चैप्टर 11 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 11 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

चैप्टर 11 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 11 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online

Chapter 11 Badnaam Gulshan Nanda Novel

Chapter 11 Badnaam Gulshan Nanda Novel

गौरी बाबू आज ज्यादा बेचैन थे। बाहर के बरामदे में चहल- कदमी कर रहे थे। उनका सिर झुका हुआ था। किसी समस्या का हल ढूंढने में व्यस्त थे। कानून के ज्ञाता और सरकार के उच्चपदस्थ अधिकारी, भला इस तरह के अपमान को सह सकते थे ?

अभी-अभी तक तो सब कुछ सही था। मगर … सविता के साथ जिस लड़के की सगाई हुई थी, वह गौरी बाबू के खानदान एवं उनकी प्रसिद्धि से ज्यादा प्रभावित था। वह चाहता था कि गौरी बाबू के साथ रिश्ता होना शुभ कर होगा। एक तो वह उनका जमाई कहलायेगा तथा बाद में सारे धन का वारिश भी होगा । उसने कहलवा दिया था कि यदि सविता के साथ उसकी शादी नही हुई तो न हुई । यदि सावित्री के भी साथ कर दी जाए, तो बात कुछ बिगड़ती नहीं है, वर्ना सारी बदनामियों को वह न्याया- धीश महाशय पर ही मढ़ेगा ।

बरामदे से कभी कमरे में तथा कमरे से कभी बरामदे में भी आ जाते थे वे। उनके कदम तेजी से उठ गिर रहे थे ।

इस समय उनके पास कोई नहीं या । वह अकेले ही थे । आज कचहरी भी नहीं थी। रविवार का दिन या सर्वत्र छुट्टियां थीं । सभी कार्यालय बन्द थे | सारा मजमा ढीला पड़ा हुआ था। उनका इरादा था कि आज ही अंतिम निर्णय हो जाए, वरना यह मामला एक हफ्ते के लिए टाला जा सकता है, क्योंकि सिवाय रविवार के उनको इस तरह की बातों पर विचार करने का समय ही नहीं मिलता और वे चाहते भी नहीं थे। सरकारी काम के दिनों में किसी और तरह के पचड़ों से वे अपने दिमाग को विकृत नहीं करना चाहते थे।

चहल कदमी करते हुए वे अपनी पत्नी श्रीमती स्वरूपादेवी के आने का इन्तजार कर रहे थे। थोड़ी देर पहले एक नौकर को भेजा था। अभी तक वही नहीं आई। घर के सारे आदमियों का दिमाग लगता है फिर गया है। कोई सुनने ही वाला नहीं है। सभी अपनी- अपनी लगाए हुए हैं। यह भी कोई रास्ता है ? घर का एक मालिक, एक जिम्मेदार, तब न घर चलेगा !

श्रीमती स्वरूपादेवी के प्राने में ज्यों-ज्यों देर हो रही थी । गौरी बाबू की बेचनी व्याकुलता और इन्तजार करने की सीमा बढ़ती जाती थी । उनको देखने के लिए ही वे कभी-कभी बरामदे में भी प्राकर चहल कदमी करने लगते थे।

थोड़ी देर बाद श्रीमती स्वरूपादेवी आई, उस समय गोरी बाबू कमरे में थे। वह अन्दर ही चली गई।

उसको देखते ही गौरी बाबू बड़बड़ाये – “इन लड़कियों ने तो मेरे नाकों में दम कर दिया है। पढ़ा-लिखाकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है लगता है, सारे खानदान की इज्जत धूल में मिल जाएगी। लड़का किसी तरह मानता नहीं । सावित्री राजी नहीं होती । कहा भी गया है कि यदि औरतों के नाक न हों, तो वे तीन जगह, तीन बार भटकें ।”

“औरतों को ही आप दोष क्यों दे रहे हैं ?” श्रीमती स्वरूपा- देवी भीतर-ही भीतर तड़प उठी। यह क्या बात ? काम करे उनकी लाड़ली, और दोष मढ़े जाएं सभी औरतों पर। एक के चलते सभी को बदनाम करना उचित नहीं। सभी एक घाट का पानी नहीं पीते, सभी का एक-सा दिमाग नहीं होता ।

“तो क्या करूं मैं ?” गौरी बाबू उस समय अपने आपे में नहीं थे | चिन्ता, क्रोध एवं बेचनी से व्यस्त थे। वह कहने लगे- “सगाई के बाद एक तो सारी इज्जत आबरू पर लात मारकर भाग ही गई। उसने यह तनिक भी नहीं सोचा कि वह यह सब क्या करने जा रही है। उसका भी पता अब लग सका है। एक साल बाद। न जाने वह किस स्थिति में अभी हो। एक हमारे कब्जे में है, उसका भी दिमाग खराब हो गया है। पता नहीं इन्होंने क्या-क्या करने को सोचा है ।”

“लड़की है, दुलार से कुछ कह नहीं रही है।” श्रीमती स्वरूपा देवी ने अपनी बेटी सावित्री की तारीफ की। यदि सावित्री सीधे रास्ते पर होती, तो वह सविता की ऐसे अवसरों पर खूब शिकायत करती, ताकि उनका ध्यान सविता की ओर से फिर जाए। ज्यादा न सही थोड़ा ही । लेकिन स्वयं सावित्री भी उस युवक के साथ शादी करने से इन्कार कर रही थी।

“लड़कियों का यह दुलार किस काम का, जिसके कारण पिता को बेइज्जती का सामना करना पड़े, ‘चिन्ता से व्याकुल रहना पड़े दिन-रात सोच विचार में रहे? ” गौरी बाबू ने कहना जारी रखा- “लड़का धमकी दे रहा है कि सविता ने यदि शादी न की तो न सही । सावित्री के साथ ही उसकी शादी कर दी जाये। जब उस घर में मगनी हो गयी है और लड़की है ही, तो क्यों न उसके साथ उसकी शादी कर दी जाए। अब इसका क्या जवाब दूं? मेरी तो अक्ल काम ही नहीं कर रही है।”

कोई चारा न देख श्रीमती स्वरूपा देवी ने कहा – “उसको लिख दीजिये कि हम लोग प्रयत्न कर रहे हैं। घबराने से होगा ? ” शायद अब भी इसको आशा थी कि वह सावित्री को शादी के लिये राजी कर लेगी। और वह चाहती भी थी कि सावित्री की शादी हो जाए, तो अच्छा है। इसके लिये श्रीमती स्वरूपा देवी ने ही गौरी बाबू को सुझाव दिया था, तब तक लड़के वालों की ओर से भी इसी तरह का प्रस्ताव या गया। पहले तो स्वरूपा देवी प्रसन्न हुई थी, लेकिन जब सावित्री ने साफ इन्कार कर दिया तब वह ऊम-चूम में रह गयी

“कहने से या बात टालने से काम नहीं चलेगा, सावित्री की मां ।” न्यायाधीश महोदय कहने लगे- “उनका कहना है कि एक साल हो गया, अभी तक प्रयत्न या कोशिश ही की जा रही है। तुम लोग औरत हो । घर के भीतर का हाल जानती हो । मैं मर्द हूं, मुझे बाहर की ओर देखना होता है। सभा में जवाब देना होता है । पत्रों का उत्तर लिखना होता है। मैं नहीं समझता हूँ कि यह स्थिती क्या है । तुम लोग क्या जानो।”

” समझाने-बुझाने से वह राजी हो सकती है। श्रीमती स्वरूपा देवी अब भी गौरी बाबू को विश्वास दिला रही थी ।

“यदि राजी हो जाती है, तब राजी कराकर क्यों नहीं इस बखेड़े का अन्त करती ?” गौरी बाबू ने चहल कदमी करते हुए एक बार गौर से अपनी पत्नी श्रीमती स्वरूपा देवी की ओर देखा और चुप हो गये । उस समय उनका चेहरा कुछ-कुछ लाल हो रहा था।

इसका जवाब श्रीमती स्वरूपा देवी ने तत्काल नहीं दिया। निरुत्तर हो गयी थी। सावित्री को लाख समझाया था, मनाया था, लालच दिया था !! परन्तु वह अपने विचारों से तिल भर हटने या सरकने को तैयार नहीं थी।

गौरी बाबू ने पुन: कहा- “तुम भी तो लगातार प्रयत्न कर रही हो?”

कोई जवाब नहीं दिया श्रीमती स्वरूपा देवी ने इस बार भी।

“आखिरी बार तुम फिर उसको समझाकर राजी करने पर कोशिश करो।” न्यायाधीश महोदय ने फिर कहा – “यदि कही मेरे सामने उसने साफ इन्कार कर दिया, तो मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ जायगा । तब भगवान ही जानता है कि क्या होगा। शायद अनर्थ होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। तुम मां हो। उसको अच्छी तरह समझाओ और राजी करो। यदि वह राजी हो जाय, जैसी कि संभावना नहीं है, तो वह मेरे सामने आकर इतना हो कह दे कि जैसा आप चाहें करें मैं राजी हूं, बस काम समाप्त और वे चुप हो गये।

काफी देर तक मौनता छायी रही।

सूरज ऊपर उठ आया। दिन का पूरा अवसान था। चारों ओर उजाला ही उजाला । तारों का कहीं नामो-निशान भी नहीं था। बाग में फूल तरह-तरह के खिल रहे थे सर्वत्र शांति थी । सामने सड़कों पर चहल-पहल थी। कारें आ जा रही थीं। इक्का था जा रहे थे । रिक्शे आ-जा रहे थे। और आदमी भी आ-जा रहे थे, साथ ही जानवर भी !

” तब तक आप …” श्रीमती स्वरूपादेवी ने जानबूझकर अपना वाक्य पूरा नहीं किया, क्योंकि वह जानती थी कि गौरी बाबू फिर

कहेंगे कि इन्तजार तो आज एक साल से कर रहा हूं और तुम मुझ- को श्राश्वासन ही दे रही हो कि सावित्री राजी हो जायगी, राजी । होगी यह ठीक है । परन्तु कब तक राजी होगी …?

तब भी बीच से ही बात काटकर गौरी बाबू ने कहा- -“तब तक मैं प्रतीक्षा करूंगा या हो सका, तो बाग में जाकर कुछ देर टहलूंगा। तुम जाओ और अपना काम करो सब करते-करते तो इतना समय हो गया ।” और चहल-पहल करते-करते वे जो कुर्सी पर बैठ गये थे, उठकर जाने को खड़े हो गये ।

श्रीमती स्वरूपादेवी भी उठकर खड़ी हो गयी और बाहर बरामदे में आई। गौरी बाबू एकदम से बाग की ओर चले गये। वह सावित्री के कमरे की ओर चल पड़ी। रास्ते में वह सोच रही थी कि बात किस तरह की जायेगी ! लड़की जिद पर आ गयी है, न जाने उस छोटे से छोकरे सखीचंद ने कौन-सा मंत्र फूंक दिया है कि उसका भूत इसके दिमाग से उतरता ही नहीं। जब देखो, तब सखीचंद, सखीचंद | यह सब क्या था, उसकी समझ में नहीं था रहा था! सखीचंद — गरीब, भिखमंगा, गंवार, जाहिन । इस तरह के आदमी से कहीं पढ़ी-लिखी लड़कियाँ शादी करती हैं ? एक तो सविता बेवकूफ निकली, जिसने ऐसी गलती की। आज वह सुख से थोड़े ही होगी ! यदि वह आज एक बैरिस्टर की पत्नी होती, तो मोटरों में घूमती तथा शान के साथ किसी बंगले की रानी बनकर बुलबुल की भांति चहकती । और वही भूत आज सावित्री पर भी सवार दिखाई दे रहा था।

श्रीमती स्वरूपादेवी को कहीं भी इसका निदान दिखाई नहीं दिया। फिर भी वह सावित्री के कमरे की ओर बढ़ी जा रही थी बढ़ी जा रही थी, लेकिन वह सोच नहीं पायी थी कि उसको क्या करना होगा। यह प्रथम अवसर नहीं था, जब श्रीमती स्वरूपादेवी सावित्री को समझाने जा रही हो । वह कई बार इसको प्यार से, दुलार से तथा धमकाकर भी समझा चुकी थी, परन्तु सावित्री ने कहा था कि मैंने जो एक बार कह दिया सो कह दिया उससे वह मिल कर भी नहीं हट सकती, न डिग सकती !!

इसी सोच-विचार में वह सावित्री के कमरे के पास पहुंच ही गयी। वहां पहुंच कर उसने देखा कि अन्दर से दरवाजा बन्द है । पल्ले से अन्दर का भाग दिखाई देना कठिन था। वह खिड़की के पास गई। खिड़कियां भी बन्द थीं, मगर शीशे से अन्दर का हिस्सा साफ नजर आ रहा था। अपनी आंख को शीशे के नजदीक ले जाकर उसने देखा – अंदर सावित्री औंधी पलंग पर पड़ी है। उसने अनुभव किया कि वह रो रही होगी ! लेकिन कुछ सुगबुगाहट नहीं होती ! तब शायद वह सो गई है। खिड़की से हटकर वह दरवाजे के पास आ गई और दरवाजा खटखटाया “खट ! खट !!! खट !!…

कोई शब्द नहीं ! कोई हरकत नहीं !! केवल निस्तब्धता !

“खट् ! … खट् ! खट् !!! . उसने पुनः दरवाजा खट- खटाया। इस बार की ‘खट खट’ की आवाज से सावित्री सुगबुगाई तथा सिर उठाकर अनुमान लगाया कि आने वाला कौन हो सकता है। तभी श्रीमती स्वरूपादेवी ने पुनः दरवाजा खटखटाया — “खट ! … खट ! ! खट ! ! !

सावित्री ने उठकर दरवाजा खोल दिया और आने वाले व्यक्ति को जो कि उसकी मां हैं, उसने कुछ नहीं कहा। बल्कि एक बार गौर से मां के चेहरे की ओर देखकर वह अपने पलंग पर जाकर चुपचाप बैठ गयी।

” तबियत खराब है क्या ?” श्रीमती स्वरूपादेवी ने प्यार से पूछा और दरवाजे के पास से चलकर सावित्री के पास आ गई, एकदम पास, पलंग के निकट ।

सावित्री पर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ा, क्योंकि वह सिर झुकाकर पूर्ववत ही बैठी रही। यह दूसरा समय था, जब सावित्री किसी को जवाब देने में, या विवादों में भाग लेने में कभी पीछे नहीं हटती थी, वही आज प्रश्न करने पर भी मौन थी । लगता था वह कष्ट की तस्वीर हो, पत्थर की मूर्ति !!

जब से सविता दीदी इस घर से गायब हुई हैं, वह माँ पर अधिक नाराज थी । वह समझ गयी थी कि उस पर रोक लगाकर उसके शरीर और उसकी आत्मा को पिजड़े में बांधकर उसकी मां श्रीमती स्वरूपादेवी ने उसके साथ, उसकी जिन्दगी के साथ खिलवाड़ किया है, मनमानी की है, जिसकी माफी नहीं दी जा सकती, क्षमा नहीं किया जा सकता !! यदि उसकी मां प्रथम बार उस पर रोक नहीं लगाती, तो आज वह भी सविता की भांति सखीचंद के साथ होती । धनी रहती या गरीब, सुख होता या दुख, मगर आत्मा को तो सन्तोष होता, हृदय को तो शांति मिलती !! आज इस तरह किसी की याद में घुल-घुलकर तो न मरती !

“सावित्री ! सावित्री के कुछ न बोलने पर उसकी मां ने कहा ।

सावित्री मौन थी, उस समय ।

“सावित्री ! ….” पुनः श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा सावित्री ने सिर उठाकर अपनी मां की ओर देखा और गुर्राकर बोली – ” क्या है ?’ “

“लगता है, तेरा दिमाग खराब हो गया है ?”

“तुमको क्या है ?” सावित्री ने उसी टोन में जवाब दिया- “मेरा दिमाग खराब है या सही है, तुमको तो कुछ लेना-देना नहीं । तुम तो सुखी हो न ?”

श्रीमती स्वरूपादेवी को सावित्री के ये बोल कड़े लगे। कमाल है, वह बेटी को सुखी रखने तथा खुशी के लिए वह उसको समझा रही है। और बेटी उनके साथ कस रही है। उसकी इच्छा तो हुई कि वह कुछ कड़े शब्द का व्यवहार करें, मगर परिस्थिति अनुकूल नहीं है, समझकर चुप रह गयी। ममता से वह हार गयी थी। फिर भी उसने कहा – ” क्या तुमको यह विश्वास है कि मैंने ही तुम्हारी जन्दगी बर्बाद की है ? …जबकि तुम्हारी जिन्दगी ही कितने दिन की है ?”

‘अब मेरी जिन्दगी क्या बर्बाद करोगी मां ?” सावित्री ने कहा – “जो कुछ तुमको करता था, तुमने किया। तुमने अच्छा जानकर मुझ पर रोक लगायी, मगर मेरे लिए वह बुरा हो गया और दीदी को गैर समझ कर छोड़ दिया, वह उसके लिए शुभकर हो गया। इसीलिए कहा गया है कि बेवकूफ दोस्त से चालाक दुश्मन कहीं अच्छा।” “सवित्री।

“यदि इसके बाद भी तुम्हारी कुछ तमन्नाएं शेष रह गयी हैं, तो उनको भी पूरा कर लो। जो सोचा है, वह भी कर गुजरो ।” सावित्री किसी की परवाह किये बिना ही कहने लगी- ” ताकि तुमको यह अफसोस न रहे कि तुमने कुछ किया ही नहीं ।”

‘सखीचंद को तू नहीं भूल सकती ?”

“नहीं, कभी नहीं। जीवन भर नहीं !!” सावित्री ने कड़क कर कहा- तुम जब तक जिन्दा रहोगी, मैं उसको नहीं भूल सकती।”

श्रीमती स्वरूपादेवी को अपनी सन्तान से यह सब सुनना गवारा नही था । उसकी आंखें छलछला आई । उसने पूछा- “उसी गंवार छोकरे के लिए तू अभी तक तपस्या कर रही है ?”

“हाँ ।” सावित्री ने उत्तर दिया- “और शायद जीवन भर करती रहूंगी, तपस्या उसके लिए। यदि जीवन में मेरी शादी किसी के साथ होगी तो उसी गंवार छोकरे के साथ, वरना अर्थी तो किसी दिन निकलेगी ही ।” और उसकी भी आंखों में पानी भर आया।

सावित्री का प्यार, स्वच्छ प्रेम एवं दृढ़ प्रतिज्ञा देख श्रीमती स्वरूपादेवी को भी काफी दुख हुआ। मगर व्यवहारिक रूप से सावित्री की पत्नी बन ही नहीं सकती थी । सविता गई थी। दोनों का साथ रहना हास्यास्पद बात होगी। सावित्री का इसी तरह की बात पर एकदम से अड़े रहना व्यहारिक ना लगा श्रीनतुबस्वरूपादेवी को । उन्होंने नरमी से कहा- “सावित्री बेटी ! किसी बात पर एकदम से दृढ़ हो जाना उचित नहीं। कम से कम तथ्यों पर तो गौर करना चाहिए कि इस बात का असर भविष्य पर क्या पड़ेगा।”

“भविष्य पर पड़ेगा तो भविष्य बतायेगा ।” सावित्री, बोली- “जब वर्तमान में ही में मिट रही हूँ, मेरा जीवन मिट रहा है, तब भविष्य की चिन्ता कौन करे ? “

खीझकर श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा- “क्या तू सविता की saut बनेगी ?”

“इसकी चिन्ता तुमको नहीं करनी चाहिए ।” सावित्री का मिज़ाज आपे में नहीं था। उसका क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया था। वह कहने लगी- “सविता की मैं सौत बनूंगी या सविता मेरी सौत बनेगी, इसका नफा-नुकसान हम दोनों बहनों को होगा, तुमको नहीं ।”

श्रीमती स्वरूपादेवी सावित्री के जवाब से मां होते हुए भी निरुत्तर होती जा रही थी। तब भी उसने कहा – “यदि सविता के कहने से वह गंवार छोकरा इन्कार कर दे कि सावित्री को नहीं अपनायेगा, ऐसी स्थिति में तुम क्या कर सकती हो है”

“तब मैं शादी करने की लालसा ही छोड़ दूंगी।

“शादी करने की लालसा श्रीमती स्वरूपादेवो ने कहा, “क्या मतलब ?”

“जीवन भर कुंवारी ही रहूंगी।” सावित्री बोली – “और यह याद रखो कि मैं सविता की भाँति चुपके से पेश नहीं आऊंगी। हाँ, यदि कहीं वह गंवार छोकरा नजर आ जाए, तो मैं भी उसी के साथ भाग जाने की चेष्टा में रहूंगी। उस समय मैं किसी की परवाह नहीं कर सकती ।”

सावित्री के प्रत्येक जवाब से उसकी मां श्रीमती स्वरूपादेवी का क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। अतः कुछ कड़ाई से उसने पूछा- “अपने पिता की नाक कटवाना चाहती है तू ? ‘

“यह सब तो अपनी संतानों को बेवकूफ बनाने अथवा फंसाने का केवल एक ढोंगमात्र है, ।” सावित्री कहने लगी- “जब संतानों की इच्छा के प्रतिकूल माता-पिता काम करते हैं, तब वे यह क्यों नहीं सोचते कि इससे उनकी सन्तानों की नाक कटती है या नहीं। और जब सन्तान कुछ करती है या करने पर उतारू हो जाती है, तो मातापिता की नाक कट जाती है। बलि का बकरा आज कोई भी नहीं बन सकता। मनमानी करने का युग लद गया। आज जो भी करना चाहे, यदि सबकी सहमति है या सबका सहयोग है तो ठीक है, वरना वह काम कभी नहीं हो सकता। पहले माता- पिता हमेशा सन्तानों के दिल की बातें करते थे, तभी सन्तान उन की इज्जत करती थी, लेकिन आज के माता-पिता अपनी बात रख रहे हैं। ” ….

श्रीमती स्वरूपादेवी सुन रही थी

सावित्री ने अपना कहना जारी रखा – “तुमने मेरी तरह सविता दीदी को क्यों नहीं रोका ? मेरे ऊपर ही दबाव क्यों दिया? मुझको ही पिजड़े में बन्द क्यों किया ? इसलिए न, कि दीदी ने तुम्हारी कोख से जन्म नहीं लिया है। अच्छा होता, यदि में भी कोख से पैदा न होती । तो मैं भी आज वही करती, जो सविता दीदी ने किया है और मैं सुख से रहती, खुश रहती !! “

 “सावित्री ! …”

“इस तरह डराने धमकाने या चिल्लाने से सावित्री तुम्हारे कहने पर नहीं आयेगी । मैं अब पूरी घाघ हो चुकी हूँ। एक साल तक सारे सुखों को त्याग दिया है, मैंने।”

श्रीमती स्वरूपादेवी बोली “सविता ने तो लाज और डर दोनों छोड़ दिया है।”

सावित्री वहां से उठकर खिड़की के पास आई और बाहर देखा। बाहर कोलाहल मचा हुआ था।

सावित्री ने कहा – ” उस वक्त में भी डर और लाज छोड़ देती।”

उसके इतना कहते ही श्रीमती स्वरूपादेवी ने सावित्री की ओर गौर से देखा – उसका चेहरा इधर नहीं होने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था। पास जाती हुई बोली “सावित्री ! मां होने के नाते मैं सब कुछ सह रही हूं । टू जो कुछ भी कह रही है, मैं सुनकर भी चुप हूँ, बर्दाश्त कर रही हूं । मेरी समझ में नहीं आता कि तू इस तरह की बेकार की जिद पर क्यों अड़ी हैं ? जरा सोचने की बात है कि तू एक गंवार, अशिक्षित आदमी को चाहती है। यह हृदय की पुकार है, तेरे दिल की सच्चाई है। फिर भी समाज या दुनिया की ओर भी तो देखना चाहिए ! लोग जो सुनेंगे, तो यही कहेंगे कि जज साहब की पढ़ी-लिखी पुत्री सावित्री एक गवार युवक के लिए बैरिस्टर तक से रिश्ता करने पर राजी नहीं हुई। किसकी जगहंसाई होगी, कम-से-कम तुझे यह भी तो सोचना चाहिए।”

मुंह फेरे बिना ही सावित्री ने कहा- “मैं सब कुछ सोच चुकी।”

श्रीमती स्वरूपादेवी मौन रह गयी ।

सावित्री फिर कहने लगी- ‘यह बात सही है कि मेरी जिद्द को लोग अच्छा न कहकर बुरा ही कहेंगे और लोग हमको पागल या मूर्ख समझेंगे। मगर यह सब जो मैं कह रही हूँ, वह तुम्हारे लिए।”

श्रीमती स्वरूपादेवी ने अचरज से उसकी ओर अपनी आंखें तरेर कर देखा। लेकिन सुन रही थी, चुपचाप । सुन रही थी, जो सावित्री कह रही थी।

“मैं ही दोषी ठहराई जाऊँगी।” सावित्री कह रही थी- “मगर मेरे सामने किसी के कहने की हिम्मत न होगी। जो कुछ भी बाहर होगा, उसका असर तुम पर पड़ेगा और तुमको भी मैं अपनी ही भांति चिन्ताग्रस्त देखना चाहती हूं। मेरी बदनामियों को लेकर जबकि मैं ऐसा नहीं समझती, तुम घुल-घुलकर मरो, यही मैं चाहती हूँ ।”

श्रीमती स्वरूपादेवी एकदम से अवाक् रही। यह क्या ? तो सावित्री उससे बदला ले रही है ? बदला लेने का यह कैसा रूप ? स्वयं को मिटाकर दूसरों को जलाना ही बदला है। यह भयंकर बदला है ओह ! उसने ठीक नहीं किया। इससे तो यही अच्छा था कि वह भी सावित्री पर रोक नहीं लगाती और सविता के साथ यह भी कहीं चली जाती कम-से-कम यह दिन तो कभी न देखने पड़ते । कहा – “क्या बरिस्टर से शादी नहीं करेगी ?”

 “नहीं।”

“उस गंवार सखीचंद से ही शादी करेगी ?”

 “जब एक बार कह दिया है कि मैं उसी गंवार और अशिक्षित युवक के साथ ही शादी करूंगी, तब तुम बारम्बार एसा क्यों पूछ रही हो?” सावित्री ने झुंझलाकर कहा ।

 इस पर भी शांतभाव से ही श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा- “तेरे कहीं ये विचार तेरे पिता को मालूम हों, तो तेरी चमड़ी उधेड़ लेंगे। इस पर भी कभी तूने सोचा है ?”

“तुम ज्यादा उनको मालूम है मेरी कहानी ।” सावित्री ने बाहर थूक कर कहा – “तुम्हारी कहानी उनको नहीं मालूम है, यह सही है । फिर चमड़ी उधेड़ने की बातें कहने को हैं, करने की नही ।”

“तेरा अन्तिम निर्णय क्या है ?”

“मैं बार-बार नहीं जवाब देती।”

“एक बार और कह तो ?” श्रीमती स्वरूपादेवी ने कहा ।

इस बार सावित्री ने घूमकर अपनी मां की ओर देखा और चेहरे की ओर गौर देने पर समझ गई कि इस शरीर में सन्तानों के प्रति ममता नहीं है, दया नहीं है। असल में बड़े घरों के माता-पिता मन में बच्चों के प्रति अधिक प्यार नहीं होता। बड़प्पन का नशा उनको इस दुलार से अलग रखता है। कहा-“यदि शादी होगी तो उसी गंवार छोकरे के साथ, जिसके साथ तुम डाह करती हो, वर्ना जीवन भर मैं कुंवारी ही रहूंगी और यह मी सुन लो, दुनिया की कोई भी शक्ति मुझे मेरे रास्ते से विचलित नहीं कर सकती । “

इतना सुनने के बाद श्रीमती स्वरूपादेवी दरवाजे की ओर मुड़ी और बाहर जाने के दरम्यान कहने लगी- “मैं तेरे पिता से जाकर कह देती है कि……”

सावित्री बीच में ही बोल उठी- “पिता से ही क्यों, तुम मेरे भगवान से भी जाकर कह सकती हो।”

उसकी मां अपने पति के कमरे की ओर बढ़ी। अभी वह पहुँच भी नहीं सकी थी कि एक टैक्सी को फाटक के अन्दर घुसते हुए देखा । देखा और देखते ही पहचान गयी कि चक्रवर्ती साहब आ गये। टैक्सी के खड़े होते ही चक्रवर्ती साहब पहले उतरे । बाद में सविता अपनी बच्ची को गोद में लेकर उतरी। तब तक माली मोटर के पास पहुंचकर सामान उतार रहा था ।

श्रीमती स्वरूपादेवी वहां से पति के कमरे में पहुंची। उस समय वे चहलकदमी नहीं कर रहे थे। वे एक कुर्सी पर शांत बैठे थे और उनका सिर झुका हुआ था।

उसी वक्त चक्रवर्ती साहब ने अन्दर प्रवेश कर कहा- “प्रणाम सरकार !”

गौरी बाबू ने सिर उठाकर देखा – “दोनों आ गये ?” बात समाप्त होते ही सविता ने वहाँ पहुंच कर पिता के पैर स्पर्श किये।

“तुम मेरे पांव छूने लायक नहीं हो, सविता !”

और न्यायाधीश महाशय की आंखें भी डबडबा आयीं, भर आयी !!

सविता ने इसकी परवाह न की। उसने अपनी बच्ची को आगे बढ़ाते हुए कहा- “अपने नाना के पैर छू, मेरी बच्ची ।” और उसने बच्ची को उनके पैरों के पास ही जमीन पर रख दिया और स्वयं दो कदम पीछे हट गयी।

श्रीमती स्वरूपादेवी ने गौर से सविता की ओर देखकर कहा- “गलती आदमी से ही होती है और जब यह पांव पर गिर गई है, तब तो…”

गौरी बाबू की आंखों में आंसू आ गये, जो बहने ही वाले थे।

सावित्री भी वहां पहुंच गयी और जमीन पर से बच्ची को अपनी गोद में उठाते हुए बोली–“दीदी, चलो मेरे कमरे में।” वह सविता का एक हाथ पकड़ वह वहां से अपने कमरे की ओर ले गयी ।

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