चैप्टर 10 बदनाम गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 10 Badnaam Gulshan Nanda Novel Read Online
Chapter 10 Badnaam Gulshan Nanda Novel
सविता का पता लगाने में गौरी बाबू ने अपनी ताकत लगा दी।
चक्रवर्ती बाबू ने पता लगाया, छानबीन की तो सारी स्थिति साफ हो गयी। उन्हें यह भी पता लग गया कि शाम को सात बजे के लगभग सखीचंद बिना मालिक से कहे एक घंटे के लिए कहीं गया था। एक बार वह और इसी तरह बिना कहे एक-डेढ़ घन्टे के लिए दुकान से गायब था। जिस रात से सविता गायब थी, उसी रात से सखीचंद भी गायब है। सखीचंद ने मालिक से साफ-साफ कह दिया था कि अब वह यहाँ कभी काम नहीं करेगा। रात को वह कहीं अन्यत्र दूसरे देश में चला जाएगा।”
चक्रवर्ती बाबू ने सारी रिपोर्ट गौरी बाबू को दे दी थी । उस दिन तो गौरी बाबू चुप रह गए। दूसरे दिन फिर चक्रवर्ती बाबू को बुलाया और राय सलाह की । न्यायाधीश महोदय की राय थी कि इस केस को पुलिस में दे दिया जाए, शायद कहीं उनका पता लग जाए। सविता की याद वे भूल नहीं पाते थे। किसी भी कीमत पर वे सविता को देखना चाहते थे, उनका दिल रह-रहकर यह जान कर कांप जाता था कि अब वे कभी सविता को नहीं देख सकेंगे, क्योंकि वह भाग कर गई है, अतः वह स्वतः यहाँ लौट कर नहीं आ सकती ।
चक्रवर्ती बाबू का तर्क था कि पुलिस में मामला देने पर खानदान पर आंच आने की आशंका है। सभी लोग कहेंगे कि जज महोदय की लड़की भाग गयी ।
अन्त में काफी विचार-विमर्श के बाद यह तय किया गया कि मामला पुलिस में न दिया जाए । यदि संभव हो, तो पुलिस से यही मदद ली जा सकती है । चक्रवर्ती बाबू ने स्वयं पता लगाने का विचार प्रकट किया। इससे गौरी बाबू को काफी आशा बंधी । फिर भी उनका हृदय गवाही नहीं देता था कि अब जीवन में कभी सविता से भेंट भी हो सकेगी। उनका हृदय सविता को प्यार करता था। उनका वात्सल्य उसको अपनी पुत्री समझता था, उसको देखना चाहता था ! ! !
सविता के जाने के बाद से गौरी बाबू काफी उदास रहने लगे, कई बार उनकी पत्नी श्रीमती स्वरूपादेवी ने उन्हें समझाने की चेष्टा की। परन्तु वह बात को समझ जाते तथा कहते – “तुम यही न कहोगी कि सविता ने हमारे हित में अच्छा नहीं किया, तो हम उसके लिए क्यों मरें ? यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन | किसी आत्मीय स्वजन की मृत्यु के बाद लोग उस घर वालों को यह कहकर समझाते हैं कि एक दिन सभी को इस दुनिया से उठ जाना है, परन्तु समझाने वाले पर यही घटित होता है, तो वह अपना होश हवास खो बैठता है। मैं स्वतः सविता को भूलने की चेष्टा में हैं, मगर दिल नहीं मानता, हृदय नहीं मानता !!! ” इतना सुनने के बाद श्रीमती स्वरूपादेवी कुछ नहीं कह पाती और गौरी बाबू उसकी याद में घुलते रहे, भुनते रहे, जलते रहे !!!
चक्रवर्ती साहब ने सविता का पता लगाने में काफी मेहनत की। कभी दिल्ली, कभी कलकत्ता, कभी बम्बई, कभी मद्रास, देश के प्रत्येक बड़े शहर को छान मारा, परन्तु उनका कहीं पता नहीं चल सका। चक्रवर्ती साहब जब लौट कर आते और उदास चेहरा लिये गौरी बाबू के सामने जाते, तो चक्रवर्ती साहब का चेहरा देखते ही गौरी बाबू उदास हो जाते और कहते – “उसका कहीं पता नहीं चला । खैर कोशिश कीजिये ।” और चक्रवर्ती बाबू दूसरे शहर में जाने की तैयारी में लग जाते ।
इसी तरह समय की गति आगे बढ़ती गई। एक माह बीत गया, दूसरा आया। वह भी समाप्त हुआ, तीसरा आया । चौथा, पांचवां और छठा भी बीत गया। एक साल बाद उन्हें पता चला कि एक ऐसा ही छोटा परिवार जोधपुर में बसा है, किंतु पति-पत्नी के एक वर्ष की एक बालिका भी है। बालिका की बात पर गौरी बाबू को अचरज भी हुआ। कभी विश्वास होता कि नहीं, वह सविता नहीं हो सकती । कभी हृदय गवाही देता कि हो सकता है सविता ने एक बच्ची को जन्मा हो ।
मन में वाद-विवाद समाप्त कर उन्होंने चक्रवर्ती साहब को वहां भेजने का निश्चय किया। कचहरी से दोनों के नाम वारंट कटवाया गया और वारंट के साथ चक्रवर्ती साहब जोधपुर के लिए रवाना हो गये। वारंट के साथ न्यायाधीश महोदय का एक पत्र भी था, जो वहां की पुलिस के नाम या ।
जोधपुर पहुँचकर चक्रवर्ती साहब वहां के एस० पी० से मिले और न्यायाधीश महाशय का पत्र दिया। साथ ही उन्होंने सारी स्थिति का वर्णन भी किया। एस० पी० साहब से इन्सपेक्टर को बुलाकर नजदीक के थाने में साथ ही भेजा और हिदायत की कि सारा काम आज ही उनकी इच्छानुसार होना चाहिए।
पुलिस इन्सपेक्टर के साथ चक्रवर्ती महाशय थाना गये। थाने- दार ने चक्रवर्ती महाशय से कहा- “आप यहीं आराम करें। तब तक में उनको खबर भिजवा देता हूँ। हम लोग शाम को चलेंगे।”
“बहुत अच्छा !” और चक्रवर्ती साहब ने आराम करना उचित समझा और थानेदार ने एक सिपाही को समझा-बुझाकर उनके पास भेज दिया।
नियत समय वहां पहुंचा। सखीचंद अपनी दुकान पर बैठा काम कर रहा था और भीतर दरवाजे के पास सविता बंटी अपनी एक मात्र बच्ची को दूध पिला रही थी और सखीचंद की और प्यार भरी नजरों से देख रही थी।
दोनों सुखी थे। दुकान खोली थी, सखीचंद ने। तब से उसको फुर्सत नहीं मिलती थी। सविता के कहने पर एक लड़के को रख लिया था उसने। उसके हाथ की बनाई वस्तुए बाजार में नहीं पहुंच पाती थीं। बम्बई के एक व्यापारी ने सभी वस्तुओं की खरीद का ठेका ले लिया था, अतः अच्छी आमदनी हो जाती थी, सखीचंद को । सविता के जो गहने बिक गए थे, वह नये बन गए । दोनों का प्यार पूर्ववत था, अतः दोनों सुखी थे, खुशी ये ! !
“क्या आपका ही नाम सखीचंद है ?”
सखीचंद अचरज से मर गया। जल्दीबाजी में उसे यह नहीं सूझा कि झूठ बोल दे । उसने कहा- “जी ! मेरा ही नाम सखीचंद है । क्या बात है ?” और वह उठकर बाहर आ गया।
“कोई खास बात नहीं है ।” सिपाही ने कहा “बिहार के शाहाबाद के किसी न्यायाधीश महाशय के कहने पर आपका पता लगाने कोई बी० एम० चक्रवर्ती नाम के एक आदमी आये हैं।”
“चक्रवर्ती.” कहते-कहते अटक गया जैसे सखीचंद।
उसे याद नहीं आ रहा था कि यह चक्रवर्ती साहब कौन हो सकते हैं।
उसी समय भीतर से सविता ने कहा- “जी हाँ ! मैं चक्रवर्ती साहब को पहचानती हूँ। वे कब आ रहे हैं, यहां ?”
सिपाही ने अन्दर देखने की चेष्टा की – “पुलिस अफसर के साथ शायद शाम को आएं।”
“कुछ संदेश भी है, उनका क्या ?” तभी सखीचंद ने पूछा ।
“कोई खास संदेश तो नहीं है।” सिपाही ने कहा- “शाम को दोनों आदमी घर ही पर रहियेगा, यही उन्होंने कहा है ।’ “
सखीचंद मन-ही-मन बहुत ज्यादा डर गया था अतः घबराहट के लक्षण उसके चेहरे पर झलकने लगे थे। तब भी साहस बटोर कर उसने कहा – “जी, अच्छी बात है। इसके लिए आपका धन्यवाद !’
और सिपाही वापस चला गया।
सिपाही को वहां से चला गया देख, सखीचंद ने झटपट अपनी दुकान बंद की और घर में चला गया। दरवाजे पर से उठ कर सविता भी आंगन में पहुंची। सविता के वहाँ पहुंचते ही सखीचंद ने पूछा- “अब क्या होगा, सविता ? “
“क्या कहूँ ?” सविता ने अपना माथा पकड़ लिया और वहीं जमीन पर बैठ गयी। बोली- ” कुछ समझ में नहीं आता !”
“कुछ-न-कुछ करना ही होगा, अब ।” सखीचंद भी सविता के पास ही बैठ गया और उनकी ओर अपलक ताकता हुआ कहने लगा – “पिताजी को सब कुछ ज्ञात हो गया है। एक साल बाद भी जब हम पारिवारिक स्थिति में आ गये हैं, हम लोगों का पता लगवा लिया है। उनका क्रोध अब तक शांत नहीं हुआ है। सामने जाने पर क्रोधवश कुछ नयी बातें हो सकती हैं। अतः जो कुछ करना हो, जल्दी और सोच समझ कर करना होगा, वर्ना हमको जीवन भर पछताना ही पड़ेगा। हाथ कुछ आएगा नहीं ।”
सविता भी भयभीत हो गयी थी। उसे इस तरह की आशा न थी। उन्हें एक बच्ची होने के साथ ही यह भी विश्वास हो गया था कि व उनका पता किसी को नहीं लग सकेगा, क्योंकि वे आरा से बहुत दूरी पर थे और एक ऐसे शहर में थे, जहाँ कोई सोच भी नहीं सकता था। मगर रह-रहकर कभी-कभी सविता को डर-सा महसूस होता । मन का एक कोना फुफकारता पत्थर की कारीगरी करने के कारण सखीचंद की टोह में शायद कोई जयपुर, जोधपुर, राजस्थान इत्यादि शहरों में आ सकता है। क्योंकि दोनों एक ही साथ, एक ही दिन घर से निकले थे और रामपूजन एवं माताजी को मालूम था ही कि सविता सखीचंद को प्यार करती है । सविता सोच रही थी कि यदि सखीचंद पिताजी के सामने पड़ जायेगा, तो उनका क्रोध शायद और भी बढ़ सकता है, क्योंकि सखीचंद उनका माली रह चुका था। यदि ऐसी बात हुई, तो उसको गोली भी मार सकते हैं। कोई यह नहीं चाहता कि पुत्री किसी नीच और अनाड़ी के साथ सम्पर्क रखे। काफी सोचने-विचारने के बाद उसने कहा – ” सरल उपाय तो यही है कि आप यहां से कहीं अन्यत्र चले जाएं।’
“और तुम पिताजी के सामने पड़ो ?” व्यंग्य मिश्रित शब्दों में सखीचंद ने कटाक्ष किया।
सविता ने इसका कुछ भी अनुभव नहीं किया। वह कहने लगी, “इसके अलावा चारा ही क्या है ? यदि आप पिताजी के समक्ष पड़ते हैं, तो अनर्थ होने की संभावना है और मैं स्वयं जाती हूँ, तो वे कुछ बातें कह के ही रह जायेंगे। उनका हाथ मेरे ऊपर उठ नहीं सकता। वे चाहकर भी बुरा-मला नहीं कह सकते। आखिर उन्होंने मुझे पाला-पोसा जो है ।”
सखीचंद को ऐसा करना गवारा नहीं हुया । वह नहीं चाहता था कि सविता अकेली ही पिताजी के सामने जाए। वह बोला- “तो तुम अकेली ही उनके पास जाओगी ?”
“मैं उनके पास जा कहां रही हूँ ?” सविता ने कहा – “यहां चक्रवर्ती साहब शाम को आ रहे हैं। साथ में पुलिस का एक अफसर भी होगा। तब आप क्या समझते हैं कि बिना उचित कार्यवाई किये वे यहां आए हैं ?”
“उचित कार्यवाई में बहुत-सी बातें हो सकती हैं ।” सखीचंद कहने लगा, “फिर भी उन्होंने कुछ तो किया ही होगा, जिस पर हम टाल-मटोल न कर सकें और सीधे से वापस हो जायें ।’
सविता चुप रह गयी। उसने कुछ कहा नहीं। केवल लड़की को प्यार भरी नजरों से देखती हुई न जाने क्या-क्या सोचती रही। तभी सखी चंद ने कहा – “तुम्हारा अकेली जाना मुझे पसंद नहीं ।”
“और आपका उनके समक्ष पड़ना, महाकाल को बुलाने के समान है ।” सविता ने तपाक से उत्तर विया – “आपको किसी भी रूप में भी उनके सामने पड़ना ही नहीं है ।”
“यदि इम दोनों एक साथ ही उनके समक्ष जायें तत्र ?” सखी- चंद बोला – “जो कुछ होगा अपनी आंखों के सामने ही तो होगा और उससे हमें सन्तोष होगा ।”
“सन्तोष तो होगा ही ।” सविता ने झुंझला कर कहा- “आप यह क्यों नहीं सोचते कि मैं उनकी सन्तान हूं। मेरा वे कुछ नहीं कर सकते । यदि करना भी चाहेंगे, तो ममता रोक लेगी, वात्सल्य वैसा नहीं करने देगा और आप अभी तक उनके लिए वही नौकर है, माली ! फिर कहीं आपके साथ…” और सविता मौन हो गयी।
“परिणाम चाहे जो भी हो, मैं तुम्हें अकेली नहीं जाने दूगा ।”
“और यह किसी भी रूप में नहीं हो सकता ।” सविता का स्वर भी दृढ़ था।
“नहीं। तो यह भी नहीं हो सकता । अपनी पत्नी और संतान को छोड़कर किसी डर से मर्द यदि भागता है, तो वह कायर कहलाता है ।” सखीचंद ने सविता को समझाने का दूसरा ही रास्ता अपनाना चाहा।
” कायर, गीदड़ या शेर की बात यहां नहीं है। यहां जरूरत है समझदारी की, होशियारी की, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ।” सविता बोली – “जिद्द करने से फायदा न होगा ।”
“मैं तुम्हें छोड़कर स्वर्ग में भी नहीं जा सकता।”
“वह तो एक दिन जाना ही होगा और सभी को जाना होगा” सविता ने कहा- ” आप प्यार, मोह और बंधन वश ऐसा कह रहे हैं। मगर इस कहने का अर्थ तब कुछ नहीं रह जाता, जब स्वर्ग का दूत प्राण लेने इस धरती पर आ जाता है। उस समय सभी इच्छाएं, सभी वादे धरे के धरे ही रह जाते हैं। उस वक्त अपना-पराया कोई नहीं पूछता । सब कुछ इसी धरती पर छोड़कर जाना ही होता है।”
“चाहे जो भी हो, तुम अकेली उनके पास नहीं जाओगी । ” सखीचंद ने कहा – ” मैं तुम्हें जाने ही नहीं दूंगा।”
सखीचंद की जिद्द भरी बातों से सविता को रोष हो गया। वह आवेश में कहने लगी- “तब आप चाहते हैं कि अपनी आंखों से आपकी तड़पती हुई लाश देखूं ? आप यह चाहते हैं कि मैं विधवा बनकर जीवन भर तड़पती रहूँ ? अपने सिन्दूर को अपने ही हाथों पोंछकर साफ कर दूं, इस लड़की का सहारा छीन लू…?”
“बस करो, सविता ! बस करो।” सखीचंद ने अपने माथे पर हाथ धर लिया – ” कभी स्वप्न में भी मैंने यह नहीं सोचा था कि इस तरह का समय भी हमारे सामने आ सकता है।”
” जो वक्त आना होता है, वह आता ही है। उसे कोई रोक नहीं सकता और किसी के सोचने-विचारने की वह परवाह भी नहीं करता ।” सविता बोली – “अक्लमन्दी यही है कि वक्त से कुछ फायदा उठाया जाए । नहीं तो कुछ दिनों बाद वह चला ही जायेगा और ऐसी परिस्थिति कभी नहीं आ सकती ।”
सखीचंद चुप था।
सविता ने ही मौनता भंग की “क्या सोच रहे हैं, अब?”
माथा पकड़कर सोचने का समय नहीं है, जो कुछ निर्णय करना हो, कीजिये। यदि कहीं चक्रवर्ती साहब आ गए, तो कुछ नहीं होगा, सब धरा का धरा ही रह जायेगा ।”
“क्या करूं, मैं ?” सखीचंद ने नरमी से कहा- “तुम्हें छोड़करयहाँ से जाने को जी नहीं चाहता।”
सखीचंद के इस वाक्य से सविता भी दुखी हुई। उसे भी अफसोस था कि आज उसे अपने पति को छोड़कर अकेली पिता के पास जाना पड़ रहा है। उसको इस बात की ग्लानि नहीं थी कि सखीचंद साथ वह भागकर क्यों आई, बल्कि इस बात का डर था कि पति के अलग होने के बाद क्या होगा ? फिर सखीचंद कभी मिल सकेगा या नहीं। यदि पिताजी नहीं चाहेंगे, तब क्या हो सकता है ! उनके आगे सविता की कुछ भी नहीं चल सकती । उसने कहा- “मैंने औरत होकर जब अपने कोमल सीने पर विशाल पत्थर रख लिया है, तब आप तो एक पुरुष ही है।” सविता ने सखीचंद का एक हाथ पकड़ लिया – “उठिये, चलिये। जो लेना-देना है, ले-दे लीजिए और जल्दी यहां से चले जाइये। इतनी दूर चले जाइए, जहाँ आपका कोई पता न पा सके ।”
सविता थर-थर कांप रही थी, उसका गला बैठ गया था। हृदय टूटता हुआ जान पड़ा, उसका ।
“कहाँ जाऊंगा, मैं ?” सखीचंद ने कहा और बच्ची को गोद में लेता हुआ बोला – ‘ ‘ अब इस बच्ची को कौन प्यार करेगा । और मुझे यह अब कहाँ मिल सकती है। मेरी बच्ची ” और उसने बच्ची को छाती से लगा लिया । सखीचंद का गला भर भाया था। आंखों में पानी की बूंदें तैरने लगी थीं ।
सविता ने साड़ी के छोर से अपनी आंखें पोंछीं और बोली- ” देर न कीजिए। मुझे डर लग रहा है कि कहीं चक्रवर्ती साहब न आ जाये ।”
“अच्छा है, चक्रवर्ती साहब अभी आ जाये ।” सखीचंद ने भर्रायी आवाज में कहा – “इस बिछुड़न से तो बेहतर है कि पिता जी के हाथों मर जाना । शरीर तो नष्ट हो जायेगा, मगर आत्मा को तो सन्तोष होगा ।”
“देर न कीजिये।” प्रार्थना भरे स्वर में सविता ने पति से कहा और बच्ची को अपनी गोद में लेने के लिए हाथ बढ़ाया।
सखीचंद ने सविता की ओर देखा और बोला- “बच्ची के साथ-साथ मेरी ममता, वात्सल्य और स्नेह को मत बटोरना, सविता !”
“आप अपना दिल छोटा न करें।” सविता ने कहा- “भगवान ने चाहा तो हम जल्दी आपस में मिलेंगे।”
“आजकल भगवान कहीं नहीं है, सविता ।” सखीचंद का हृदय बैठता जा रहा था – “इस धरती पर जो है, सो आदम ही है। वह जो चाहेगा, वही होगा । आज इतनी मंहगाई है कि आदमी मर रहा है, तब भगवान कहाँ है । आज पुत्री पिता से, पत्नी पति से, पिता पुत्री से और पति पत्नी से अलग हो रहा है तो भगवान कहां है ?”
“बच्ची मुझे दीजिए और अन्दर चलिए ।” और बच्ची की ओर हाथ बढ़ाने के साथ सविता ने प्यासी नजरों से अपने पति की ओर देखा, जिसके साथ वह एक साल तक रह चुकी थी।
सखीचंद ने अपनी भर आई। आंखों से सविता की ओर देखा और बच्ची को उसकी गोद में दे दिया । “चलिए ।”
न चाहते हुए भी सखीचंद को कमरे में जाना पड़ा। वहां पहुंचते ही सविता ने वक्से का ताला खोला और नोटों का बंडल सामने लाकर रख दिया- “इन्हें आप अच्छी तरह रख लीजिए ।”
सखीचंद ने नोटों को देखा और सविता की ओर देखकर कहने लगा- ” “परिवार को त्यागने के बाद इन नोटों को मैं प्यार कर सकूंगा।”
“यह कागज के नोट आपको प्यार तो न कर सकेंगे, फिर भी कुछ दिनों तक आपको सुरक्षित रख सकेंगे ।” सविता बोली।
“कुछ अपने पास भी तो रख लो।” सखीचंद ने कहा । “मुझे रुपयों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, शायद ।” सविता कहने लगी- “चक्रवर्ती साहब के आने से निश्चित है कि मैं शाहाबाद जाऊं । तब मैं पैसा क्या करूंगी ?”
“कुछ तो रख लो।” बात रखने के लिए सविता ने उसमें से एक नोट निकालकर अपने हाथ में ले लिया और कहने लगी- “साथ में कुछ कपड़े भी ले लीजिये। बाहर का मामला है, आवश्यकता पड़ ही सकती है । हां, इन मूर्तियों का क्या होगा ?”
“यह बात तो समय पर कहीं, तुमने ।” कुछ क्षण सोचने के बाद सखीचंद ने कहा- “मकान के किराए में मकान मालिक के लिए छोड़ देना और एक पत्र भी दे देना, ताकि उनके आने के बाद उन्हें ज्ञात हो जाए। बड़ा सज्जन था बेचारा बिना कुछ सोचे- समझे ही सारा घर हम लोगों पर छोड़ दिया।” और कपड़ों को इकट्ठा कर एक गठरी बांधने लगा।
सविता अपलक अपने पति को देखती रही।
गठरी बांध चुकने के बाद सखीचंद उठकर खड़ा हो गया । बोला- “तो मुझे जाना ही होगा ?”
“इच्छा तो नहीं होती, पर किया हो क्या जा सकता है ।” और सविता की आंखों से पानी बहने लगा।
“अंत में हिम्मत बांधी सविता ।” सखीचंद ने कहा- ‘ “मैं जल्दी ही मिलूँगा तुमसे ।” और उसने अपनी जन्मी, प्यार की निशानी बच्ची को अपनी गोद में ले लिया तथा चूमता एवं प्यार करता हुआ बाहर दरवाजे तक आया ।
उसके पीछे-पीछे सविता भी थी उदास चेहरा तथा आंखों में नीर लिये हुए। दरवाजे तक आते ही सखीचंद ने प्यार भरी नजरों से सविता की ओर देखा और बच्ची को एक बार पुनः चूम लिया
बच्ची हाथ-पाँव हिला-डुलाकर खेल रही थी। उसे तनिक भी ज्ञान न था कि आज वह अपने पिता से, पिता के प्यार से विलग हो रही है ।
तभी सविता ने धीरे से कहा- “थोड़े दिनों बाद पता लगा लीजियेगा कि मैं यहां हूँ या नहीं। यदि यहाँ हुई तो कोई बात ही नहीं है और यदि न हुई तो आप शाहाबाद चले आइयेगा।”
सखीचंद ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। अब सविता रो पड़ी – “मुझे भूल मत जाईयेगा !”
“ऐसा भी कभी कहा जाता है ?” सखीचंद सविता की आँखों से बाहर आ गए आंसुओं को प्यार से पोंछता हुआ बोला- “पगली ! … जिसके लिए मैंने इतनी साधना की, दिन-रात मेहनत कर एक कला को हासिल किया, उसी को भूलने की बात कर रही हो, तुम ? चांद मिट सकता है। सूर्य मिट सकता है। यहां तक कि सारे तारे भी समाप्त हो जा सकते हैं, परन्तु हमारा प्यार और दृढ़ प्रेम अमर रहेगा ।”
दोनों चुप रह । कोई कुछ कह नहीं रहा था । उसी वक्त सामने से एक काली बिल्ली गुजरी। सविता ने उसको देख लिया । बाली- “मेरा हृदय बैठा जा रहा है।” और बच्ची को अपनी गोद में लेने के लिए उसने हाथ बढ़ाया।
“किसी भ्रम में न पड़ना और न किसी बात की सोच-विचार में ही इस घरोहर शरीर को घुलाना।” और उसने बच्ची को अन्तिम बार चूमकर सविता की गोद में डाल दिया- “मैं जल्दी ही मिलूंगा।”
और अपनी गठरी लेकर सखीचंद एक कदम आगे बढ़ा। मगर न जाने क्या सोचकर वह ठिठक गया। एक हाथ से उसने सविता का बायां हाथ पकड़ा और प्यार से दबा दिया। परन्तु किसी के चेहरे पर खुशी न थी। दोनों की आंखों से आंसुओं की धारा लगातार बह रही थी। दोनों एक-दूसरे को देखते हुए भी चुप थे।
बिछुड़न की अन्तिम घड़ी थी न !
“अच्छा, विदा ।” और सखीचंद वहां से चल दिया। गली के मोड़ पर पहुँचते ही उसने पीछे मुड़कर अपने घर की ओर, अपनी बच्ची की ओर, अपनी प्यारी पत्नी सविता की ओर देखा । सविता भी दरवाजे पर खड़ी उसी की ओर, उसको जाते हुए देख रही थी 1
सखीचंद आंखों से ओझल हो गया।
और सविता वहां खड़ी एकटक तब तक देखती रही, जब तक कि उसका पति आंखों से प्रोझल नहीं हो गया। आंखों से ओझल होते ही वह अंदर चली गई और कमरे में जाकर जार- बेज़ार रोने लगी ।
बच्ची भी रोने लगी, उस समय । उजाला समाप्त होने में अभी देर थी।
विधि का क्या विधान है कि आज उसका पति उससे अलग कर दिया गया। जिस गांव के गंवार और घर के नौकर को पाने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया। माता का अपमान सहा, राम- पूजन की नजरों में गिरी, सभी कुछ तो उसने किया। यहां तक कि बैरिस्टर और धनी पति को त्याग दिया। महान पिता का प्यार, छोटी बहन सावित्री का प्रेम, सब कुछ त्यागकर वह इस पति को पा सकी थी। अन्त में उसने अपने खानदान की इज्जत को भी बलिदान के दांव पर लगा दिया था। अमीर घराने की लड़कियां ऐसा कभी नहीं कर सकती। यदि किसी गरीब को प्यार करेगी, तो जिस्मी भूख मिटाने के लिए, कुछ दिनों तक उसके साथ खेलने के लिए और उसकी आत्मा को कलुषित करने के लिए । अमीर लड़कियां किसी गरीब लड़के के एहसान नहीं मानतीं। उनका प्यार सच्चा नहीं होता ।
उसका विचार इसी उधेड़-बुन में उमड़ रहा था। दिन थोड़ा- सा शेष रह गया था । वह काफी उदास हो गई थी। इस वक्त वह सोच नहीं पा रही थी वह उठकर क्या करे। बच्ची रोते-रोते उसकी गोद में सो गई थी। उसने उसको बिछावन पर सुलाकर ऊपर चादर डाल दी और मन मारकर बैठी रही ।
कुछ देर बाद वह आंगन में आई और आसमान की ओर देखा, आकाश साफ था । कुछ देर देखने के बाद उसे ऐसा पता चला कि सखीचंद उड़ता हुआ चला जा रहा है, बहुत तेजी से । उसका जाना, तेजी से जाना सविता देखती रह गई और उससे देखा नहीं गया, तब उसने अपनी आंखों को अपने हाथों से ढक लिया – “ओह ! किस्मत ने किस-किस तरह का खेल रचा होगा ?”
कुछ देर बाद उसने अपनी आंखें खोलीं और छप्पर की ओर देखा। यहां बैठे दो कबूतर एक-दूसरे से चोंच मिलाकर धरना- अपना प्यार जता रहे थे। सविता का हृदय कसक उठा – ” ऐ भगवान ! क्या मुझे चैन से भी नहीं रहने दोगे ?” श्रौर उसने आंखें बन्द कर लीं।
आंख खोलने के बाद उसने महावीरजी के चबूतरे की ओर देखा । उस पर अभी-अभी जो प्रसाद चढ़ाया गया था, उसको चुहिया नोच-नोचकर खा रही थी। बांध में बंधे झंडे की ओर ऊपर देखा – एक कौवा बैठा ‘कांव-कांव’ की रट लगा रहा था । यह सब उससे देखा नहीं गया और वह आंगन में ‘धम्’ से बैठ गयी।
कुछ देर बाद बाहरी दरवाजे पर किसी के द्वारा दी गयी दस्तक की आवाज उसने सुनी – “धप .! थप !! थप……..!!!”
वह उठकर खड़ी हो गई। उसने अपना आंचल ठीक किया। आंसुओं को साड़ी को छोर से रगड़कर पोंछा । बोली – “कौन ?”
बाहर से पुनः दस्तक की भावाज आई – “थप ! थप ! ! थप ! ! ! “
सविता तब तक खिड़की में चली गयी। पूछा – “कौन ?”
” पुलिस ।” बाहर से आवाज आई ।
‘पुलिस’ शब्द सुनने के बाद भी सविता पर कुछ असर नहीं पड़ा। वैसे पुलिस का नाम सुनते ही एक संदेह उत्पन्न होता है, एक शक पैदा होता है, परन्तु सविता जानती थी कि शाम को पुलिस के साथ उसके पिता के प्राइवेट सचिव जरूर आयेंगे। उसने आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया। पूछा – “क्या बात है ? आप लोग किसे ढूंढ़ रहे हैं ?”
“यदि मैं भूल नहीं रहा हूं तो आपका नाम श्रीमती सविता देवी होना चाहिए।” उसी समय चक्रवर्ती साहब ने सामने आकर सविता के प्रश्न का उत्तर दिया।
“जी हां।” सविता ने कहा- “मेरा नाम सविता देवी ही है ।”
चक्रवर्ती साहब ने कहा- “मुझे तो आप पहचानती ही होंगी?”
“कुछ-कुछ ख्याल आ रहा है कि मैंने आपको कहीं देखा है, किन्तु..”
चक्रवर्ती साहब ने बीच में ही टोक कर कहा – “आपके पिता गौरी बाबू का मैं निजी सचिव हूँ।’
“ओह!” सविता को याद आया – “मैं आपको पहचान गई, आइये, धाप लोग अन्दर आइये।” और आंगन की ओर भाकर दो दरी बिछा दीं और खड़ी रही। चक्रवर्ती, इन्सपेक्टर तथा तीन सिपाही भी आंगन में आए और दरी पर बैठ गए। सविता ने पूछा – “कहिए पिताजी अच्छे तो हैं ?
“जी ।” चक्रवर्ती साहब ने कहा- “आपके ही लिए वे काफी दुखी रहा करते हैं।’
सविता ने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वह अन्दर कमरे में गयी और पांच तस्तरियों में दो-दो मिठाइयां लाकर बोली- “आप लोग जलपान करें।” और वह गिलास में पानी का प्रबन्ध करने लगी ।
चक्रवर्ती महाशय को अचंभा हुआ। क्या यह वही सविता है, जो कभी किसी को पूछती तक न थी ? किसी से भर-मुंह बात तक नहीं करती थी ? हरदम उसके मुंह चाय लगी रहती थी। मगर मेहमानों के लिए चाय का प्रबन्ध कर गांव के अतिथियों की भांति मीठा और ठन्डा जल का इंतज़ाम किया। उसने सोचा- एक साल में सविता एकदम बदल गयी है, इसका चेहरा बदल गया है, इसकी चाल बदल गई है।
जलपान के विषय में ‘ना’ या ‘हां’ कहकर किसी ने बात नहीं बढ़ाई। गिलास में पानी आते ही चक्रवर्ती साहब ने मुंह में एक मिठाई डाल ली । इन्सपेक्टर एवं सिपाहियों ने भी वैसा ही किया ।
गिलास का पानी पीते हुए इन्सपेक्टर ने पूछा – “सखीचंदजी कहीं दिखाई नहीं देते, कहीं गए हैं क्या ?”
पुलिस मतलब की साथी – दाती है। सविता ने सोचा और जवाब दिया- “जी, वे बाहर गए हैं।”
” कब तक लौटेंगे ?”
“कोई ठीक पता नहीं है।” सविता ने उपेक्षा से कहा ।
चक्रवर्ती साहब समझ गये कि सखीचंद को सविता ने रजा-मन्दी से यहां से हटा दिया है, क्योंकि बातों का रुख यही बता रहा था। उन्हें ऐसा विश्वास न था कि सखीचंद नहीं मिलेगा। शायद गौरी बाबू के भय से वह हट गया हो। उनको खबर नहीं भिजवाना चाहिए था। एकाएक यहाँ आ जाना चाहिए था। खैर, यह जानकर उनको सन्तोष हुआ कि सविता, जिसके लिए गौरी बाबू चिन्तित थे और जिसकी खोज के लिए वह शहर शहर की खाक छान रहा था, सुरक्षित मिल गई । यदि यह भी कहीं चली जाती, तब…
इन्सपेक्टर साहब ने चक्रवर्ती की ओर देखा और दोनों का आशय चक्रवतीं साहब समझ गए और समझने के बाद उन्होंने कहा – “कोई बात नहीं है, इन्सपेक्टर साहब, मुझे इनकी ही खास तौर से तलाश थी। इनके वगैरह इनके पिता काफी बेचैन हैं।”
अब पुलिस इन्सपेक्टर ने पहले चक्रवर्ती बाबू की ओर देखा और तब सविता की ओर देखकर कहने लगे “सवितादेवी ! आपको यह सब ज्ञात हो ही गया होगा कि हम यहाँ क्यों आये हैं ? चक्रवर्ती बाबू यदि अकेले ही आपके पास आते, तो हमें कुछ लेना- देना नहीं था। हमारे आने का मतलब कानून का सहारा ही हो सकता है. असल बात यह है कि आपके तथा आपके पति श्री सखीचंद जी के नाम वारंट है । यह वारंट धारा के अनुमंडलाधिकारी की ओर से जारी की गया है। वारंट ही हमारे लिए काफी था, मगर चक्रवर्ती बाबू के जाने से इतना तो साफ हो ही गया है कि हमें इनके अनुसार ही चलना है। यह जैसा कहेंगे, वैसा ही करना है। इसी – लिए मैंने सखीचंद के बारे में पूछा था। यह तो मैं समझ ही गया हूँ कि सखीचंद कहीं चले गए हैं, और वह आपकी रजामंदी से ही गए होगे । मैं उनकी भी खोज सख्ती से करता, परन्तु आपकी इज्जत का भी हमें ख्याल रखना है। खैर, सखीचंदजी न सही, मगर आपको चक्रवर्ती बाबू के साथ स्वेच्छा से आरा जाना होगा ।
यदि आप ऐसा नहीं करेंगी, तो बाध्य होकर मुझे महिला पुलिस का सहारा लेना ही पड़ेगा ।” और उसने सविता की ओर देखा ।
सविता की इच्छा थी कि वह इसका विरोध कर दे, मगर यह जानकर कि यहां कोई गौरी बाबू को उतना नहीं जानते। अतः सारा घूंट पीकर वह बोली – “उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी ।”
“आप अपना सभी सामान यहां आंगन में इकट्ठा कीजिए ।” इन्सपेक्टर साहब ने कहा- “मेरे ये सिपाही भी सामान को बांधने में मदद करेंगे।”
“धन्यवाद !” सविता ने कहा और अन्दर जाकर सामान निकालने लगी। सारा सामान बांधने के बाद सविता ने इन्सपेक्टर से कहा- “घर के मालिक कहीं तीर्थयात्रा पर गए हैं। उनका हमारे पास पांच महीने का मकान किराया बाकी है। दुकान में काफी औजार और कुछ तैयार पत्थर की मूर्तियां रखी हुई हैं, जिनको मकान के किराए में मैं छोड़े जा रही हूँ । कृपया इसका उचित प्रबन्ध कर देंगे, ताकि मकान मालिक के दिल में किसी प्रकार के भाव न उठ सकें ।”
“इसकी चिन्ता आप न करें।”
तब तक एक सिपाही ने आकर खबर दी कि बाहर एक टैक्सी खड़ी है। सामान को पीछे और ऊपर रखा गया और चक्रवर्ती साहब के साथ सविता गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ गई और ड्राइवर के साथ इन्सपेक्टर और सिपाही भी । गाड़ी स्टेशन की ओर दौड़ चली ।
स्टेशन पर पहुंचते ही गाड़ी आ गई। जल्दी से दो टिकिट आरा के लिये गये तथा सिपाहियों की मदद से उनको गाड़ी में बैठाया गया। सारा सामान भी लादा गया । गाड़ी जब छूटी, सविता की आंखों में नीर भर आए। उसे याद आई एक साल पहले की बात, जब वह पहले-पहल यहां आई थी और आज वह सखीचंद को छोड़कर अकेली ही वापस जा रही थी ।
कैसी है यह दुनिया ?”
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