एक घटना अंतोन चेखव की कहानी | An Incident Anton Chekhov Ki Kahani 

एक घटना अंतोन चेखव की कहानी, An Incident Anton Chekhov Russian Story in Ek Ghatna Anton Chekhov Ki Kahani

An Incident Anton Chekhov Story In Hindi 

सूबह का समय था। बर्फ से जमी जालियों से छनकर चमकदार धूप बच्चों के कमरे को बेध रही थी। वान्या, छँटे बालों और बटन-सी नाक वाला छह साल का लड़का और उसकी नन्ही गोल-मटोल घुँघराले बालों वाली चार वर्षीय बहन नीना जागे और अपने-अपने पलंग की बल्लियों के बीच से एक-दूसरे को नाराज़गी के साथ घूरने लगे।

“ओ ! शैतान बच्चे!” उनकी धाय माँ बड़बड़ाई। “अच्छे बच्चे कबके जागकर नाश्ता भी कर चुके हैं और तुम दोनों की आँखें तक नहीं खुली हैं।”

सूरज की किरणें दरियों, दीवारों और धाय माँ के स्कर्ट से अठखेलियाँ करती हैं, मानो बच्चों को खेल में आ जुड़ने का आमंत्रण दे रही हों, पर वे ध्यान तक नहीं देते। वे बदमिज़ाज मूड में जगे हैं। नीना होंठ बिचकाती है, चेहरा बिगाड़ती है और बिसूरने लगती है:

“नास्ता, धाय माँ नास्ता।”

वान्या भौंहें जोड़ता है और सोचता है कि वह किस स्वर में चीखे। वह आँखें बन्द कर मुँह खोलने वाला ही है, कि ठीक उसी पल बैठक से मम्मा की आवाज़ किसी से कहती है: “बिल्ली को दूध देना न भूलना, आखिर वह अब परिवार वाली बन गई है।”

बच्चों के चेहरों पर आई शिकन अचानक पुँछ जाती है, वे एक-दूसरे को अचरज से देखते हैं। और दोनों एक साथ चीख कर अपने पलंग से कूद जाते हैं। वातावरण को शोर से भरते हुए, नंगे पाँव, रात के कपड़ों में वे रसोई घर की ओर दौड़ पड़ते हैं।

“बिल्ली के ‘पिल्ले’ हुए हैं!” वे चीखते हैं, “बिल्ली के पिल्ले हुए हैं!”

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रसोई में पड़ी बैंच के नीचे एक छोटा-सा डिब्बा है जिसमें स्टेपान अलाव जलाने के लिए कोयला लाया करता है। बिल्ली उसी डिब्बे से झाँक रही है। उसके सलेटी चेहरे पर थकान का भाव है; महीन काले गोले वाली उसकी हरी आँखों में एक अलसाई भावनात्मकता है…। उसके चेहरे से साफ नज़र आता है कि उसकी खुशी को सम्पूर्ण होने में बस एक ही कमी है, ‘उसकी’ यानी उसके बच्चों के पिता की मौजूदगी की, जिसके हवाले उसने अपने आपको इतनी लापरवाही से सौंप दिया था। वह म्याऊँ-म्याऊँ बोलना चाहती है, अपना मुँह फाड़ती है, पर कण्ठ से सिर्फ घुरघुराहट ही निकलती है; उसकी बिलौटियों की चैं-पैं सुनाई दे रही है।

बच्चे डिब्बे के सामने उकड़ूँ बैठे हैं, बिना हिलेडुले, साँसें थाम बिल्ली को निहार रहे हैं…। वे अचरज से भरे हैं, प्रभावित हैं, और धाय माँ की शिकायत सुन तक नहीं पाते, जो उनके पीछे-पीछे रसोईघर तक आ पहुँची है। दोनों की आँखों में बिलकुल खाँटी खुशी चमक रही है।

पालतू घरेलू – जानवर बच्चों की शिक्षा-दीक्षा और जीवन में एक ऐसी भूमिका निभाते हैं जिस पर अक्सर कोई गौर नहीं करता पर जो होती लाभदायक है। हममें से कौन ऐसा होगा जिसे ताकतवर पर उदारमना कुत्तों, आलसी पिल्लों, वो चिड़िया जो पिंजड़े में बन्द ही मर गई या मन्द बुद्धि पर घमण्डी टर्की और नम्र स्वभाव वाला बूढ़ा बिल्ला याद न हो, जिसकी पूँछ पर हम मस्ती मारने के नाम पर जा चढ़े थे, जिसे बेहद दर्द हुआ था पर फिर भी उसने हमें उदारता के साथ माफ कर दिया था। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि हमारे घरेलू पशुओं का धैर्य, उनकी स्वामिभक्ति और माफ करने की तत्परता का बच्चों के दिमाग पर जो असर पड़ता है वह किसी ज़र्द चेहरे और लम्बे भाषण देने वाले कार्ल कर्लोविच या पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बनता है, बच्चों को यह बताने वाली गवर्नेस से कहीं ज़्यादा होता है।

“हाय कैसे नन्हे-नन्हे हैं।” नीना आँखें फाड़ कहती है और उल्लास से हँस पड़ती है, “ये तो चूहों से हैं।”

“एक, दो, तीन,” वान्या गिनता है, “तीन बिलौटियाँ। सो एक तुम्हारे लिए, एक मेरे लिए और एक किसी और के लिए भी है।”

“मुर्रम्म…घुर्रम्म…” बिल्ली माँ इतना ध्यान पा खुशी से घुरघुराती है।

बिलौटियों को कुछ देर निहारने के बाद बच्चे उन्हें बिल्ली के नीचे से निकालते हैं और हाथों में ले सहलाने लगते हैं। पर इतने भर से सन्तुष्ट न हो वे अपने कुर्ते की झोली बना उन्हें उसमें डालते हैं और दूसरे कमरों की ओर दौड़ पड़ते हैं।

“मम्मा बिल्ली के पिल्ले हुए हैं!” वे चीखते हैं।

मम्मा बैठक घर में किसी अजनबी सज्जन के साथ बैठीं हैं। बिना नहाए-धोए व कपड़े बदले बिना, रात के कपड़ों में बच्चों को देख उन्हें झिझक होती है, वे उन्हें सख्ती से घूरती हैं।

“कुर्ता नीचे करो बेशरम बच्चो,” वे कहती हैं। “फौरन कमरे से निकलो वरना सज़ा मिलेगी।”

पर बच्चों का ध्यान न तो मम्मा की धमकी पर जाता है, ना ही बैठक में मौजूद अजनबी पर। वे बिलौटियों को कालीन पर रखते हैं और कानफोड़ू चीखें मारते हैं। बिल्ली माँ म्याऊँ-म्याऊँ की याचना करते हुए उनके पैरों के इर्द-गिर्द मण्डराती है। कुछ ही देर में बच्चों को घसीट कर उनके कमरे में ले जाया जाता है, हाथ-मुँह धुला उनके कपड़े बदले जाते हैं, दुआ बुलवाई जाती है, नाश्ता करवाया जाता है। इस दौरान वे रोज़मर्रा के इन उबाऊ कर्तव्यों से पिण्ड छुड़ा वापस रसोईघर में जाने की बेसब्र आतुरता से भरे रहते हैं।

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रोज़ाना के खेल और गतिविधियाँ मानो एक ही झटके से पृष्ठभूमि में ठेल दी गई हैं।

इस दुनिया में आ बिलौटियों ने शेष सभी चीज़ों को महत्वहीन बना दिया है, वे दिन की सबसे बड़ी उत्तेजना उपलब्ध करवा रही हैं। अगर नीना और वान्या को कोई हरेक बिलौटी के लिए चालीस पाउण्ड मीठी गोलियाँ या दस हज़ार कोपैक भी देता तो वे इस सौदे से बेहिचक इन्कार कर देते। धाय माँ और रसोइए के तमाम प्रतिवादों के बावजूद बच्चे रसोई में बिल्ली के डिब्बे के पास बैठ बिलौटियों से शाम के खाने के वक्त तक खेलते रहते हैं। उनके चेहरों पर संजीदगी है, एकाग्रता है और चिन्ता का भाव भी। उन्हें बिलौटियों के वर्तमान की इतनी नहीं, पर भविष्य की चिन्ता है। वे तय करते हैं कि एक बिलौटी घर में बूढ़ी बिल्ली के पास ही रहेगी ताकि माँ को सुख-सन्तोष दे सके, दूसरी गर्मी के गाँव वाले घर में जाएगी और तीसरी तहखाने में जहाँ ढेरों चूहे हैं।

“पर वे हमारी तरफ देखती क्यों नहीं?” नीना सवाल करती है। “इनकी आँखें तो अन्धे भिखारी की तरह हैं।”

वान्या को भी यह सवाल परेशान करता है। वह एक बिलौटी की आँख खोलने की कोशिश करता है, वह हाँफने लगता है, कोशिश से उसका दम फूलने लगता है, पर उसकी चेष्टा नाकाम रहती है। बच्चे इस बात से भी परेशान हैं कि बिलौटियाँ उनको दिए गए दूध और माँस से भी मुँह फेर लेती हैं। उनकी नन्ही नाकों के सामने जो कुछ भी रखा जाता है, वह सब उनकी सलेटी रंग की माँ चट कर जाती है। “चलो, बिलौटियों के लिए छोटे-छोटे घर बनाते हैं,” वान्या सुझाता है। “सब अलग-अलग घरों में रहेंगी और बिल्ली उन सबसे मिलने जाएगी…।”

टोपियाँ रखने के कार्डबोर्ड के डिब्बे रसोई के विभिन्न कोनों में रखे जाते हैं, और उनमें एक-एक बिलौटी धर दी जाती है। पर यह विभाजन समय से पहले हुआ है: बिल्ली याचना और ममत्व का भाव चेहरे पर ओढ़े, सभी टोप-डिब्बों के पास जाती है और अपने शावकों को उनके मूल स्थान पर ला धरती है।

“बिल्ली इनकी माँ है,” वान्या गौर करने के बाद टिप्पणी करता है, “पर इनका पिता कौन है?”

“हाँ, पिता भला कौन है?” नीना सवाल दोहराती है।

“इनका पिता तो होना ही चाहिए।”

वान्या और नीना काफी देर यह तय करने में लगाते हैं कि बिलौटियों का पिता किसे बनाया जाए, आखिरकार वे बड़े-से गहरे लाल रंग के पूँछ-कटे घोड़े को चुनते हैं जो सीढ़ियों के नीचे बनी अलमारी में उन तमाम खिलौनों के साथ रखा पड़ा है जिनके दिन चुक गए हैं। वे उसे अलमारी के बाहर घसीटते हैं और डिब्बे के पास ला खड़ा करते हैं।

“ध्यान से सुनो!” वे उसे डपटते हुए कहते हैं, “यहाँ खड़े रहना और ख्याल रखना कि बच्चे शैतानी ना करें।”

यह सब बड़ी संजीदगी से किया जाता है और उनके चेहरों पर इस दौरान चिन्ता का भाव भी होता है। वान्या और नीना यह पहचानने से इन्कार करते हैं कि बिलौटियों के डिब्बे से अलहदा भी दुनिया का कोई अस्तित्व है। उनकी खुशी की कोई हद नहीं है। पर साथ ही उन्हें बेहद कड़वे, पीड़ादायक पल भी झेलने पड़ते हैं।

रात के खाने से बस ज़रा पहले वान्या पिता के अध्ययन कक्ष में बैठा मेज़ को स्वप्निल आँखों से निहार रहा है। एक बिलौटी लैम्प के पास विभिन्न तरह के कागज़ातों पर विचर रही है। वान्या उसकी हलचल देख रहा है और पहले एक पेन्सिल फिर माचिस की एक-एक तीली उसके छोटे-से मुँह में घुसेड़ता है…। अचानक उसके पिता, मानो धरती फोड़ निकले हों, मेज़ के पास प्रकट होते हैं।

“यह क्या है?” वान्या गुस्से से भरी आवाज़ सुनता है।

“यह… यह तो बिलौटी है, पापा…।”

“तुम भी कमाल हो; देखो तुमने क्या किया है शैतान लड़के! तुमने मेरे सारे कागज़ गन्दे कर दिए हैं!”

वान्या हैरान है कि उसके पापा को बिलौटियाँ बिलकुल भी पसन्द नहीं हैं, उत्साहित और प्रसन्न होने के बदले वे वान्या का कान उमेठ कर चिल्लाते हैं:

“स्टेपान, इस बेहूदी चीज़ को यहाँ से हटाओ।”

खाते वक्त भी एक नाटक होता है…। दूसरा व्यंजन परोसा और खाया जा ही रहा था कि म्याऊँ की चीख सुनाई पड़ती है। आवाज़ के स्रोत की तलाश करने पर नीना के फ्रॉक के नीचे एक बिलौटी मिलती है।

“नीना मेज़ पर से उठ जाओ!” उसके पिता गुस्से से चीखते हैं। “बिलौटियों को गटर में फेंक दो! मुझे घर में ऐसी वाहियात चीज़ें नहीं चाहिए…!”

वान्या और नीना सकते में आ जाते हैं। गटर में मौत और निपट क्रूरता के अलावा खतरा यह भी तो है कि बिल्ली और काठ के घोड़े से उनके बच्चे छीन लिए जाएँगे, बिल्ली का बसा-बसाया डिब्बा उजड़ जाएगा और भविष्य की उनकी योजनाएँ बिखर कर नष्ट हो जाएँगी। वह सुन्दर भविष्य जिसमें एक बिल्ली अपनी बूढ़ी माँ को सुख-सन्तोष दे, दूसरी गाँव के मकान में रहे और तीसरी तहखाने में चूहे पकड़े। बच्चे रोने लगते हैं और बिलौटियों को बख्शने की याचना करते हैं। उनके पिता मान जाते हैं, पर इस शर्त पर कि बच्चे रसोई में जाकर बिलौटियों को नहीं छुएँगे।

खाने के बाद वान्या और नीना कमरों में निरुद्देश्य घूम रहे हैं, उदास मन से। रसोई में घुसने की मनाही ने उन्हें अवसाद में ढकेल दिया है। वे मिठाई खाने से इन्कार करते हैं, शैतानी करते हैं और माँ के साथ भी रुखाई से पेश आते हैं। शाम को जब उनके चचा पेत्रुशा आते हैं वे उन्हें अलग ले जाकर अपने पिता की शिकायत करते हैं, जो बिलौटियों को गटर में फिंकवाना चाह रहे थे।

“चचा पेत्रुशा, मम्मा से कहिए ना कि वे बिलौटियों को हमारे कमरे में रखवा दें,” बच्चे गुहार लगाते हैं, “उनसे ज़रूर कह दें।”

“बस, बस,…ठीक है कह दूँगा,” चचा कहते हैं और उन्हें जाने का इशारा करते हैं।

चचा पेत्रुशा अमूमन अकेले नहीं आते। उनके साथ होता है नीरो, एक भारीभरकम डेनिश जाति का कुत्ता, जिसके लटके हुए कान हैं और सोंटे-सी सख्त पूँछ। कुत्ता चुप्प, अलग-थलग और आत्मसम्मान के गुरूर से भरा रहता है। वह बच्चों पर कतई ध्यान नहीं देता, उनके पास से गुज़रता हुआ उन्हें अपनी पूँछ से यों मारता निकलता है मानो वे कुर्सियाँ हों। बच्चे उससे तहेदिल से नफरत करते हैं, पर आज इस मौके पर व्यावहारिक कारणों से वे अपनी भावना को जबरन दरकिनार करते हैं।

“मैं कहता हूँ नीना,” वान्या अपनी आँखें चौड़ी कर बोलता है। “घोड़े के बदले अपने नीरो को बिलौटियों का पिता बनने देते हैं। घोड़ा तो मरा हुआ है और नीरो ज़िन्दा है, ठीक रहेगा न?”

वे सारी शाम उस पल का इन्तज़ार करते हैं, जब पापा ताश खेलने बैठें और वे सबकी आँख बचा नीरो को रसोईघर ले जाएँ…। अन्तत: पापा ताश खेलने बैठते हैं, मम्मा समोवार में चाय बनाने में व्यस्त हो जाती हैं और बच्चों पर ध्यान नहीं देतीं…। वह खुशगवार पल आ जाता है।

“चलो, अब चलते हैं!” वान्या बहन के कान में फुसफुसाता है।

ठीक उसी क्षण स्टेपान अन्दर आता है और अपनी हँसी दबाता, घोषणा करता है: “नीरो ने बिलौटियों को खा डाला है मैडम।”

नीना और वान्या पीले पड़ स्टेपान को भयातुर हो देखते हैं। “सच उसने खा डाला है…” नौकर हँस कर कहता है, “वह डिब्बे के पास गया और उन्हें भकोस गया।”

बच्चों को उम्मीद है कि घर के सब लोग क्षोभ से भर दुष्ट नीरो पर पिल पड़ेंगे। पर यह क्या? सब अपनी-अपनी जगह इत्मीनान से बैठे रहते हैं और सिर्फ उस विशाल कुत्ते की भारी भूख पर अचरज जताते हैं। पापा और मम्मा हँसते हैं। नीरो मेज़ के इर्द-गिर्द दुम हिलाता घूमता है और आत्मतोष से भरा अपने होंठ चाटता है… बिल्ली ही इकलौती है जो परेशान है। अपनी पूँछ हवा में उठा कर वह सबको शंकालू नज़र से देखती कमरे में चक्कर काटती है और उदासी से भरी म्याऊँ-म्याऊँ करती है। “बच्चो नौ से भी ऊपर हो गए,” मम्मा कहती हैं, “सोने का समय हो गया है।”

वान्या और नीना सोने जाते हैं और देर तक दुखिया बिल्ली और क्रूर व गुस्ताख नीरो के बारे में सोचते रहते हैं, जिसे कोई सज़ा नहीं मिलती।

(अनुवाद : पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा)

**समाप्त**

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