चैप्टर 33 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 33 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 33 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 33 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 33 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 33 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

दिन बड़ी ही चिन्ता में बीता। तीन-तीन घंटे पर इंजेक्शन लग रहे थे। दोपहर को दो बजे इंजेक्शन खत्म कर डॉक्टर ने एक गहरी साँस ली और बोला, ”कुछ उम्मीद है-अगर बारह घंटे तक हार्ट ठीक रहा तो मैं आपकी लड़की आपको वापस दूँगा।”

बड़ा भयानक दिन था। बहुत ऊँची छत का कमरा, दालानों में टाट के परदे पड़े थे और बाहर गर्मी की भयानक लू हू-हू करती हुई दानवों की तरह मुँह फाड़े दौड़ रही थी। डॉक्टर साहब सिरहाने बैठे थे, पथरीली निगाहों से सुधा के पीले मृतप्राय चेहरे की ओर देखते हुए…बिनती और चन्दर बिना कुछ खाये-पीये चुपचाप बैठे थे-रह-रहकर बिनती सिसक उठती थी, लेकिन चंदर ने मन पर पत्थर रख लिया था। वह एकटक एक ओर देख रहा था…कमरे में वातावरण शान्त था-रह-रहकर बिनती की सिसकियाँ, पापा की नि:श्वासें तथा घड़ी की निरन्तर टिक-टिक सुनाई पड़ रही थी।

चंदर का हाथ बिनती की गोद में था। एक मूक संवेदना ने बिनती को सँभाल रखा था। चंदर कभी बिनती की ओर देखता, कभी घड़ी की ओर। सुधा की ओर नहीं देख पाता था। दुख अपनी पूरी चोट करने के वक्त अकसर आदमी की आत्मा और मन को क्लोरोफार्म सुँघा देता है। चंदर कुछ भी सोच नहीं पा रहा था। संज्ञा-हत, नीरव, निश्चेष्ट…

घड़ी की सुई अविराम गति से चल रही थी। सर्जन कई दफे आये। नर्स ने आकर टेम्परेचर लिया। रात को ग्यारह बजे टेम्परेचर उतरने लगा। डॉक्टर शुक्ला की आँखें चमक उठीं। ठीक बाहर बजकर पाँच मिनट पर सुधा ने आँखें खोल दीं। चंदर ने बिनती का हाथ मारे खुशी से दबा दिया।

”बिनती कहाँ है?” बड़े क्षीण स्वर में पूछा।

सुधा ने आँख घुमाकर देखा। पापा को देखते ही मुस्करा पड़ी।

बिनती और चंदर उठकर आ गये।

”आहा, चंदर तुम आ गये? हमारे लिए क्या लाये?”

”पगली कहीं की!” मारे खुशी के चंदर का गला भर गया।

”लेकिन तुम इतनी देर में क्यों आये, चंदर!”

”कल रात को ही आ गये थे हम।”

”चलो-चलो, झूठ बोलना तो तुम्हारा धर्म बन गया। कल रात को आ गये होते तो अभी तक हम अच्छे भी हो गये होते।” और वह हाँफने लगी।

सर्जन आया, ”बात मत करो…” उसने कहा।

उसने एक मिक्सचर दिया। फिर आला लगाकर देखा, और डॉक्टर शुक्ला को अलग ले जाकर कहा, ”अभी दो घंटे और खतरा है। लेकिन परेशान मत होइए। अब सत्तर प्रतिशत आशा है। मरीज जो कहे, उसमें बाधा मत दीजिएगा। उसे जरा भी परेशानी न हो।”

सुधा ने चंदर को बुलाया, चंदर पापा से मत कहना। अब मैं बचूँगी नहीं। अब कहीं मत जाना, यहीं बैठो।”

”छिह पगली! डॉक्टर कह रहा है अब खतरा नहीं है।” चंदर ने बहुत प्यार से कहा, ”अभी तो तुम हमारे लिए जिन्दा रहोगी न!”

”कोशिश तो कर रही हूँ चंदर, मौत से लड़ रही हूँ! चंदर, उन्हें तार दे दो! पता नहीं देख पाऊँगी या नहीं।”

”दे दिया, सुधा!” चंदर ने कहा और सिर झुकाकर सोचने लगा।

”क्या सोच रहे हो, चंदर! उन्हें इसीलिए देखना चाहती हूँ कि मरने के पहले उन्हें क्षमा कर दूँ, उनसे क्षमा माँग लूँ!… चंदर, तुम तकलीफ का अन्दाजा नहीं कर सकते।”

डॉक्टर शुक्ला आये। सुधा ने कहा, ”पापा, आज तुम्हारी गोद में लेट लें।” उन्होंने सुधा का सिर गोद में रख लिया। ”पापा, चंदर को समझा दो, ये अब अपना ब्याह तो कर ले।…हाँ पापा, हमारी भागवत मँगवा दो…”

”शाम को मँगवा देंगे बेटी, अब एक बज रहा है…”

”देखा…” सुधा ने कहा, ”बिनती, यहाँ आओ!”

बिनती आयी। सुधा ने उसका माथा चूमकर कहा, ”रानी, जो कुछ तुझे आज तक समझाया वैसा ही करना, अच्छा! पापा तेरे जिम्मे हैं।”

बिनती रोकर बोली, ”दीदी, ऐसी बातें क्यों करती हो…”

सुधा कुछ न बोली, गोद से हटाकर सिर तकिये पर रख लिया।

”जाओ पापा, अब सो रहो तुम।”

”सो लूँगा, बेटी…”

”जाओ। नहीं फिर हम अच्छे नहीं होंगे! जाओ…”

सर्जन का आदेश था कि मरीज के मन के विरुद्ध कुछ नहीं होना चाहिए-डॉक्टर शुक्ला चुपचाप उठे और बाहर बिछे पलँग पर लेट रहे।

सुधा ने चंदर को बुलाया, बोली, ”मैं झुक नहीं सकती-बिनती यहाँ आ-हाँ, चंदर के पैर छू…अरे अपने माथे में नहीं पगली मेरे माथे से लगा दे। मुझसे झुका नहीं जाता।” बिनती ने रोते हुए सुधा के माथे में चरण-धूल लगा दी, ”रोती क्यों है, पगली! मैं मर जाऊँ, तो चंदर तो है ही। अब चंदर तुझे कभी नहीं रुलाएँगे…चाहे पूछ लो! इधर आओ, चंदर! बैठ जाओ, अपना हाथ मेरे होठों पर रख दो…ऐसे…अगर मैं मर जाऊँ तो रोना मत, चंदर! तुम ऊँचे बनोगे, तो मुझे बहुत चैन मिलेगा। मैं जो कुछ नहीं पा सकी, वह शायद तुम्हारे ही माध्यम से मिलेगा मुझे। और देखो, पापा को अकेले दिल्ली में न छोड़ना…लेकिन मैं मरूँगी नहीं, चंदर…यह नरक भोगकर भी तुम्हें प्यार करूँगी…मैं मरना नहीं चाहती, जाने फिर कभी तुम मिलो या न मिलो, चंदर…उफ कितनी तकलीफ है, चंदर! हम लोगों ने कभी ऐसा नहीं सोचा था…अरे हटो-हटो… चंदर!” सहसा सुधा की आँखों में फिर अँधेरा छा गया-”भागो, चंदर! तुम्हारे पीछे कौन खड़ा है?” चंदर घबराकर उठ गया-पीछे कोई नहीं था… ”अरे चंदर, तुम्हें पकड़ रहा है। चंदर, तुम मेरे पास आओ।” सुधा ने चंदर का हाथ पकड़ लिया-बिनती भागकर डॉक्टर साहब को बुलाने गयी। नर्स भी भागकर आयी। सुधा चीख रही थी-”तुम हो कौन? चंदर को नहीं ले जा सकते। मैं चल तो रही हूँ। चंदर, मैं जाती हूँ इसके साथ, घबराना मत। मैं अभी आती हूँ। तुम तब तक चाय पी लो-नहीं, मैं तुम्हें उस नरक में नहीं जाने दूँगी, मैं जा तो रही हूँ-बिनती, मेरी चप्पल ले आ…अरे पापा कहाँ हैं…पापा…”

और सुधा का सिर चंदर की बाँह पर लुढ़क गया-बिनती को नर्स ने सँभाला और डॉक्टर शुक्ला पागल की तरह सर्जन के बँगले की ओर दौड़े…घड़ी ने टन-टन दो बजाये…

जब एम्बुलेन्स कार पर सुधा का शव बँगले पहुँचा, तो शंकर बाबू आ गये थे-बहू को विदा कराने…

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