भग्नावशेष सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी | Bhagnavashesh Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani

भग्नावशेष सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी (Bhagnavashesh Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani Hindi Short Story)

Bhagnavashesh Subhadra Kumari Chauhan 

Bhagnavashesh Subhadra Kumari Chauhan

(1)

न मैं कवि था न लेखक, परन्तु मुझे कविताओं से प्रेम अवश्य था। क्यों था यह नहीं जानता, परन्तु प्रेम था, और खूब था। मैं प्रायः सभी कवियों की कविताओं को पढ़ा करता था, और जो मुझे अधिक रुचतीं, उनकी कटिंग्स भी अपने पास रख लेता था।

एक बार मैं ट्रेन से सफ़र कर रहा था। बीच में मुझे एक जगह गाड़ी बदलनी पड़ी। वह जंक्शन तो बड़ा था, परंतु स्टेशन पर खाने-पीने की सामग्री ठीक न मिलती थी। इसी लिए मुझे शहर जाना पड़ा। बाजार में पहुँचते ही मैंने देखा कि जगह-जगह पर बड़े-बड़े पोस्टर्स चिपके हुए थे, जिनमें एक वृहत कवि-सम्मेलन की सूचना थी, और कुछ खास-खास कवियों के नाम भी दिए हुए थे। मेरे लिए तो कवि-सम्मेलन का ही आकर्षण पर्याप्त था, परन्तु कवियों की नामावली को देखकर मेरी उत्कंठा और भी अधिक बढ़ गई।

(2)

दूसरी ट्रेन से जाने का निश्चय कर जब मैं सम्मेलन के स्थान पर पहुँचा, तो उस समय कविता पाठ प्रारम्भ हो चुका था, और उर्दू के एक शायर अपनी जोशीली कविता मजलिस के सामने पेश कर रहे थे। ‘दाद’ भी इतने जोरों से दी जा रही थी कि कविता का सुनना ही कठिन हो गया था। खैर मैं भी एक तरफ़ चुपचाप बैठ गया, परन्तु चेष्टा करने पर भी आँखें स्थिर न रहती थीं, वरन वे किसी की खोज में बार-बार विह्वल सी हो उठती थीं। कई कवियों ने अपनी-अपनी सुन्दर रचनाएं सुनाई। सब के बाद एक श्रीमती जी भी धीरे-धीरे मंच की ओर अग्रसर होती दिख पड़ीं। उनकी चाल-ढाल तथा रूप-रेखा से ही असीम लज्जा, एवं संकोच का यथेष्ट परिचय मिल रहा था। किसी प्रकार उन्होंने भी अपनी कविता पढ़ना शुरू किया। अक्षर-अक्षर में इतनी वेदना भरी थी कि श्रोतागण मंत्रमुग्ध से होकर उस कविता को सुन रहे थे। वाह-वाह और खूब-खूब की तो बात ही क्या, लोगों ने जैसे साँस लेना तक बंद कर दिया था। और मेरा तो रोम-रोम उस कविता का स्वागत करने के लिए उत्सुक हो रहा था।

अब बिना उनसे एक बार मिले, वहाँ से चले जाना मेरे लिये असम्भव सा हो गया। अतः इसी निश्चय के अनुसार मैंने अपना जाना फिर कुछ समय के लिए टाल दिया!

(3)

उनका पता लगा कर, दूसरे ही दिन, लगभग आठ बजे सबेरे मैं उनके निवास स्थान पर जा पहुँचा, और अपना ‘विजिटिंग कार्ड भिजवा दिया। कार्ड पाते ही एक अधेड़ सज्जन बाहर आए, और मैंने नम्रता से पूछा कि “क्या श्रीमती जी घर पर हैं?”

“जी हाँ। आइए बैठिए।”

आदर प्रदर्शित करते हुए मैंने कहा- “कल के सम्मेलन में उनकी कविता मुझे बहुत पसंद आई, इसीलिए मैं उनसे मिलने आया हूँ।”

वे मुझे अंदर लिवा ले गये, एक कुर्सी पर बैठालते हुए बोले- “वह मेरी लड़की है, मैं अभी उसे बुलवाए देता हूँ।”

उन्होंने तुरन्त नौकर से भीतर सूचना भेजी और उसके कुछ ही क्षण बाद वे बाहर आती हुई दिखाई पड़ीं।

परिचय के पश्चात् बड़ी देर तक अनेक साहित्यिक विषयों पर उनसे बड़ी ही रुचिकर बातें होती रहीं। चलने का प्रस्ताव करते ही, उन्होंने संध्या समय भोजन के लिए निमंत्रण दे डाला। इसे अस्वीकृत करना भी मेरी शक्ति के बाहर था। अतः दिन भर वहीं उनके साथ रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। और इन थोड़े से घंटों में ही उनकी आसाधारण प्रतिभा देखकर मैं चकित सा हो गया। अब तक का मेरा ‘प्रेम’ प्रणय-पूर्ण आकर्षण सहसा भक्तियुक्त आदर में परिणित हो गया। भोजन के उपरान्त मुझे अपनी यात्रा प्रारंभ करनी ही पड़ी । परन्तु मार्ग भर मैं कुछ ऐसा अनुभव करता रहा कि मानो कहीं मेरी कोई वस्तु छुट अवश्य गई है।

(4)

घर लौट कर मैंने उन्हें दो-एक पत्र लिखे, परन्तु उत्तर एक का भी न मिला। कितनी निराशा, एवं कितने मानसिक क्लेश का मैंने अनुभव किया, यह लिखना मेरे लिए असम्भव है। परंतु विवश था चुप ही रहना पड़ा। किन्तु उनकी कविताओं की खोज निरन्तर ही किया करता था।

इधर कई महीनों से उनकी कविता भी देखने को नहीं मिली। बहुत कुछ समझाया, परन्तु चित्त में चिन्ता हो ही उठी। तरह-तरह की आशंकाएँ हृदय को मथने सी लगीं, और अन्त में एक दिन उनसे मिलने की ठान कर, घर से चल ही तो पड़ा। किन्तु चलने के साथ ही बाई आँख फड़की, और बिल्ली रास्ता काट गई। ये अपशकुन भी मुझे अपने निश्चय से विचलित न कर सके, और मैं अपनी यात्रा में बढ़ता ही गया। परन्तु वहाँ पहुँच कर वही हुआ जो होना था। वह वहाँ न मिलीं, मकान में ताला पड़ा था। पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि कई महीने हुए उनके पिता का देहान्त हो गया, और उनके मामा आकर उन्हें अपने साथ लिवा ले गये। बहुत पता लगाने पर भी मैं उनके मामा के घर का पता न पा सका। इस प्रकार वे एक हवा के झोंके की तरह मेरे जीवन में आईं और चली भी गईं, मैं उनके विषय में कुछ भी न जान सका।

(5)

दस वर्ष बाद-

एक दिन फिर मैं कहीं जा रहा था। बीच में एक बड़े जंग्शन पर गाड़ी बदलती थी। वहाँ पर दो लाइनों के लिये ट्रेन बदलती थी। मैं सेकेन्ड क्लास के कम्पार्टमेन्ट से उतरा, ठीक मेरे पास के ही एक थर्ड-क्लास के डिब्बे से एक स्त्री उतरी। उसका चेहरा सुन्दर, किन्तु मुरझाया हुआ था, आँखे बड़ी-बड़ी, किन्तु दृष्टि बड़ी ही कातर थी। कपड़े बहुत साधारण और कुछ मैले से थे। गोद में एक साल भर का बच्चा था, आस-पास और भी दो-तीन बच्चे थे। मैंने ध्यान से देखा यह ‘वे’ ही थीं। मैं दौड़कर उनके पास गया। अचानक मुँह से निकल गया “आप यहाँ! इस वेश में!!”

उन्होंने मेरी तरफ़ देखा, उनके मुंह से एक हल्की सी चीख निकल गई, बोलीं- “हाय! आप हैं??”

मैंने कहा- “हाँ मैं ही हूँ, आप का अनन्य भक्त, आप का एकान्त पुजारी। किन्तु आप मुझे भूल कैसे गईं? आपकी कविताएँ ही तो मुझे जिलाती थीं। आपने अब कविता लिखना भी क्यों छोड़ दिया है?”

अब उनके संयम का बांध टूट गया.. उनकी आंखों से न जाने कितने बड़े-बड़े मोती बिखर गये.. उन्होंने रुंधे हुए कंठ से कहा, “लिखने पढ़ने के विषय में अब आप मुझसे कुछ न पूछें।”

इतने ही में एक तरफ़ से एक अधेड़ पुरुष आए। और आते ही शायद मेरा ‘उनके’ पास का खड़ा रहना उन सज्जन को न सुहाया, इसी लिए उन्हें बहुत बुरी तरह से झिड़क कर बोले- “यहाँ खड़ी-खड़ी गप्पें लड़ा रही हो। कुछ हया भी है?”

वे बोलीं- “ये मेरे पिता जी के….” वह अपना वाक्य पूरा भी न कर पाई थीं कि वे महापुरुष कड़क उठे- “बस चुप रहो, मैं कुछ नहीं सुनना चाहता.. चलो सीधी।”

उन्होंने मेरी तरफ एक बड़ी ही बेधक दृष्टि से देखा, उस दृष्टि में न जाने कितनी करुणा, कितनी विवशता, और कितनी कातरता भरी थी। वे अपने पति के पीछे पीछे चली गईं।

इस प्रकार दस वर्ष के बाद वे फिर एक बार मेरे नैराश्यपूर्ण जीवन के अंधकार में चपला की तरह चमकी और अदृश्य हो गईं। वे मुझ से जबरन छीन ली गईं। मुझे उनके दर्शन भी दुर्लभ हो गये।

**समाप्त**

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