चैप्टर 34 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 34 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

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Chapter 34 Neelkanth Gulshan Nanda 

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Chapter 34 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

गुसलखाने का किवाड़ बंद हुआ और बेला के विचारों की डोर कट गई। उसने दृष्टि घुमाकर उधर देखा। संध्या नहाने चली गई थी। सहसा एक विचार ने अचानक उसके मस्तिक पर हथौड़े मारने आरंभ कर दिए, चोटों की गति बढ़ती गई और वह बेचैन होकर तड़पने लगी।

विचार ने क्रिया का रूप धारण कर लिया। वह बिस्तर से उठी और एक गठरी की भांति लड़खड़ाती सामने आई। अलमारी की ओर बढ़ी। कठिनाई से झुकते हुए उसने मेज पर रखी दवा की पुड़ियों को उठा लिया और उन्हें अलमारी वाली जहरीली पुड़ियों से बदल डाला। यह सब एक क्षण में हुआ और हाँफती हुई धड़ाम से बिस्तर पर जा लेटी। उसे अपनी इस दशा पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था।

संध्या नहाकर गीले कपड़ों को बरामदे में सुखाने बाहर आई तो उसके कानों में बेला की पीड़ा से कराहने की आवाज आई। वह भागती हुई भीतर आई और बेला की ओर लपकते हुए बोली-‘क्या बात है?’

बेला चुप रही, परंतु पसीने से लथपथ चेहरे और हाथ-पाँव मारने से प्रतीत होता था कि उसे तीव्र पीड़ा उठ रही है। संध्या ने धीरज देते हुए उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और अपने पल्लू से उसका पसीना पोंछने लगी। कांपते होंठों से बेला ने उसकी ओर देखते हुए कहा-‘मेरा दिल डूबा जा रहा है।’

संध्या ने झट मेज से एक पुड़िया उठाई और पानी में मिलाकर बेला को पी जाने के लिए कहा। उसने कांपती उंगलियों से गिलास पकड़ा और पीने का प्रयत्न करने लगी।

बेला के कहने पर संध्या आनन्द को बुलाने के लिए टेलीफोन की ओर झुकी। अपनी ओर उसकी पीठ देखकर बेला ने गिलास वाली दवा आँख बचाकर खिड़की से बाहर उड़ेल दी और संध्या के मुँह फेरते ही गिलास उसे इस ढंग से पकड़ाया, जैसे एक ही घूंट में उसने पूरी दवा गले में उतार ली हो।

क्षण-भर शांत रहकर वह फिर बेचैन हो उठी और दांत पीसकर अपनी बेचैनी प्रकट करने लगी। दीदी से उसने कहा कि दवाई ने शरीर में आग-सी लगा दी है और उसका कलेजा जल रहा है। संध्या ने उसकी दशा बिगड़ती देखकर आनन्द और डॉक्टर को टेलीफोन पर बुला लिया।

आनन्द के कुछ मिनट पश्चात् डॉक्टर भी आ गया। तीनों बेला की घबराहट देखकर विस्मित हो गए। कोई ऐसा कारण न था। डॉक्टर ने निरीक्षण किया और कुछ न समझ सका।

उसने संध्या को उसे एक और पुड़िया देने को कहा। संध्या ने फिर वही पुड़िया पानी में मिलाई और बेला के पास ले आई। बेला ने दवाई पीने से इंकार कर दिया। कहने लगी-

‘नहीं-नहीं, मैं नहीं पिऊँगी, इसी पुड़िया ने मेरी नसों में आग लगा दी है, मैं नहीं पिऊँगी, यह जहर है।’

डॉक्टर की दृष्टि एकाएक कागज की उस पुड़िया पर पड़ी, जिससे दवा निकालकर संध्या ने बेला को पिलानी चाही थी। उसने झट से कागज उठा उसे खोला-Poison । बड़बड़ाते हुए उसने संध्या की ओर देखा और घबराहट में बोला-

‘यह क्या कर रही हो?’

‘क्या?’ वह झट से बोली।

‘यह पुड़िया तो दूसरी है। कहीं पहले भी तो यही नहीं दे दी?’

‘नहीं तो, वह पुड़िया तो वह मेज पर रखी दवाई की पुड़ियों को उंगलियों से टटोलने लगी, सब पुड़ियाँ वहाँ थीं। उसने भागकर अलमारी में रखी पुड़ियों को देखा। वहाँ दूसरी पुड़ियाँ रखी थीं। वह यह बदली देखकर आश्चर्य में खड़ी-की-खड़ी रह गई। इतनी बड़ी भूल कैसे हुई?

‘संभव है, भूल से वह पुड़िया…’

‘नहीं-नहीं, मुझे विश्वास है, ऐसा नहीं हुआ।’ संध्या आनन्द की बात काटते हुए बोली और गिलास पकड़कर उसे ध्यानपूर्वक देखने लगी। बेला मन-ही-मन अपना सफलता पर गुनगुनाने लगी।

डॉक्टर ने झट से बॉक्स में से एक शीशी निकाली और उसकी दो बूँदें गिलास में घुली दवाई में मिला दीं। दवाई का रंग सफेद से गुलाबी हो गया। डॉक्टर ने धीरे से कहा-Poison दवा भूल से दे दी गई है।’

उसने झट से एक शीशी निकाली और उसमें से चंद बूँदें चम्मच में डालकर बेला के मुँह में डाल दीं। दवाई पीते ही बेला को उबकाइयाँ आने लगीं और एक कै के साथ ही भीतर का सब कुछ बाहर आ गया।

कै आने के पश्चात् बेला बेसुध-सी बिस्तर पर लेट गई और उसने आँखें बंद कर लीं। दो-चार बार बुलाए जाने पर भी उसने उत्तर न दिया। आनन्द की घबराहट देखकर डॉक्टर ने उसके कंधे पर थपथपाते हुए कहा-‘घबराइए नहीं, सब ठीक हो जाएगा। यह जहर बाहर आ गया है, अब इसे आराम करने दीजिए।’

डॉक्टर ने मेज पर रखी दवाई की सब पुड़ियाँ अपने बक्स में डाल लीं और दूध के साथ दूसरी दवाई देने को कहकर चला गया।

संध्या वहीं खड़ी सोच में खो गई-यह सब कैसे हुआ? क्या बेला ने…पर नहीं-नहीं, वह तो अपने स्थान से उठ नहीं सकती। एकाएक उसे याद आया कि उसी ने बेला को बताया था कि इन पुड़ियों में जहर है, संध्या कांप गई। बेला के विषय में कई विचार उसके मन में आ-आकर टकराने लगे।

‘क्या सोच रही हो?’ आनन्द ने डॉक्टर को छोड़कर आते हुए कहा।

‘जी’, चौंकते हुए वह बोली-‘सोचती हूँ इतनी बड़ी भूल कैसे हुई।’

‘अच्छा जाने दो, दूध गरम करके ले आओ, इसे दवा दे दूँ।’

संध्या दूध लेने चली गई। आनन्द ने अपना कोट कुर्सी पर फेंक दिया और बेला के सिरहाने जा बैठा।

बेला का सिर गोद में लेकर उसने उसका पहलू बदल दिया और तौलिया से उसका मुँह साफ करने लगा। बेला ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कराने लगे। मुस्कराते हुए वह पहलू बदलकर आनन्द की गोद में सिमट गई और उसके दिल की धड़कन सुनने लगी।

‘बेला!’ आनन्द ने उसके बालों में उंगली फेरते हुए कहा।

‘हूँ।’

‘कैसा है जी अब?’

‘पहले से अच्छा।’

‘लो दीदी तुम्हारे लिए दूध ले आई है, इसे पी लो।’

‘कौन दीदी?’-गर्दन उठाकर बेला ने एक कड़ी दृष्टि से संध्या को देखते हुए कहा, जो हाथों में दूध का प्याला लिए पास आ खड़ी थी। ‘मैं इनके हाथों से न पिऊँगी। इसमें भी इसने जहर मिला दिया होगा।’

‘मूर्ख न बनो, भूल तो मानव से हो ही सकती है।’

‘भूल, यह भूल थी, किसी के जीवन का प्रश्न था, एक का नहीं दो का, जिन्हें वह एक साथ समाप्त करना चाहती थी। वह जानती थी कि नए जीवन के आने पर हम दोनों एक हो जाएंगे और स्वयं उसकी कामनाएँ पूरी न हो सकेंगी।’

‘बेला होश में आओ। तुम जीवन-भर इसके उपकार नहीं उतार सकोगी। तुम किसी भ्रम में हो।’

‘इसलिए कि उसने आप पर कोई जादू-टोना कर रखा है, इसलिए कि अपने घर में स्थान देकर यह मुझसे कसाई-सा बर्ताव करना चाहती है, मेरे जीवन की शत्रु मेरी बहन ही है, मैं पल भर भी इस घर में न रहूँगी।’

संध्या सामने खड़ी यह सब सुनती रही। ये झूठे आरोप सुनकर उसके शरीर में आग लग रही थी। क्रोध में उसके हाथ-पैर कांप रहे थे। उसके मुख का बदलता रंग देखकर आनन्द भी घबरा गया। संध्या के मुख पर ऐसे भाव, उसने आज से पहले कभी न देखे थे। वह अभी तक चुप थी।

जब उससे अधिक सहन न हो सका तो संध्या ने दूध का प्याला फर्श पर पटक दिया। जोर का धमाका हुआ और दोनों चौंककर रह गए। आवाज सुनकर खाना बीबी दौड़ी-दौड़ी आई, पर सबको स्तब्ध देखकर किवाड़ के पास ही खड़ी रह गई।

चन्द क्षण निस्तब्धता रही। धीरे-धीरे संध्या के कांपते हुए होंठ हिले और वह बोली-

‘इस दूध में जहर है, पर इसका उस नागिन पर क्या प्रभाव, जिसके रोएं-रोएं में जहर के अतिरिक्त कुछ नहीं। तुमने इस घर को भी तमाशे का स्टेज समझकर यहाँ एक्टिंग आरंभ कर दी। यदि मुझे तुम्हारी मौत ही चाहिए थी तो इतनी आसान मौत कभी न देती, बल्कि जीवन-भर वह तड़प देती कि तुम एड़ियाँ रगड़-रगड़कर कराहतीं। भूल मेरी ही थी कि मैं सांप को दूध पिलाती रही, इस आशा में कि वह डसना छोड़ देगा।’

संध्या यह कहते-कहते रुक गई और फूट-फूटकर रोते हुए दूसरे कमरे में भाग आई। आनन्द ने एक झटके के साथ बेला का सिर पलंग पर फेंका और तेजी से संध्या की ओर बढ़ा। वह पलंग पर औंधी हुई रो रही थी। आनन्द ने उसे उठाना चाहा तो संध्या ने क्रोध में उसका हाथ झटक दिया और चिल्लाकर कहने लगी-

‘ले जाइए अपनी नागिन को और बजाइए बीन। यहाँ क्या लेने आए हैं, मुझ अभागिन का चैन लूटने क्यों आए हैं? जाइए, यहाँ से चले जाइए, किसी बड़े अस्पताल में, जहाँ अमृत मिले। मैं जहर देती हूँ न। मुझसे अब और सहन न होगा।’

‘संध्या धैर्य से काम लो। एक मूर्ख की बातों में आ गईं तुम। वह तो पगली है, नीच है, तुम्हारे उपकारों को बिसरा दिया है उसने।’

‘मुझे इससे क्या संबंध, जैसी भी है, ले जाइए।’ वह क्रोध में कांपते स्वर में बोली और पास के कमरे में जाकर उसने भीतर से किवाड़ बंद कर लिए। उसकी सिसकियों की आवाज सुनाई दे रही थी।

किवाड़ खटखटाने और प्रतीक्षा करने पर भी जब वह बाहर न आई तो आनन्द अपना मुँह किवाड़ के पास ले जाकर बोला-

‘अच्छा संध्या, इसे मैं यहाँ से ले जा रहा हूँ, बहुत दूर। मैं तुम्हारे उपकारों को भुला नहीं सकता। मेरा रोम-रोम तुम्हारा आभारी है। इस जन्म में तो शायद इनका बदला न चुका सकूँ। हाँ अगले जन्म में अवश्य तुम्हारी सेवा का गौरव प्राप्त करूँगा।’

आनन्द ने थोड़ी देर उत्तर की प्रतीक्षा की, परंतु न तो संध्या की सिसकियाँ थमीं और न उसने किवाड़ खोले।

संध्या आनन्द की बात सुनती रही और उसने बेला के कमरे में एक शोर-सा सुना, जैसे दोनों में तू-तू मैं-मैं हो रही हो। फिर बाहर जाने की आहट हुई और कमरे में सन्नाटा छा गया। वह धीरे-धीरे दीवार का सहारा लेकर उठी और बाहर निकल आई। बेला के कमरे की सब चीजें बिखरी पड़ी थीं। आनन्द अपना सामान भी साथ ले गया था। शीघ्रता में उसके गले का मफलर वहीं खूंटी पर टंगा रह गया। संध्या उसे हाथ में लेकर उंगलियों में मसलने लगी।

ऐसी दशा में जाने वह कहाँ भटक रहा होगा। कहीं वह उसे अपने फ्लैट में या रायसाहब के यहाँ ले गई तो आनन्द की आँखें सदा के लिए उसके सामने झुक जाएंगी, उसे उभारने का उसका प्रयत्न विफल गया, इस विचार से वह बेचैन हो उठी।

दिन ढल गया। कारखाने की मशीनों की आवाज शाम के सन्नाटे में गुम हो चुकी थी। आज दिन की रिपोर्ट देने के लिए सुंदर और नन्हें पाशा आनन्द के स्थान पर संध्या के सम्मुख आए। वह सुनती रही और उसने प्रश्न न किया। आज उसका मन किसी काम में न लग रहा था। माँ ने उसे बहुतेरा समझाया, किंतु वह चुप रही। उसका यह मौन और भी चिंताजनक था।

हर दिन की भांति सवेरे घड़ी का अलार्म बजा और संध्या ने तुरंत उसे बंद कर दिया। वह रात भर सोई नहीं थी, बल्कि चिंता में करवटें बदलती रही थी। आज उसे दफ्तर और कारखाने का काम करना था।

वह अकेली थी। उसका सहारा जा चुका था। व्यर्थ बैठे रहने से क्या होगा, उसने साहस देख मन में एक दृढ़ता अनुभव की। वह उठी और कारखाने की ओर चल दी।

उसके कारखाने में प्रवेश करते ही अपने कार्यों में व्यस्त मजदूर उसके स्वागत के लिए खड़े हो गए। वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती गई, मशीनों की आवाज उसके कानों को भली लगती जा रही थी।

आज कितने समय पश्चात् उसने दफ्तर के दरवाजे को छुआ। जिसे कल तक आनन्द की उंगलियों ने स्पर्श किया था, बाहर बैठे चपरासी ने झुककर नमस्ते किया। संध्या ने मुस्कराकर उसे उत्तर देते हुए भीतर प्रवेश किया।

भीतर जाते ही वह ठिठककर रुक गई। सामने मेज पर आनन्द बैठा काम कर रहा था। अभी वह विस्मय से उसे देख ही रही थी कि वह अपनी कुर्सी से उठते हुए बोला-‘आइए।’

‘किंतु आप!’-कुर्सी पर बैठते हुए वह बोली।

‘घर छोड़ा है, काम नहीं,-घरेलू बातों से सांसारिक धंधों का क्या संबंध।’

‘ओह! मैं समझी थी शायद आप काम पर न आएंगे।’

‘इसलिए मेरा काम करने के लिए आपको आना पड़ा।’

‘यह हर बात में ‘आप’ क्यों?’

‘अपने मालिक को यों ही संबोधित करते हैं।’

‘मालिक!’

‘घर में आप कुछ सही, किंतु कारखाने की मालिक आप ही हैं।’

‘लेकिन…’

‘आप छोड़िए इसको। क्या सेवा करूँ?’

‘पहले यह कहिए, बेला कहाँ है?’

‘अस्पताल में।’

‘उसका स्वास्थ्य।’

‘अच्छा है, संदेश भेजा है उसने।’

‘क्या?’

‘अपनी भूल की क्षमा माँगी है।’

संध्या ने आनन्द की ओर देखा, फिर बोली-‘यह उसका संदेश नहीं, आपके मन की आवाज है। आप उसके लिए झूठ बोल रहे हैं।’

आनन्द ने आँखें नीची कर लीं। वास्तव में उसने झूठ बोला था।

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