चैप्टर 13 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 13 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 13 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 13 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 13 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 13 Badnaam Gulshan Nanda Novel

इसके बाद यहाँ की जिन्दगी, लोगों एवं वातावरण में बहुत-सी तब्दीलियां हुई। समय गुजर गया। और देखते ही देखते बीस -साल का समय बीत गया, सारी दुनिया बदल गयी। भारत आजाद हो गया।

इस बीच सविता की बच्ची पांच साल की होकर मर गयी। उस समय सविता बहुत-बहुत रोई थी। सखीचंद के नहीं आने पर उसको संतोष था कि उनकी निशानी, एक मात्र प्यार की निशानी, रूप की प्रतिमूर्ति लड़की को देख तो रही है। इतने दिन बाद भी सखीचंद का कुछ पता नहीं था। अब तक वह सविता के पास नहीं आ सका था। उसने निश्चय किया था कि बच्ची के सहारे ही वह अपनी जिन्दगी को गुजार देगी, मगर भगवान से यह भी नहीं देखा गया और बच्ची मर गयी।

दस साल बाद गौरी बाबू भी इस संसार से चले गए। उनके मन में किसी दामाद को देखने की लालसा ही लगी रह गयी। एक सखीचंद भी मिला, तो वह भी इनके जीवित रहते नहीं आया और तब तक ये चले ही गए ।

पति के मरने के बाद श्रीमती स्वरूपा देवी को पति का ‘दुख’ समा गया और एक साल बाद वह भी चल बसी। अंत समय तक वह सावित्री को समझाती रही कि वह शादी कर लें। माता का हृदय अपनी बेटी को सुखी देखना चाहता है। मगर सावित्री नहीं मानी और मन की इच्छा मन ही में रखकर वह भी अपने पति के पास चली गयी ।

इसके बाद सावित्री में परिवर्तन हुए। भतीजी के मरने के बाद सविता और माता-पिता के सहारे वह अपने को भुला रखी थी । गौरी बाबू और मां श्रीमती स्वरूपा देवी के मरने के बाद उसका सहारा ही टूट गया। सविता हमेशा उदास रहा करती थी, प्रतः उसके साथ जीवन के दिन बिताने में सवित्री ने अपने को असमर्थ पाया। उसने अपनी जवानी को मरोड़ कर रखा था। मस्ती को दबा कर रखा था। इस कारण प्रायः हिस्टीरिया का दौरा उस पर आ जाया करता था और इसी बीमारी के कारण एक दिन वह भी चल बसी ।

त्यागपत्र देने के बाद गौरी बाबू काफी अच्छी रकम लगा कर शहर के पूर्व एक गांव में अपने लिये एक मकान बनवाया था और सरकारी कोठी छोड़कर अपने मकान में आ गये थे। इसी अपने मकान में सभी की मृत्यु हुई थी

उस खानदान में यदि दुनिया में रह गई तो केवल अकेली सविता ! गाँव के दो वूढ़े नौकरों के साथ जीवन के शेष दिन वह किसी तरह काट रही थी। वह अपने को जीवित नहीं, मृत समझती थी। जीने का कुछ भी आधार उसके पास न था । न खान- दान की कुछ निशानी थी और न पति की ही, जिसके सहारे वह अपने को जिन्दा रखती । अब न उसके पास अरमान थे, न इच्छाएं थीं और न किसी प्रकार की खुशी हो । गाँव के सभी लोग प्रायः उसकी काफी इज्जत करते थे। सभी सार्वजनिक अवसरों पर उसकी पूछ होती थी। हर प्रकार की संस्थायें उसके पास दान पाने की लालसा से आती थीं। वह रह रही थी। लोग रख रहे थे।

वह पचासवें बसन्त को पार कर चुकी थी, तब भी उसके पति का कहीं पता नहीं चल सका था। उसको विश्वास था कि उसका पति यहीं कहीं नजदीक ही हो सकता है। फिर भी न जाने क्यों वह अपने घर नहीं आ रहा था। यदि पिताजी से डर था तो उनके मरने के बाद तो उसको आ जाना चहिये था। माताजी से डर था तो माताजी के मरने के बाद भी आना चाहिये था। सावित्री से भय था, तो वह भी तो बेचारी नाम रटते रटते ही चली गयी, तब भी वह नहीं आ सका। उनको यहां आने में अब कोई रुकावट नहीं थी। अब अपना राज्य था। यह सच था कि जवानी के दिन बीत चुके थे । मस्तियां समाप्त हो गई। लेकिन प्यार का अस्तित्व तो था । प्यार की मस्ती तो कभी कम नहीं हो सकती थी। वह तो मृत्यु शैय्या तक अपना असर दिखाता है। सच्चे प्यार हेतु तो उनको आ जाना चाहिए था। लगता है— उनका नाम रटते रटते सविता का भी अन्त हो जाएगा। मगर सखीचंद नहीं आ सकेगा। नहीं आएगा। नहीं आया।

शायद उसको सविता का यहां रहने का पता ही न चल सका हो । इसी तरह समय गुजर रहा था। लोग मर जी रहे थे । सविता जिन्दा थी। शायद उसे जिन्दा रहना ही था। कुछ दिनों बाद सविता को पता चला कि पटना में ‘अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी’ का आयोजन किया जाने वाला है। प्रदर्शनी का समय एक महीना बस रह गया था। जबकि छः माह पूर्व ही सर्वत्र घोषणा कर दी गयी थी, ताकि कलाकार इस प्रतियोगिता के लिए अपनी नवीनतम कृति बना सकें ।

मूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम आनेवाली मूर्ति को पन्द्रह हजार रुपये का प्रथम पुरस्कार था। पत्थर की मूर्तियों की मांग विदेशी बाजार में काफी होने लगी थी, जिससे भारत सरकार को विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती थी। इस आयोजन से उसके सामने श्रेष्ठ कलाकार आ जाते और उनसे सरकार तरह-तरह की आधुनिक किस्म की मूर्तियां बनवाकर विदेशी बाजार को भेज सकती थी ।

इस प्रदर्शनी ने कला में जान डाल दी। कलाकारों को जीवन मिल गया। यहां की पुरानी पत्थर की कारीगरी सारे संसार में प्रख्यात थी और अब सरकार भी प्रयत्नशील थी, ताकि विदेशी मुद्रा के साथ इस कारीगरी का स्तर भी उच्च कोटि पर पहुंच सके । कारीगरों में होड़ सी लग गई थी।

प्रदर्शनी प्रारंभ होने एक माह शेष रह गया था । तब सविता को इसकी भनक लगी थी। अब वह समाचारपत्र मंगवाने लगी ताकि प्रदर्शनी का सारा हाल वह जान सके । समाचारपत्रों में उसकी कोई रुचि नहीं थी। उसको विश्वास था कि इस प्रदर्शनी में सखीचंद अवश्य ही भाग लेगा। मला एक इतना बड़ा कारीगर इस अवसर से लाभ न उठाये उसको यकीन न था । यह बात सही यी कि उसकी उम्र काफी हो गयी थी। तब भी वह भाग लेगा नहीं, तो उसकी मूर्ति अवश्य ही इस प्रदर्शनी में कहीं-न-कहीं से लाई जाएगी।

इस प्रदर्शनी के आयोजन से भीतर ही भीतर सविता प्रसन्न थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि यदि इस अवसर पर सखीचंद का पता नहीं चल सका तो जीवन भर उसका एकदम पता नहीं चल सकेगा और वह नाम रटते रटते ही मर जाएगी-सावित्री की तरह अपनी छोटी बहन की भांति समय ज्यों-ज्यों नजदीक आता जाता था, सविता की खुशी बढ़ती जाती थी। आशा बढ़ती जाती थी। उसका हृदय रह-रह- कर, धड़क-धड़ककर यह महसूस करता था कि इस प्रदर्शनी में उसका पति, बीस साल का बिछुड़ा पति सखीचंद अवश्य भाग लेगा । और इंतज़ार के बाद वे घड़ियां आ ही जाती हैं, जिनकी प्रतीक्षा लोग करते हैं ।

आज ‘अखिल भारतीय पत्थर कला प्रदर्शनी’ का प्रायोजन होने जा रहा था। सारा गांधी मैदान आदमियों से खचाखच भरा हुआ था। भारतीय सविधान की तृतीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी दिल्ली से यहां पधारने वाली थीं। उन्ही के हाथों यह पुनीत कार्य सम्पन्न होने जा रहा था। लोगों की अपार भीड़ थी।

प्रदर्शनी को एक पखवाड़े तक रखने का प्रायोजन था, ताकि भारत के सभी प्रान्तों के लोग इसको देख सके। प्रवेश दर दस पैसे रखा गया था ताकि राजा और रंक सभी इसको देख सकें। गांधी मैदान का आधा भाग घिरा हुआ था जिसमें मूर्तियों को रखने का प्रबन्ध था। मेन फाटक के पास ही पूछताछ इत्यादि का कार्यालय था। बाकी भागों में मोटर एवं साइकिल रखने का प्रबन्ध था। पुरस्कार का वितरण राष्ट्रपति डा० जाकिर हुसेन के हाथों होने वाला था ।

प्रदर्शनी का आयोजन काफी अच्छी तरह किया गया था। हर प्रान्त के लोग एवं कलाकार यहाँ आकर ठहरे हुए थे। सभी तरह के लोग यहां दिख रहे थे। लगता था, सारी कला यहां सिमटकर भा गयी हो। पटना की रौनक देखते ही बनती थी। सारा इन्त- जाम राज्य सरकार की ओर से किया गया था। प्रत्येक मूर्ति के साथ कारीगर का नाम, पता एवं संभवत: चित्र भी दिया गया था, ताकि लोग उसको पहचान सके, जान सकें ।

निर्णायक थे सभी राजनीतिक पार्टियों के प्रधान । दल के इन नेताओं को निर्णायक इसलिए रखा गया था कि कोई पक्षपात न हो सके। कुछ अफवाहें सुनी गयी थीं कि इसके निर्णय में पक्षपात होने की संभावना है।

प्रबन्धक थे श्री जयप्रकाश नारायण, सर्वोदय नेता । उद्घाटन की रस्म अदा हुई। श्रीमती गांधी ने भाषण किया । उन्होंने इस प्रदर्शनी की खूबियों पर विस्तार से प्रकाश डाला, इससे होने वाले लाभों से जनता को अवगत कराया तथा कलाकारों को उत्साहित किया, ताकि कला का विस्तार हो सके और देश पं0 जवाहरलाल नेहरू के आधुनिक भारत के स्वप्न को पूरा न कर सकें ।

रस्म अदायगी के बाद श्रीमती गांधी दिल्ली वापस चली गई। निर्णायकों का सारा दल पटना पहुंच चुका था। दो-एक जो रह गये थे, वह भी पटना याना ही चाहते थे। पटना का वातावरण कला से पूर्ण हो चुका था ।

अशोक को महानगरी पाटिलीपुत्र आज सोने की चिड़िया बनी थी। सारा शहर रंग-बिरंगे लोगों और पोशाकों से नवरंग तरह रहा था। मोटर गाड़ियों की भरमार थी। शहर रौशन हो रहा था। कोई दुर्घटना न हो सके। पुलिस का विशेष प्रबंध किया गया था। ऐसे अवसरों पर जेबकतरों की बन पायी थी। उनका धंधा चल गया था।

प्रदर्शनी को उद्घाटन के बाद अफसरों एवं निर्णायकों के लिए ही उस दिन खुना रवा गया। आम जनता के लिए दूसरे दिन से खोल दिया गया। दिन के दस बजे से रात के आठ बजे तक। अपार भीड़ थी। 

फाटक खुलने के तीन दिनों बाद सविता ने वहां जाने का निश्चय किया और हुआ भी वही। अपने साथ एक नौकर को लेकर वह हावड़ा-मुगलसराय पैसेंजर से पटना साढ़े बारह बजे पहुंची। स्टेशन पर उतरते ही उसको ज्ञात हो गया कि प्रदर्शनी देखना आसान नहीं। अभी भी काफी भीड़ चल रही थी। प्रदर्शनी को भीड़ घूमकर ही देखा जा सकता था। उसने हिम्मत नहीं हारी और एक टैक्सी द्वारा वह गांधी मैदान पहुंची। वहाँ पहुंचने के बाद वह एक ओर को खड़ी हो गयी और नौकर टिकट लेने चला गया था । टिकट लेकर वह आधे घण्टे बाद लौटा और सविता को सहारा दे कर किसी तरह भीड़ में से होकर अन्दर पहुंचा। प्रदर्शनी को देखने के लिए लोगों की जितनी भीड़ थी, प्रबन्ध भी उतना ही अच्छा किया गया था। जगह-जगह स्वयंसेवक तैनात थे विशेष पुलिस का भी इंतजाम किया गया था, ताकि किसी को शिकायत का मौका ही न मिले।

भीतर का विशाल इंतज़ाम देखते ही सविता समझ गयी कि इस धूमधाम में सखीचंद का पता नहीं लग सकता । कई हजार मूर्तियां यहाँ रखी गयी थीं, जिनकी विभिन्न प्रकार की मुद्रा मन को मोहित तो करती ही थी । निर्णय करना कठिन हो रहा था कि कौन अच्छी हो सकती है।

मूर्तियां तरह-तरह की थीं। छोटी से लेकर बड़ी तक। एक मूर्ति से लेकर पांच मूर्ति तक एक ही पत्थर के टुकड़े में बनी थीं। कोई विदेशी, कोई अजन्ता की कला को मात कर रही थी। तो कुछ सस्ती किस्म की भी मूर्तियां थीं। कुछ में आधुनिक कला की भी बू थी तो कुछ मैं पुरानी सभ्यता । अजीब समा बंधा था। चारों ओर तरह-तरह की मूर्तियाँ ही मूर्तियाँ दिख रही थीं। मूर्तियों को छावनी में रखा गया था। मूर्ति से बार कदम हटकर मजबूत बांस का घेरा बना हुआ था, जिसके सहारे लोग देख सकते थे और मूर्तियों की रक्षा भी हो सकती थी।

हर दो या तीन मूर्ति पर एक स्वयं सेवक का प्रबन्ध था, ताकि भीड़ को नियंत्रित किया जा सके। रोशनी का इंतज़ाम बहुत अच्छी तरह किया गया था। अन्दर का कोई भी ऐसा भाग न था, जहाँ रोशनी की चमक न हो। हर एक मूर्ति पर एक फिक्स लाइट का प्रबन्ध किया था, जो दिन को भी जलती रहती थी, जिस की चमक से मूर्तियों में जान आ जाती थी।

प्रदर्शनी के आयोजक की सर्वत्र प्रशंसा हो रही थी ।

दो कदम आगे बढ़ते ही सविता को लगा, जैसे पत्थर की मूर्तियों के रूप में उसका पति सखीचंद प्रत्येक मूर्ति से झांक कर कह रहा हो – ” सविता ! मैं यहां हूं । यदि तुम पहचान जाओ, तो मुझको पा सकती हो, हासिल कर सकती हो जिससे तुम्हारा जीवन सफल हो जायेगा। तुम धन्य हो जायोगी । जो तुम चाहती थी, वह हो जाएगा।”

सविता एक-एक मूर्ति को ध्यान से देखती। जो मूर्ति उसको अच्छी लगती थी, उसको वह काफी देर तक गौर से देखती, तो पता चलता कि यह मूर्ति सखीचंद की बनाई हुई है। लेकिन मूर्ति के किसी विशेष पर ध्यान जाते ही वह यह सोचकर आगे बढ़ जाती कि उसका सखीचंद इस तरह की मूर्तियां नहीं बना सकता।

प्रत्येक मूर्ति को काफी ध्यान से देखती वह। कभी-कभी तो एक मूर्ति के पास आधा घण्टा तक समय बिताती और निराश होने पर आगे बढ़ जाती थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि सखी चंद के हाथ की बनी मूर्ति इस प्रदर्शनी में जरूर पायी होगी। उनका शरीर रह रह कर तक उठता था, सिहर उठता था !! सखी चंद की याद के रूप में वहां के वातावरण में उसकी आंखें डबडबा आईं थीं और प्रत्येक मृति को देखते हुए आगे बढ़ रही थी। 

इस प्रतोगोयिता में छोटी बड़ी कई मूर्तियां रखी गई थी। जिस कलाकार या किसी व्यक्ति ने मूर्ति दी, उनको स्थान दिया गया था, जिसमें कलाकार का नाम तथा मालिक का नाम लिखा था। जनता जयपुर जोधपुर की कारीगरी को देखने के लिए उमड़ी चली आ रही थी। टिकट दर कम होने के कारण किसी को अंदर प्रवेश करने में कोई कठिनाई नहीं आई थी।

दक्षिणा और पश्चिम दिशा की सभी मूर्तियों को देख वह चुकी थीं। सखीचंद की मूर्ति की भनक उसके नहीं मिली, मूर्ति के रूप में उसका पति नहीं मिला, जिसके लिए वह आशा लगाये बैठी थी। रह-रहकर वह कांप उठती थी। क्या सखी चंद का पता इस बुढ़ापे में भी नहीं लग सकता ? तब क्या होगा ?

जीवन शून्य दिखने लगा था, मातम !! 

उत्तर दिशा की ओर की मूर्तियों को देखने के ख्याल से जैसे ही मुड़ी, वह ठिठक गयी। वहाँ एक बड़ी-सी चार आदमियों की मूर्तियां एक ही पत्थर में बनी रखी थीं। उनका ध्यान मूर्ति की ओर गया। मूर्ति को बनावट पर उसने गौर किया। मूर्ति में दो युवतियां, एक लड़की तथा एक साधारण सा आदमी दिखाया गया था। उसने सारा ध्यान पुरुष मूर्ति को देखने में केंद्रित कर दिया। कभी-कभी वह युवतियों को भी देख लेती थी। पन्द्रह-बीस मिनट के बाद दोनों की पहचान गई। लेकिन छोटी बच्ची को पहचान न सकी, क्योंकि मूर्ति में एक-डेढ़ माह की बच्ची दिखाई गई थी। मूर्ति के साथ हुए टंगे हुए चिट की तरफ ध्यान दिया, तो पाया कि यह नाम इस मूर्ति के अभिभावक का है, जिसने इसे प्रदर्शनी में जमा किया है।

मूर्तियों में बने आदमियों को पहचानते ही वह भाव विह्वल हो गयी। यह मूर्ति निश्चय ही सखीचंद की बनाई हुई है। वर्ना यदि दूसरा बनाता, तो उनकी मूर्तियां, दोनों बहनों की मूर्तियां क्यों बनाता, कैसे बनाता !! निश्चय ही यह मूर्ति उन्हीं की बनाई हुई हो सकती है।

पूर्ण विश्वास के लिए उसने एक प्रौढ़ सज्जन से, जो मूर्तियों को गौर से देख रहे थे, सविता ने पूछा – “इस मूर्ति के कलाकार कौन हैं, जरा देखकर बतलाने की कृपा कीजियेगा ?”

“क्यों नहीं, बहन ?” और उसने चिट की ओर ध्यान दिया। वहाँ से नजर हटाकर मूर्ति की ओर देखा । इधर-उधर देखा । मूर्ति के प्रत्येक अंग को देखा। अगल देखा, बगल देखा, मगर कहीं नजर नहीं आ रहा था। ज्यादा ध्यान से देखने पर पुरुष के पास एक चिट देखो और कहा – “वहां देखिए। कलाकार का नाम उस नीचे वाली चिट में लिखा हुआ है ।”

सविता का ध्यान उधर गया। उसने पढ़ा। चिट पर निखा था — ” कलाकार — सखीचंद ! “

सखीचंद के नाम की चिट पढ़ते ही उसकी आंखों के सामने अन्धेरा छा गया। आँखें डबडबा आईं । उसका स्वप्न, जो वह आज तीस वर्ष ने लगातार देखती रही थी, पूरा हुआ। उसका पति मिल गया। उसका प्यारा मिल गया। माता-पिता की परवाह न कर जिस गंवार एक देहाती को अपना पति मानकर भाग गयी थी, उसके साथ उसका पता चल गया । अब वह अपने पति को पा सकती है। यदि नहीं भी पा सकती, तो इस मूर्ति के सहारे वह जिन्दगी के शेष बचे दिनों को बिता सकती है। सखीचंद ! उसका पति ! सावित्री ! मेरी बच्ची । सखीचंद की निशानी यह मूर्ति ।

दो-तीन मिनट तक तो वह हतप्रभ सी खड़ी रही। अब उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसने बांस के घेरे को पार किया और मूर्ति के पास पहुंचते ही उससे लिपट गयी ।

लोगों को आश्चर्य हुआ। यह देखते ही पास में खड़ा स्वयं- सेवक चिल्लाया, “हां, हाँ, माताजी, यह आप क्या कर रही हैं ?”

मगर सविता को उन बाह्य वस्तुओं से कुछ लेना-देना नहीं था। उसने कुछ सुना ही नहीं, जैसे वह बहरी और गूंगी हो गयी थी। उसने किसी की एक न सुनी और मूर्ति से लिपट कर रो पड़ी, उसका नौकर पत्थर को मूर्ति की भांति खड़ा खड़ा यह सब देख रहा था। उसकी समझ में यह नहीं आया कि उसकी मालकिन इस मूर्ति से लिपट कर रो क्यों रही है।

घेरे के अन्दर से हाथ बढ़ाकर नौकर ने सविता को झकझोरा, “मालकिन ! मालकिन ! होश में आइए।”

किन्तु सविता कुछ नहीं सुन रही थी ।

एक से एक कई स्वयंसेवक वहां पहुंच गये। लोगों की भीड़ लग गयी । प्रदर्शनी में हल्ला मच गया । सब जगह बात फैल गयी । लोग यह जानने के लिए उमड़ पड़े कि आखिर बात क्या है। देखते ही देखते वहां भीड़ इकट्ठी हो गयी । जब काफी स्वयंसेवक स्थिति को काबू में नहीं कर सके, तो पुलिस वहाँ आ पहुंची। उसने भीड़ को हटाया और बुढ़िया के पास शांति से खड़े रहे, तब तक प्रदर्शनी के कुछ पदाधिकारी वहां पहुंच चुके थे। स्थिति को उन्होंने काबू में किया और सविता को अच्छी तरह समझा-बुझा कर कार्यालय में ले गये ।

सविता इस मूर्ति को छोड़कर जा ही नहीं रही थी। बहुत- कुछ कहने पर कि यदि मूर्ति के संबंध में सारा रहस्य बतला दोगी, तो तुम जैसा चाहोगी, वही होगा, मूर्ति को छोड़कर जाने पर राजी हुई थी।

मूर्ति को छोड़कर वह कार्यालय तो चली गयी थी, किन्तु आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे। भीड़ ने वहां भी उसका साथ दिया। लोगों की नजरें कार्यालय की ओर ही थीं। लोग जानना चाहते थे कि आखिर बात क्या है ? एक बुढ़िया ने ऐसा क्यों किया ? उस मूर्ति से उसका क्या सम्बन्ध हो सकता है ?

आधा घन्टा बाद जब उसका जी स्थिर हुआ, तो अधिकारियों के पूछने पर उसने पूछा – “इस प्रदर्शनी के प्रबन्धक कौन है ?”

 एक अधिकारी ने जवाब दिया, “सर्वोदय नेता श्री जयप्रकाश नारायाण !”

“कृपया आप मुझे उन्हीं के पास ले चलने का प्रबन्ध करें। ” सविता ने कहा ।

“कुछ बात भी तो बताइये।”

“मैं आप लोगों से कुछ नहीं कह सकती । मैं उन्हीं से दो- चार बातें जानना चाहूंगी। “

“आप अपना परिचय भी तो दें।” एक अधिकारी ने झुंझला कर कहा – “आप कुछ बताती हैं न कहती हैं, प्रबन्धक के पास ले चलिए । तो प्रबन्धक महोदय के पूछने पर हम क्या जवाब देंगे ?”

“आप लोगों के समक्ष में यह नहीं बतला सकती कि मैंने ऐसा क्यों किया। इसमें क्या रहस्य हो सकता है ।” सविता बोली, “भले ही मैं अपना परिचय आपको बता सकती हूँ। मैं शाहाबाद के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री गौरी बाबू की बड़ी पुत्री हूं। मेरा नाम सविता है ।”

“गौरी बाबू ?” एक अधिकारी ने श्राश्चर्य से कहा । “जी, हाँ।” सविता ने कहा- “अतः कृपा कर प्राप मुझे उनके पास ले चलें ।”

“इसका प्रबंध तुरंत किया जा रहा है।”

सविता वहां मौन बैठी रही। सोचने लगी, इस मूर्ति का अभिभावक कौन हो सकता है ? उसने इस मूर्ति को कहां देखा था, इस मूर्ति को वह पाये कैसे ? उसके समय में कोई ऐसी मूर्ति उन्होंने नहीं बनाई थी। वे तो अक्सर छोटी-छोटी ही मूर्तियां बनाते थे । उनका कहना था कि बड़ी मूर्तियाँ बड़े आदमियों की शोभा के लिए हैं और छोटी मूर्तियाँ सभी के लिए। यदि नाम अमर करना है, तो छोटी-छोटी मूर्तियां ही बनानी चाहिए, ताकि छोटे लोगों के घरों तक उस कलाकार का नाम जा सके। शायद मेरे आने के बाद ही उन्होंने यह मूर्ति बनाई है। क्या इस मूर्ति को उन्होंने बेचा होगा ? इस तरह की मूर्तियों के दाम भी तो काफी अधिक होंगे, फिर बेचना। नहीं नहीं, वह इस मूर्ति को कभी नहीं बेच सकते इस मूर्ति को जीवन से सम्बद्ध जानकर ही उन्होंने बनाया है। इस मूर्ति को बनाने में सारी कारीगरी लगा दी होगी, क्योंकि यह उनकी या हम सभी की इस धरती पर निशानी रहेगी। हम मिट जायेंगे, मगर यह मूर्ति हमारी याद दिलाती रहेगी

फिर सोचती – मूर्ति के अभिभावक को सखीचंद का पता अवश्य होना चाहिए। उसने मूर्ति के कारीगर का नाम भी दिया है। यदि उसको उनका पता नहीं होता, तो वह नाम नहीं दे सकता था या हो सकता है कि उसके वे साथी रहे हों।

उसने जल्दी में कहा – “क्या प्रबन्धक के पास चलने में अभी देर है ?”

“देखिये ।” एक प्रमुख अधिकारी ने जवाब दिया- “मैंने वहाँ टेलीफोन किया था। पता चला कि अभी-अभी वे भोजन कर रहे हैं। टेलीफोन आने की सूचना उनको दे दी गई है। उधर से खबर आई है कि भोजन करने के पश्चात ही वे बातचीत करेंगे। अतः अभी थोड़ी देर आपको ठहरना होगा।”

सविता ने इस बार कुछ नहीं कहा। वह वहां से उठकर प्रदर्शनी के बाहर की ओर बरामदे में गई और एक आरामकुर्सी पर बैठ गई। साथ में उसका नौकर4 भी था।

अब भी कार्यालय के आस-पास भीड़ जमा थी। लोग यह जानने की चेष्टा में थे कि कौन बात थी, लेकिन बतलाने वाला वहां कोई नहीं था। प्रश्नवाचक चिन्ह से सभी एक-दूसरे की ओर देख रहे थे।

कुछ लोग वहां से हट भी गए थे और उनका स्थान कुछ नए लोगों ने ले लिया था।

बाहर से भी कुछ लोग सविता को देख रहे थे और समझने की कोशिश में थे कि उस मूर्ति से इसका क्या सम्बन्ध हो सकता है । यह तो सभी को मालूम हो गया था कि एक बुढ़िया एक मूर्ति से लिपटकर रोने लगी थी, मगर क्यों रो रही थी ? इसका रहस्य रहस्य ही रह गया। किसी को पता नहीं चल सका ।

जिस मूर्ति से लिपटकर सविता रोई थी, उस मूर्ति को देखने के लिए काफी लोग इकट्ठे हो गए थे। कौन-सी खूबी थी, जो इसी मूर्ति से लिपटकर वह बुढ़िया रो रही थी। सविता बाहर बैठी चिंताग्रस्त थी ।

अन्दर मूर्ति के पास काफी भीड़ थी। कुछ देर बाद एक अधिकारी ने आकर सूचना दी कि प्रवन्धक साहब से बातचीत हुई है । उन्होंने अभी थाने में असमर्थता प्रकट की है । कहा है कि हम लोग आपको वहीं ले चलें । अतः आप कृपा कर हमारे साथ चलने की तकलीफ करें।

मारे खुशी के सविता अधिकारी का मुंह ताकने लगी । उसी समय दो मोटर गाडियां आ गई। एक पर सविता, उसका नौकर और एक उच्च अधिकारी बैठे तथा दूसरी पर चार अन्य अधिकारी । और मोटरें वहाँ से चली गई । भीड़ अब छंटने लगी थी।

चौदह 

अखिल भारतीय पत्थर कला प्रदर्शनी के प्रबन्धक श्री जय- प्रकाश नारायण ने सारा हाल सविता से पूछा और सविता ने भी अपने दिल का सारा हाल कह दिया। उसने कोई बात नहीं गई, सारा हाल जानने के बाद प्रत्यक महोदय ने काफी दुःख प्रकट किया और कहा “जिस व्यक्ति के नाम से यह मूर्ति प्रदर्शनी में आई है, उस व्यक्ति की स्वीकृति के पश्चात, परिणाम निकलने के बाद ही आपको दी जाएगी। इसमें हमको किसी प्रकार का एतराज नहीं है।”

सविता ने हाथ जोड़कर निवेदन किया- “मूर्ति के अभिभावक के पास मुझको पहुँचवा दें या उनका सही पता बता दें, ताकि मैं उनकी स्वीकृति प्राप्त कर सकूँ ।”

प्रबन्धक ने कहा – “वे हैं तो बनारस के, लेकिन मूर्ति के साथ वे भी पटना में ही हैं, उनके पास हमारे ये आदमी आपको इसी मोटर पर पहुंचा देंगे। आप वहीं आसानी से पहुंच जायेंगी। जैसा भी हो, हमको पत्र द्वारा सूचना दिलवा भेजियेगा ।”

” इसके लिए धन्यवाद !” सविता ने कहा और उठकर खड़ी हो गई ।

यह देख सभी लोग उठकर खड़े हो गए और मोटर द्वारा वहां पहुंचे, जहां सविता को जाना था या जो इस मूर्ति के अभिभावक थे, सविता को वहां तक पहुंचाकर सभी लोग वापस प्रदर्शनी में आ गए और अपना काम देखने लगे।

उन महाशय के पास पहुंचकर उसने एक पत्र उनको दे दिया, जो प्रबन्धक महोदय ने दिया था। अतः सविता को अपना परिचय देने की आवश्यकता नहीं जान पड़ी।

परिचय जानने के बाद उन महाशय ने सविता को बैठक में बैठाया तथा नौकर से चाय भिजवा दी। थोड़ी देर बाद वह भी बैठक में या पहुंचे और पूछा – ” आपने कैसे तकलीफ की ?” 

” तकलीफ तो मैं आपको देने आई हूँ।” सविता ने कहा ।

“कहिये ।” उस व्यक्ति ने सविता की ओर देखा और नम्र वाणी में कहा -“जो कुछ मुझसे बन पड़ेगा, यथासाध्य में आपकी मदद करने की चेष्टा करूंगा।” 

सविता ने तपाक से बिना किसी भूमिका के कहा “मैं यहजानने आई हूं कि इस मूर्ति को आपने कहाँ पाया ?” “कौन-सी मूर्ति ?”

“वही पत्थर की मूर्ति ।” सविता ने सीधे शब्दों में कहा ।

“मैं समझा नहीं ?” उस व्यक्ति ने कहा- “आप जरा खोल- कर और साफ-साफ कहें, ताकि मुझको समझने में दिक्कत न हो।”

“जिस पत्थर की मूर्ति को प्रदर्शनी में आपने अपने नाम से जमा किया है, उस मूर्ति के बारे में मैं पूछ रही हूं।” सविता ने पूछा – ” कहां मिली वह मूर्ति आपको ?”

“वह मूर्ति मुझको कहीं मिली नहीं और न मैंने उसको खरीदा है ।” उस व्यक्ति ने कहा – “इस मूर्ति की एक अनोखी प्रोर लंबी कहानी है।”

‘लंबी कहानी ? ‘सविता ने मन ही मन कहा। मूर्ति किसी विशेष कारण से उनको मिल सकी है। यह अनुमान उसका सत्य भी था। इतनी मेहनत और लगन से बनाई गई मूर्ति को सखीचंद रुपयों से बेच नहीं सकता था। फिर तो उसने अपने जीवन की सारी कहानी इसी मूर्ति के माध्यम से कह दी थी। सखीचंद के सारे अरमानों का केन्द्र थी, यह मूर्ति । यह सही है कि किसी विशेष परिस्थिति में वह मूर्ति इनके हाथ लगी है। उसने कहा – “कृपया मैं उस कहानी को सुनना चाहती हूं।’

“उस कहानी से आपको दिलचस्पी क्यों है ?” सविता ने उस व्यक्ति की तरफ देखकर एक लंबी सांस ली और कहा- “उस कहानी में मेरा जीवन छिना है और मैं स्वयं उस कहानी में सम्मिलित हूँ ।”

“मैं समझा नहीं।” उस व्यक्ति ने कहा ।

“मूर्ति के कलाकार मेरे पति हैं।” सविता ने कहा – “काफी दिनों से उनका पता नहीं चला था, अतः पता लगाने के लिए हो आपके पास तक मैं बहुत कठिनाई से पहुंच सकी हूँ । आप ही पर सब कुछ निर्भर करता है। आपकी रजामन्दी से मेरा पूर्ण हो सकता है, सार्थक हो सकता है जीवन!”

“बड़ी अचरज की बात है ?”

“जी हां।” सविता ने कहा “अचरज की तो बात है ही । किन्तु इस दुनिया में सभी कुछ सम्भव है। कुछ इस किस्म का संयोग है कि मैं उस कलाकार से संबंधित हो गई हूँ ।”

“एक पत्थर का कलाकार और आप !” उस व्यक्ति ने कहा, “वास्तव में अचम्भे की बात है।”

मैं कहानी सुनना चाहती हूं।”

 “अभी ?”

“जी ।” सविता ने कहा – “यदि सभी संभव हो तो इसी समय ।”

“आप कुछ घबड़ाई हुई-सी लग रही हैं ?”

“मैं घबड़ाई हुई नही हं, बल्कि उतावली हो रही हूं।” सविता ने कहा- “खबर के लिए कि अब वे किस हालत में होंगे, कहाँ होंगे? मैं इसी कारण उनसे संबंधित कहानी को जल्दी सुनना चाहती हूँ ।”

“मगर नाश्ते का समय हो गया है।”

“इन सब बातों की आप तनिक भी चिंता न करें।” सविता ने कहा – ” मुझको सब्र करना कठिन-सा लग रहा है।”

“कहानी तो मैं आपको सुना दूंगा ही ।” उस व्यक्ति ने कहा, “मैं अन्दर जा रहा हूँ। नाश्ता भिजवा दे रहा हूँ। आप भी नाश्ता करके स्वस्थ हो लें, तब तक में भी नाश्ता से फुर्सत पा लेता हूं। तब मैं आपको पूरी कहानी एक ही सांस में सुनाऊंगा, क्योंकि आपकी कहानी में दुःख भरा हुआ है और उस दुख से अपने को दुखी होता स्वाभाविक है।”

” जैसा आप उचित समझें ।” सविता ने कहा । और वह व्यक्ति अंदर चला गया।

आधा घन्टा बाद वह फिर बैठक में आ गया। इस बार वह अकेला नहीं था। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी। दोनों अभी जवान ही थे, बाल-बच्चा भी नहीं हुआ था। इस कमरे में आते ही सविता का चेहरा खिल गया। दोनों खाली कुर्सियों पर बैठ गए । सविता ने उस जोड़े की ओर गौर से देखा ।

उस व्यक्ति ने कहा- – “इस पत्थर की मूर्ति की कहानी भी आपके जीवन की कहानी से कम दर्दनाक नहीं है। सही में मैंने वैसा कारीगर आज तक नहीं देखा। इस प्रतियोगिता में भाग लेने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं थी, मगर एक अच्छे कलाकार को सम्मान मिले, इसी उद्देश्य से उस मूर्ति को लेकर मैं यहां पाया हूं और परिणाम निकलने तक पटना में ही रहूंगा।”

सविता एकदम से मौन थी । उस व्यक्ति ने एक बार अपनी पत्नी की ओर देखा और देख-कर मुस्कराया। और मुस्कराकर कहने लगा- “आज से करीब दस साल पूर्व की बात है यह, जो मैं कह रहा हूं। इन (पत्नी) के हाथ की चूड़ी टूट गई थी। टूटी हुई चूड़ी की जगह नई चूड़ी के लिए यह काफी जिद कर रही थी। पत्थर की चूड़ी का दाम अधिक था, अतः मैं टाल-मटोल करने लगा और देखते ही देखते दो-चार महीने टाल गया। इनकी जिद आखिरी सीमा पर एक दिन पहुंच चुकी थी और मैं खरीदने की स्थिति में नहीं था। हम लोग आंगन में वाद-विवाद कर ही रहे थे कि दरवाजे पर एक भिखमंगा आया । …”

“उसकी उम्र क्या थी, उस समय ?” सविता ने पूछा ।

“यही पैंतालीस के लगभग था।”

 सविता बोली ” आगे कहिए।”

“रंग गोरा था। यहाँ तक कि सारा बदन गोरा था। देखने में काफी सुन्दर लगता था।” उस व्यक्ति ने कहना शुरू किया- “उस की दाढ़ी और बाल काफी मात्रा में बढ़े हुए थे। बाल अस्तव्यस्त थे, अतः भिखमंगे के साथ-साथ वह पागल के समान भी लग रहा था । किन्तु मुझे ऐसा लगा कि वह किसी अच्छे खानदान का आदमी है। परिस्थितिवश बाध्य होकर इस तरह के काम पर उतारू हो गया होगा। पत्नी से पिंड छुड़ाने तथा भीख देने के बहाने मैं बाहर आ पहुंचा। किन्तु उस समय अपनी जिद्द के कारण यह कब पीछा छोड़ने वाली थी, यह भी पीछे से भिखमंगे के पास पहुंच गयी, जहाँ मैं खड़ा था। मैंने उसका घर द्वार पूछा, ताकि बातो में फंसने के बाद यह चूड़ी की बात भूल जाए। मगर बात करते-करते भी यह अपनी चूड़ी की बात ही अलापती रही। हम दोनों की बातें वह भिखमंगा भी सुन रहा था। काफी देर के बाद, जब उस भिख मंगे से न रहा गया, तब उसने मुझसे पूछा – ‘बाबूजी ! बहिनजी कैसी चूड़ी खरीदने की बात कर रही हैं ?’ शायद वह समझ गया था कि पत्थर की चूड़ी के लिए हमारा वाक् युद्ध चल रहा था। वरना चूड़ी के नाम पर सोने की चूड़ी की बात ही सामने आ सकती है। मैंने कुछ सत्य और कुछ व्यंग्य भरे शब्दों में कहा – ‘इनके हाथ की एक पत्थर की चूड़ी टूट गयी है, अतः उसी के लिए आज सवेरे से जिद्द पर पड़ी हुई हैं कि आज ही खरीदा जाए। औरतों की जिद्द अच्छी नहीं होती। मैं यह सब भिखमंगे की आड़ में इन से कह रहा था। उसने कहा- ‘पत्थर की चूड़ी ? नमूने के तौर पर कुछ बची तो होंगी ।’ मैंने समझा, लगता है यह भिखमंगा कुछ पागल भी है। तभी मैं बोला- हाँ ! अभी तो दोनों हाथ की मिलाकर तीन चूड़ियां बच रही है। किन्तु तुमको इस नमूने की चूड़ियों से क्या लेना-देना है ?’ उसने गंभीर स्वर में कहा—‘बस, मैं एक नजर उनको देख लूं, तब जैसा होगा, कहूँगा।’ अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि यह पागल भी है। अतः मैंने इनसे कहा–“दिखा दो, अपने हाथ की उन चूड़ियों को, जो बची हुई हैं।’ यह बात सुनकर इन्होंने मुँह बिचकाया। इनका मुँह बिचकाना शायद उसने देख लिया था। कहा- ‘बहनजी ! दो क्षण के लिए आप एक चूड़ी मुझको दिखा दें, बस ।’ इन्होंने एक चूड़ी निकालकर मुझको दी और मैंने उसको वह चूड़ी दे दी। चूड़ी को उलट-पुलट कर उसने देखा और कहा- ऐसी या इससे अच्छी चूड़ी मैं दो दिनों में तैयार कर सकता है। उसकी इस बात से हम दोनों अवाक् रह गये। मगर मुझको पूर्ण विश्वास हो गया कि इसके पागल होने अब तनिक भी सन्देह नहीं है। मैंने मजाक में कहा – “क्या क्या चीज चाहिए, तुमको ?’ मेरे व्यंग्य को वह समझा या नहीं, मैं नहीं कह सकता। तब भी उसने सहज भाव से कहा – आप मेरे साथ बाजार चलें, मैं आवश्यक सामान खरीद लगा। आप इस भ्रम से नहीं रहें कि आपको ज्यादा खर्व पडेगा। जितना दाम चूड़ियों का होगा, उससे आधा दाम उन वस्तुओं का होगा।’ बाध्य होकर इनके कहने पर मैं उसके साथ बाजार गया। एक पत्थर का टुकड़ा और एक छोटा-सा सरिया खरीद कर उसने मुझको दे दिया और थोड़ा छड़ लेकर उसने कहा– ‘मात्र आठ आने पैसे आप मुझको दे दें और आप घर चलें, मैं इससे कलमें बनवा कर तुरन्त ही लौटूंगा ।’ सरिया और पत्थर का टुकड़ा लेकर मैं अपने घर आ गया। इसके बाद वह चुप हो गया ।

उसकी पत्नी इस पुरानी कहानी को नये सिरे से सुन रही थी, मगर चेहरे पर सतोष के चिन्ह थे ।

सविता अपने पति की दुःख-दर्द से भरी कहानी सुन रही थी जिसमें व्यथा भरी थी, परेशानी भरी थी और भरा था कला का जीवन !!! उसके चेहरे पर व्यग्रता के लक्षण थे। कभी चेहरा उदास हो जाता था, तो कभी आंखों में पानी भर आता था । तब भी वह शांत थी, मूर्तिवत् !!

सविता का नौकर भी जमीन पर बैठा इस अनोखी कहानी को सुन रहा था। मगर उसकी समझ में कुछ बाता था और कुछ नहीं आता था । सब मिलाकर वह समझ रहा था कि नए मालिक के बारे में ये लोग बातें कर रहे हैं। मगर बात का लक्षण क्या है, वह पूरी तरह समझ नहीं पाया था। उसके चेहरे के मात्र कभी बनते थे, तो कभी बिगड़ते भी थे। वह कभी कहने वाले की ओर देखता, तो कभी अपनी मालकिन की ओर। चारों ओर शांति थी । कभी कभी एक आध मोटर इस रास्ते से गुजर जाती। नहीं तो साइकिल की घंटियों की ‘टन टन’ की आवाज बरावर ही आ रही थी ।

सविता सोचने लगी- सखीचंद ने पागल का भेष बना लिया था । ऐसा क्यों ? उसके पास तो काफी रुपये थे, जब वह उससे बिछड़ा था । यदि वह चाहता, तो एक अच्छी सी दुकान खोलकर आराम की जिन्दगी व्यतीत कर सकता था। मगर उसने ऐसा नहीं किया और रुपये समाप्त होने के बाद भीख मांगने लगा। छिः छिः, ऐसा नीच काम भी किया जा सकता है। वे कलाकार थे ही, यदि किसी दुकान पर भी रह जाते, तो पेट भर कमा सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा भी नहीं किया। भीख मांगना तो उचित कर्म नहीं है,’ फिर….नहीं, नहीं. काम करने में उनका मन नहीं लगता होगा, तभी उन्होंने काम नहीं किया। सोचा होगा कि बच्ची और पत्नी से बिछुड़ कर अब रह ही क्या गया है, जिसको बचाकर रखा जाए । शायद इसी कारण भीख मांगने पर आमादा हो गये होंगे । मगर कलाकार का जीवन और चाह कभी छिप सकता है ? समय आते ही वह सामने आ गया और अपने हाथ की सफाई को प्रदर्शित करने को तैयार हो गया। भगवान जो न करे…

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