चैप्टर 17 आग और धुआं आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 17 Aag Aur Dhuan Acharya Chatursen Shastri Ka Upanyas Novel

चैप्टर 17 आग और धुआं आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास,  Chapter 17 Aag Aur Dhuan Acharya Chatursen Shastri Ka Upanyas, Aag Aur Dhuan Acharya Chatursen Shastri Novel In Hindi 

Chapter 17 Aag Aur Dhuan Acharya Chatursen Shastri

Chapter 17 Aag Aur Dhuan Acharya Chatursen Shastri

जब वारेन हेस्टिग्स की स्वच्छन्दता नष्ट हुई और कौन्सिल के साथ सहमत होकर शासन करने की कम्पनी ने आज्ञा दी, तब महाराज नन्दकुमार ने सर फिलिप फ्रांसिस द्वारा एक आवेदन-पत्र कौंसिल में भेजा। उसमें उन्होंने लिखा था-

“हेस्टिग्स साहब जैसे शत्रु की शिकायत करके आत्मरक्षा के मैं ईश्वर की कृपा पर ही भरोसा करता हूँ। मैं आत्ममर्यादा को प्राण से भी बढ़कर मानता हूँ। और मैं यदि अब भी असली भेद न खोलूँ और मौन रहूँ तो मुझे और भी अधिक विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगी, अतः मैं लाचार होकर यह रहस्य-भेद प्रकट करता हूँ।

इस आवेदन-पत्र में महाराज ने दिखाया कि हेस्टिग्स साहब ने ३५४१०५ रुपये का गबन किया है और वे महाराज के सर्वनाश का षड्यन्त्र रच रहे हैं। महाराज के शत्रु जगतचन्द्र, मोहनप्रसाद, कमालुद्दीन आदि इस पाप-गोष्ठी में सम्मिलित हैं।

जब यह पत्र कौन्सिल में पढ़कर सुनाया गया तो हेस्टिग्स साहब का चेहरा फख हो गया। वे क्रोध में मतवाले होकर मेम्बरों को सख्त बात कहने और महाराज को गालियाँ देने लगे। उस दिन कौन्सिल बरखास्त हो गई। दो दिन पीछे जब कौन्सिल बैठी तो महाराज का एक और पत्र खोला गया, जिसमें उन्होंने लिखा था कि कौन्सिल यदि आज्ञा दे तो मैं स्वयं कौन्सिलआकर अपनी बातों का प्रमाण पेश करूँ और घूस के रुपयों की रसीद दाखिल करूँ।

पत्र सुनकर कर्नल सॉंनसून ने प्रस्ताव किया कि महाराज को कौन्सिल में उपस्थित होकर सुबूत पेश करने की आज्ञा देनी चाहिए। यह सुनकर गवर्नर साहब के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने कहा-“यदि नन्दकुमार हमारा अभियोक्ता बनकर कौन्सिल में आएगा तो हम इस अपमान को प्राण जाने पर भी नहीं सह सकेंगे। हमारी अधीनस्थ कौन्सिल के सदस्य हमारे कार्यों के विचारक बनकर यदि एक सामान्य अपराधी के समान हमारा विचार करेंगे तो हम इस बोर्ड में बैठेंगे ही नहीं।” बार्बल साहब ने सलाह दी कि इस मामले की जाँच सुप्रीम कोर्ट द्वारा कराई जाय।

बहुत वाद-विवाद के अनन्तर बहुमत से महाराज का कौन्सिल में बुलाया जाना निश्चित हुआ। गोरे गवर्नर पर काला आदमी दोषारोपण करे, यह एक अनहोनी बात थी। हेस्टिग्ज साहब उठकर चल दिये। पर तीनों सदस्यों ने जनरल क्लीवरिङ्ग को सभापति बनाकर महाराज को कौन्सिल में बुलवाया और उनके प्रमाण सुनकर एकमत से हेस्टिग्स को अपराधी ठहराया। साथ ही उन्होंने यह भी निश्चय किया कि उन्हें घूस के रुपये फौरन कम्पनी के खजाने में जमा करा देने चाहिए। परन्तु हेस्टिग्स ने इस प्रस्ताव का तिरस्कार कर दिया, इस पर कम्पनी की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दावा दायर करने के लिए सब कागज कम्पनी के सॉलिसिटर जनरल के पास भेज दिए गये। सॉलिसिटर ने उन्हें देखकर जो राय कायम की थी वह यह है-

“हमारी समझ में कलकत्ते की सुप्रीम कोर्ट में कम्पनी की ओर से हेस्टिग्स साहब पर नालिश दायर की जानी चाहिए। ऐसा करने पर बंगाल के सब झगड़े एकदम तय हो जायेंगे और कम्पनी को भी अधिक लाभ होगा।”

हेस्टिग्स साहब ने यह रंग-ढंग देखकर चीफ जस्टिस इम्पे साहब की कोठी में एक गुप्त मंत्रणा की। उसके अगले दिन ही अचानक मोहनप्रसाद ने सुप्रीम कोर्ट में हलफिया बयान दाखिल करके एक जाल का दावा महाराज नन्दकुमार पर खड़ा कर दिया। दावे में कहा गया था कि महाराज नन्दकुमार ने जाली दस्तावेज बनाकर मृत बुलाकीदास की रियासत से रुपए वसूल किए हैं। बयान दाखिल होते ही महाराज नन्दकुमार की गिरफ्तारी के लिए कलकत्ते के शेरिफ के नाम सुप्रीम कोर्ट के विचारकों ने वारण्ट निकाल दिया और तत्काल ही महाराज नन्दकुमार गिरफ्तार करके जेल में डाल दिए गये। अपने पत्र में भण्डाफोड़ करते हुए महाराज ने जो भय प्रकट किया था, वह सम्मुख आ गया।

महाराज ब्राह्मण थे, इसलिए उन्होंने जिस स्थान पर ईसाई-मुसलमान आते-जाते थे, वहाँ सन्ध्या-वन्दन और खान-पान से इन्कार कर दिया। ६८ घण्टे वे बराबर निर्जल रहे। जब उनके वकील ने उन्हें किसी शुद्ध स्थान में नजरबन्द करने की अर्जी दी, तब बंगाल के पण्डितों को बुलाकर अंग्रेजों ने व्यवस्था ली कि महाराज की जाति जेल में खान-पान से नष्ट हो सकती है या नहीं? हेस्टिग्स के नौकर मोदी-बाबू ने झटपट मुर्शिदाबाद को आदमी दौड़ाकर अपने पंडित हरिदास तर्क-पंचानन को कलकत्ते बुला भेजा। उन्होंने तथा अन्य ब्राह्मणों ने आत्म-मर्यादा को तिलांजलि दे, व्यवस्था दी कि जेल में भोजन करने से ब्राह्मण की जाति नष्ट नहीं होती और अगर थोड़ा-बहुत दोष होता भी है तो वह ‘नहीं’ के बराबर है, और जेल से छुटकारा पाने के बाद व्रत आदि रखने से उसका प्रायश्चित्त हो जाता है। एक देवता ने तो यहाँ तक कह दिया कि ब्राह्मण की जाति आठ बार मुसलमान का भात खाने के बाद नष्ट होती है। उपरोक्त व्यवस्था सुनकर इम्पे साहब ने महाराज की दरख्वास्त नामंजूर कर दी, परन्तु जब महाराज ने भोजन से इन्कार कर दिया और वृद्ध होने के कारण उनके प्राण जाने का भय हुआ, तब जेल के आंगन में उनके लिए अलग खीमा खड़ा किया गया। इस बीच में अभियोग तैयार करके धूम-धाम से चलाया गया।

१७७५ की तीसरी जून को कलकत्ता में अंग्रेजी न्याय की कलंकरूप अदालत बैठी, और बेईमान जज पीली पोशाक पहनकर आ डटे। महाराज अभियुक्त के वेश में सामने खड़े हुए और उनके गुमाश्ता चौतन्यनाथ एवं उनके दास राय राधाचरण बहादुर और महाराज के बैरिस्टर फरार साहब उनके पीछे खड़े हुए। दूसरी ओर फर्यादी के गवाह कान्त पोद्दार आदि हेस्टिग्स के सहचर दर्शकों की सीट पर आ बैठे। महाराज पर जालसाजी के बीस अपराध लगाये गये। महाराज ने अपने को निर्दोष बतलाया।

उनसे पूछा गया-“आप किससे अपना विचार कराना चाहते हैं?’

महाराज ने कहा-“परमेश्वर हमारा विचार करे। हमारे देशवासी हमारी श्रेणी के जन हमारा विचार करें।” पर उस समय देशी लोगों का अंग्रेजों के न्यायालय में वैसा सम्मान न था, अतः १२ जूरी बनाकर विचार शुरू हुआ।

कोर्ट के प्रधान द्विभाषिए विलियम चेम्बर किसी तरीके से गैर हाजिर कर दिये गये और गवर्नर के कृपा-पात्र ईलिएट साहब को उनका काम सौंपा गया।

महाराज के बैरिस्टर ने आपत्ति की तो इम्पे साहब ने उसे घुड़क दिया। क्लार्क ऑफ दी क्राउन के अभियोग-पत्र पढ़ने पर फरियादी के गवाहों की जबानबन्दी आरम्भ हुई। पहली गवाही मोहनलाल की हुई। यह वही आदमी था, जिसकी पहली दरख्वास्त का मसौदा स्वयं कोर्ट के जजों ने बनाया था। पर यह बात फैसला हो चुकने पर प्रमाणित हुई। दूसरी साक्षी कमालुद्दीन खाँ की हुई। उसने कहा “महाराज ने मेरे नाम की मुहर मुझसे माँगी थी, आज १४ वर्ष हुए मुझे वह वापस नहीं मिली। जज के दस्तावेज दिखाने पर उसने अपनी मुहर की छाप को भी पहचान लिया। उसने यह भी कहा कि इस बात की खबर ख्वाजा पैट्रिक सदरुद्दीन और मेरे नौकर हुसेनअली को भी है।”

दस्तावेज पर मुहर में अब्दुल कमालुद्दीन की छाप थी। जिरह में जब उससे पूछा गया कि तुम्हारा नाम तो कमालुद्दीन खाँ है, यह मुहर कैसी? तब गवाह ने कहा-“धर्मावतार, मैं कभी झूठ नहीं बोलूँगा। मैं दिन में पाँच बार नमाज पढ़ता हूँ, मेरा नाम पहले अब्दुल कमालुद्दीन ही था। पर तब से अब मेरी हैसियत बढ़ गई है, इसलिए मैंने अपने नाम के आगे का टुकड़ा छोड़कर नाम के पीछे खाँ लगा लिया है।”

जिरह में जब पूछा गया कि तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि तुम्हारा नाम गवाहों में दर्ज है? तब उसने कहा-“महाराज ने मुझसे खुद जिक्र किया था कि हमने तुम्हारे नाम की मुहर गवाहों में लगा दी है, जरूरत पड़े तो इसके सबूत में तुम्हें गवाही देनी पड़ेगी। पर मैंने झूठी गवाही से साफ इंकार कर दिया था। अल्ला-अल्ला! भला मैं झूठी गवाही दे सकता था?”

हुसैनअली, ख्वाजा पैट्रिक और सदरुद्दीन ने भी उसकी बात की पुष्टि की। दस्तावेज पर अब्दुल कमालुद्दीन, शिलावत सिंह और माधवराव के दस्तखत थे। कमालुद्दीन की गवाही तो हो चुकी, बाकी दोनों मर चुके थे। शिलावतसिंह के दस्तखत पहचानने को राजा नवकृष्ण आये थे। ये कायस्थ थे। इन्होंने शपथपूर्वक कहा कि ये शिलावतसिंह के दस्तखत नहीं हैं।

इतनी साक्षी होने पर भी मामला जोरदार नहीं हुआ। वादी मोहन-प्रसाद नौ बार और उसका गुमाश्ता कृष्ण जीवनदास चौबीस बार गवाहों के कटहरे में खड़े किये गये। बार-बार जिरह किये जाने पर कृष्णजीवन ने झुंझलाकर कहा-“पद्ममोहनदास के हाथ का लिखा एक इकरारनामा बुलाकीदास ने स्वयं लिखा था, उसमें बुलाकीदास ने महाराज के १७६५ में ४८०२१ रुपये के एक तमस्सुक की बाबत साफ लिखा था।”

कृष्णजीवन के इस इजहार से कोर्ट के जजों और हेस्टिग्स के चेहरों का रंग फख हो गया। पर इम्पे साहब ने गम्भीरता से कहा-“कृष्णजीवन ने अब तक जो गवाही दी थी, वह करारेपन से दी थी, पर इस इकरारनामे की बात कहती बार उसका कण्ठ अवरुद्ध हुआ है। निस्सन्देह पद्ममोहन ने महाराज नन्दकुमार की साजिश से एक इकरारनामा तैयार कर लिया था।”

उधर कान्त पोद्दार, मुंशी नवकृष्ण; गंगा गोविंदसिंह, राजा राजवल्लभ और स्वयं हेस्टिग्स साहब नए-नए साक्षी तैयार कर रहे थे। और किसी तरह काम बनता न देखकर, उन्होंने आजिमअली को गवाह के कटहरे में लाकर खड़ा किया।

आजिमअली नमक की कोठी के एजेण्ट एक अंग्रेज का खानसामा था। क्लाइव की प्रतिष्ठित सभा के सभ्य आवश्यकता होने पर इसे सरकारी गवाह बनाया करते थे, क्योंकि उस समय सरकारी वकील नहीं होता था।

जब किसी पर नमक की चोरी का अपराध लगाया जाता था तो आजिमअली गवाह बनता था। पर अब वह सभा बन्द हो गई थी। आजिमअली ने अब एक औरत से निकाह पढ़ाकर लालबाजार में जूते की दूकान खोल ली थी।

तीसरी जून से सुबूत के गवाहों की जबानबन्दी आरम्भ हुई थी और ११वीं जून को सुबूत की गवाही समाप्त हुई थी। फिर भी १२वीं जून को आजिमअली गवाह पेश किया गया। यह कार्यवाही वेजाब्ता थी, पर इस मुकदमे में जाब्ता ही क्या था?

गवाहों के कटहरे में आजमअली को खड़ा होते देख महाराज के गुमाश्ते और उनके दामाद के देवता कूच कर गए। वह एक सिद्धहस्त गवाह था। वे समझ गए, बस यह चश्मदीद गवाह बनकर आया है। चैतन्य बाबू ने इस समय धूर्तता से काम लिया। उन्होंने हाथ के इशारे से आजिम को सौ, फिर दो सौ, फिर तीन सौ रुपये देने का शारा किया, पर आजिम न माना। वह हलफ उठाकर कहने लगा-

महाराज नन्दकुमार का मकान जानता हूँ। उनके गुमाश्ता चैतन्यनाथ ने मेरी दुकान से जूता लिया था। मैं सन् १७६६ के जुलाई मास में चतन्य बाबू से जूतों के दामों का तकाजा करने महाराज नन्दकुमार के मकान पर गया। उसके दस दिन पहले बुलाकीदास की मृत्यु हो गई थी। वहाँ मैंने चैतन्य बाबू को काम में फंसे हुए पाया। पूछने पर उन्होंने कहा-‘इस समय महाराज एक जाली दस्तावेज बना रहे हैं, उसीमें मैं इस समय फंसा हूँ।’ इसके बाद देखा, महाराज बैठक में नाक पर चश्मा चढ़ाकर बक्स में से २५-३० मुहर निकालकर उनका नाम जोर-जोर से पढ़ रहे हैं। एक मुहर को उन्होंने कमालुद्दीन की कहकर चैतन्यनाथ को दिखाया भी था।”

आजिम का यह इजहार सुनकर कोर्ट के जजों की आनन्द से बत्तीसी खुल गई। वे उत्सुकता से कहने लगे-‘गो आन’।

आजिमअली-हुजूर, इसके बाद तमस्मुक की शक्ल के कागज पर वह मुहर छाप दी गई।

एक जज-कहे जाओ, कहे जाओ।

आजिमअली-इसके बाद चैतन्य बाबू से महाराज ने कहा कि जहाँ मुहर लगाई है, उसके पास ही अब्दुल कमालुद्दीन का नाम भी लिख दो।

दूसरा जज-कहे जाओ।

आजिमअली-चैतन्य बाबू ने कमालुद्दीन का नाम लिख दिया।

नीसरा जज-क्या तुम पढ़-लिख सकते हो?

आजिमअली-हुजूर, अब तो आँखों से दिखाई ही कम देता है, पर आगे फारसी पढ़-लिख सकता था।

सर इम्पे-आगे बोलो।

आजिमअली-हुजूर, इसके बाद उसी कागज पर महाराज ने शिलावत-सिंह और माधवराव के नाम भी गवाहों में लिख दिये।

इस इजहार से घबराकर चैतन्यबाबू ने इशारे से एक हजार रुपये का इशारा किया। तब आजिम ने भी इशारे ही से कहा-घबराओ मत, सब पर पानी फेरे देता हूँ। उधर जज और फरियादी के वकील अधीर होकर-“गो ऑन, गो ऑन” कहने लगे।

आजिमअली-सब काम खत्म होने पर महाराज उसे पढ़ने लगे।

जजों ने आनन्दित होकर कहा-अच्छा-अच्छा, फिर क्या हुआ?

आजिमअली-बस पढ़कर महाराज ने उसे अपने बक्स में रख लिया।

तभी हमने सुना कि बुलाकीदास ने महाराज को तमस्मुक लिख दिया है।

सब जज-(एक साथ) फिर! फिर!!

आजिमअली-हुजूर, बस इसके बाद ही घर के भीतर मुर्गी बोली और मेरी नींद टूट गई। मेरी छोटी स्त्री ने कहा-मियाँ! आज क्या बिस्तर से नहीं उठोगे? देखो, कितनी धूप चढ़ गई है।

यह सुनते ही द्विभाषिए ईलिएट साहब ने आजिमअली के मुंह की ओर देखा। सहसा उनके मुख से निकल पड़ा-आह!

इधर तो इम्पे साहब ने द्विभाषिए से अन्तिम बात समझाने को कहा, और उधर गवाह से कहा-‘गो ऑन’।

आजिमअली-हुजूर, इसके बाद मैंने अपनी छोटी औरत से कहा-मीर की लड़की, मैंने ख्वाब में देखा है कि मैं महाराज नन्दकुमार के मकान पर गया हूँ और वे बुलाकीदास के नाम से एक जाली दस्तावेज बना रहे हैं।

जब ईलिएट साहब ने गवाह की बातों को इम्पे को समझाया तब तो सुप्रीम कोर्ट के सुयोग्य जज विमूढ़ हो आजिम के मुंह को देखने लगे। पर अब आजिम ने ‘गो ऑन’ की प्रतीक्षा न कर कहना जारी रखा-

“धर्मावतार, मेरी बात सुनकर मेरी छोटी स्त्री ने कहा-‘मियां! तुम हमेशा राजा, उमरा, साहबों के मकान पर आते-जाते हो, इसी से सपने भी तुम्हें ऐसे ही दीखते हैं।”

जज शून्य हृदय से बयान सुन रहे थे। अन्त में जज चेम्बर्स ने द्विभाषिए से कहा-गवाह से दरियाफ्त करो कि इसने हमारे सामने अभी जो कुछ कहा है वह सब ख्वाब की बातें हैं?

प्रश्न करने पर आजिमअली ने कहा- हुजूर, ख्वाब में जो मैंने देखा वही सच-सच बयान कर दिया है। तीन-चार दिन की बात है, इस ख्वाब की बात मैंने मोहनप्रसाद बाबू से कही थी। उन्होंने चट कहा कि तुम्हें गवाही भी देनी पड़ेगी। मैंने कहा जो देखा है सो कह दूँगा मेरा उसमें क्या हर्ज है। धर्मावतार! मैं कमीना नहीं, हैसियतदार आदमी हूँ। मेरी छोटी औरत मीर साहब की लड़की है। उसके पिदर अब्दुल लतीफ एक जिले के मालिक हैं। और मौलवी अब्दुल रहमान रिश्ते में मेरे साले होते हैं।

आजिम की इस प्रशस्त विरुद्धावली को सुनकर चैतन्य बाबू से न रहा गया। वे पीछे से बोल उठे-चचा, आज तो तुम बड़े आली खानदान बन गए। लाल बाजार की रहमानी की लड़की के साथ निकाह पढ़वाकर कहते हो कि मौलवी लतीफ हुसैन मेरे ससुर हैं।

आजिमअली-(क्रोध से) दुहाई है धर्मावतार की दिन-दहाड़े सरे-इजलास एक शरीफ की इज्जत ली गई है। मैं इस पर तोहीन का मुकद्दमा चलाऊँगा। इसका इतना मकदूर कि मेरी पाकदामन सास साहबा को यह लाल बाजार की रहमानी कहे। धर्मावतार! मेरी सास अब परदानशीन हैं। वे आगे अनकरीब आठ साल तक लाल बाजार में कुछ-कुछ बेपरदें थी। पर छै महीने हुए मौलवी साहब ने उनके साथ निकाह पढ़वाकर उन्हें अब परदानशीन बना लिया है। एक ऐसे इज्जतदार घराने की पर्दानशीन औरत की शान में ऐसी वाहियात जवाब निकालना सरासर जुर्म में दाखिल है। अदालत मेरी फरियाद सुने।

गवाह के रंग-ढंग देखकर सारी अदालत सन्नाटे में आ गई। अन्त में इम्पे साहब ने महाराज के बैरिस्टर फरार साहब से पूछा, क्या आपको इस गवाह की साक्षी प्रमाण-रूप से ग्रहण करने में कुछ उज है?

बैरिस्टर ने कहा-जब गवाह स्वप्न की बात कह रहा है तो मैं नहीं समझ सकता कि उसकी साक्षी कैसे प्रमाणभूत मानी जाय।

इम्पे–मि० फरार! इस गर्म मुल्क में पूरी-पूरी नींद शायद ही किसी को आती हो। प्रायः लोग अर्द्ध-तन्द्रा अवस्था में रहते हैं। ऐसी दशा में यदि कोई मनुष्य आँख, कान आदि इन्द्रियों द्वारा कोई विषय ग्रहण करे तो उसके कथन को लार्ड थारलो साक्षी रूप से ग्रहण किये जाने में कोई आपत्ति उपस्थित न करेंगे।

वैरिस्टर-मुझे लार्ड थारलो के मतामत से कुछ मतलब नहीं यदि आप इसकी गवाही प्रमाण मानना ही चाहते हैं तो मेरा भी उन दर्ज कर लिया जाय।

न्याय-मूर्ति इम्पे साहब ने मातहत तीनों जजों से सलाह करके आजिमअली की गवाही प्रमाण स्वरूप ग्रहण कर ली और आसामी के बैरिस्टर को सफाई के गवाह पेश करने की आज्ञा दी। बैरिस्टर ने कहा कि आसामी पर जुर्म प्रमाणित ही नहीं हुआ तब सफाई कैसी? आसामी निर्दोष है। उसे रिहाई मिलनी चाहिए।

जज ने कहा-अपराध सिद्ध हुआ है आप सफाई पेश न करेंगे तो हमें जूरियो को समझाने के लिए संग्रहीत प्रमाणों की आलोचना करनी पड़ेगी।

जिस दस्तावेज के सम्बन्ध में झगड़ा उठा था, उसकी यहाँ पर संक्षिप्त रूप से व्याख्या कर देना अप्रासंगिक न होगा। मुर्शिदाबाद में एक भारी राजनैतिक विद्वान पंडित बापूदेव जी शास्त्री रहते थे। नवाब अलीवर्दीखाँ उनका बड़ा सत्कार करते थे। और उनसे सदा राज-काज में परामर्श लेते रहते थे। इन शास्त्री जी के पास महाराज ने १२ वर्ष की उम्र तक आठ वर्ष संस्कृत-शास्त्रों की शिक्षा पाई थी। जब महाराज २२ वर्ष के हुए, तब नवाब अलीवर्दीखाँ ने पंडित जी के अनुरोध से उन्हें मेहिषदल परगने का लगान वसूल करने पर नियुक्त कर दिया। धीरे-धीरे वे अपनी योग्यता से हुगली के फौजदार बन गए। इस पर उन्होंने लगभग ३ लाख रुपये कमाए।

इसके बाद गुरु-दर्शन की अभिलाषा से एक बार वे मुर्शिदाबाद गए, उनकी कन्या के लिए, जिसे वे अपनी धर्म-भगिनी करके मानते थे, कुछ आभूषण साथ ले गए। परन्तु मुर्शिदाबाद पहुँचे तब उन्हें खबर मिली कि गुरु-पत्नी का देहान्त हो चुका है, और उनकी लड़की विधवा हो गई है।ऐसी दशा में उन्होंने आभूषणों के लाने की चर्चा तक गुरुजी से नहीं की और उन गहनों को अपने परिचित बुलाकीदास महाजन की दुकान में अमानत की तरह जमा करा दिया और मन में संकल्प किया कि किसी अवसर पर उन्हें बेचकर उनसे जो रुपये आवेंगे उन्हें प्रमदादेवी को दे देंगे।

दैवयोग से मीरकासिम और अंग्रेजों के युद्ध में मुर्शिदाबाद लूट लिया गया। बुलाकीदास का भी सर्वस्व लूटा गया। बुलाकीदास धर्मात्मा थे। उन्होंने महाराज को उनकी अमानत के बदले में ४८०२१ रुपये का तमस्मुक लिख दिया। बुलाकीदास मर गए, और उसी दस्तावेज को जाली करार देकर महाराज पर मुकदमा चलाया गया।

खैर, महाराज की ओर से सफाई की गवाहियाँ पेश हुई। बड़े-बड़े लोगों ने गवाहियाँ दीं। गवाही समाप्त हो चुकने पर जजों ने जूरियों को मुकदमा समझाया और उस पर एक लम्बी वक्तृता भी दी। वक्तृता समाप्त होने पर जूरी लोग दूसरे कमरे में उठ गए। आधे घण्टे बाद उन्होंने लौटकर कहा-

“महाराज नन्दकुमार अपराधी हैं।”

यह सुनते ही महामति इम्पे साहब ने महाराज को फांसी का हुक्म दे दिया।

हुक्म सुनाकर महाराज फिर जेल में भेज दिए गये। इस बार खेमे के बजाय एक दुतल्ला मकान उन्हें दिया गया। हजारों लोग शत्रु-मित्र उनसे मिलने आते थे। नबाव मुवारकुद्दौला ने कौन्सिल की सेवा में एक पत्र भेजा था। उसमें उसने प्रार्थना की थी कि इंग्लैण्ड के बादशाह की आज्ञा आने तक महाराज की फाँसी रोकी जाय।

स्वयं महाराज ने भी जनरल क्लीवरिंग और सर फ्रान्सिस के पास एक पत्र इस आशय का भेजा था-

“सर्वशक्तिमान् ईश्वर के बाद आप पर मुझे आशा है। मैं ईश्वर के नाम पर नम्रतापूर्वक आपसे अनुरोध करता हूँ कि इंग्लैण्ड के बादशाह की आज्ञा आ लेने तक आप मेरी मृत्यु-आज्ञा को मुल्तवी करा दें। हिन्दुओं के मतानुसार मैं न्याय के दिन इस संकट से उबारने के लिए आपको आशीष दूंगा।”

सुप्रीम कोर्ट से फैसला होने पर भी कौन्सिल को इतनी शक्ति थी कि वह इंगलैण्ड से आज्ञा आने तक फाँसी रोक दे। परन्तु कौन्सिल के सभ्यों ने इस मामले में पड़ना पसन्द नहीं किया। नबाव मुबारकुद्दौला के अलावा महाराज के भाई शम्भुनाथ राव आदि कई व्यक्तियों ने भी आवेदन-पत्र भेजे, परन्तु उनका कुछ फल न हुआ।

महाराज को पांचवीं अगस्त को फाँसी दी गई। किन्तु जनरल क्लीवमिंग ने १८ अगस्त को महाराज का वह पत्र कौन्सिल में खोला उस दिन महाराज का दशम संस्कार हो चुका था। १६ अगस्त को एक मन्तव्य बनाकर उस पत्र की प्राप्ति कौन्सिल के कागज पत्रों में से निकाल दी गई।

क्लीवरिंग को जो पत्र उर्दू में महाराज ने लिखा था, उसके विषय में हेस्टिग्स ने कहा कि इसमें जजों के आचरण की आलोचना की गई है, अतः यह पत्र जजों के पास भेज देना चाहिए। परन्तु फ्रान्सिस साहब ने कहा, ऐसा करने से पत्र का महत्त्व बढ़ जायेगा। इसमें लिखी हुई बातें झूठी और जजों का अपमान करने वाली हैं। मेरी राय में वह पत्र शेरिफ साहब को दे दिया जाय, ताकि वे इसे किसी आम जगह में सब लोगों के सामने किसी जल्लाद के हाथ से जलवा दें। दूसरे दिन सोमवार को वह पत्र चौराहे पर जल्लाद के हाथ से जलवा दिया गया।

दण्डाज्ञा सुनाने के बाईसवें दिन महाराज को फाँसी लगाई गई। वह समय उन्होंने ईश्वराधना में व्यतीत किया। फाँसी के दिन बड़े सवेरे जब महाराज पूजा में बैठे थे, एकाएक कोठरी का द्वार खुला और सामने कलकत्ते के मेकरेब साहब शेरीफ दीख पड़े। उन्होंने द्विभाषिए से कहा-महाराज से निवेदन करो कि आज हम आपसे अन्तिम भेंट करने आये हैं। हम ऐसी चेष्टा करेंगे कि ऐसे बुरे समय में (फाँसी में) महाराज को अधिक कष्ट न हो। मुझे इस घटना में शरीक होने का दुख है। महाराज विश्वास रखें कि अन्तिम समय तक मैं उनके साथ रहूँगा और उनकी अभिलाषाओं को पूरी करने की चेष्टा करूँगा।

महाराज ने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा-मैं आशा करता हूँ कि मेरे कुटुम्बियों पर भी आपकी ऐसी ही कृपा बनी रहेगी। प्रारब्ध अटल है, आप मेरा सलाम कौन्सिल के सभ्यों को कहना।

मेकरेब लिखते हैं-बात करते वक्त महाराज न साँस भरते थे, न उदास मालूम होते थे, और न उनका कण्ठ अवरुद्ध दिखलाई पड़ता था। उनका चेहरा गम्भीर था, उस पर विषाद का कुछ भी चिन्ह न था। महाराज की दृढ़ता देखकर मेकरेब साहब अधिक देर तक न ठहर सके। बाहर आने पर जेलर ने कहा–जब से महाराज के मित्र उनसे मिलकर गये हैं, तब से वे बराबर अपने हिसाब-किताब की जाँच-पड़ताल कर रहे हैं और नोट लिख रहे हैं।

फाँसी का समय ६ बजे प्रातःकाल था। मेकरेब साहब ठीक समय से आधा घण्टा पूर्व जेल गये। वहाँ फाँसी का सब सामान ठीक था। अंग्रेजों की अमलदारी में ब्राह्मण को फाँसी लगने का यह प्रथम ही अवसर था। हजारों मनुष्य देखने आये थे। उन सबकी आँखों में आँसू झलक रहे थे। खबर पाकर महाराज उतरकर नीचे आये। इस समय भी उनका मुख प्रसन्न था। शेरीफ साहब के बैठने पर वे भी एक कुर्सी पर बैठ गए। इतने में किसी ने घड़ी जेब से निकालकर देखी। यह देख महाराज तत्काल उठ खड़े हुए और बोले-मैं तैयार हूँ। पीछे घूमकर देखा तो तीन ब्राह्मण खड़े थे। वे उनका मृत शरीर लेने आये थे। महाराज ने उन्हें छाती से लगाया। महाराज प्रसन्न थे, पर ब्राह्मण फूट-फूट कर रो रहे थे।

मेकरेब ने घड़ी निकालकर कहा—समय तो हो गया, किन्तु जब तक आप न कहेंगे, तब तक यह पापिनी क्रिया आरम्भ न की जायेगी। एक घण्टे तक सब चुप बैठे रहे। बीच-बीच में महाराज कुछ बातचीत करते रहे और माला फेरते रहे। इसके बाद महाराज उठे, शेरीफ की तरफ देखा, और दोनों चल दिये। जेल के फाटक पर पालकी तैयार थी। महाराज पालकी पर सवार होकर जेल की तरफ चले। शेरीफ और डिप्टी शेरीफ पालकी के पीछे-पीछे चल रहे थे। भीड़ बहुत थी पर दंगा-फसाद का कुछ लक्षण न था। टिकटी के पास पहुंचकर महाराज ने कुछ ब्राह्मणों के न आने के विषय में पूछा। महाराज उनके विषय में पूछ ही रहे थे कि वे भी आ गये। उनसे एकान्त में बात करने को मेकरेब साहब ने अन्य अफसरों को हटाना चाहा, परन्तु महाराज ने उन्हें रोककर कहा-मैं सिर्फ बच्चों और घर की स्त्रियों के सम्बन्ध में उनसे कुछ कहना चाहता हूँ। इसके बाद उन्होंने कहा-“जो ब्राह्मण मेरी मृत-देह ले जायेंगे, उन्हें शेरीफ साहब अपनी निगरानी में रख लें। उनके सिवा कोई मेरे शरीर का स्पर्श न करे।”

शेरीफ ने पूछा-क्या आप अपने मित्रों से मिलना चाहते हैं?

महाराज ने कहा-मित्र तो बहुत हैं, पर उनसे मिलने का न यह स्थान है न समय।

शेरीफ ने फिर पूछा-फाँसी पर चढ़कर महाराज फाँसी का तख्ता हटाने का इशारा किस प्रकार देंगे?

महाराज ने कहा-हाथ हिलाते ही तख्ता सरका दिया जाय।

मेकरेब ने कहा-किन्तु नियमानुसार आपके हाथ तो बाँध दिये जायेंगे आप पैर हिलाकर सूचना दे दें।

महाराज ने स्वीकार किया।

शेरीफ ने महाराज की पालकी को फांसी के तख्ते तक लाने की आज्ञा दी, पर महाराज पालकी छोड़कर पैदल ही चल दिये। तख्ते के पास पहुँचकर उन्होंने दोनों हाथ पीछे कर दिये। अब उनके मुख पर कपड़ा लपेटने का समय आया। उन्होंने अंग्रेज के हाथ से कपड़ा लपेटने में आपत्ति की। शेरीफ ने एक ब्राह्मण सिपाही को रूमाल लपेटने का हुक्म दिया। महाराज ने उसे भी रोका। महाराज का एक नौकर उनके पैरों में लिपट रहा था, उसी को महाराज ने आज्ञा दी। इसके बाद वे चबूतरे पर चढ़कर अकड़कर खड़े हो गए। मेकरेब साहब लिखते हैं:

“मैं खिन्न हो अपनी पालकी में घुस गया, किन्तु बैठने भी न पाया था कि महाराज ने पूर्व-सूचना के अनुसार पैर का इशारा दे दिया, और तख्ता खींच लिया गया। बात की बात में महाराज के प्राण-पखेरू उड़ गये। नियत समय तक शव रस्सी पर लटका रहा, फिर ब्राह्मणों के हवाले कर दिया गया।”

ज्योंही महाराज के गले में फन्दा डालकर तख्ता खींचा गया, त्योंही लोग चीख मार-मारकर भागने लगे। वे भागते जाते थे और कहते जाते थे-

ब्रह्महत्या हुईल। कलिकाता अपवित्र हुईल। देश पापे परिपूर्ण हुईल! फिरिंगेर धर्माधर्म ज्ञान नाई!!! ब्राह्मणों ने उस दिन निर्जल व्रत रखा। बहुत से ब्राह्मण कलकत्ते को छोड़कर अन्यत्र रहने लगे। नगर में हा-हाकार मच गया। उसकी गलियाँ लोगों के करण-क्रन्दन से प्रतिध्वनित हो उठीं।

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