चैप्टर 15 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 15 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 15 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 15 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 15 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 15 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

चंदर दूसरे दिन सुबह नहीं गया। उसकी थीसिस का बहुत-सा भाग टाइप होकर आ गया था और उसे बैठा वह सुधार रहा था। लेकिन साथ ही पता नहीं क्यों उसका साहस नहीं हो रहा था वहाँ जाने का। लेकिन मन में एक चिन्ता थी सुधा की। वह कल से बिल्कुल मुरझा गयी थी। चंदर को अपने ऊपर कभी-कभी क्रोध आता था। लेकिन वह जानता था कि यह तकलीफ का ही रास्ता ठीक रास्ता है। वह अपनी जिंदगी में सस्तेपन के खिलाफ था। लेकिन उसके लिए सुधा की पलक का एक आँसू भी देवता की तरह था और सुधा के फूलों-जैसे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उसे पागल बना देती थी। सुबह पहले तो वह नहीं गया, बाद में स्वयं उसे पछतावा होने लगा और वह अधीरता से पाँच बजने का इन्तजार करने लगा।

पाँच बजे, और वह साइकिल लेकर पहुँचा। देखा, सुधा और बिनती दोनों नहीं हैं। अकेले डॉक्टर शुक्ला अपने कमरे में बैठे हैं। चंदर गया। ”आओ, सुधा ने तुमसे कह दिया, उसे पसन्द है?” डॉक्टर शुक्ला ने पूछा।

”हाँ, उसे कोई एतराज नहीं।” चंदर ने कहा।

”मैं पहले से जानता था। सुधा मेरी इतनी अच्छी है, इतनी सुशील है कि वह मेरी इच्छा का उल्लंघन तो कर ही नहीं सकती। लेकिन चंदरकल से उसने खाना-पीना छोड़ दिया है। बताओ, इससे क्या फायदा? मेरे बस में क्या है? मैं उसे हमेशा तो रख नहीं सकता। लेकिन, लेकिन आज सुबह खाते वक्त वह बैठी भी नहीं मेरे पास, बताओ…” उनका गला भर आया-”बताओ, मेरा क्या कसूर है?”

चंदर चुप था।

”कहाँ है सुधा?” चंदर ने पूछा।

”गैरेज में मोटर ठीक कर रही है। मैं इतना मना किया कि धूप में तप जाओगी, लू लग जाएगी-लेकिन मानी ही नहीं! बताओ, इस झल्लाहट से मुझे कैसा लगता है?” वृद्ध पिता के कातर स्वर में डॉक्टर ने कहा, ”जाओ चंदर, तुम्हीं समझाओ! मैं क्या कहूँ?”

चंदर उठकर गया। मोटर गैरेज में काफी गरमी थी, लेकिन बिनती वहीं एक चटाई बिछाये पड़ी सो रही थी और सुधा इंजन का कवर उठाये मोटर साफ करने में लगी हुई थी। बिनती बेहोश सो रही थी। तकिया चटाई से हटकर जमीन पर चला गया था और चोटी फर्श पर सोयी हुई नागिन की तरह पड़ी थी। बिनती का एक हाथ छाती पर था और एक हाथ जमीन पर। आँचल, आँचल न रहकर चादर बन गया था। चंदर के जाते ही सुधा ने मुँह फेरकर देखा-”चंदर आओ।” क्षीण मुसकराहट उसके होठों पर दौड़ गयी। लेकिन इस मुस्कुराहट में उल्लास लुट चुका था, रेखाएं बाकी थीं। सहसा उसने मुडक़र देखा-”बिनती! अरे, कैसे घोड़ा बेचकर सो रही है! उठ! चंदर आये हैं!” बिनती ने आँखें खोलीं, चंदर की ओर देखा, लेटे-ही-लेटे नमस्ते किया और आँचल सँभालकर फिर करवट बदलकर सो गयी।

”बहुत सोती है कम्बख्त!” सुधा बोली, ”इतना कहा इससे कमरे में जाकर पंखे में सो! लेकिन नहीं, जहाँ दीदी रहेगी, वहीं यह भी रहेगी। मैं गैरेज में हूँ तो यह कैसे कमरे में रहे। वहीं मरेगी जहाँ मैं मरूँगी।”

”तो तुम्हीं क्यों गैरेज में थीं! ऐसी क्या जरूरत थी अभी ठीक करने की!” चंदर ने कहा, लेकिन कोशिश करने पर भी सुधा को आज डाँट नहीं पा रहा था। पता नहीं कहाँ पर क्या टूट गया था।

”नहीं चंदर, तबीयत ही नहीं लग रही थी। क्या करती! क्रोसिया उठायी, वह भी रख दिया। कविता उठायी, वह भी रख दी। कविता वगैरह में तबीयत नहीं लगी। मन में आया, कोई कठोर काम हो, कोई नीरस काम हो लोहे-लक्कड़, पीतल-फौलाद का, तो मन लग जाए। तो चली आयी मोटर ठीक करने।”

”क्यों, कविता में भी तबीयत नहीं लगी? ताज्जुब है, गेसू के साथ बैठकर तुम तो कविता में घंटों गुजार देती थीं!” चंदर बोला।

”उन दिनों शायद किसी को प्यार करती रही होऊँ, तभी कविता में मन लगता था!” सुधा उस दिन की पुरानी बात याद करके बहुत उदास हँसी हँसी-”अब प्यार नहीं करती होऊँगी, अब तबीयत नहीं लगती। बड़ी फीकी, बड़ी बेजार, बड़ी बनावटी लगती हैं ये कविताएँ, मन के दर्द के आगे सभी फीकी हैं।” और फिर वह उन्हीं पुरजों में डूब गयी। चंदर भी चुपचाप मोटर की खिड़की से टिककर खड़ा हो गया। और चुपचाप कुछ सोचने लगा।

सुधा ने बिना सिर उठाये, झुके-ही-झुके, एक हाथ से एक तार लपेटते हुए कहा-

चंदर तुम्हारे मित्र का परिवार आ रहा है, इसी मंगल को। तैयारी करो जल्दी।”

”कौन परिवार, सुधा?”

”हमारे जेठ और सास आ रही हैं, इसी बैसाखी को हमें देखने। उन्होंने तिथि बदल दी है। तो अब छह ही दिन रह गये हैं।”

चंदर कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद सुधा फिर बोली-

”अगर उचित समझो, तो कुछ पाउडर-क्रीम ले आना, लगाकर जरा गोरे हो जाएं, तो शायद पसन्द आ जाएं! क्यों, ठीक है न!” सुधा ने बड़ी विचित्र-सी हँसी हँस दी और सिर उठाकर चंदर की ओर देखा। चंदर चुप था, लेकिन उसकी आँखों में अजीब-सी पीड़ा थी और उसके माथे पर बहुत ही करुण छाँह।

सुधा ने कवर गिरा दिया और चंदर के पास जाकर बोली, ”क्यों चंदर, बुरा मान गये हमारी बात का? क्या करें चंदर कल से हम मजाक करना भी भूल गये। मजाक करते हैं तो व्यंग्य बन जाता है। लेकिन हम तुमको कुछ कह नहीं रहे थे, चंदर। उदास न होओ।” बड़े ही दुलार से सुधा बोली, ”अच्छा, हम कुछ नहीं कहेंगे।” और उसने अपना आँचल सँभालने के लिए हाथ उठाया। हाथ में कालौंच लग गयी थी। चंदर समझा मेरे कन्धे पर हाथ रख रही है सुधा। वह अलग हटा, तो सुधा अपने हाथ देखकर बोली, ”घबराओ न देवता, तुम्हारी उज्ज्वल साधना में कालिख नहीं लगाऊँगी। अपने आँचल में पोंछ लूँगी।” और सचमुच आँचल में हाथ पोंछकर बोली, ”चलो, अन्दर चलें, उठ बिनती! बिलैया कहीं की!”

चंदर को सोफे पर बिठाकर उसी की बगल में सुधा बैठ गयी और अँगुलियाँ तोड़ते हुए कहा, चंदर, सिर में बहुत दर्द हो रहा है मेरे।”

”सिर में दर्द नहीं होगा तो क्या? इतनी तपिश में मोटर बना रही थीं! पापा कितने दुखी हो रहे थे आज? तुम्हें इस तरह करना चाहिए? फिर फायदा क्या हुआ? न ऐसे दु:खी किया, वैसे दु:खी कर लिया। बात तो वही रही न? तारीफ तो तब थी कि तुम अपनी दुनिया में अपने हाथ से आग लगा देती और चेहरे पर शिकन न आती। अभी तक दुनिया की सभी ऊँचाई समेटकर भी बाहर से वही बचपन कायम रखा था तुमने, अब दुनिया का सारा सुख अपने हाथ से लुटाने पर भी वही बचपन, वही उल्लास क्यों नहीं कायम रखती!”

”बचपन!” सुधा हँसी-”बचपन अब खत्म हो गया, चंदर! अब मैं बड़ी हो गयी।”

”बड़ी हो गयी! कब से?”

”कल दोपहर से, चंदर!”

चंदर चुप। थोड़ी देर बाद फिर स्वयं सुधा ही बोली, ”नहीं चंदर, दो-तीन दिन में ठीक हो जाऊँगी! तुम घबराओ मत। मैं मृत्यु-शैय्या पर भी होऊँगी, तो तुम्हारे आदेश पर हँस सकती हूँ।” और फिर सुधा गुमसुम बैठ गयी। चंदर चुपचाप सोचता रहा और बोला, ”सुधी! मेरा तुम्हें कुछ भी ध्यान नहीं है?”

”और किसका है, चंदर! तुम्हारा ध्यान न होता, तो देखती मुझे कौन झुका सकता था। आज से सालों पहले जब मैं पापा के पास आयी थी तो मैंने कभी न सोचा था कि कोई भी होगा जिसके सामने मैं इतना झुक जाऊँगी।…अच्छा चन्दर, मन बहुत उचट रहा है! चलो, कहीं घूम आएँ! चलोगे?”

”चलो!” चंदर ने कहा।

”जाएँ बिनती को जगा लाएं। वह कमबख्त अभी पड़ी सो रही है।” सुधा उठकर चली गयी। थोड़ी देर में बिनती आँख मलते बगल में चटाई दाबे आयी और फिर बरामदे में बैठकर ऊँघने लगी। पीछे-पीछे सुधा आयी और चोटी खींचकर बोली, ”चल तैयार हो! चलेंगे घूमने।”

थोड़ी देर में तैयार हो गये। सुधा ने जाकर मोटर निकाली और बोली चंदर से-”तुम चलाओगे या हम? आज हमीं चलाएँ। चलो, किसी पेड़ से लड़ा दें मोटर आज!”

”अरे बाप रे।” पीछे बिनती चिल्लायी, ”तब हम नहीं जाएँगे।”

सुधा और चंदर दोनों ने मुड़कर उसे देखा और उसकी घबराहट देखकर दंग रह गये।

”नहीं। मरेगी नहीं तू!” सुधा ने कहा। और आगे बैठ गयी।

”बिनती, तू पीछे बैठेगी?” सुधा ने पूछा।

”न भइया, मोटर चलेगी तो मैं गिर जाऊँगी।”

”अरे कोई मोटर के पीछे बैठने के लिए थोड़ी कह रही हूँ। पीछे की सीट पर बैठेगी?” सुधा ने पूछा।

”ओ! मैं समझी तुम कह रही हो पीछे बैठने के लिए जैसी बग्घी में साईस बैठते हैं! हम तुम्हारे पास बैठेंगे।” बिनती ने मचलकर कहा।

”अब तेरा बचपन इठला रहा है, बिल्ली कहीं की, चल आ मेरे पास!” बिनती मुस्कुराती हुई जाकर सुधा के बगल में बैठ गयी। सुधा ने उसे दुलार से पास खींच लिया। चंदर पीछे बैठा, तो सुधा बोली, ”अगर कुछ हर्ज न समझो, तो तुम भी आगे आ जाओ या दूरी रखनी हो, तो पीछे ही बैठो।”

चंदर आगे बैठ गया। बीच में बिनती, इधर चंदर उधर सुधा।

मोटर चली तो बिनती चीखी, ”अरे मेरे मास्टर साहब!”

चंदर ने देखा, बिसरिया चला जा रहा था, ”आज नहीं पढ़ेंगे…” चंदर ने चिल्लाकर कहा। सुधा ने मोटर रोकी नहीं।

चंदर को बेहद अचरज हुआ, जब उसने देखा कि मोटर पम्मी के बँगले पर रुकी। ”अरे यहाँ क्यों?” चंदर ने पूछा।

”यों ही।” सुधा ने कहा। ”आज मन हुआ कि मिस पम्मी से अँगरेजी कविता सुनें।”

”क्यों, अभी तो तुम कह रही थीं कि कविता पढ़ने में आज तुम्हारा मन ही नहीं लग रहा है!”

”कुछ कहो मत चंदर आज मुझे जो मन में आये, कर लेने दो। मेरा सिर बेहद दर्द कर रहा है। और मैं कुछ समझ नहीं पाती क्या करूँ। चंदर तुमने अच्छा नहीं किया?”

चंदर कुछ नहीं बोला। चुपचाप आगे चल दिया। सुधा के पीछे-पीछे कुछ संकोच करती हुई-सी बिनती आ रही थी।

पम्मी बैठी कुछ लिख रही थी। उसने उठकर सबों का स्वागत किया। वह कोच पर बैठ गयी। दूसरी पर सुधा, चन्दर और बिनती। सुधा ने बिनती का परिचय पम्मी से कराया और पम्मी ने बिनती से हाथ मिलाया तो बिनती जाने क्यों चन्दर की ओर देखकर हँस पड़ी। शायद उस दिन की घटना की याद में।

सहसा सुधा को जाने क्या खयाल आ गया, बिनती की शरारत-भरी हँसी देखकर कि उसने फौरन कहा चंदर से-”चंदर, तुम पम्मी के पास बैठो, दो मित्रों को साथ बैठना चाहिए।”

”हाँ, और खास तौर से जब वह कभी-कभी मिलते हों।”-बिनती ने मुसकराते हुए जोड़ दिया। पम्मी ने मजाक समझ लिया और बिना शरमाये बोली-

”हम लोगों को मध्यस्थ की जरूरत नहीं, धन्यवाद! आओ चन्दर, यहाँ आओ।” पम्मी ने चंदर को बुलाया। चंदर उठकर पम्मी के पास बैठ गया। थोड़ी देर तक बातें होती रहीं। मालूम हुआ, बर्टी अपने एक दोस्त के साथ तराई के पास शिकार खेलने गया है। आजकल वह दिल की शक्ल का एक पाननुमा दफ्ती का टुकड़ा काटकर उसमें गोली मारा करता है और जब किसी चिड़िया वगैरह को मारता है तो शिकार को उठाकर देखता है कि गोली हृदय में लगी है या नहीं। स्वास्थ्य उसका सुधर रहा है। सुधा कोच पर सिर टेके उदास बैठी थी। सहसा पम्मी ने बिनती से कहा, ”आपको पहली दफे देखा मैंने। आप बातें क्यों नहीं करतीं?”

बिनती ने झेंपकर मुँह झुका लिया। बड़ी विचित्र लड़की थी। हमेशा चुप रहती थी और कभी-कभी बोलने की लहर आती तो गुटरगूँ करके घर गुँजा देती थी और जिन दिनों चुप रहती थी उन दिनों ज्यादातर आँख की निगाह, कपोलों की आशनाई या अधरों की मुस्कान के द्वारा बातें करती थी। पम्मी बोली, ”आपको फूलों से शौक है?”

”हाँ, हाँ” बिनती सिर हिलाकर बोली।

चंदर, इन्हें जाकर गुलाब दिखा लाओ। इधर फिर खूब खिले हैं!”

बिनती ने सुधा से कहा, ”चलो दीदी।” और चंदर के साथ बढ़ गयी।

फूलों के बीच में पहुँचकर, बिनती ने चंदर से कहा, ”सुनिए, दीदी को तो जाने क्या होता जा रहा है। बताइए, ऐसे क्या होगा?”

”मैं खुद परेशान हूँ, बिनती! लेकिन पता नहीं कहाँ मन में कौन-सा विश्वास है जो कहता है कि नहीं, सुधा अपने को सँभालना जानती है, अपने मन को सन्तुलित करना जानती है और सुधा सचमुच ही त्याग में ज्यादा गौरवमयी हो सकती है।” इसके बाद चंदर ने बात टाल दी। वह बिनती से ज्यादा बात करना नहीं चाहता था, सुधा के बारे में।

बिनती ने चंदर को मौन देखा तो बोली, ”एक बात कहें आपसे? मानिएगा!”

”क्या?”

”अगर हमसे कभी कोई अनधिकार चेष्टा हो जाए, तो क्षमा कर दीजिएगा, लेकिन आप और दीदी दोनों मुझे इतना चाहते हैं कि हम समझ नहीं पाते कि व्यवहारों को कहाँ सीमित रखूँ!” बिनती ने सिर झुकाये एक फूल को नोचते हुए कहा।

चंदर ने उसकी ओर देखा, क्षण-भर चुप रहा, फिर बोला, ”नहीं बिनती, जब सुधा तुम्हें इतना चाहती है, तो तुम हमेशा मुझ पर उतना ही अधिकार समझना जितना सुधा पर।”

उधर पम्मी ने चंदर के जाते ही सुधा से कहा, ”क्या आपकी तबीयत खराब है?”

”नहीं तो।”

”आज आप बहुत पीली नजर आती हैं!” पम्मी ने पूछा।

”हाँ, कुछ मन नहीं लग रहा था तो मैं आपके पास चली आयी कि आपसे कुछ कविताएँ सुनूँ, अँगरेजी की। दोपहर को मैंने कविता पढऩे की कोशिश की तो तबीयत नहीं लगी और शाम को लगा कि अगर कविता नहीं सुनूँगी, तो सिर फट जाएगा।” सुधा बोली।

”आपके मन में कुछ संघर्ष मालूम पड़ता है, या शायद…एक बात पूछूँ आपसे?”

”क्या, पूछिए?”

”आप बुरा तो नहीं मानेंगी?”

”नहीं, बुरा क्यों मानूँगी?”

”आप कपूर को प्यार तो नहीं करतीं? उससे विवाह तो नहीं करना चाहतीं?”

”छिह, मिस पम्मी, आप कैसी बातें कर रही हैं। उसका मेरे जीवन में कोई ऐसा स्थान नहीं। छिह, आपकी बात सुनकर शरीर में काँटे उठ आते हैं। मैं और चंदर से विवाह करूँगी! इतनी घिनौनी बात तो मैंने कभी नहीं सुनी!”

”माफ कीजिएगा, मैंने यों ही पूछा था। क्या चंदर किसी को प्यार करता है?”

”नहीं, बिल्कुल नहीं!” सुधा ने उतने ही विश्वास से कहा जितने विश्वास से उसने अपने बारे में कहा था।

इतने में चंदर और बिनती आ गये। सुधा बोली अधीरता से, ”मेरा एक-एक क्षण कटना मुश्किल हो रहा है, आप शुरू कीजिए कुछ गाना!”

”कपूर, क्या सुनोगे?” पम्मी ने कहा।

”अपने मन से सुनाओ! चलो, सुधा ने कहा तो कविता सुनने को मिली!”

पम्मी ने आलमारी से एक किताब उठायी और एक कविता गाना शुरू की-अपनी हेयर पिन निकालकर मेज पर रख दी और उसके बाल मचलने लगे। चंदर के कन्धे से वह टिककर बैठ गयी और किताब चंदर की गोद में रख दी। बिनती मुसकरायी तो सुधा ने आँख के इशारे से मना कर दिया। पम्मी ने गाना शुरू किया, लेडी नार्टन का एक गीत-

मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ न! मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ।

फिर भी मैं उदास रहती हूँ जब तुम पास नहीं होते हो!

और मैं उस चमकदार नीले आकाश से भी ईष्र्या करती हूँ

जिसके नीचे तुम खड़े होगे और जिसके सितारे तुम्हें देख सकते हैं…”

चंदर ने पम्मी की ओर देखा। सुधा ने अपने ही वक्ष में अपना सिर छुपा लिया। पम्मी ने एक पद समाप्त कर एक गहरी साँस ली और फिर शुरू किया-

”मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ-फिर भी तुम्हारी बोलती हुई आँखें;

जिनकी नीलिमा में गहराई, चमक और अभिव्यक्ति है-

मेरी निर्निमेष पलकों और जागते अर्धरात्रि के आकाश में नाच जाती हैं!

और किसी की आँखों के बारे में ऐसा नहीं होता…”

सुधा ने बिनती को अपने पास खींच लिया और उसके कन्धे पर सिर टेककर बैठ गयी। पम्मी गाती गयी-

”न मुझे मालूम है कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करती हूँ, लेकिन फिर भी,

कोई शायद मेरे साफ दिल पर विश्वास नहीं करेगा।

और अक्सर मैंने देखा है, कि लोग मुझे देखकर मुस्कुरा देते हैं

क्योंकि मैं उधर एकटक देखती हूँ, जिधर से तुम आया करते हो!”

गीत का स्वर बड़े स्वाभाविक ढंग से उठा, लहराने लगा, काँप उठा और फिर धीरे-धीरे एक करुण सिसकती हुई लय में डूब गया। गीत खत्म हुआ, तो सुधा का सिर बिनती के कंधे पर था और चंदर का हाथ पम्मी के कन्धे पर। चंदर6 थोड़ी देर सुधा की ओर देखता रहा, फिर पम्मी की एक हल्की सुनहरी लट से खेलते हुए बोला, ”पम्मी, तुम बहुत अच्छा गाती हो!”

”अच्छा? आश्चर्यजनक! कहो चंदर, पम्मी इतनी अच्छी है यह तुमने कभी नहीं बताया था, हमें फिर कभी सुनाइएगा?”

”हाँ, हाँ मिस शुक्ला! काश कि बजाय लेडी नार्टन के यह गीत आपने लिखा होता!”

सुधा घबरा गयी, ”चलो। चंदर, चलें अब! चलो।” उसने चंदर का हाथ पकड़कर खींच लिया-”मिस पम्मी, अब फिर कभी आयेंगे। आज मेरा मन ठीक नहीं है।”

चंदर ड्राइव करने लगा। बिनती बोली, ”हमें आगे हवा लगती है, हम पीछे बैठेंगे।”

कार चली तो सुधा बोली, ”अब मन कुछ शान्त है, चंदर। इसके पहले तो मन में कैसे तूफान आपस में लड़ रहे थे, कुछ समझ में नहीं आता। अब तूफान बीत गये। तूफान के बाद की खामोश उदासी है।” सुधा ने गहरी साँस ली, ”आज जाने क्यों बदन टूट रहा है।” बैठे ही बैठे बदन उमेठते हुए कहा।

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