यदि हमारी थोड़ी-सी तकलीफ से उसका उपकार हो जाए, तो क्या हर्ज हो सकता है। 

“चलिये !” और युवक उठकर खड़ा हो गया ।

यह देख सविता भी उठकर खड़ी हो गई। सभी लोग बाहर आये और एक टैक्सी द्वारा प्रदर्शनी पहुंचे और टैक्सी का भाड़ा चुकाया, सविता ने। हालांकि वह व्यक्ति ऐसा नहीं चाहता था । सभी लोग उस मूर्ति के पास पहुंचे। इस समय भीड़ कम हो गई थी। थोड़े-से लोग ही प्रदर्शनी के अन्दर रह गये थे।

सविता ने प्रश्न किया – ” अब तो आप युवक को पहचान गये होंगे ?”

“जी, हाँ ! उस व्यक्ति ने कहा- “यह तो उस कारीगर की तस्वीर है, जिसने हमारे यहां रहकर इस मूर्ति को बनाया था।”

 ” बहुत अच्छा।” सविता ने एक युवती की ओर इशारा करके पूछा – “इस युवती को आप पहचानिये ।”

“यह आपकी मूर्ति है।”

‘बिलकुल ठीक।” सविता ने कहा- “एक जो दूसरी युवती है, वह मेरी छोटी बहन है, जो मेरे पति इस युवक से ही प्यार करती थी और अंत में इनका नाम लेकर मर ही गई। यह छोटी बच्ची मेरी लड़की थी, जिसको एक-डेढ़ माह के बाद ही छोड़ दिया था। वह पांच साल की होकर मर गई । “

“ओह ! ” उस व्यक्ति ने कहा- “आपकी कहानी सुनकर मुझको बहुत दुःख हुआ ।”

सविता ने कहा- “दुःख तो मेरा तब निवारण होगा, जब आप मूर्ति को मुझको दे देंगे।”

“आप मूर्ति की वास्तविक अधिकारिणी हुई।” उस व्यक्ति ने कहा – “इस आशय की सूचना मैं प्रबन्धक के पास लिखकर भिजवा दूंगा।”

“इसके लिये धन्यवाद ।” सविता एकदम गदगद गयी।

प्रसन्नता के मारे उसकी आवाज नहीं निकल रही थी तथा आंखों में पानी आ गया था ।

थोड़ी देर बाद वहां से सभी अपने-अपने स्थान को चले गये ।

प्रदर्शनी समाप्त होने के एक दिन पहले ही निर्णायकों ने अपना निर्णय दे दिया था। मगर कार्रवाई के अभाव में एकदम गुप्त रखा गया था। अंतिम दिन दो बजे से एक सभा का आयोजन किया था । सभा स्थल खचाखच भरा हुआा था। अपार भीड़ थी वहां, उस दिन । निर्णायक सभी मंच पर थे। अंत में प्रबन्धक श्री जय प्रकाश नारायण मंच पर आये और पत्थर की कारीगरी के बारे में बहुत कुछ कहा । भाषण के दौरान कभी-कभी तालियों की गड़गड़ाहट से सभास्थल गूंज उठता था। अन्त में उन्होंने घोषणा की— “प्रथम पुरस्कार सखीचंद की मूर्ति को पन्द्रह हजार रुपये नकद दिये जायेंगे ।” कहने के साथ ही उनकी मूर्ति को कंधे पर चार आदमी रखे मंच पर आये। 

“सखीचंद की पत्नी श्रीमती सविता देवी ही इस पुरस्कार को ग्रहण कर सकती है।” सविता मंच पर भाई और पन्द्रह हजार रुपये का एक चेक प्राप्त किया ।

इसी तरह सभी को इनाम दिया गया और सभा की कार्रवाई के साथ प्रदर्शनी को समाप्त घोषित किया गया । सविता ने वह चेक सूखापीड़ितों के सहायतार्थ सरकार को दान दे दिया और मूर्ति को लेकर अपने गांव आ गई। क्योंकि सविता का सारा जीवन ही इस मूर्ति में छिपा था, अपनी बैठक के कोने में हिफाजत से रखकर नित्य पूजा-पाठ करने लगी । उसको विश्वास था कि उसका पति जीवित है और कभी-न- कभी वह आयेगा।

सरकार ने एक लाख में उस मूर्ति को खरीदना चाहा था, मगर सविता ने नहीं बेचा, क्योंकि उस मूर्ति में उसका इतिहास है ! उसके पति की कहानी है !! उसका जीवन है !! भला वह कागज के नोटों से अपने जीवन को बेच सकती थी !

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