मुक्त पद्मा सचदेव की कहानी | Mukt Padma Sachdev Dogri Story In Hindi

मुक्त पद्मा सचदेव की कहानी, Mukt Padma Sachdev Dogri Story In Hindi, Dogri Kahani 

Mukt Padma Sachdev Dogri Story In Hindi 

Mukt Padma Sachdev Dogri Story In Hindi 

दो कमरों का घर भाँय-भाँय कर रहा था। रसोई के आगे छोटी सी बालकनी में औंधे पड़े बरतनों की तरह ही संध्या दोनों हाथों में चटाई को भींचकर गुच्छू-मूच्छू-सी पड़ी थी। उसके हाथों की टूटी काँच की चूड़ियों के टुकड़े जमीन पर लावारिस लाशों की तरह पड़े हुए थे। कलाई पर जमा खून और खरोंचें देखकर उसे अपनी सोने की चूड़ियाँ फिर याद आ गई। संध्या ने चटाई को हाथों से भींच लिया। उसकी सिसकियाँ फूट पड़ीं। उसकी आँखों की कोर में ठहरी आँसुओं की बूँदें बह निकलीं। उसके तार-तार हुए कपड़े गुजिश्ता रात की कहानी कहने लगे। बारिश अब थम चुकी थी। सिर्फ हवा में उसकी खुशबू थी या चिपचिपाते हुए माहौल में मुँडेरों पर ठहरी बूँदें, पत्तों पर विश्राम करते जलकण और कहीं-कहीं बच्चे की तरह लुढ़क जाने पर टप्प से शोर करता जल। उसे अचेतावस्था में मानों फिर सुनाई दिया–

ठक-ठक-ठक!

उसने अपने होंठ भींचकर चटाई और जोर से पकड़ ली और होंठों से हिकारत के साथ लफ्ज फूटे, “फिर आया होगा हरामी।”

आँसू जोर-जोर से बहने लगे। नाक के द्वार पूरी तरह से बंद थे। सिसकियों से उसकी छाती ऊपर-नीचे हो रही थी। उसे लगा, ठक-ठक फिर हुई है। हिम्मत करके उसने चटाई छोड़कर अपनी दुखती बाँहें फैलाई। कड़-कड़ की आवाज ऐसे हुई जैसे किसी दरख्त की टहनी टूटी हो। दर्द की एक लहर के साथ खरोंचों पर बने निशान खिंचकर बहने लगे। खून-खून, लाल-लाल खून। उसने उन कतरों को देखकर कहा, “माँ, मैं हार गई हूँ। माँ, मैं अपने बेटे से हार गई हूँ।” सुबकते हुए फिर उसने बेमन से कहा, “हाँ माँ, वैसे ही जैसे कभी तुम मुझसे हार गई थीं। वक्त अपना बदला ले रहा है। जानती हो माँ, उसने क्या लिखा है?”

संध्या ने अपनी सुबकी को दुपट्टे के आँचल में ढँकते हुए कहा, “हाँ माँ! हाँ, यही लिखा है उसने। तुम्हारे पप्पू ने यह लिख दिया माँ! सुनोगी? तुम्हारा कलेजा मुँह को आ जाएगा, उस पर हाथ रखो और सुनो। तुम्हारे पप्पू ने कई कुछ लिखने के बाद यह भी लिखा है, “पापा की आदतें बिगाड़ने में तुम्हारा ही हाथ है माँ!”

“सुन रही हो, कितनी बड़ी बात लिख गया तुम्हारा पप्पू। तुम चाहे न कहो, पर मुझे याद हैं। इसकी उम्र की थी, तो मैंने भी तुम्हें यही कहा था। तब मैं कहाँ जानती थी, मेरा बच्चा भी कल मुझसे यही कहेगा।

“अपने वक्त का हर कोई सिकंदर होता है माँ! आनेवाले वक्त से बेखबर, जानेवाली बहार से अनजान, मोड़ पर गिरे पहाड़ से अनभिज्ञ।”

“माँ, इसके भरोसे मैंने इसके बाप का हर जुल्म सहा और तुम्हारी शर्म से माँ! तुम्हारी शर्म और लिहाज के चप्पुओं से मैं वक्त की लहरें पीछे धकेलती रही। मैं जानती थी, अगर पप्पू के बापू के जुल्मों का पता तुम्हें लग गया, तो तुम बचोगी नहीं। तुम्हारे मरने का मुझे दुःख न होता, पर इस बात का दुःख जरूर होता कि तुम वह सब जानकर मरी हो, जिसे छुपाने के लिए मैं यह दुःख बरदाश्त करती रही, नहीं तो मैं बेटे की माँ थी, दो वक्त की रोटी कमा लेती। अपना बेटा भी पाल सकने योग्य थी। अस्पताल का क्वार्टर भी मेरे ही नाम है। क्या सिर पर छत और चूल्हे में आग होने के बाद भी आग में जिंदा रहना जरूरी है। तुम्हारे घर का चूल्हा भी तो तुम्हारे ही दम से चलता था माँ! एक गाय पालकर उसका दूध बेचकर तुम आज इतने बड़े तबेले की मालकिन हो गईं। बचपन में मैं जब तुम्हें गाय का दूध दुहते ही थानेदार के घर लोटा लेकर जाते देखती, तो तुम पर बड़ा गुस्सा आता था। पेट-भर दूध मिलने पर भी मैं वह सारा दूध खुद पी जाना चाहती थी। वह हमारी कपिला गाय का दूध था न! एक बार जब तुम दूध लेकर गई थीं, तब बापू ने मुझे कहा था।

“तुम्हारो माँ ऐसी ही है, उसे अपनों से ज्यादा दूसरों का ध्यान रहता है।” मुझे तुम पर बड़ा गुस्सा आया था, पर यह खयाल नहीं आया कि घर में बापू क्यूँ नहीं आटा लाते, तुम क्यूँ लाती हो। तब मैं सोचती थी जैसे माँ मुझे खिलाती है, वैसे ही उसे बापू को भी खिलाना चाहिए। खिलाने वाली तो माँ ही होती है और जब बापू तुम्हें घायल करके तुम्हारे पाँव की कड़ियाँ उतारकर ले गए और तुमने दहाड़कर कहा था, ‘घर चलाना मरदों का काम होता है।’ तब मैं यह न समझ पाई थी कि घर को कैसे चलाना होता है, पर बापू ने हमेशा यह बात अनसुनी कर दी। जब तक वह ट्रेन से कटकर मर नहीं गया, तब तक उसके नशे का खर्चा भी तुम्हीं चलाती थीं। वह तुम्हें इतना मारता था, गाली देता था, फिर भी तुम उसे खाना देती थीं। जब एक बार मैं सहमकर तुम्हें दरवाजे की ओट से देख रही थी, तब साथवाली मौसी ने तुम्हारे घावों पर हल्दी- चूना लगाते हुए कहा था, ‘जाने दो बंती, उसी की बदौलत तो गुलाबी दुपट्टा ओढ़कर चौक में बैठकर फुल्के बनाती हो। दूसरी औरत के पास जाता है तो जाने दो। तुम्हारा क्या दे आता है। कुत्ता है कुत्ता।’ तुमने घायल शेरनी की तरह सीधे बैठकर कहा था, ‘मेरे पाँव की कड़ियाँ उसे ही देकर आया है और अब जो चूडियाँ उड़ाना चाहता है, वे संध्या की नानी ने उसके लिए दी थीं। रोज मेरे हाड़ तोड़ता है। ये चूड़ियाँ वो खुद नहीं पहनेगा, उसी राँड़ को ले जाकर देगा। ये दर्द तुम्हारी समझ में नहीं आ सकता। बड़ी आई चोटें सेंकनेवाली, तुम तो उल्टा चोट देकर जाती हो।’

“मौसी खामोश सी तुम्हारी चोटों पर हल्दी-चूना लगाती रही थी। उसके बेआवाज आँसू पिघलती बर्फ की तरह टप-टप गिरते रहे थे।”

उसी वक्त मेरे जीवन में जैसे दिन चढ़ आया था। मेरी समझ में आया था, बापू जो चूड़ी माँ से रोज माँगता है, वे असल में मेरी हैं। माँ पर अचानक प्यार उमड़ आया था और बापू की सूरत से नफरत होने लगी थी।

और आज वही चूड़ियाँ उसका पति खून के कतरों में से उतारकर ले गया। उसकी कलाई फिर फूट पड़ी। इन चूड़ियों में से उसे अपनी बहू का सुंदर मुख दिखाई देता था। उसने चटाई पर आधे लेटकर अपने आँसू बह जाने दिए और वह रोते-रोते बोली, ‘“माँ, तुमने कितनी मार सहकर अपनी बेटी के लिए ये चूड़ियाँ बचा ली थीं! पर मैं आज अपनी बहू के लिए ये चूडियाँ न बचा सकी। मैंने कोशिश की थी माँ। मेरी कलाई पर यह रिसता खून इस बात का गवाह है। तुम तो जानती हो, वे चूड़ियाँ कितनी तंग थीं। निर्दयी ने खाल ही खींच ली। माँ, अगर पप्पू ने वह खत न लिखा होता तो आज भी मैं चूडियाँ न उतारने देती, भले ही वह मुझे मार डालता। आज उसे छोड़कर तुम्हारे पास भी आने की हिम्मत आ जाती माँ, पर पप्पू।

“पप्पू ने मेरे बदन की सारी सत्ता निचोड़ ली। मुझे दुःख में देखकर हैरानगी और बेचारगी से फैलती तुम्हारी आँखों की बेबसी ने ही मुझे आधा मार डाला था। माँ, आज पप्पू के खत ने मुझे सारा ही मार डाला। अगर तुम्हारी बेचारगी को सह पाती माँ, तो इस राक्षस को तभी छोड़ देती, जब इसने मार-मारकर मेरे पेट के बच्चे को खत्म कर दिया था। वह लड़की थी माँ। मैं लड़की की माँ होना चाहती थी, पर फिर मैंने कभी बच्चा न होने दिया।

“पर माँ, मैं तुम्हें कुछ नहीं बताना चाहती, फिर भी यूँ लगता है, सभी माएँ जानती हैं, सच क्या है, इसीलिए वे ऊपर से झाँकती टीपटाप की नाजुक पर्त को नहीं उघाड़तीं।”

“दीवाली के दिन जब इस निर्दयी ने मेरी बाँह तोड़ी थी, तब मैंने तुम्हें कहा था, मैं बाथरूम में फिसल गई थी, पर तुम्हारी आँखों में झाँकता अविश्वास मेरी खिल्ली उड़ाता रहा था। मैं जब भी तुम्हें इसके बारे में बताना चाहती, भगवान्‌ के आगे गिड़गिड़ाकर मेरा सुख माँगती तुम आ खड़ी होतीं और तुम्हारी गुहार मुझे याद आती, “भगवान्‌, मेरी संधो को सुख देना। जो मैंने देखा है, वह इसे न दिखाना।”

“मुझे हमेशा यही जुमला याद आता और दहलीज के बाहर बढ़ता मेरा कदम ठिठककर रह जाता। माँ, तुम मेरे लिए, मेरे भविष्य के लिए बापू का अत्याचार सहती रहीं, पर मैंने ये सब अत्याचार तुम्हारे लिए सहे माँ! हमेशा भगवान्‌ के आगे मेरे सुख के लिए तुम्हारा गिड़गिड़ाना मेरी राहत के दरवाजे बंद करता रहा। शादी से पहले जब मैं शफाखाने से देर करके लौटती थी, तब तुम्हारे चेहरे पर फैली घृणा, गुस्से और हिकारत की ताब मैं न ला सकती थी। तुम्हारी तरफ पीठ करके बोला गया झूठ भी मुझ पर किसी शोहदे की टिप्पणी की तरह हँसता रहता था। फिर भी एक बार तुमने अपनी सारी घृणा पीकर मुझे समझाने की आखिरी कोशिश की थी, ‘संधो, ये कंपाउंडर अच्छा आदमी नहीं है। अब तुम्हें क्या बताऊँ, रब ही तुम्हारा रखवाला है।’

“गुस्से से उबलती मैं कहीं यह भी जानती थी कि औरतें दबे स्वर में रग्घू की बातें करती हैं, पर रग्घू ने अपनी आँखों में मुहब्बत की चाशनी भरकर मुझे कहा था, “संधो, मैं तो गम गलत करने के लिए कभी-कभी दो घूँट शराब जरूर पीता हूँ, पर किसी औरत की तरफ मैंने आँख उठाकर भी नहीं देखा। जब तुम्हारे गाँव की लड़कियाँ अबॉर्शन करवाने आ जाती हैं, तब मुझे बड़ी दया आती है। अब देखो न, रहमतो अबॉर्शन ही करवाने आई थी। जब मैं उसे अबॉर्शन के टेबल पर ले गया, तब उसने शोर मचाना शुरू कर दिया कि मैं उसकी इज्जत लूटना चाहता हूँ। अरे, कौन सी इज्जत। देखो संधो, कितना झूठ है। अगर मैं सच्चाई बता दूँ, तो क्या कोई उसे गाँव में रहने देगा? नहीं न। बस, यूँ समझो कि मुझे तरस आ गया। लोगों के मुँह मैं बंद नहीं करवा सकता।’

“तब मेरे मन में एक सवाल उठा था। अगर उसने अबॉर्शन नहीं करवाया, तो फिर उसे बच्चा क्यूँ न हुआ, पर इस तरह की फिजूल सी बातों को मुहब्बत का तूफानी रेला पीछे धकेल देता था।

“जब संधो गाँव में दसवीं पास करने वाली पहली अकेली लड़की थी, तब इसी रग्घू ने दौरे पर आए डॉक्टर को कहकर इसे नर्स की ट्रेनिंग के लिए भिजवाया था। तब तो तुम भी खुश थीं माँ, पर तुम और मैं दोनों ही यह नहीं जानती थीं। मुझे ट्रेनिंग पर भिजवाकर यह बरसों मास्टर की बेटी को शादी का झाँसा देता रहा और जब उसकी शादी हो गई, तब उससे पैसे ऐँठता रहा। यह मुझे खुद मास्टर की बेटी ने बताया था, पर तब मुझे रग्घू के सिवा कुछ न दिखाई देता था, पर हाँ, हमारी शादी के बाद रग्घू ने उसे ब्लैकमेल करना बंद कर दिया था। ब्लैकमेल तुम नहीं समझोगी माँ, तुम सारी उम्र ब्लैकमेल होती रहीं, तुम्हें तब समझ न आया तो अब क्या आएगा।

“क्या-क्या बताऊँ माँ, ये सब जिल्लत की कहानियाँ हैं। तुम नहीं सुनो तो अच्छा है। डॉ. वर्मा के साथ जब इसने मुझे तोहमत लगाई तो मैंने घृणा और गुस्से के मारे अस्पताल जाना बंद कर दिया। थोड़े दिनों के बाद जब दो-तीन फाके लगे तो मुझे फिर नौकरी पर जाना पड़ा। पप्पू कहता, माँ दूध दो न! मैं कहती, पैसे नहीं हैं। वह कहता, पैसे बाजार से खरीद लाओ ना मुझे उसकी बातों पर तरस भी आता और प्यार भी, पर इसका बाप उन दिनों फिर गायब हो गया था और मैंने अस्पताल जाना शुरू कर दिया था। कोई भी डॉक्टर मुझे अपने वार्ड में नहीं रखना चाहता था। मैं अपराधिनी सी नौकरी पर जाती थी। इतनी बेहुरमती मैंने किसके लिए सही? तुम्हारे लिए माँ और तुम्हारे इस पप्पू के लिए। और माँ, आज, आज जानती हो उसने मुझे क्या लिखा है माँ, उसने मेरी जात को गाली दी है। उसने लिखा है, मैं डॉक्टर वर्मा की रखैल थी। उसने लिखा है माँ, मैं तुम्हें नफरत करता हूँ। मुझे ऐसी माँ नहीं चाहिए। और माँ, उसने लिखा है, मैं नहीं जानता मैं किसका बेटा हूँ। और मत पूछो क्या-क्या लिखा है। ये रग्घू पिछले आठ-दस दिन से गायब था तो मैंने सुख की साँस ली थी। मेरी रसोई के बर्तन चमकने लगे थे। मेरे आँगन की धूप मीठी हो गई थी। मेरे घर से हवा सहमी-ठिठकी-झिझकती द्वार से लौट न जाती थी। भीतर आकर एक जवान लड़की की तरह झूमती थी, अठखेलियाँ करती थी। मेरे बाल बिखरकर मुझे छेड़ते थे। मैं खुशी से खिल जाती थी। तभी पहले आई पप्पू की चिटूठी और फिर आया यमदूत । तुम्हारा जामाता। तुम ठीक ही कहती थीं माँ, यमदूत से ही जामाता बना है। इसने घर में घुसते ही घर की पूरी साँस रोक दी और बैठा भी नहीं। बादलों की गड़गड़ाहट की तरह बोला, ‘जिस बेटे पर तुम्हें नाज था वो अब सब जान गया है। वो तुम्हारे मुँह पर थूकेगा भी नहीं। ला, अब ये चूड़ियाँ मुझे दे दे। अब तो उसकी बहू तुम्हारे गंदे हाथों की ये चूड़ियाँ कभी नहीं पहनेगी। ला, मुझे दे। कम-से-कम मैं इनका सदुपयोग कर सकता हूँ।’

“मैं स्तब्ध रह गई। मुझे जितनी घृणा रग्घू पर आज हुई, उतनी पहले कभी न हुई थी। पप्पू का रहस्य मेरे सामने खुल गया था। जिस पप्पू को सेंत-सेंत कर रखा था, जिसके भविष्य के लिए मैंने अपना वर्तमान दांव पर लगा दिया, उसने मेरी उम्मीद का दीया बुझाने के लिए एक साँस भी इस्तेमाल न की। मेरा सारा मोह बह गया और उसके साथ ही बेदर्दी से रग्धू मेरे हाथ की सोने की चूड़ियाँ उतारता रहा। मैंने तो पप्पू को “बाप से बचाकर रखना चाहा, पर कहाँ बचा पाई।”

संध्या फिर चटाई पर औंधी होकर लोट-पोट हो गई और बड़ी बेचारगी से कहने लगी, “मैं हार गई हूँ माँ ! मैं सच्ची हार गई हूँ। तुमसे सब कुछ छुपाकर रखने का जो मेरा संकल्प था वो भी हार गया है। अब तुम सब जान जाओगी माँ ! पर मैं कब तक फिसलती बात को पकड़कर रखूँ। तुम मर जाओ माँ, ताकि मैं मुक्त हो जाऊँ। मैं कब आजाद हो सकूँगी।”

माँ के मरने की बात अपने ही मुँह से सुनकर संध्या जोर-जोर से बैन करने लगी, “माँ, तुम्हारे लिए क्या-क्या सहती रही। मैं जानती थी रग्घू का असली चेहरा देखकर तुम बचोगी नहीं | पर माँ, मैं अब थक गई हूँ। अब मुझे पप्पू की कोई शर्म नहीं, तुम्हारा कोई लिहाज नहीं । हाँ, सब जान जाओ, सबको मालूम होना चाहिए मैं कितनी फरमाबरदार बेटी रही हूँ। मैंने माँ को कभी नहीं बताया, मेरी बाँह कैसे टूटी, मेरे माथे पर कैसे टांके आए, मेरी हँसुली कैसे गुम हुई, मेरे पैरों से कड़ियाँ कौन खींचकर ले गया।

“माँ, माँ ! मैंने भी वो सब सहा जो तुम सहती रहीं। पर क्या हुआ। सब बह गया। मैं तुम्हारे मरने की दुआ नहीं करती, तुम्हारे मुक्त होने की फरियाद कर रही हूँ। तुम्हारी मुक्ति में ही मेरी आजादी है। माँ, जिस दिन रग्घू ने बरामदे से पप्पू की दोनों टाँगें लटकाकर फेंकने की धमकी दी थी, उसी दिन मैंने इसे तुम्हारी सफेद चाँदी के रुपयों की पोटली थमाई थी। वो गुम नहीं हुई थी माँ, इसी हरामी को उसकी दरकार थी। मैंने सच को छुपाने के लिए हमेशा तुमसे झूठ बोला। मेरे पास और कोई चारा न था।”

ठक-ठक-ठक !

इतनी हलकी ठक-ठक रग्धू की नहीं हो सकती। अब तो उठना ही पड़ेगा। पता नहीं इतने मुँह सवेरे कौन आया है।

संध्या ने उठने की कोशिश की। दुपट्टे से छलनी जिस्म ढका और लड़खड़ाती हुई दरवाज़े तक पहुँची ।

द्वार पर तार वाला खड़ा था। कभी इसकी पत्नी की पहली जचगी पर संध्या ने रात-भर जागकर उसकी डिलीवरी करवाई थी। तार वाला भौचक उसे देखता रह गया। उसने डरते-डरते कहा, “बहन जी, क्या बीमार हैं। रात में भी दो बार द्वार खटखटाया, किसी ने खोला नहीं। मैंने सोचा, आप सोई होंगी। सुबह आऊँगा। तार ले लीजिए ।” संध्या के हाथ काँपने लगे। ये तार कहीं माँ का तो नहीं। उसके मन में कुछ घुड़का। उसने कहा, माँ, तुम मरना नहीं। नहीं माँ, मैं तुम्हें सब बताऊँगी माँ, पर तुम मरना नहीं। मुझे तुमसे बल मिलता है माँ। उसने सोचकर डरते-डरते तार खोली और दीवार से घिसटती-घिसटती चौखट पर बेहोश हो गई।

**समाप्त**

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