चैप्टर 27 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 27 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

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Chapter 27 Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas

Chapter 27 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi

आज सवेरे से ही बारिश का जोर था। वातावरण धुंध में लिपटा हुआ था। इसी कारण सपेरन की शूटिंग रोक दी गई थी।

स्टूडियो के दफ्तर में हुमायूं बैठा खिड़की के बाहर बरसात का दृश्य देख रहा था। चारों ओर जल-ही-जल था। कभी-कभी उसकी दृष्टि वहाँ से हटकर सामने सोफे पर बैठी बेला पर जा पड़ती, जो किसी फिल्मी-पत्रिका को पढ़ रही थी। बेला कभी-कभी कनखियों से हुमायूं को देख लेती, जो आज गंभीर बना बैठा था। हुमायूं मन-ही-मन बार-बार संध्या की बातों को दोहरा रहा था। उसे बेला के मन में आग लगानी थी-परंतु कैसे? उसने जीवन में कभी ऐसी बातें न की थीं, इसलिए मस्तिष्क की उलझनों में पड़ा वह इसी सोच में था कि बात कैसे आरम्भ करें।

आखिर बेला मौन को तोड़ते हुए बोली-‘आज वर्षा खूब जोरों पर है।’

‘हाँ बेला, बहुत जोरों पर है।’ हुमायूं चौंकते हुए बोला।

‘पर आप चुप क्यों हैं?’

‘बरसात जो शोरगुल मचा रही है।’

‘ओह! तो आप बरसात का शोरगुल सुन रहे हैं।’

‘और क्या करें, काम से छुट्टी जो हुई, बचपन होता तो उछलते-कूदते, उधम मचाते, यों बैठे-बैठे कोफ्त तो न होती।’

‘हम जो हैं आपका साथ देने को, कुछ अपनी सुनाइए, कुछ हमारी सुनिए, समय कट जाएगा।’

‘हमारी क्या सुनोगी-दर्द और गम के रेलों के सिवा क्या रखा है अपनी दास्तां में।’

‘और यहाँ कौन-सा ठहाकों का समुद्र रखा है। धुआं उठता भी है तो मुस्कराकर पी जाते हैं।’

‘हाँ बेला, तुम ठीक कहती हो-रुपया, पैसा, शोहरत और यह आराम की जिन्दगी सब बेकार है दिल की दुनिया के सामने, और फिर आनन्द को जब से देखा है, दिल पर चोट-सी लग गई है।’

आनन्द का नाम सुनते ही वह कांप उठी। हुमायूं ने देखा उसके मुख पर कालिमा-सी दौड़ गई। उसके सीने में छिपा तूफान फिर से मचलने लगा। हुमायूं फिर बोला-

‘मेरी मानो तो आनन्द की लड़खड़ाती जिन्दगी को थाम लो।’

बेला के मन पर फिर चोट लगी। उसने एक बेबस पक्षी की भांति देखा और नम्रता से पूछने लगी-‘क्या आपको मिले थे?’

‘हूँ।’

‘कहाँ?’ बेचैनी को दबाते हुए उसने दोबारा पूछा।

‘नीलकंठ की बस्ती में-तुम्हारी दीदी के यहाँ।’

संध्या का नाम सुनते ही वह एक बार चौंक उठी और अपनी कंपकंपी होंठों से दबाते हुए बोली-‘वहाँ क्या कर रहे हैं?’

‘संध्या ने उसे वहाँ का मैनेजर बना दिया है। कहता था एक बहन ने इंसान को हैवान बनाने में कसर न छोड़ी और दूसरी हैवान से देवता बनाने को सोच रही है।’

हुमायूं ने उसके चेहरे की बदलती हुई रंगत से अनुभव किया कि उसका दांव काम कर रहा है। वह बात पूरी करते हुए बोला-‘उसकी जिन्दगी तो संभल जाएगी। तुम्हारा क्या होगा?’

‘मेरा… मेेरा उनसे क्या संबंध, मैं अपना जीवन स्वयं बनाने का साहस रखती हूँ।’ वह घमण्ड में गर्दन की नसों को तानते हुए बोली, किंतु क्रोध और घबराहट से उसके नथुने फूल रहे थे।

हुमायूँ उसके और समीप आ गया और बोला-

‘मर्द औरत की जिन्दगी की सहारा है और जो किसी कीमत पर भी खरीदा नहीं जा सकता। जरा सोचो तो क्या उसके बगैर इस बारौनक और ऐशो-इशरत की जिन्दगी में भी तुम अपने को अकेला नहीं पातीं। रात की तारीकियों और सन्नाटे में आँसुओं से अपने तकिए को तर नहीं कर देतीं?’

‘नहीं-नहीं।’ वह झुंझलाकर बोली। जैसे इससे अधिक सुनने का उसे साहस न हो। व्याकुलता की अधिकता से वह दीवार की ओर मुँह करके खड़ी हो गई, जिससे हुमायूं उसकी भावनाओं को न देख सके।

‘दिल का दर्द यों नहीं जाता बेला।’ हुमायूं ने उसके सिर पर स्नेह का हाथ फेरते हुए कहा- ‘यह दिल की लगी आहिस्ता-आहिस्ता जब जीवन को दीमक की तरह खा जाएगी तो तुम्हें एक सहारे की जरूरत होगी, जैसे-तूफान में किश्ती या पतवार की, और वह सहारा तुम्हें आनन्द ही दे सकता है।’

‘मैं अपने दिल को पत्थर बना सकती हूँ। ऐसे कमजोर सहारे से मैं डूब जाना कहीं अच्छा समझती हूँ।’

‘वह इतना आसान न होगा। तुम ही कहो, जब अपनी जिन्दगी को तुम किसी दूसरे की महफिल में पाओगी तो तुम्हारे दिल पर क्या बीतेगी? क्या आनन्द को संध्या की बांहों में जकड़ा देख तुम्हारे दिल पर अंगारे न लोटेंगे?’

‘नहीं-नहीं, कभी नहीं।’ बेचैनी को दबाते हुए बेला ने झुंझलाते हुए कहा और बाहर जाने लगी।

‘इतनी बरसात में कहाँ जाओगी?’ हुमायूं ने उसे रोकते हुए पूछा।

‘कहीं भी, आपको क्या’ वह क्रोध में बोली।

‘वह मैं खूब जानता हूँ। हुमायूं ने नम्रता से कहा।

उसके चलते हुए पाँव एकाएक रुक गए। उसने घूरकर देखा और पूछने लगी, ‘आप क्या जानते हैं?’

हुमायूं ने देखा, घबराहट और क्रोध में उसके होंठ कांप रहे हैं।

‘यही कि तुम्हारी मंजिल कहाँ है-नीलकंठ तक, जहाँ तुम अपनी बरबाद मुहब्बत का तमाशा देखने जा रही हो।’

बेला यह सुनकर फिर से तिलमिला उठी और तेज-तेज कदम बढ़ाती सीढ़ियों से नीचे उतर गई।

हुमायूं ने ऊँचे स्वर में कहा-‘यदि चोट लगने के बाद बेचैनी हद से बढ़ जाए तो मेरे यहाँ आ जाना, बेला। कभी-कभी एक बहन को भाई के सहारे की भी जरूरत होती है।’

बेला ने एक बार मुड़कर हुमायूं को देखा और झट से कार में बैठ गई कार बरसात में नहाती हुई स्टूडियो के बाहर चली गई।

हुमायूं झट से आकर टेलीफोन पर संध्या का नंबर मिलाने लगा।

‘हैलो संध्या! मैं हुमायूं…अपना काम बंद है, लेकिन मैं फारिग नहीं, बरसात जोरों पर है और मैं पानी में आग लगा रहा हूँ। आप ठीक समझीं! मुमकिन है, अब उसने आप ही के घर का रुख किया हो। मेरा निशाना खाली न जाए, नाटक पूरा होना चाहिए, कहीं झट से मरहम न रख देना। हाँ भई, औरतों के नाजुक दिल का क्या कहना, आप आग पर तेल छिड़क दो, आगे मैं संभाल लूँगा। आनंद सो रहा है, इतना सुहाना समय और तुम लोग नींद में खो रहे हो?’

टेलीफोन रखकर हुमायूं भी दफ्तर से बाहर आया और ऊँची आवाज में चौकीदार को टैक्सी भीतर भेजने को कहा।

बरसात का तूफान हर घड़ी बढ़ता जा रहा था। काली घटाएँ घनी हुई जा रही थीं। दिन के उजाले में धीरे-धीरे रात का अंधकार सम्मिलित होने लगा।

कुछ ऐसा अंधकार बेला के मन में भी फैल रहा था। वह कार गाड़ी को बम्बई की सुनसान सड़कों पर दौड़ाए जा रही थी। शीशे पर टपकता पानी जैसे ही साफ होकर नीचे गिर जाता तो चंद क्षण के लिए वातावरण साफ दिखाई देने लगता। उसे यों अनुभव होता जैसे उसके मन में फैला अंधकार चंद क्षण के लिए छंट जाता और अंधकारमय जीवन में हल्की-सी आशा की किरण समा जाती। वह अपने विचारों में खोई इस तूफान में बढ़ती गई है।

बेला ने गाड़ी सीधी नीलकंठ की बस्ती में जाकर रोकी। वर्षा का जोर पहले से कुछ घट गया था। वह गाड़ी से निकलकर संध्या के मकान की ओर बढ़ी और बरामदे में रुककर अपने गीले बालों को रूमाल से सुखाने लगी। बाहर कोई न था। वह एक अजनबी की भांति इधर-उधर देख रही थी। उसकी दिल की धड़कन हर क्षण बढ़ती जा रही थी। वह धीरे-धीरे पाँव उठाकर दीवार के साथ-साथ चलने लगीं, तभी किसी की हँसी की आवाज सुनकर वह एक खिड़की के पास रुक गई।

बरसात का सुहावना मौसम और उसमें गुदगुदा देने वाली हँसी-उस पर बिजली-सी कौंध गई। अपने दिल की धड़कन को वश में रखते हुए उसने खिड़की का पर्दा अपनी उंगलियों से हटाकर भीतर झांका-उसके पाँव तले की धरती खिसक गई।

आनन्द सोफे पर लेटा कोई पुस्तक पढ़ रहा था, संध्या नीचे कालीन पर बैठी अंगूरों का एक गुच्छा उसके मुँह के पास ले जाती और जब वह मुँह खोलता तो उसे झट से हटा लेती-और दोनों हँस पड़ते।

उसने स्वयं ऐसे कई हाव-भाव सीख रखे थे, किंतु आज संध्या को यों करते देखकर उसका कलेजा जलकर राख हो गया। क्रोध से उसके होंठ कांपने लगे, जैसे अभी वह खिड़की से कूदकर उस पर बरस पड़ेगी। परंतु धैर्य से काम लिया और अपने प्रेम का उपहास देखती रही।

आज बड़े समय पश्चात् उसके मन में सोई प्रेम की ज्वाला फिर भड़क उठी। आनन्द को पाने की इच्छा फिर प्रबल होकर जाग उठी-वह अपने शिकार को किसी दूसरे के हाथों में कैसे देख सकती थी।

उसने मन को कड़ा किया और नागिन की भांति बल खाकर द्वार की ओर बढ़ी।

संध्या ने बाहर किसी के आने की आहट सुनी, पर वह घबराई नहीं। उसने बेला की गाड़ी फाटक के भीतर आती देख ली और फिर हुमायूं का टेलीफोन आने पर तो उसे पूरा विश्वास था कि बेला अवश्य आएगी और वह इसके लिए तैयार थी।

उसने अंगूरों का गुच्छा एक बार फिर आनन्द के पास ले जाकर हटा लिया। आनन्द ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-‘कब तक तरसाओगी?’

‘शी-शी’-होंठों पर उंगली रखते हुए वह बोली, ‘जरा धीरे बोलो, कोई बिल्ली झपट पड़ी तो दोनों मुँह देखते रह जाएँगे।’

‘बिल्ली!’ आनन्द ने दृष्टि घुमाकर सामने देखा और चौंककर सोफे से उठ बैठा। संध्या भी अंगूर तश्तरी में रखे उसी ओर देखने लगी। द्वार पर खड़ी बेला क्रोध और घृणा के शोले उगल रही थी। दोनों को देख जैसे ही वह आगे बढ़ी, आनन्द घृणा से नाक-भौं चढ़ा भीतर कमरे में चला गया। संध्या ने आँखें चार करते हुए कहा-‘आओ बेला।’

‘मुझे उनसे मिलना है।’ वह कठोर स्वर में असावधानी से बोली।

‘किनसे?’ संध्या ने भोली बनकर पूछा।

‘तुम्हारे नए अतिथि से।’

‘कहिए-क्या काम है आपको उनसे?’

‘प्राइवेट-शायद मैं तुम्हें न बतला सकूँगी।’

‘तो मैं विवश हूँ, इस समय वे किसी दूसरे से मिलना पसंद नहीं करते।’

‘दूसरा।’ बेला ने क्रोध में दोहराते हुए कहा-‘तुम कौन हो मुझे रोकने वाली, जवानी के नशे में शायद तुम भूल गई हो कि वह मेरे पति हैं।’

संध्या उसकी बात पर खिलखिलाकर हँस पड़ी और कठिनाई से हँसी रोकते हुए बोली-‘बेला होश में आओ। कहाँ तुम और कहाँ वह…गलियों की नर्तकी का मंदिर के देवता से क्या मेल?’

‘दीदी! तुम अपनी सीमा से आगे बढ़ रही हो।’ वह चिल्लाते हुए बोली।

‘तो तुम भी कान खोलकर सुन लो-तुम अपना दांव हार चुकीं, अब हारे हुए जुआरी के समान गला फाड़ने से क्या लाभ… मैंने उन्हें नया जीवन दिया है-वह मेरे हैं।’

‘दीदी! मत भूलो तुम एक चट्टान से टकरा रही हो।’

‘और तुम भी यह मत समझो कि तुम्हारी दीदी का मन इतना कोमल है कि जब चाहो तोड़कर चल दो।’

बेला चुप रही और क्रोध में भरी बाहर चली गई। संध्या ने तुरंत आनन्द को पुकारा और दोनों खिड़की से लपककर बाहर देखने लगे, जहाँ बेला तेज-तेज चलती हुई गाड़ी का दरवाजा खोल रही थी। बेला ने गाड़ी का शीशा उतारते हुए एक दृष्टि उन दोनों पर डाली और फिर असावधानी से गर्दन मोड़कर गाड़ी चला दी। आनन्द और संध्या एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कराने लगे।

‘कहीं तुम्हारा यह नाटक कोई भयानक रूप न ले ले!’ आनन्द ने पूछा।

‘घबराइए नहीं, उसके स्वभाव से मैं परिचित हूँ।’

वर्षा का जोर कुछ घट चुका था। हुमायूं अपने घर में बैठा किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था। उसे विश्वास था कि बेला अवश्य संध्या के घर गई होगी। वहाँ क्या हो रहा होगा, वह यह जानने के लिए उत्सुक था, परंतु अधूरी बात जानने के लिए टेलीफोन करना चाहता था।

टेलीफोन की घंटी बजी और उसने रिसीवर उठाया। उसका अनुमान ठीक निकला। यह संध्या थी, जो उसे नाटक का वह भाग सुना रही थी, जो वह देख न सका था। ज्योंही उसने टेलीफोन रखा, उसे रुकने की आवाज आई, हो सकता है बेला हो। उसने खिड़की से झांककर देखना उचित न समझा और एक पुस्तक लेकर सोफे पर बैठ गया।

सीढ़ियों पर आहट हुई। द्वार खुला और बेला लड़खड़ाती हुई भीतर आई। हुमायूं झट उठा और उसे संभाल लिया। उसके चेहरे से उसकी दयनीय दशा प्रतीत हो रही थी।

‘मैं न कहता था कि यह खेल तुम न देख सकोगी।’

‘हुमायूं भैया!’ बेला बालकों के समान उससे लिपट गई और अपनी व्याकुलता को आँसुओं में डुबोने लगी।

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