चैप्टर 12 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 12 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 12 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 12 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 12 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 12 Badnaam Gulshan Nanda Novel

सविता को अपने पिता के पास आए दो माह बीतचुके थे । दस दिनों तक तो वह अपनी लड़की को संभालने में ही भूली रही थी। उस वक्त उसको जरा भी सखीचंद का ख्यान न था । बाद में सावित्री और अपने माता-पिता में लगी रही, जिन्होंने उसको पाला-पोसा था। यह बात सभी जानते थे कि सविता उनकी जन्मी सन्तान नहीं है, बल्कि उसको सदर अस्पताल से लाया गया था । जहाँ वह पल कर इतनी बड़ी हुई थी, कुंवारी के बाद जवान हुई थी। यह बात सविता भी जानती थी, किंतु उसको तनिक भी संकोच नहीं होता था। उससे व्यवहार सन्तान की तरह होता था। माता-पिता का भी सारा प्यार उसको मिलता था। कभी गौरी बाबू ने किसी बात का उस पर अविश्वास नहीं किया। इसी कारण अपनी नहीं होते हुए भी अपनी थी।

घर के लोगों से मन भरते हो उसकी जवानी ने पलटा खाया और तब उसको सखीचंद की याद आने लगी, सताने लगी । और उसके न आने पर वह मन-ही-मन खीझ उठती थी। वह सोचती अब तक तो सखीचंद को आ जाना चाहिए था। उसने कहा भी था कि एक-दो दिनों तक देखना, यदि वह नहीं गई, तो कोई बात नहीं, वर्ना वह आरा अपने पिता के पास चली जाएगी और वह वहां आ जाएगा । तब तक स्थिति भी अनुकूल हो जाएगी। किंतु सखीचंद अभी तक नहीं आ सका था।

सविता सोचती, वह कहाँ भटक रहा होगा । किस दिशा में – होगा वह | अनजान देश ! अनजान पथ ! और अनजान राही ! न जाने उसको कैसे साथी मिले होंगे, उससे क्या-क्या करवाया होगा। वह कहीं और तो नही फंस गया ? सोचा होगा एक सविता अपने बाप के पास गई, तो कई सविताएं उसको मिल सकती है। प्रथम श्रेणी का कलाकार और सुन्दरता का कामदेव ! उसकी सुन्दरता ही ऐसी थी कि उसकी ओर जो न आकर्षित हो जाए, कम था ! मगर सखीचंद ऐसा भी कभी कर सकता है, सविता का दिल गवाही नहीं देता था। यह बात वह मान भी सकती थी कि गौरी बाबू के डर से या लिहाजवश वह यहाँ नहीं आ सकता है। लेकिन किसी और औरत के जाल में वह फंस सकता है, वह कभी विश्वास नहीं कर सकती थी ।

सखीचंद अपने जीवन में पहली बार सविता को लेकर भागा था। मगर अब वह शायद ऐसा कभी नहीं कर सकता है। वह भाग भी तो नहीं रहा था । सविता ने स्वयं ही भागने को प्रेरणा दी थी, साहस दिया था, प्रोत्साहन किया था !!! वर्ना वासना का भूत उस पर कभी नहीं था और न है और न हो ही सकता है, क्योंकि उसके हृदय में सविता के प्रति प्यार और बच्ची के प्रति ममता आ गयी थी।

उसकी तीन साढ़े तीन माह की बच्ची एकमात्र सखीचंद के प्यार की निशानी इस समय तो रही थी। पास ही एक कुर्सी पर बैठी सविता एक पुस्तक पढ़ने में लीन थी। कुछ देर बाद उसका मन किताब पढ़ने में नहीं लगा और वह बीती बातों पर विचार करने लगी- अब तक तो सखीचंद को बेधड़क आ जाना चाहिए था। दो माह बीत गए। अब क्या किया जाए ? यदि उसका पता लगाने की चेष्टा खुलेआम करेगी, तो मां ताड़ना दे सकती है, हंसी उड़ा सकती है कि एक गंवार के साथ भागी भी, तो वह अब छोड़ गया। मीरा भी कभी किसी फूल का हुआ है? कभी इस डाल कभी उस डाल ! पंछी डाला ऊंट रेगिस्तान का और आदमी बहुरंग का !!!

सविता यही सोच रही थी कि श्रीमती स्वरूपा देवी ने उसके कमरे में प्रवेश किया। उसको देखते ही सविता उठकर खड़ी हो गयी। कहा, “आओ मां।”

श्रीमती देवी आगे बढ़कर एक कुर्सी पर बैठ गयी। उसने बच्ची की ओर देखकर पूछा- “मुली सो रही है क्या ?”

“जी !” सविता ने कहा और पुस्तक के पन्ने बन्द कर दिये । 

“सविता !” श्रीमती स्वरूपा देवी ने उसकी ओर देखकर कहा – “यहाँ मन तो लग रहा है न ?”

“जी! ‘ऐसे कहा जैसे वह सोते से जगी हो, परन्तु तत्क्षण ही वह सम्भल गयी और जवाब दिया “भला मन क्यों नहीं ‘लगेगा माँ ? आप है, पिताजी हैं, सावित्री है, यह क्या मन बहलाने के लिए कम है ?”

“शायद सखीचंद ‘अटक गयी उसकी वाणी प्रर्थात् वह पूरी बात कह नहीं सकी । डर गयी कि इस वाक्य का अर्थ कहीं सविता ने कुछ और लगाया, तो मामला बढ़ सकता है। वह आती तो थी अपने ही किसी काम से और उसकी भूमिका में यह सब व्यर्थ ही पूछकर वातावरण को विषाक्त बना देगी, तो काम की बातें धरी रह सकती हैं ।

“नहीं, माँ ! ऐसा नहीं हो सकता ।” सविता ने अर्थ या अनर्थ कुछ भी नहीं सोचा। उसने सीधा सा जवाब दिया- “यदि आप लोग नहीं रहती, तो मैं ऊब कर प्राण त्याग देती, अब तक। फिर उनकी याद -! यह बच्ची तो है न मेरे पास ।”

“यह तो ठीक है, परन्तु…” 

बीच से ही बात काट कर उसने जवाब दिया- “नहीं, मां ! मैं खुश हूँ, सुखी हूँ !! मुझे किसी बात की चिन्ता नहीं है, फिक्र नहीं है, गम नहीं है !!! आप लोगों की कृपा बनी रहे, यही मेरे लिए काफी है।”

श्रीमती स्वरूपा देवी ने सविता के चेहरे की ओर गौर से देखा और उसका भाव समझ कर कहने लगी- ” मैंने वैसे ही पूछा था कि अभी तक सखीचंद आया नहीं !”

क्षण भर के लिए सविता संकोच में पड़ गई। यदि वह इसका जवाब नहीं देती है, तो मां यह सोच सकती है कि सविता को भी यह विश्वास हो गया है कि सखीचंद अब लौटकर यहां नहीं आ सकता। यह प्रथम बार था, जब श्रीमती स्वरूपादेवी सविता के साथ सखीचंद के विषय में बातचीत कर रही थी। दो महीने के अन्दर इस विषय पर मां से कभी भी उसकी बात नहीं हुई है। हाँ, सावित्री से तो हमेशा ही उसकी बातें होती रहती थीं जो सविता को अच्छा प्रतीत होता था, भला लगता था !! सविता ने सोच- समझकर जवाब दिया – ” आयेंगे मां अभी कितने दिन बीते हैं ? पुरुष हैं, कहीं घूमने निकल गए होंगे। उनके प्रति निराशा की कोई बात नहीं है । उन पर मुझको पूर्ण विश्वास है ।”

“तब भी..!”

“जब तक यह बच्ची मेरे पास है, मैं उनके बारे में नहीं सोच सकती ।” सविता ने कहा – “इसके लिए, ममता के टुकड़े के लिए उनको आना ही होगा। वे कहीं भी होंगे, इसकी याद आते ही वे दौड़े हुए चले मायेंगे ।”

“सविता ! तुम तो एक किनारे लग गयी हो और अपने प्राप में पूर्ण सन्तुष्ट, सुखी एवं खुशी हो ।” श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा, “लेकिन सावित्री का क्या होगा, कभी यह भी सोचा है ?”

“क्यों मां ?” सविता को अचरज हुआ। उसने सोचा- यह बात भी ठीक ही हो सकती है। सावित्री ने अभी तक शादी क्यों नहीं की ? माताजी क्यों मौन है ? पिताजी ने भी इस विषय में कभी बात नहीं की। यह सब क्या गोरखधन्धा है ? कहीं उस पर ही तो इसका दोष नहीं मढ़ा जा रहा है कि सविता के भागने के कारण सावित्री की कहीं शादी ही नहीं हो रही है ? श्रीमती स्वरूपादेवी के स्वभाव से सविता परिचित थी। यदि इस बात में कुछ तथ्य भी नहीं होगा, तो भी उन पर लांछन लगाया जा सकता है, ताकि सविता पछताए, अफसोस करे ! !

“वह शादी करना नहीं चाहती।” तभी श्रीमती स्वरूपा देवी ने कहा ।

“सावित्री शादी करना नहीं चाहती ?” सविता का मन आश्वस्त हुआ। उसने जो सोचा था, वह गलत निकला । कहीं उस पर ऐसा दोष लगाया जाता, तो उसकी हालत बेहाल हो जाती और शायद वह अपने पिता के पास ठहरने में अपमान भी समझ सकती थी । सावित्री का शादी करने से इन्कार कर देना, वह दोष मुक्त हो गई थी। उसका शादी नहीं करना तो सावित्री का दोष है। कोई युवक इस कारण तो नहीं इन्कार कर रहा था कि कहीं मंगनी के बाद यह भी न भाग जाए। उसने पूछा – “ऐसा क्यों मां ?”

श्रीमती स्वरूपा देवी ने पहले सोती हुई बच्ची की ओर देखा, तत्पश्चात सविता की ओर देखकर कहने लगी- “सखीचंद की सुन्दरता का भूत अभी तक उसके सिर से नहीं उतर सका है।”

“क्या कहती है, वह ?”

“कहती है शादी होगी तो सखीचंद के साथ, वर्ना वह जीवन भर कुवारी ही रहकर जिन्दगी गुजार देगी।” मां ने कहा ।

 “यह तो उसकी जिद्द हो सकती है, मां।” सविता ने कहा- “एक तो मैंने गलती की, जो रह-रहकर दिल कचोटता रहता है और सब कुछ जानते हुए भी सावित्री मेरी तरह ही गलती करने जा रही है । माँ, आपने उसको समझाया नहीं ?”

“मैं तो समझाते समझाते थक गई हूँ, सविता ।” श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा – “जिस दिन तुम आई थीं, उस दिन तो मैं हर तरह से समझाकर हार गई । इसके पिताजी ने ही ऐसा करने को कहा था, मगर वह लड़की एकदम मानती ही नहीं। इसीलिए मैं तुम्हारे पास आई हूँ कि तुम ही उसको समझाओ कि वह नादानी छोड़कर शांत मन से शादी कर ले।”

सावित्री के बारे में सविता को सब कुछ पता चल गया था। वह जानती थी कि सावित्री हमेशा उदास रहती है। उसकी चंचलता समाप्त हो गई है । वह अपना अधिकतर समय कमरे में ही गंवाती है। बिना मतलब वह किसी से भी बात नहीं करती । अपने मन से किसी नौकर या नौकरानी से वह पानी तक नहीं मांगती, कमरा साफ करने को नहीं कहती। जब नौकरानी पूछती है कि छोटी मालकिन खाना ले आऊं, तब वह केवल सिर हिलाकर हाँ कह देती है। जरूरत पड़ने पर गिलास लेकर पानी के लिए भी चली जाती है। लेकिन बिना टोके किसी से कोई बात नहीं करती। मगर सविता को यह एकदम ही पता नहीं था कि सावित्री के दिल और दिमाग पर सखीचंद छाया हुआ है, जो वह पहले छाया था, सखीचंद, जिसके साथ सविता भागी थी। सविता, सावित्री के प्यार पर प्रसन्न थी। उसने यह भी सोचा कि अधिकतर अमीर घराने की लड़कियाँ वासना के लिए ही किसी युवक को प्यार करती हैं, मगर सावित्री का प्यार सच्चा है, सावित्री का प्रेम स्वच्छ है, निष्कलंक है ! इसी को प्यार कहा जाना चाहिए। सखीचंद के यहां से काम छोड़ने के बाद तो सावित्री एक दिन भी नहीं मिल पाई थी। मगर दूर रहते हुए भी वह प्यार की अंतिम सीढ़ी पर चढ़ चुकी थी। सविता ने पूछा – “उसकी शादी कहीं की गई है?”

“शादी तो उसकी सब ठीक ही है।” श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा – “जिस बैरिस्टर लड़के के साथ तुम्हारी मंगनी हुई थी, उसी के साथ | तुम्हारे पिता तो पहले नाम ही नहीं ले रहे थे, मगर लड़के ने जिद की कि सविता ने शादी नहीं की तो न सही, सावित्री के साथ ही उसकी शादी कर दी जाये।”

“तब तो अति उत्तम है ।” सविता ने कहा- तुरन्त शादी कर लेनी चाहिए, तब तो उसको..”

“तुम्हारे विचार से तो यह प्रति उत्तम है ।” श्रीमती स्वरूपा देवी ने कहा- “मगर सावित्री मान जाए तब न ? मैं तुमसे मदद मांगने आई हूं, हालांकि मुझको विश्वास है कि तुम्हारा समझाना शायद व्यर्थ जायेगा । तब भी मेरी इच्छा है कि तुम अपनी ओर से उसको समझायो । शायद अब वह तुम्हारा कहना मान जाय । वह इसलिए कि तुम सखीचंद को अपना चुकी हो और तुम्हारे सबक या तुम्हारी बातों पर अवश्य ही विश्वास करेगी। उसके पिता इस बात से बहुत दुःखी रहते हैं। कहते हैं— लड़कियों ने नाक तो कटवा ही दी । अब वह कहना भी नहीं मानतीं। वे परेशान हो गए हैं कि लड़के वाले को क्या उचित जवाब दिया जाए। किसी तरह वह मानती ही नहीं ।”

नाक कटने की बात पर सविता का सिर झुक गया । उसको कुछ देर के लिए अफसोस हुआ कि उसने आवेश में कुछ वैसा काम कर दिया है, जिसको नहीं करना चाहिए था। उसने अपने पिता से साफ-साफ कह देना चाहिए था कि वह बैरिस्टर युवक के साथ विवाह नहीं कर सकती, यदि शादी करेगी तो अपने किसी दोस्त के साथ, जिसको वह चाहती हो, पसंद करती हो चाहे वह गरीब हो या अमीर । और ऐसे समय में प्रायः होता ही यही है। समय से पहले ऐसी बातों के लिए कभी पछतावा नहीं होता, बाद में काफी अफसोस किया जाता है, जो शुभकर नहीं होता । इसीलिए तो कहा भी गया है कि आगे सोचे पंडित और पीछे सोचे मूर्ख’ । 

सविता ने सिर झुकाए हुए ही कहा- “मैं पूरी कोशिश करूंगी कि सावित्री शादी करने को राजी हो जाए। और अब तो उसको शादी कर ही लेनी चाहिए। उनकी तो शादी हो ही चुकी। उनके सहारे जीवन को तपाना मूर्खता समझा जाएगा।”

श्रीमती स्वरूपादेवी ने काम की बातें कर ली थीं। उसको खुशी थी कि सविता उसकी बात मानकर सावित्री को समझाने को राजी हो गई है। उसको आशा थी कि सविता के समझाने-बुझाने पर सावित्री का दिमाग कुछ ठण्डा होगा और वह शादी करने पर राजी हो जा सकती है। अब वह अपने दामाद के रूप में बैरिस्टर को पा सकेगी। शादी बैरिस्टर ! सावित्री सुख से रहेगी, शान के साथ रहेगी । वह बहुत ज्यादा खुश हुई और खुशी के आह्लाद को नहीं छिपा सकने के कारण उसने पूछा – “बच्ची की शक्ल तो सखीचंद के जैसी ही है ?”

“जी !” सविता ने कहा और मन ही मन मुस्कराई । उसको खुशी थी कि मां ने भी उनकी प्रशंसा की “लगता तो ऐसा ही है । ‘

“अक्सर ऐसा कम ही होता है ।” श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा, “मेरी सावित्री को देखो, वह मेरे ही ऊपर गई है। असल में लड़कों का पिता पर जाना स्वाभाविक हो जाता है। मगर कमी-कभी लड़कियां भी पिता पर ही चली जाती हैं। यह शुभ लक्षण हो माना जाता है।”

श्रीमती स्वरूपादेवी ने सखीचंद के लिए अच्छे शब्दों का प्रयोग किया था, इस कारण सविता काफी प्रसन्न थी। वह अंदर- ही अंदर मुस्करा रही थी । यदि उस समय उसकी मां न होकर कोई हमजोली होती, तो वह सखीचंद की तारीफ के पुल बांध देती। उसने इस तरह उसको प्यार दिया। वह इस तरह उसको मानते थे। घर के कामों में भी वे काफी सहायता करते थे। बच्ची को तो दिन-रात अपने से लगाये रहने थे। काम करते समय भी हमको दरवाजे पर बैठना पड़ता था, लेकिन अपनी मां श्रीमती स्वरूपा देवी से उसने कुछ नहीं कहा। बल्कि जो पुस्तक वह पहले पढ़ रही थी, उसके पन्ने खोलकर कुछ पढ़ने का प्रयत्न करने लगी ।

सविता को कुछ बोलते न देख श्रीमती स्वरूपा देवी बोली, “सविता ! “

“जी ।”

“तब मैं जाऊं न ? “

“जी हां, आप जाइये ।” सविता ने परिस्थिति समझकर कहा,

“मैं सावित्री को भी बुलवाती हूं और अच्छी तरह समझाकर राजी करने की चेष्टा करूंगी। मुझे खुशी होगी कि आपके कहने पर मैं ऐसा करने में सफल हो सकूं। भगवान करे वह खुश रहे।” और सविता ने एक लंबी सांस ली।

श्रीमती स्वरूपा देवी ने उठते हुए कहा- “पूरी तरह ध्यान रखना ।”

“जी, अच्छा।”

 श्रीमती स्वरूपादेवी ने सोयी हुई बच्ची को प्यार किया और वहां से चली गई।

माँ के चले जाने के बाद सविता ने सोचा कि वह सावित्री को किससे बुलवाये। वह स्वयं तो जा नहीं सकती है, अभी क्योंकि मुन्नी सो रही है और सोते हुए में लेकर जाना ठीक नहीं। वह यह सोच ही रही थी कि सामने से नौकरानी जाती दिख पड़ी। उसने उसको पुकारा और उसके पास आने पर बोली – “सावित्री से कहना कि दीदी बुला रही हैं। और देखो, जहां तक जल्दी हो सके, उसको भेजना।”

इतना सुनने के बाद नौकरानी वहां से चली गयी ।

सविता अकेली रह गयी थी। नौकरनी चली गयी थी। मां भी वहां से चली गयी थी। बच्ची मी नींद में सो रही थी, जिसको वह प्यार भी नहीं कर सकती थी। मन बहलाने के लिये उसके हाथ में एक पुस्तक थी, लेकिन पढ़ने में उसका मन ही नहीं लग रहा था। उसने सोचा- सावित्री का सखीचंद के लिये तपस्या करना उचित नहीं । उसके लिये जिद्द पर अड़े रहना ठीक नहीं !! वह समय ही दूसरा था जब दोनों बहनें एक साथ ही उसकी सुन्दरता पर लट्टू थीं। फिदा हो गयी थीं !! उस वक्त उनको इस बात का तनिक भी ध्यान नहीं या कि वह सुन्दर और गंवार नौकर सविता का जीवन साथी बन सकेगा और एक साल के भीतर ही वह मां भी बन जायेगी । किन्तु क्या यह सम्भव हो सकता है कि दोनों बहनें सखीचंद को पति मानकर एक साथ रहे? वह क्या दोनों को एक साथ प्यार कर सकता है ? शायद उनके लिये ऐसा कर सकना असंभव नहीं, क्योंकि नाटक के रूप में पुरुष एक ही साथ चार-पांच औरतों से सम्बन्ध स्थापित कर अपना काम निकाल सकता है, इस कारण कि पुरुष का दिल स्थायित्व नहीं चाहता । वह भ्रमर करना चाहता है, परिवर्तन चाहता है। और कुछ जल्दी-जल्दी चाहता है। रह गयी और तो औरतें भोग कम चाहती है और प्यार अधिक। चाहे वह प्यार पति का हो या किसी प्रेमी का। जब वह कुंवारी रहती है, नई जवानी माझा ढील होता है। तब भले ही उनके पास प्यार की मात्रा कुछ कम होती है वासना अधिक होती है। मगर वासना की तह में प्यार भी सिमटा रहता है । और जब मांग की तृप्ति समाप्त हो जाती है, तब प्यार का स्थान प्रथम आ जाता है। प्रेम उभरकर सामने आ जाता है। ऐसी स्थिति में कोई औरत यह नहीं चाहती कि उसका पति या प्रेमी किसी अन्य औरत से लगाव रखे, सम्बन्ध रखे !!

लेकिन सावित्री की यह कैसी जिद वह तो चाहती है कि सखीचंद ही उसका पति हो और वह उसी के साथ रहे । जीवन भर रहे। कभी अलग न हो सके !! तभी तो वह अपने शरीर को घुला रही है, आत्मा को तपा रही है !! क्या सावित्री का सौत बनकर रहना, वह बर्दाश्त कर सकेगी ? उसका हृदय इतना विशाल हो सकता है ? अपनी बहन को अपने पति की दूसरी पत्नी मानकर सुख से रह सकती है ? कहीं उसका हृदय डोल गया, तब ? तब तो एक बड़ा उत्पन्न हो सकता है। खैर, सावित्री आ जाए, तो उसके साथ बातें हों। जैसा होगा, बाद में देखा जाएगा ।

“दीदी !” और उसी वक्त सावित्री ने उसके कमरे में प्रवेश किया ।

“आओ सावित्री!” सविता ने सावित्री के चेहरे को गौर से देखा। वह काफी उदास थी। उसके होठों की ओर देखा – वह कुछ सूखे-से लगे थे। उसने गालों को देखा – ऊपर की हड्डियां उभर आयी थीं । आंखों की ओर देखा – वह कुछ अजीब सी लग रही थींm लौट कर जब वह यहां आयी थी, उस दिन तो वह सावित्री को देखने पर पहचान नहीं सकी थी। वह तो काफी दुबली-पतली हो गई थी। अब कुछ-कुछ अच्छी हो गई है, तब भी वह काफी उदास है। कुछ संभलने का कारण यह हो कि सविता के आने पर ढाढस बंधा हो और सखीचंद से मिलने की आशा हो । उसने कहा, मैंने तुमको एक जरूरी काम से बुलाया है।”

“जरूरी काम से ?” सावित्री को अच्रजभो आया। लेकिन उसने सोचा- अचरज की बात क्या हो सकती है ? मां ने इससे कहा होगा कि सावित्री शादी नहीं करती, सखीचंद को ही अपना पति मानती है। तो दीदी उसको समझायेगी ? क्या वह यही कहेगी कि सखीचंद के साथ उसकी शादी हो गयी है, तो अब उसके साथ कैसे शादी हो सकती है ? क्या एक साल पहले की सविता आज एकदम से इतना बदल जायेगी ? नहीं। सविता ऐसा खुद नहीं कह सकती। यदि ऐसा कहेगी तो मां की आवाज का प्रतिरूप होगा। यह वही सविता है कि अकेली सखीचंद के पास नहीं जाती थी। हरदम कहती थी कि हम दोनों बहनें एक साथ ही इसके साथ शादी करके रहेंगी।

“हां!जेड सविता ने उसकी ओर देखकर कहा – “एक तरह से उसको जरूरी ही समझो और तुम्हारे जीवन का भविष्य भी । ” 

“जीवन का भविष्य..?”

“हाँ !”

“अपने भविष्य के लिए तो मैंने अपना रास्ता चुन लिया है।” सावित्री ने कुछ दृढ़ता के साथ कहा ।

सावित्री की ओर उसने देखा, तो सविता को लगा, जैसे सावित्री जो कुछ कह रही है, वह उसका दृढ़ संकल्प है, अटल निश्चय है । उस निश्चय से वह तिल भर भी नहीं हट सकती, सुई की नोंक के बराबर भी नहीं । अतः सविता ने सोचा था, चाहा था कि उसको समझा-बुझाकर शादी करने पर उसको राजी कर लेगी, तो लगता है रेत का महल खड़ा नहीं हो सकता। जितना आसान और सरल उसने समझा था, उतना आसान और सरल वह नहीं था। यह सोचकर भी उसने कहा- “यह बात तो ठीक है कि तुमने जो भी अन्तिम निर्णय किया होगा, अपने जीवन के बारे में, वह खूब अच्छी तरह सोच-समझकर एवं सुख से हुआ ही किया होगा। फिर भी किसी एक बात पर अड़े रहना लाभदायक नहीं ।”

“एक बात पर अड़े रहना लाभदायक नहीं हो सकता ?

” “होता है, लेकिन कम ।” सविता ने कहा “मंजिल तक पहुंचने के लिए अनेकों रास्ते होते हैं। यदि एक रास्ता कठिन हो सकता है, तो दूसरा कुछ और आसान हो सकता है। लेकिन एक ही पर चलना ठीक नहीं।”

“जिस बात पर मैं, मान लिया जाए कि अड़ी हूं।” सावित्री भी कम चालाक न थी। वह समझ गयी थी कि दीदी किस बात की चर्चा कर रही है। लेकिन वह उस विषय को स्वयं खोलना नहीं चाहती थी, अतः उसने कहा- “यदि वह रास्ता छोड़कर अन्य रास्ते पकड़ ले, तो हो सकता है कि हमारा जीना दूभर हो जाए।”

“यह भी तो हो सकता है कि पहले से जीवन सुखी हो जाय ।”

सावित्री ने झटपट जवाब दिया- “अगर पहले की भांति जीवन सुखमय हो गया, तब तो कुछ सोचना ही नहीं है और न किसी के प्रति कोई शिकायत ही होगी। और यदि ज्यादा दुखमय हुआ तब…?”

सविता को अब कोई जवाब नहीं सूझा। वह चुपचाप पुस्तक के पन्ने पलटने लगी।

“दीदी !” सविता को चुप होते देख सावित्री ने कहा । सविता ने उसकी ओर देखा ।

“तुम जो कुछ कहना चाहती हो, वह मैं कुछ-कुछ समझ रही हूँ।” सावित्री ने ही पुन: कहा- “मगर मैं चाहती हूँ कि हम दोनों बहनें उस पर खुलकर बाते करें, क्योंकि एक तो मेरे मन का अन्धकार मिट जायेगा और मैं तब समझूंगी कि मैं कितने गहरे पानी में थी और दूसरे कि तुम्हारा भी भ्रम साफ हो जाएगा । अतः तुम जो भी पूछोगी, मैं उसका सही उत्तर दूंगी।”

“उत्तर ? ….अच्छा” ! ” मुस्कुराती हुई सविता ने पूछा – ” इस जवानी को तुम यों ही मिटा दोगी ?”

‘ इरादा तो ऐसा ही है।” सावित्री ने कहा – “फिर यह जवानी, मस्ती, चंचलता इत्यादि तो एक दिन मिट ही जायगा, यहां तक कि यह शरीर भी, जिसको हम बड़े यत्न से सुरक्षित रखते हैं, एक दिन मिट्टी में मिल जायगा, फिर हमको इसके लिए चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इसे आज न सही, कल ही सही, मिट ही जाना है ।”

“यह बात नहीं ।” सविता ने उसको समझाने के ख्याल से कहा – ” इस धरती पर जन्म लेने का अर्थ यही है कि इस धरती से कुछ आनन्द प्राप्त किया जाय। यह तो सभी जानते हैं कि एक दिन यहां की सभी वस्तुएं नष्ट हो जायेंगी, तो इसका मतलब यह नहीं कि हम सभी हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहें। “

” दीदी ! तुम कहना क्या चाहती हो ?” सावित्री ने अलसा कर कहा – ” तुम्हारी यह भूमिका मुझे अच्छी नहीं लग रही है।’ 

“हूँ !” सविता ने पूछा – “तुम शादी क्यों नहीं कर लेती ?”

 “यह कोई जरूरी है ?”

“जरूरी तो है ही ।” सविता ने कहा- “औरत को एक सहारे की जरूरत होती है और सहारा एक पुरुष ही दे सकता है । अतः शादी करना जरूरी है ।”

सावित्री समझ रही थी कि अब बात ठीक ढंग से चल रही है, उसने पूछा – “यदि शादी के बाद उस औरत का पति तुरन्त ही मर जाए, तब क्या करना चाहिए ?”

” तुरन्त दूसरी शादी ।”

“और दूसरा भी पति मर जाए, तब ?” सावित्री ने पूछा ।

 “यदि उम्र हो, तो तीसरी शादी।”

“तब मृत पतियों का प्यार ।”

बीच से ही बात काट कर सविता ने जवाब दिया- “वह तो उनके शरीर के साथ ही चला गया ।”

“यह तो ठीक है कि प्यार शरीर के साथ जलकर भस्म हो गया ।” सावित्री बोली – “मगर स्मृतियाँ तो नहीं मिटायी जा सकतीं ।”

“स्मृतियों को याद कर तिल-तिलकर जलना आधुनिक युग के विरुद्ध है । तमन्नाओं को मिटाओ, इच्छाओं को जलाओ, हर वस्तु के लिए तरसो, ललचो, यह ठीक नहीं।”

“मैं इस पर विश्वास नहीं करती।” सावित्री ने कहा ।

“विश्वास तो तुमको एक दिन करना ही पड़ेगा।” सविता ने कहा – “आखिर स्मृतियों के बल पर इस लंबी जिन्दगी को कब तक टाला जा सकता है, जबकि परिस्थितियों बाध्य करती हैं कि वह पुरानी यादों को भूल जाये ? क्या ऐसा करना इतना सरल है, जितना कह देना। और जब तपस्या भंग ही हो जाय तो वह तपस्या किस काम की ?”

“तुम्हारे कहने का मतलब यह है कि किसी वस्तु को पाने के लिए प्रयत्न ही न किया जाए?”

“नहीं, मेरे कहने का सारांश यह नहीं है।” सविता ने कहा- “वस्तु को पाने के लिए या अपनी इच्छा के अनुसार काम करना चाहिए। मगर काफी प्रयत्न के बाद यदि इच्छा की पूर्ति न हुई, तो अपना रास्ता बदल देना चाहिये, न कि उसी के सहारे बैठा ही रहा जाए।”

इस बार सावित्री खामोश रह गयी, मौन !! सविता ने समझा, सावित्री वाद-विवाद में हार गई। अतः हिम्मत कर आशा के साथ कहा- “जिस युवक के साथ मेरी मंगनी हुई थी, वह बैरिस्टर है, शिक्षित है, काफी सम्पत्ति वाला है। तुम शादी के बाद यह सब तुरन्त ही भूल जाओगी और बहुत खुश होगी। मैं तो तुमको खुश हो खुश देखना चाहती हूं।”

“उसके साथ शादी के बाद सुखी रहूंगी, लेकिन खुश नहीं रह सकती, मैं।”

सविता ने सावित्री की ओर देखा, अचरज से “इसलिए कि मेरी आत्मा का वह मालिक नहीं होगा भले ही वह इस नश्वर शरीर का मालिक बन जाये।

“सब कुछ एक दिन ठीक हो जायगा।”

“उसके साथ मैं शादी नहीं करूंगी।”

 “क्यों ?” सविता ने पूछा, ” उसमें क्या कमी है ?”

 “वह किसी शरीफ औरत का पति होने योग्य नहीं है।”

“कुछ सुनू भी तो ?” सविता ने जिद्द की।

” दीदी ! यह सब न सुन सको, तो अच्छा हो।” सावित्री ने कहा।

जो कुछ सविता जानना चाहता थी, वह सावित्री उसको बताना नहीं चाहती थी। इससे उसकी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी, यह बात जानने को आतुर थी कौन-सी ऐसी बात थी, जिससे सावित्री शादी करना नहीं चाहती थी। उसका होने वाला पति पढ़ा-लिखा के साथ ही बैरिस्टर भी था और धनी भी। आधुनिक सभ्यता के सभी लक्षण उसमें मौजूद थे, जिससे आज के मनुष्यों को सुख की प्राप्ति होती है। यह एक कृत्रिम विचार है, लोगों का। आधुनिक सभ्यता से आत्मा को कभी सच्चा सुख नहीं प्राप्त हो सकता। हां, लोगों को धोखा देकर कुछ कृत्रिम सुख का ढोंग दिखलाया जा सकता है कि हम बड़े हैं, पढ़े-लिखे हैं, धनी है। तभी सविता ने पूछा- “आखिर कुछ तो कहो सावित्री ? “

“वह बैरिस्टर एक नारी के सहारे बंधकर रहने वाला युवक नहीं है, दीदी।” सावित्री ने कहा- जब तुम सखीचंद के साथ एकाएक चली गई थीं, तो सोचो, बाहर हमारी कितनी भद्द उड़ी होगी। भले ही हम लोग सोच रहे होंगे कि यह ठीक ही हुआ है। मगर समाज यह सब नहीं सोचता होगा। वह तो यही सोचता होगा कि जज साहब का खानदान गिर गया है। उनकी नाक कट गई। अब ये लोग किसी काम के नहीं रह गए। किसी गरीब अशिक्षित की लड़की ऐसा की होती, तो जाति या समाज उसको अपनी संगति से निकाल बाहर किया होता या समाज के कुछ स्वार्थी लोगों को अच्छा खिलाने-पिलाने का दंड भुगत कर फिर जाति में मिला होता। मगर पिताजी का बड़प्पन और यश के चलते किसी को कुछ भी कहने का साहस नहीं हुआ, लेकिन पीठ- पीछे खूब उड़ी होगी। तब वह युवक फिर इस खानदान में शादी करने पर क्यों तुला हुआ है। क्या उसको इस बात का भय नहीं है कि बड़ी बहन किसी के साथ भाग गई है, तो छोटी भी भाग सकती है। फिर भी वह चाहता है कि इस खानदान में शादी हो। इस बात पर कभी तुमने ध्यान दिया है? मेरी समझ के अनुसार तो इसमें कुछ चाल मालूम होती है, मुझे कि तुम्हारे बदले में वह मेरी अछूती जवानी से खेलना चाहता है। द्वितीय यह कि मेरे साथ होने के बाद कानूनन सारी सम्पत्ति का उत्तराधि कारी वही होना चाहता है। यह बात सही है कि मेरे साथ जिस किसी की भी शादी होगी, उनको दोनों चीजें मिलेगी, लेकिन लड़के वाले का इस तरह जिद्द करना क्या रखता है? उसका चरित्र एकदम भ्रष्ट है, मैंने पता लगाया था। यहाँ कालिज में जिन लड़कियों के साथ उसका सम्बन्ध रहा था, उन्होंने यह भी पता चला कि इंगलैंड में भी उसका सम्बन्ध कई युवतियों से रहा था, यहां तक कि लौटते समय एक युवती को अपने साथ ही लाया था, मगर पिता की कड़ाई और समाज के भाई से उसने एक माह बाद ही उसको वापस भेज दिया।” 

सविता चुपचाप यह सब सुन रही थी।

और सावित्री कह रही थी- “तुम्हारी किस्मत अच्छी थी, जो तुमसे उसकी शादी नहीं हुई, नहीं तो नाम की तुम बैरिस्टर की पत्नी कहलाती। वैसे तुम जिन्दगी भर सुखी नहीं रह पातीं। कौन किसी को भूखे रखता है ? गरीब हो या अमीर, सभी पूड़ी या सत्तु खाते ही है। कोई भूखों नहीं मरता, मगर प्यार नाम की चीज तुमको नहीं मिल पाती। पति के प्यार के लिए तुमको जीवन भर इन्तजार ही करना पड़ता। अच्छा हुआ जो तुमको भगवान ने गरीब मेहनती, मगर कलाकार, पति दिया। तुम एक रात भूखे रह कर भी सुख से रात काट सकती हो। तुम्हारी आत्मा पूर्णतया सन्तुष्ट है ।” 

सविता अब भी चुपचाप सब कुछ सुन रही थी।

“दीदी ! यदि मेरी शादी होगी, तो सखीचंद के साथ ही, वर्ना जीवन भर कुंवारी ही रहूंगी।” सावित्री कहने लगी- “अगले जन्म की गाथा पर मैं विश्वास तो नहीं करती, किंतु इस जीवन में मैं अपनी जवानी, मस्ती और इस नाजुक शरीर को अछूता रखूंगी, ताकि जब भी हो, सखीचंद ही उपभोग कर सके।”

“ऐसी बेवकूफी मत कर, सावित्री ।”

“यह बेवकूफी नहीं, दीदी।” सावित्री ने कहा- -‘यह बनावटी भी नहीं। हृदय की पुकार है यह, जो मैं यह कह रही हूं।”

सविता को दृढ़ विश्वास हो गया कि सावित्री जो कुछ कह रही है, सत्य ही कह रही है। अतः मामूली बात में इसको झुकाना कठिन-सा होगा। उसने कहा “एक तो मैं गलती करने का परिणाम भुगत रही हूं और दूसरे तुम भी एक ऐसी गलती पर जा रही हो, जो उचित नहीं कहा जा सकता। जीवन का आनंद बार-बार नहीं मिलता, सावित्री इस जीवन को संभाल कर तो रखना ही चाहिए। साथ ही इसको बिताना भी चाहिए, जिसने कि सुख मिले, आनन्द मिले ! क्योंकि इस संसार में आने की कुछ तो सार्थकता मिल सके।”

“दीदी. यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज नहीं लगती।” सावित्री ने कहा “मुझे समझाने के लिए तुम जान बुझकर झूल बोल रही हो। तुम कितनी सुखी हो, तुम्हारा दृश्य ही बता सकता है।”

सविता उदास होती जा रही थी। अतः उसने पूछा “उनके साथ रहकर क्या तुम सुखी रह सकोगी ?”

“अवश्य दीदी ! ” सावित्री ने तुरन्त जवाब दिया “उनके साथ रहकर मैं सुखी तो रहूंगी ही, साथ ही खुशी भी रहूंगी, लेकिन मुझको डर है कि मेरी-उनकी इस नई शादी से शायद तुमको खुशी न हो। बहनें होते हुए भी हम एक-दूसरे की सौत समझी जायेंगी। समझी क्या जायेंगी, कही जा सकती हैं। विवाहिता पत्नी होने के नाते तुम यह नहीं चाहोगी कि वे मेरे साथ शादी करें या मैं उनके साथ विवाह सूत्र में बंधू..”

सविता इस बार भी चुप रह गई, उसने कुछ नहीं कहा। चुपचाप सावित्री की बात सुनती रही।

सावित्री ने एक बार बच्ची को गौर से देखा और कहने लगी, ” किन्तु दीदी, मैं उस सौत की तरह नहीं रहूंगी, जो आजकल तुम सौतों को देखती हो या उनके बारे में सुनती हो, मेरे सौतन में एक आदर्श होगा, उदाहरण होगा ! मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं, चेरी बन कर रहूँगी। यदि तुम पलंग पर सोओगी, तो देख लेना दीदी, तुम्हारी सौत यह सावित्री जमीन पर बोरा बिछाकर सोवेगी ।”

“सावित्री…!” और सविता की आंखों में पानी भर आया।

“दीदी ! असल में या सही माने में मैं या तुम सौत हो ही नहीं सकती ।” सावित्री कहने लगी- ‘मुझे उनके साथ भोग की जरूरत नहीं। मैं यह कभी नहीं चाहूंगी कि वे मेरे साथ अकेले ही बैठकर प्रेम की बातें करें। मेरे हृदय की केवल पुकार यही है कि मैं उनको देखती रहूं। मेरे हृदय का एक कोना यह मान बैठा है कि वे हमारे इष्टदेव हैं ! पति हैं !! सब कुछ हैं !!! “

“सावित्री ! बस कर ।” और सविता ने अपने दोनों हाथों से अपने कान बन्द कर लिए। ।” 

सावित्री ने सविता का हाथ पकड़ लिया और भाव-विह्वल होकर कहने लगी- “दीदी ! मैं यह सब तुमसे कहने ही वाली थी, पूछने ही वाली थी। तुम तैयार हो जाओ, बस सब ठीक है ।” और उसने दीदी की ओर देखा ।

सविता चुप थी । उसका सिर झुका हुआ था। उसने कुछ कहा नहीं ।

” दीदी…! कुछ जवाब दो..!” सावित्री ने कहा – “हां या नहीं ?”

सविता मौन थी ।

“दीदी…! छोटी बहन की इस अभिलाषा को मत ठुकराओ, नहीं तो… प्रतिज्ञा के अनुसार मेरा जीवन हमेशा के लिए नष्ट हो जायेगा । “

सविता ने सिर उठाकर सावित्री की ओर देखा ।

 “मुझे अपने चरणों में ही पड़ी रहने दो दीदी।” सावित्री ने कहा ।

सविता ने उसकी ओर देखा । सविता की आंखें भर आई थीं । सावित्री ने गीले कंठ से कहा- “दीदी…!”

और सविता ने सावित्री को अपनी गोद में कस लिया । दोनों बहनें आज एक हो गई, जिस तरह कुछ दिन पहले थी।

शाम को !

जब गौरी बाबू कचहरी से लौटे, तो काफी उदास थे। उनका नित्य का यह काम था कि वे जब भी कचहरी से आते थे, तो बिना पूछे या मांगे एक कप चाय पीते थे। यह कोई खास बंधा हुआ नहीं था कि वे नौकर के हाथ की या श्रीमती स्वरूपादेवी के हाथ का ही पीते हों। किसी के भी हाथ की क्यों न हो, वह एक कप चाय जरूर पीते थे ।

चाय श्रीमती स्वरूपा देवी लेकर आई थी। उसके आते ही उन्होंने अपनी पत्नी की ओर देखा और देखकर कहा कि उनकी तबीयत चाय पीने की नहीं है।

“क्यों ?” श्रीमती स्वरूपा देवी को अचरज हुआ। इस क्यों के जवाब में गौरी बाबू ने अपनी पत्नी की ओर देखा था और उनकी पत्नी से यह बात छिपी नहीं रही कि गौरी बाबू की आंखों में नीर भर आया है। उनकी आँखें डबडबा आईं हैं। वह चाहती थी कि वह इनकी उदासी का कारण पूछे। मगर उसको साहस नहीं हुआ और बिना कुछ जाने ही श्रीमती स्वरूपा देवी वहां से चली आई थी ।

घर के सभी सदस्यों को ज्ञात हो गया कि जज साहब आज बहुत ज्यादा उदास हैं। देखते ही देखते सभी उनके पास आ धमके। सभी के चेहरे पर प्रश्न के चिन्ह थे। सभी एक-दूसरे की ओर रह-रहकर ताक लेते थे कि बात क्या है ? लेकिन किसी को जवाब नहीं मिला ।

सभी के बिन पूछे प्रश्नों का उत्तर गौरी बाबू ने अपनी आंखों में पानी भर कर दिया – “आज मैं एक विलक्षण केस का फैसला सुनाकर आया हूँ। केस ही कुछ इस तरह का था कि इस्तीफा भी दे आया हूँ । अतः अब इस बंगले को छोड़ना होगा ।”

किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया और न कुछ कहा ही । तुरन्त जज साहब ने ही कहना शुरू किया- “एक युवक ने अपने ससुर पर केस किया था कि उसकी पत्नी को उसका बाप अनैतिक कार्य करने के लिए दबाव डालता है तथा उसके पास जो कुछ गहने थे, सभी को बेचकर खा गया।” इतना कहने के बाद वे चुप हो गये ।

श्रीमती स्वरूपा देवी गौरी बाबु की ओर ध्यान से देखते हुए यह सब सुन रही थी। सावित्री कभी अपने पिता की ओर देखती कभी सविता की ओर। सविता कभी अपने पिता को देखती और कभी अपनी बच्ची की ओर, जो उसकी गोद में आराम से लेटी हुई थी। कुछ नौकर थे, जो बाहर बरामदे में बैठे या खड़े-खड़े यह कहानी सुन रहे थे । ,

दो मिनट बाद गौरी बाबू ने सविता की ओर ताका और कहने लगे – ” दोनों पति-पत्नी का विवाह प्रेम के कारण ही हुआ था । दोनों ने कोर्ट में शादी की थी। लड़की के पिता ने शादी के समय काफी नाराजगी प्रकट की थी, किन्तु कुछ दिनों के बाद लड़की का बाप अपनी बेटी के घर गया और दामाद से कहा कि अब तो जो होना था, वह हो चुका। अब बेटी को विदा कीजिए, ताकि यह रिश्ता कायम रहे। कहीं हित और हत्या भी छूटती है ! इतना कहने के बाद दमाद ने अपने ससुर पर विश्वास किया और पत्नी को उसके बाप के साथ विदा कर दिया। उसके विदा के थोड़े दिनों बाद ही एक अज्ञात व्यक्ति द्वारा दामाद को ज्ञात हुआ कि उसकी पत्नी अपने पिता के घर काफी दुःखी और तकलीफ में रह रही है। अतः दामाद दूसरे दिन ही अपनी ससुराल पहुंचा। वहां एक दिन में ही सारा किस्सा दामाद को मालूम हो गया, हालांकि उसको इस बीच अपनी पत्नी से मिलने नहीं दिया गया। गांव के वातावरण से उसको सब कुछ पता चल गया। गांव के कुछ शरीफ लोगों से दामाद को यह भी पता चला कि उसकी पत्नी को किसी के हाथों बेचने की तैयारी की जा रही है। एक ग्राहक अपनी पत्नी बनाने के लिए इस लड़की को खरीदने पर तैयार भी हो गया है।

सभी सुननेवाले आदमियों के चेहरे पर आश्चर्य और दुःख के निशान थे। गौरी बाबू ने बारी-बारी से सभी की ओर देखा । 

“आगे क्या हुआ पिताजी ?” सावित्री ने पूछा।

जज साहब ने सावित्री की ओर गौर से देखा और कहने लगे- “युवक जवान था, तन्दुरुस्त था । अपने गुस्से को नहीं रोक सका और उसने अपने ससुर से कहा कि वह कल सवेरे ही अपनी पत्नी को लिवा ले जाएगा। पहले तो ससुर ने शांतिपूर्वक ही कहा कि अभी रहने दें। दो-तीन माह बाद वह विदा कर देगा। काफी दिनों बाद तो वह इस घर में आई है। अभी तो कई सहेलियाँ ऐसी हैं, जिनसे वह मिली भी नहीं है। लेकिन दामाद को सारी बातें मालूम हो चुकी थीं। वह अच्छी तरह जानता था कि उसका ससुर इस बारे में एकदम सफेद झूठ बोल रहा है। वह कब मानने वाला था । उसने जिद्द की कि वह कल सबेरे ही लिवाकर ले जायेगा । वहाँ घर में काफी तकलीफ है। किसी भी हालत में वह मान नहीं सकता।

नतीजा यह हुआ कि जब दामाद नित्य क्रिया से निपटने के लिए शाम को गांव से बाहर गया हुआ था तो कुछ लोगों ने, जिनको उसके ससुर से किसी प्रकार का स्वार्थ था, उसको पीटा, बुरी तरह पीटा। लेकिन दामाद वहाँ से जान बचाकर भाग सकने में समर्थ हुआ और थाना पहुचने के बाद यह केस चला।” गौरी बाबू यह सब कह तो रहे थे, परन्तु वे इस वक्त काफी गम्भीर थे ।

शाम होने को आ रही थी। दिन अभी भी शेष था । बत्ती अभी जली मी नहीं थी।

सावित्री कौतूहल से अपने पिता की ओर देख रही थी। सविता सब कुछ सुन रही थी, चुपचाप । इस बार श्रीमती स्वरूपा देवी से नहीं रहा गया। उन्होंने पूछा – “लड़की ने क्या बयान दिया था ?”

“लड़की ने साफ-साफ कह दिया कि अपने पति के घर से लाने के बाद उसके पिता ने दस दिनों तक उसको अच्छी तरह रखा । मान-सम्मान के साथ रखा।” गौरी बाबू ने कहा- “मगर दस दिनों बाद एक दिन एक ऐसे आदमी को रात को उसके कमरे में भेज दिया, जो शराब के नशे में धुत था। बड़ी मुश्किल से उस दिन वह अपना अस्तित्व बचा सकी थी। पहले वह शराबी को समझाती रही। नशे की हालत में शराबी ने उससे कह दिया कि तेरे बाप को उसने इस एक रात के लिए बीस रुपये दिए हैं, तब वह आया है, खैरात या हराम में नहीं। नहीं मानने पर शराबी को ढकेल दिया था और उसके बेहोश होते ही वह कमरे से निकल गई थी। दूसरे दिन बाप से उसने पूछा भी कि यह सब क्या हो रहा है। तब उसके पिता ने साफ-साफ कह दिया कि वह भागकर कहीं नहीं जा सकती, अपने पति के पास भी वह कभी नहीं जा सकती। उसको इसी तरह के अनैतिक कार्य हर रात करने होंगे। तूने जो मेरे साथ गद्दारी की है, उसका फल यही सब भुगतना पड़ेगा। इससे तुमको कोई नहीं बचा सकता । उस दिन से लड़की सचेत रहने लगी। इसके लिए उसको कभी-कभी बुरी तरह पीटा भी गया था । सभी चुपचाप सुन रहे थे ।

और गौरी बाबू कह रहे थे – “गांव के एक गवाह से पता चला कि इस लड़की को एक विधुरपुरुष के हाथों एक हजार रुपये में बेचा जा रहा था। सब कुछ पक्का हो गया था । यहाँ तक कि उसका पिता ढाई सौ रुपया बयाना भी ले चुका था ।

“बड़ा कृतघ्न पिता था, वह !” सावित्री से न रहा गया ।

“एक बाप को ऐसा नहीं होना चाहिए।” गौरीबाबू ने कहा- “जब लड़की स्वेच्छा से अपने पति को वर चुकी है, तब पिता को क्या एतराज — आज का आधुनिक युग यही कह रहा है। लड़की के – कार्यों से पिता को थोड़ी देर के लिए कष्ट तो होता ही है । लेकिन अक्सर शांत हो जाना पड़ता है। मगर ऐसा नहीं कि बदले की भावना के रूप में वह अनैतिक कर्म करवाये और उसके साथ जोर- जबरदस्ती करे । उसे पीटे तथा बाद में बेचने पर आमादा हो जाय, मानव को मानव द्वारा वेबना ही जघन्य कर्म माना गया है।”

“बाप को तो सजा हो गई होगी ?”

 “अपराध जब साबित हो जाता है, तब सजा मिलती ही है।”

गौरीबाबू ने कहा – “कानून के अन्दर ऐसे अपराधों की सजा ज्यादा से ज्यादा सात साल की होती है, किन्तु मैंने उसको आजीवन कारा- वास की सजा दी है। क्योंकि कोई पिता अपनी संतान के साथ दुर्व्यवहार नहीं करे, यह एक सनक होगा ।”

“गओह !” श्रीमती स्वरूपादेवी ने अपना माथा पकड़ लिया ।

” बहुत अच्छा किया आपने ।” सावित्री ने कहा- ऐसे कृतघ्नपिता को तो फांसी की सजा मिलनी चाहिये ।”

सविता ने कुछ नहीं कहा। अपनी बच्ची को गोद में उठाकर बाहर चली गई ।

गौरी बाबू ने बाग की ओर जाते हुए कहा – आजीवन कारावास से भी मुझको संतुष्टि नहीं हुई, तो मैंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया।” और वे चले गये ।

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