चैप्टर 47 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 47 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

चैप्टर 47 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 47 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 47 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel

Chapter 47 ankh Ki Kirkiri

अन्नपूर्णा काशी से आईं। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जा कर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देख कर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हें लगा, वे मन के अनजान ही अन्नपूर्णा को चाह रही थीं। इतने दिनों के बाद आज पल-भर में ही यह बात स्पष्ट हो उठी कि उनको इतनी वेदना महज इसलिए थी कि अन्नपूर्णा न थीं। एक पल में उसके दुखी चित्ता ने अपने चिरंतन स्थान पर अधिकार कर लिया। महेंद्र की पैदाइश से भी पहले जब इन दिनों जिठानी-देवरानी ने वधू के रूप में इस परिवार के सारे सुख-दु:खों को अपना लिया था – पूजा-त्योहारों पर, शोक-मृत्यु में दोनों ने गृहस्थी के रथ पर साथ-साथ यात्रा की थी – उन दिनों के गहरे सखीत्व ने राजलक्ष्मी के हृदय को आज पल-भर में आच्छन्न कर लिया। जिसके साथ सुदूर अतीत में उन्होंने जीवन का आरंभ किया था – तरह-तरह की रुकावटों के बाद बचपन की सहचरी गाढ़े दु:ख के दिनों के उनकी बगल में खड़ी हुई। यह एक घटना उनके मौजूदा सुख-दु:खों, प्रिय घटनाओं में स्मरणीय हो गई। जिसके लिए राजलक्ष्मी ने इसे भी बेरहमी से चोट पहुँचाई थी, वह आज कहाँ है!

अन्नपूर्णा बीमार राजलक्ष्मी के पास बैठ कर उनका दायाँ हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं- ‘दीदी!’

राजलक्ष्मी ने कहा – ‘मँझली!’

उनसे और बोलते न बना। आँखों में आँसू बहने लगे। यह दृश्य देख कर आशा से न रहा गया। वह बगल के कमरे में जा कर जमीन पर बैठ कर रोने लगीं। राजलक्ष्मी या आशा से अन्नपूर्णा महेंद्र के बारे में कुछ पूछने का साहस न कर सकीं। साधुचरण को बुला कर पूछा – ‘मामा, महेंद्र कहाँ है?’

मामा ने महेंद्र और विनोदिनी का सारा किस्सा कह सुनाया। अन्नपूर्णा ने पूछा – ‘बिहारी कहाँ है?’

साधुचरण ने कहा – ‘काफी दिनों से वे इधर आए नहीं। उनका हाल ठीक-ठीक नहीं बता सकता।’

अन्नपूर्णा बोलीं – ‘एक बार बिहारी के यहाँ जा कर खोज-खबर तो ले आइए!’

साधुचरण ने उसके यहाँ से लौट कर बताया- ‘वे घर पर नहीं हैं, अपने बाली वाले बगीचे में गए हैं।’

अन्नपूर्णा ने डॉक्टर नवीन को बुला कर मरीज की हालत के बारे में पूछा। डॉक्टर ने बताया, ‘दिल की कमजोरी के साथ ही उदरी हो आई है, कब अचानक चल बसें, कहना मुश्किल है।’

शाम को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ने लगी। अन्नपूर्णा ने पूछा – ‘दीदी, नवीन डॉक्टर को बुलवा भेजूँ?’

राजलक्ष्मी ने कहा – ‘नहीं बहन, नवीन डॉक्टर के करने से कुछ न होगा।’

अन्नपूर्णा बोलीं – ‘तो फिर किसे बुलवाना चाहती हो तुम?’

राजलक्ष्मी ने कहा – ‘एक बार बिहारी को बुलवा सको, तो अच्छा हो।’

अन्नपूर्णा के दिल में चोट लगी। उस दिन काशी में उन्होंने बिहारी को दरवाजे पर से ही अँधेरे में अपमानित करके लौटा दिया था। वह तकलीफ वे आज भी न भुला सकी थीं। बिहारी अब शायद ही आए। उन्हें यह उम्मीद न थी कि इस जीवन में उन्हें अपने किए का प्रायश्चित करने का कभी मौका मिलेगा।

अन्नपूर्णा एक बार छत पर महेंद्र के कमरे में गई। घर-भर में यही कमरा आनंद-निकेतन था। आज उस कमरे में कोई श्री नहीं रह गई थी – बिछौने बेतरतीब पड़े थे। साज-सामान बिखरे हुए थे, छत के गमलों में कोई पानी नहीं डालता था, पौधे सूख गए थे।

आशा ने देखा, मौसी छत पर गई हैं। वह भी धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे गई। अन्नपूर्णा ने उसे खींच कर छाती से लगाया और उसका माथा चूमा। आशा ने झुक कर दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़ लिए। बार-बार उनके पाँवों से अपना माथा लगाया। बोली – ‘मौसी, मुझे आशीर्वाद दो, बल दो। आदमी इतना कष्ट भी सह सकता है, मैंने यह कभी सोचा तक न था। मौसी, इस तरह कब तक चलेगा?’

अन्नपूर्णा वहीं जमीन पर बैठ गईं। आशा उनके पैरों पर सिर रख कर लोट गई। अन्नपूर्णा ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और चुपचाप देवता को याद करने लगीं।

जमाने के बाद अन्नपूर्णा के स्नेह-सने मौन आशीर्वाद ने आशा के मन में बैठ कर शांति का संचार किया। उसे लगा, उसकी मनोकामना पूरी हो गई है। देवता उस-जैसी नादान की उपेक्षा कर सकते हैं, मगर मौसी की प्रार्थना नहीं ठुकरा सकते।

मन में दिलासा और बल पा कर आशा बड़ी देर के बाद एक लंबा नि:श्वास छोड़ कर उठ बैठी। बोली – ‘मौसी, बिहारी भाई साहब को आने के लिए चिट्ठी लिख दो!’

अन्नपूर्णा बोलीं – ‘उँहूँ, चिट्ठी नहीं लिखूंगी।’

आशा – ‘तो उन्हें खबर कैसे होगी?’

अन्नपूर्णा बोलीं – ‘मैं कल खुद उससे मिलने जाऊंगी।’

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