भविष्यवाणी रुडयार्ड किपलिंग की कहानी | Bhavishyavani Rudyard Kipling Ki Kahani

भविष्यवाणी रुडयार्ड किपलिंग की कहानी, Bhavishyavani Rudyard Kipling Ki Kahani, Bhavishyavani Rudyard Kipling Story In Hindi

Bhavishyavani Rudyard Kipling Ki Kahani 

नहीं यद्यपि तुम मरो इस रात, प्रिय और करो विलाप,

एक प्रेतात्मा मेरे द्वार

मर्त्य भय करेगा अमर प्रेम को नाकाम—

मैं करूँगा और तुमको प्यार,

जो मृत्यु के घर से पलटकर, देते हो फिर भी मुझे

मेरी अतुल्य व्याधि में एक क्षण का आराम।

—शैडो हाउसेज

इस क़िस्से को वे लोग समझा सकते हैं, जो जानते हैं कि आत्माएँ कैसे बनती हैं और सम्भव की सीमाएँ कहाँ टूट जाती हैं। मैं इस भारत देश में इतने दिन रह लिया हूँ कि मुझे पता है कि कुछ भी नहीं पता होना सबसे अच्छा रहता है। और मैं इस कहानी को ठीक वैसी ही लिख सकता हूँ जैसी यह घटित हुई थी।

मेरीडकी में हमारा जो सिविल सर्जन था, उसका नाम था डुमॉइस और हम उसे ‘डॉरमाउस’ (यानी सोतू चूहा) कहते थे; क्योंकि वह एक गोल-मटोल, छोटा, सोतू आदमी था। वह एक अच्छा डॉक्टर था और कभी किसी से नहीं झगड़ता था, हमारे डिप्टी कमिश्नर से भी नहीं, जो एक माँझी जैसा बरताव और एक घोड़े जैसी चालबाज़ी करता था। उसने अपने जैसी ही गोल-मटोल और सोती-सी दिखनेवाली एक लड़की से शादी की थी। वह एक मिस हिलरडाइस थी, बरार्स के स्क्वाश हिलरडाइस की बेटी, जिसने ग़लती से अपने चीफ़ की बेटी से शादी कर ली थी। मगर वह एक अलग कहानी है।

भारत में हनीमून कभी एक हफ़्ते से ज़्यादा का नहीं होता; मगर कोई जोड़ा अगर इसे दो या तीन हफ़्ते तक खींचना चाहे तो उसमें कोई रुकावट भी नहीं है। भारत उन शादीशुदा लोगों के लिए आनंद का देश है, जो एक-दूसरे में लिपटे रहते हैं। वे बिल्कुल अकेले और बिना किसी रुकावट के रह सकते हैं—जैसा कि ‘डॉरमाइस’ (डॉरमाउस दम्पति) ने किया। वे दोनों छोटू-मोटू अपनी शादी के बाद दुनिया से अलग हो गए और बहुत ख़ुशी-ख़ुशी रहने लगे। हाँ, इस बात के लिए ज़रूर बाध्य किए गए कि दावत दें। मगर, इससे उन्होंने कोई दोस्त नहीं बनाए और स्टेशन अपने ही तरीक़े से चलता रहा और उन्हें भूल गया। कभी-कभार वहाँ के लोग बस, यह कहते थे कि डॉरमाउस अच्छे लोगों में सबसे अच्छा है; मगर कुंद है। कभी नहीं झगड़नेवाला सिविल सर्जन मिलना बेहद मुश्किल होता है, इसलिए उसकी तारीफ़ होती है।

बहुत कम लोग हैं, जो रॉबिन्सन क्रूसो का किरदार कहीं भी निभा सकते हैं—भारत में तो बिल्कुल भी नहीं, जहाँ हम बहुत कम हैं और एक-दूसरे के रसूख़ पर बहुत ज़्यादा निर्भर हैं। डुमॉइस ने अपने आपको इस एक साल के लिए दुनिया से अलग करके ग़लती की थी और अपनी ग़लती का पता उसे तब चला, जब ठण्ड के मौसम के बीच स्टेशन पर टायफ़ाइड की महामारी फैली और उसकी पत्नी उसकी चपेट में आ गई। वह एक शरमीला व्यक्ति था और उसने यह समझने में पाँच दिन गँवा दिए कि मिसेज़ डुमॉइस जिस बुख़ार में तप रही थीं, वह महज़ मामूली बुख़ार नहीं था। उसे तीन और दिन इस बात में लग गए कि वह इंजीनियर की पत्नी मिसेज़ शूट के पास जाने की हिम्मत जुटाता और सहमा-सहमा-सा अपनी परेशानी बताता। भारत में क़रीब-क़रीब हर घर यह जानता है कि टायफ़ाइड के मामले में डॉक्टर बहुत बेबस होते हैं। इस लड़ाई को मौत और नर्सों के बीच मिनट-दर-मिनट और डिग्री-दर-डिग्री ही लड़ना होता है। मिसेज़ शूट ने इसे डुमॉइस की आपराधिक देरी बताते हुए जैसे उसकी कनपटी पर घूँसा जड़ दिया। और वह फ़ौरन ही बेचारी लड़की की तीमारदारी के लिए चल पड़ी।

उस सर्दी हमारे स्टेशन में टायफ़ाइड के सात मामले हुए और मौत का औसत चूँकि हर पाँच मामलों में क़रीब एक है, तो हमें पक्का लग रहा था कि हमें उनमें से किसी को खोना होगा। मगर सभी बहुत अच्छी स्थिति में रहे। औरतें बैठकर औरतों की तीमारदारी करती रहीं और पुरुषों ने उन बेचलरों की देखभाल की, जो टायफ़ाइड की चपेट में आ गए थे। और हम टायफ़ाइड के उन मामलों से 56 दिनों तक जूझते रहे तथा उन्हें छाया की घाटी से जिताकर ले आए। मगर, जब हम यह सोच ही रहे थे कि सबकुछ ठीक-ठाक निकल गया और इस जीत का जश्न मनाने के लिए नृत्य का आयोजन करने जा ही रहे थे कि मिसेज़ डुमॉइस वापस बीमार हो गईं और एक हफ़्ते में ही मर गईं। स्टेशन उसके जनाज़े में गया। डुमॉइस तो क़ब्र के किनारे बेहाल हो गया और उसे वहाँ से ले जाना पड़ा।

मौत के बाद डुमॉइस अपने घर में क़ैदी-सा होकर रह गया और उसे दिलासा देने की किसी भी कोशिश को उसने कामयाब नहीं होने दिया। वह अपने काम को बिल्कुल ठीक से करता रहा; मगर हम सबको लग रहा था कि उसे छुट्टी पर चले जाना चाहिए और उसकी अपनी सर्विस के दूसरे लोगों ने उससे यह कह भी दिया। डुमॉइस ने इस सुझाव के लिए बहुत आभार माना। उन दिनों वह किसी भी बात के लिए आभार माना करता था—और पैदल सैर के लिए चीनी चला गया। चीनी की दूरी शिमला से कोई बीस पड़ाव है। यह पहाड़ियों के बीच में है और अगर आप परेशानी में हों तो यहाँ का नज़ारा अच्छा है। आप बड़े शांत देवदार वनों से होकर, बड़ी शांत चट्टानों के नीचे से और किसी औरत की छातियों जैसे फूल बड़े, शांत, घास के टीलों के ऊपर से गुज़रते हैं और घास के पार हवा व देवदारों के बीच बारिश कहती है— ‘चुप-चुप-चुप।’ इसलिए छोटू डुमॉइस को चीनी रवाना कर दिया गया कि अपने पूरी प्लेटवाले कैमरा और राइफ़ल से अपने दुःख को हल्का करे। उसने अपने साथ एक बेकार बेयरा भी ले लिया, क्योंकि वह आदमी उसकी पत्नी का प्यारा नौकर हुआ करता था। वह सुस्त और चोर था; मगर डुमॉइस ने अपना सबकुछ उसके भरोसे छोड़ दिया।

चीनी से लौटते हुए माउंट हट्टू के रिज पर स्थित फ़ॉरेस्ट रिज़र्व से होते हुए डुमॉइस बागी की ओर मुड़ गया। जो कुछ लोग थोड़े से ज़्यादा घूमे हैं, उनका कहना है कि कोटगढ़ से बागी तक का पड़ाव बहुत अच्छा है। यह अँधेरे गीले वन से होकर जाता है और अचानक ही बीहड़, कटी-फटी पहाड़ी ढाल और काली चट्टानों में ख़त्म हो जाता है। बागी का डाक बँगला तमाम हवाओं के लिए खुला है और बेहद ठंडा है। बहुत कम ही लोग बागी जाते हैं। शायद यही वजह थी कि डुमॉइस वहाँ गया। वह शाम 7 बजे वहाँ रुका और उसका बेयरा पहाड़ी से नीचे गाँव में चला गया, ताकि अगले पड़ाव के लिए कुली का इंतज़ाम करे।

सूरज डूब चुका था और रात की हवाएँ चट्टानों के बीच गुनगुनाने लगी थीं। डुमॉइस बरामदे में जँगले पर टिककर अपने बेयरे के लौटने का इंतज़ार करने लगा। बेयरा वहाँ से निकलने के लगभग तुरंत बाद ही वापस आ गया और ऐसी फुरती से कि डुमॉइस को लगा, ज़रूर उसका सामना भालू से हो गया होगा। वह पहाड़ी पर पूरे दम से दौड़ रहा था। मगर उसकी दहशत की वजह बनने के लिए वहाँ कोई भालू नहीं था। वह बरामदे तक दौड़ता हुआ आया और गिर गया। उसकी नाक से ख़ून बह रहा था। उसका चेहरा स्याह-सलेटी हो रहा था। फिर वह सहमी-सी आवाज़ में बोला, “मैंने मेम साहब को देखा, मैंने मेम साहब को देखा!”

“कहाँ?” डुमॉइस ने पूछा।

“वहाँ, गाँववाली सड़क पर टहलते हुए। वह एक नीली पोशाक पहने थीं और उन्होंने अपने सिर का परदा उठाकर कहा—रामदास, साहब को मेरा सलाम देना और उनसे कहना कि मैं उन्हें अगले महीने नदिया में मिलूँगी। फिर मैं भाग आया, क्योंकि मैं डर गया था।”

डुमॉइस ने क्या कहा या क्या किया, मुझे नहीं पता। रामदास बताता है कि उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस ठण्ड में पूरी रात चहलक़दमी करते रहे, इंतज़ार करते रहे कि मेम साहब पहाड़ी पर आएँ और किसी पागल की तरह अँधेरे में अपने हाथ फैलाए रहे। मगर कोई मेम साहब नहीं आयीं और अगले दिन वह शिमला की ओर बढ़ गए और हर घंटे बेयरा से सवाल-जवाब करते रहे।

राम दास बस यही कह पाया कि मिसेज़ डुरमॉइस उसे मिली थीं। उन्होंने अपना परदा उठाया था और यह संदेश दिया था, जो वह पूरी वफ़ादारी से डुमॉइस के सामने दोहरा चुका था। इस बयान पर रामदास टिका रहा। उसे नहीं पता था कि नदिया कहाँ है। नदिया में उसका कोई दोस्त नहीं था और बहुत सम्भव था कि वह कभी नदिया नहीं जाएगा, भले ही उसका वेतन दोगुना कर दिया जाए।

नदिया तो बंगाल में है और पंजाब में काम कर रहे किसी डॉक्टर से उसका कोई सरोकार ही नहीं बनता। यह मेरीडकी के दक्षिण में 1,200 मील से अधिक दूरी पर तो है ही।

डुमॉइस बिना रुके शिमला होते हुए मेरीडकी वापस आया, जहाँ उसे अपनी एब्जी कर रहे डॉक्टर से अपना चार्ज लेना था। डिस्पेंसरी का कुछ हिसाब किताब करना था और सर्जन जनरल के कुछ हालिया आदेशों को लिखना था और कुल मिलाकर इस काम में पूरा एक दिन लग जाना था। शाम को डुमाइस ने अपने एब्जी और अपने कुँआरे के पुराने दोस्त को बताया कि बागी में क्या हुआ था। और उस एब्जी ने कहा कि रामदास को अगर यही करना था तो उसे तूतीकोरिन चुनना चाहिए था।

तभी एक डाकिया शिमला से आया। एक तार लेकर हाज़िर हुआ, जिसमें डुमॉइस के लिए यह आदेश था कि वह मेरीडकी में चार्ज नहीं ले, बल्कि फ़ौरन स्पेशल ड्यूटी पर नदिया चला जाए। नदिया में बहुत बुरा हैजा फैल गया था और बंगाल सरकार के पास चूँकि हमेशा की तरह स्टाफ़ की कमी थी, इसलिए पंजाब से उसने एक सर्जन कुछ समय के लिए माँगा था।

डुमॉइस ने तार मेज़ पर फेंक दिया और कहा, “अब?”

दूसरे डॉक्टर ने कुछ नहीं कहा।

तब उसे याद आया कि बागी से लौटते समय डुमॉइस शिमला से होकर गुज़रा था और इस तरह शायद उसने आनेवाले तबादले के बारे में पहली ख़बर सुनी होगी।

उसने उस सवाल को और उसमें छिपे संदेश को शब्दों में ढालने की कोशिश की, मगर डुमॉइस ने उसे यह कहकर रोक दिया कि— “अगर मैंने यह चाहा होता तो मैं चीनी से कभी लौटता ही नहीं। मैं वहाँ शूट कर रहा था। मैं जीना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे काफ़ी कुछ करना है… मगर मुझे अफ़सोस नहीं होगा।”

दूसरे डॉक्टर ने अपना सिर झुका लिया और उस धुंधलके में डुमॉइस के अभी-अभी खुले सन्दूक़ों की पैकिंग में मदद करने लगा। रामदास लैम्प लेकर दाख़िल हुआ।

“साहब, कहाँ जा रहे हैं?” उसने पूछा।

“नदिया।” डुमॉइस ने धीमे से कहा।

रामदास ने डुमॉइस के घुटने और जूते पकड़ लिए और उससे नहीं जाने की विनती करने लगा। रामदास रोता और बिलखता रहा फिर उसे कमरे से बाहर कर दिया गया। फिर उसने अपना सारा सामान लपेटा और चरित्र (प्रमाण-पत्र) माँगने वापस आया। वह अपने साहब को मरते देखने और शायद ख़ुद मरने के लिए नदिया नहीं जा रहा था।

इस तरह डुमॉइस ने उसे उसका वेतन पकड़ाया और अकेला ही नदिया चला गया। दूसरे डॉक्टर ने उसे इस तरह विदाई दी जैसे उसे मौत की सज़ा सुनायी गई हो।

ग्यारह दिन बाद वह अपनी मेम साहब के पास पहुँच गया और बंगाल सरकार को नदिया में फैली उस महामारी से निपटने के लिए एक नया डॉक्टर माँगना पड़ा। पहले जो डॉक्टर माँगा गया था, वह छुआडांगा डाक बँगले में मृत पड़ा था।

**समाप्त**

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