चैप्टर 34 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 34 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 34 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 34 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 34 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 34 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

उपसंहार

जिंदगी का यन्त्रणा-चक्र एक वृत्त पूरा कर चुका था। सितारे एक क्षितिज से उठकर, आसमान पार कर दूसरे क्षितिज तक पहुँच चुके थे। साल-डेढ़ साल पहले सहसा जिंदगी की लहरों में उथल-पुथल मच गयी थी और विक्षुब्ध महासागर की तरह भूखी लहरों की बाँहें पसारकर वह किसी को दबोच लेने के लिए हुंकार उठी थी। अपनी भयानक लहरों के शिकंजे में सभी को झकझोरकर, सभी के विश्वासों और भावनाओं को चकनाचूर कर अन्त में सबसे प्यारे, सबसे मासूम और सबसे सुकुमार व्यक्तित्व को निगलकर अब धरातल शान्त हो गया-तूफान थम गया था, बादल खुल गये थे और सितारे फिर आसमान के घोंसलों से भयभीत विहंग-शावकों की तरह झाँक रहे थे।

डॉक्टर शुक्ला छुट्टी लेकर प्रयाग चले आये थे। उन्होंने पूजा-पाठ छोड़ दिया था। उन्हें कभी किसी ने गाते हुए नहीं सुना था। अब वह सुबह उठकर लॉन पर टहलते और एक भजन गाते थे। बिनती, जो इतनी सुन्दर थी, अब केवल खामोश पीड़ा और अवशेष स्मृति की छाया मात्र थी। चंदर शान्त था, पत्थर हो गया था, लेकिन उसके माथे का तेज बुझ गया था और वह बूढ़ा-सा लगने लगा था और यह सब केवल पन्द्रह दिनों में।

जेठ दशहरे के दिन डॉक्टर साहब बोले, चंदर, आज जाओ, उसके फूल छोड़ आओ, लेकिन देखो, शाम को जाना जब वहाँ भीड़-भाड़ न हो, अच्छा!” और चुपचाप टहलकर गुनगुनाने लगे।

शाम को चंदर चला, तो बिनती भी चुपचाप साथ हो ली; न बिनती ने आग्रह किया न चंदर ने स्वीकृति दी। दोनों खामोश चल दिये। कार पर चंदर ने बिनती की गोद में गठरी रख दी। त्रिवेणी पर कार रुक गयी। हल्की चाँदनी मैले कफन की तरह लहरों की लाश पर पड़ी हुई थी। दिन-भर कमाकर मल्लाह थककर सो रहे थे। एक बूढ़ा बैठा चिलम पी रहा था। चुपचाप उसकी नाव पर चंदर बैठ गया। बिनती उसकी बगल में बैठ गयी। दोनों खामोश थे, सिर्फ पतवारों की छप-छप सुन पड़ती थी। मल्लाह ने तख्त के पास नाव बाँध दी और बोला, ”नहा लें बाबू!” वह समझता था बाबू सिर्फ घूमने आये हैं।

”जाओ!”

वह दूर तख्तों की कतार के उस छोर पर जाकर खो गया। फिर दूर-दूर तक फैला संगम…और सन्नाटा… चंदर सिर झुकाये बैठा रहा…बिनती सिर झुकाये बैठी रही। थोड़ी देर बाद बिनती सिसक पड़ी। चंदर ने सिर उठाया और फौलादी हाथों से बिनती का कंधा झकझोरकर बोला, ”बिनती, यदि रोयी, तो यही फेंक देंगे उठाकर कम्बख्त, अभागी!”

बिनती चुप हो गयी।

चंदर चुपचाप बैठा तख्त के नीचे से गुजरती हुई लहरों को देखता रहा। थोड़ी देर बाद उसने गठरी खोली…फिर रुक गया, शायद फेंकने का साहस नहीं हो रहा था…बिनती ने पीछे से आकर एक मुट्ठी राख उठा ली और अपने आँचल में बाँधने लगी। चंदर ने चुपचाप उसकी ओर देखा, फिर झपटकर उसने बिनती का आँचल पकड़ कर राख छीन ली और गुर्राता हुआ बोला, ”बदतमीज कहीं की!…राख ले जाएगी-अभागी!” और झट से कपड़े सहित राख फेंक दी और आग्नेय दृष्टि से बिनती की ओर देखकर फिर सिर झुका लिया। लहरों में राख एक जहरीले पनियाले साँप की तरह लहराती हुई चली जा रही थी।

बिनती चुपचाप सिसक रही थी।

”नहीं चुप होगी!” चंदर ने पागलों की तरह बिनती को ढकेल दिया, बिनती ने बाँस पकड़ लिया और चीख पड़ी।

चीख से चंदर जैसे होश में आ गया। थोड़ी देर चुपचाप रहा फिर झुककर अंजलि में पानी लेकर मुँह धोया और बिनती के आँचल से पोंछकर बहुत मधुर स्वर में बोला, ”बिनती, रोओ मत! मेरी समझ में नहीं आता कुछ भी! रोओ मत!” चंदर का गला भर आया और आँख में आँसू छलक आये-”चुप हो जाओ, रानी! मैं अब इस तरह कभी नहीं करूँगा-उठो! अब हम दोनों को निभाना है, बिनती!” चंदर ने तख्त पर छीना-झपटी में बिखरी हुई राख चुटकी में उठायी और बिनती की माँग में भरकर माँग चूम ली। उसके होंठ राख में सन गये।

सितारे टूट चुके थे। तूफान खत्म हो चुका था।

नाव किनारे पर आकर लग गयी थी-मल्लाह को चुपचाप रुपये देकर बिनती का हाथ थामकर चंदर ठोस धरती पर उतर पड़ा…मुर्दा चाँदनी में दोनों छायाएँ मिलती-जुलती हुई चल दीं।

गंगा की लहरों में बहता हुआ राख का साँप टूट-फूटकर बिखर चुका था और नदी फिर उसी तरह बहने लगी थी, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।

**समाप्त**

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