जहाँगीर की सनक वृंदावनलाल वर्मा की कहानी | Jahangir Ki Sanak Vrindavan Lal Verma Ki Kahani 

जहाँगीर की सनक वृंदावनलाल वर्मा की कहानी Jahangir Ki Sanak Vrindavan Lal Verma Ki KahaniHindi Story 

Jahangir Ki Sanak Vrindavan Lal Verma Ki Kahani 

‘इंशा! इंशा!!’ बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। ‘शाहजादा – इंशा के लिए! जहाँगीर को यह शब्द अच्छा नहीं लगा, भले ही वह उसका भतीजा था। शाहंशाह का पुत्र तो न था! जहाँगीर ने अपने क्षोभ को उस समय पी लिया।’

थोड़ी देर दरबार का काम चलता रहा। इतने में हरकारे ने विनय की, ‘ईरान का एक बड़े घरानेवाला पदप्रार्थी अपने कुछ मित्रों समेत आया है।’

पदप्रार्थी को बुलाया गया।

ईरानी चेहरे-मोहरे और डीलडौल का साफ-सुथरा एवं आकर्षक व्यक्ति था। परंपरा के अनुसार उसने जहाँगीर का मुजरा किया। जहाँगीर ने स्नेह के साथ उसे अपने तख्त के निकट बुलाया। ईरानी ने अपना अहोभाग्य समझा। तख्त के पास जाकर कार्निश की ओर सिर झुकाकर खड़ा हो गया।

‘मैं बहुत खुश हुआ। मेरे प्यारे भाई मजे में हैं न?’ जहाँगीर ने ईरान के शाह के संबंध में पूछा। कितना मनमुटाव दोनों में हो, एक-दूसरे को भाई कहते थे।

वैसे ही सिर झुकाए ईरानी ने कोमल स्वर में उत्तर दिया, ‘जहाँपनाह की मेहरबानी जिस पर बरसती रहे, वह क्यों न मजे में रहेगा!’

जहाँगीर अपनी जड़ाऊ कमरपेटी पर हाथ रखे था। हाथ वहाँ से हटा। उसकी चुटकी में कुछ था। ईरानी ने नहीं देखा।

‘म्याँ, सिर ऊँचा करो। मैं ईरानियों की जवाँमर्दी का कायल हूँ।’ जहाँगीर ने मृदुलता के साथ कहा।

उसका झुका हुआ सिर तख्त से नीचे पड़ता था। सिर उठाया। सिर तख्त से अंगुल-दो अंगुल ऊँचा हो गया। ईरानी की आँखों में विनय थी और होंठों पर स्वाभिमान की हलकी मुसकान। जहाँगीर का चुटकीवाला हाथ पदप्रार्थी के कान के पास आया, मानो उसके सिर को छूकर बरकत बरसाना चाहता हो।

क्षण के एक बहुत छोटे से खंड में जहाँगीर की चुटकी ईरानी के कान को छूकर पीछे हट गई। उसके मुँह से दबी हुई हलकी चीख निकली। होंठों की वह मुस्कान खींच ले गई और आँखों के डोरे लाल हो गए। ईरानी का हाथ सहसा अपने कान के उस स्थान पर जा पहुँचा, जिसे जहाँगीर की चुटकी छूकर अलग हो गई थी। जहाँगीर का चुटकीवाला हाथ फिर कमरपेटी पर जा पहुँचा था। पदप्रार्थी ने कान को टटोला, मला। खून की कुछ बूँदें झलक आईं, जिन्हें उसकी उँगलियों ने पोंछ डाला। माथे पर पसीना आ गया। उसकी आँखें पैनेपन के साथ जहाँगीर के उस हाथ की उँगलियों पर गईं। जहाँगीर की उँगलियाँ एक लंबी पैनी सुई कमरपेटी के छेद में खोंस रही थी।

जहाँगीर हँस पड़ा।

‘म्याँ, मैं ईरानियों की जवाँमर्दी के इम्तिहान के लिए यह बहुत छोटा सा खेल किया करता हूँ।’

बहुत छोटा सा खेल! भरे दरबार में कान में सुई चुभो दी! बादशाह है या शैतान! ईरानी के मन में गड़ा, परंतु कुछ कह न सका। नतमस्तक होकर रह गया। जहाँगीर की हँसी बंद नहीं हुई थी।

जहाँगीर ने शाबाशी दी, ‘परख लिया, म्याँ, परख लिया। जवाँमर्द हो। कई तो ऐसे गुजरे मेरी उँगलियों के नीचे से कि हवा लगते ही रो दिए।’

रो तो मैं भी देता, लेकिन यह और भी हँसता। सारे दरबार की शरम सिर पर लेनी पड़ती – ईरानी ने सोचा। कराह को दबाया। पोंछ डालने पर भी कान पर लहू की एक बड़ी बूँद आ जमी थी।

जहाँगीर ने उसे इनाम दिया और खिलअत बख्शी।

कुछ क्षण पीछे जहाँगीर का भतीजा इंशा आ गया। जब जहाँगीर ने उसको पुकारा था, उसी समय ढूँढ़ने वाले निकल पड़े थे। इंशा यमुना में मछली का शिकार खेल रहा था। जैसे ही सुना बादशाह ने याद किया है, तुरंत चला आया।

उसे देखते ही जहाँगीर को ‘शाहजादा’ शब्द स्मृति से उभरकर फिर चुभ गया, जिसका उपयोग अलमबरदार ने किया था। जहाँगीर ने उसे आदेश दिया, ‘बैठ जाओ!’ इंशा यथास्थान बैठ गया। आयु उसकी चौदह-पंद्रह साल की होगी। देखने में रूपवान था। यदा-कदा जहाँगीर का स्नेह भी पाता रहता था।

गई रात जहाँगीर ने अपने कुछ अँगरेजी अतिथियों के साथ अपनी सीमा से अधिक शराब ढाल ली थी। दरबार की समाप्ति जल्दी कर दी। इंशा चला गया। बादशाह जहाँगीर चुस्त था, शराबी था, परहेजगार था, शमा था, परवाना था, फूल था, काँटा था, दयावान था, निर्मम था, उदार था, अनुदार था, न्यायी था, अन्यायी था – जब जैसी सनक सिर पर सवार हो जाय। अनियंत्रित सत्ता का वह पूरा प्रतिबिंब था। रात को शराब में गहरी डुबकियाँ लगाते रहने पर भी कभी-कभी दिन में ऐसा कि जीवन में शराब इसने कभी सूँघी तक न हो। यह बात दूसरी है कि उसकी आँखें धोखा नहीं दे सकती थीं और जब रात में शराब के बेहिसाब दौर चल गए तो फिर दिन में कोई भी अपनी खैर नहीं मना सकता था। चाहे भतीजा हो, चाहे लड़का।

मस्त हाथियों की लड़ाई देखने का उसे बहुत व्यसन था। शिकार बहुत खेलता था – छोटी-छोटी सी चिड़ियों से लेकर शेर तक का। शिकार से मन उचटा तो मस्त हाथियों को लड़ाई पर जा रमा।

उस दिन उसे हाथियों की लड़ाई से मनोरंजन करना था। इंशा को लेकर जैसे ही अपनी खासगाह में पहुँचा, उसे अपना छोटा पुत्र मिला। नाम उसका शहरयार था। प्यार में उसे वह सुल्तान शहरयार कहता था। आयु उसकी सात बरस की थी।

‘सुल्तान,’ जहाँगीर ने शहरयार से कहा, ‘हाथियों की लड़ाई देखने चलो।’

शहरयार उसके साथ हो लिया। पीछे-पीछे इंशा चला। झरोखे में होकर लड़ाई देखने का आयोजन था।

नीचे मैदान में दोनों ओर मस्त हाथी सूँड़ें लहरा-लहराकर सामने के प्रतिद्वंद्वियों को चुनौती दे रहे थे। झपट पड़ने को तैयार। चिंतित महावत उनके उद्वेग पर अंकुश ठोक रहे थे। हाथी चिंघाड़ रहे थे, मानो बादशाह के आदेश को निमंत्रित कर रहे हों।

शहरयार जहाँगीर के पास बैठा था। इंशा का कुतूहल इतना बढ़ा कि वह भी सिमटकर आ बैठा। बादशाह को अच्छा नहीं लगा।

हाथियों की चिंघाड़ें बढ़ीं। महावतों का कलेजा फड़फड़ाने लगा।

जहाँगीर का ध्यान इंशा पर से फिसलकर नीचे मैदान में तथा दूरी पर खड़ी दिल्ली की उत्सुक जनता और हाथियों की हिलती हुई सूँड़ों पर जमा।

‘शुरू करो।’ जहाँगीर ने आदेश दिया। हाथी एक-दूसरे पर पिल पड़े। रौंदा-रौंदी से मैदान की धूल उठी। हाथियों की चिंघाड़ों से दिशाएँ गूँजने लगीं। सूर्य के किरणों में हाथियों फेन रंग-बिरंगे बनकर उड़ने-छितराने लगे। महावतों के तवे और बख्तर चमक-चमक जा रहे थे। जब हाथियों ने टक्करें लीं और सूँड़ों से सूँड़ें उलझीं तब जहाँगीर के मुँह से निकला –

‘वाह-वाह! यह हारेगा! वह जीतेगा!’

शहरयार और इंशा ने भी दुहराया-तिहराया।

‘मेरे कान के परदे मत फाड़ो!’ जहाँगीर ने फटकारा। बच्चे सहम गए।

हाथियों की लपटें-झपटें तीव्र से तीव्रतर हुईं। जहाँगीर का मनोरंजन पराकाष्ठा पर पहुँचने को हुआ। इतने में एक महावत घायल होकर नीचे जा गिरा और एक का हाथ हाथी के पाँव से कुचकर धज्जी-धज्जी हो गया। उसे और कई चोटें आईं। खेल बंद करना पड़ा।

जहाँगीर का सारा मजा किरकिरा हो गया। उसने सोचा, ‘महावत बचे या न बचे।’

उसने अपने अलमबरदार को आज्ञा दी, ‘इसको फौरन खतम करो! जमुना में डुबो दो! जितनी देर जिंदा रहेगा, दर्द के मारे तड़पता रहेगा और मुझे कोसता-कलपता रहेगा। बेहतर है कि बिना एक पल की देरी के खतम कर दिया जावे।’

जहाँगीर की आज्ञा का तुरंत पालन किया गया।

संध्या नहीं हुई थी। तब तक क्या किया जावे? शहरयार और इंशा बगल में थे।

जहाँगीर ने कहा, ‘मेरा साथ आओ।’ जहाँगीर उन दोनों को लेकर अपने चिड़ियाघर पर गया। चिड़ियाघर बड़ा न था, तो भी उसमें कई पशु-पक्षी थे। शेर अधिक थे। लोहे के पिंजड़ों में बंद। इनमें से कुछ बहुत छुटपने से पाले गए थे, कुछ बड़ी आयु में फाँसे पकड़े गए थे। जहाँगीर एक ऐसे ही शेर के पिजड़े के पास जा खड़ा हुआ। शेर धीरे-धीरे गुर्राने लगा।

‘रक्खो इसके सिर पर हाथ!’ जहाँगीर ने इंशा को आज्ञा दी।

इंशा सन्न। पीला पड़ गया। काँपने लगा। इंशा किसी भी तरह तैयार न हुआ।

‘शाहजादा बना फिरता है कमबख्त कहीं का!’ फिर भी इंशा न हिला।

अब आई बारी शहरयार की।

‘सुल्तान, तुम शेर के सिर पर हाथ फेरो।’ जहाँगीर ने आँखें तरेरी।

शहरयार चुपचाप शेर की लाल-पीली आँखें देखने लगा।

‘ऐ!’ जहाँगीर कड़का। शहरयार फिर भी जहाँ-का-तहाँ।

जहाँगीर ने कमरपेटी से वही सुई निकाली… जो उसने ईरानी के कान में चुभोई थी।

जहाँगीर ने शहरयार के कान पर नहीं, गाल पर सुई चुभो दी। खून छलछला आया। शहरयार ने दाँत भींचे, ओंठ से ओंठ सटाए, गर्दन कड़ी की और भौंहें पूरे जोर से सिकोड़ी। वह न चीखा, न कराहा। जहाँगीर प्रसन्न हुआ।

‘इसे कहते हैं शाहजादा!’ हाँ तो सुल्तान बेटा, फेरो हाथ शेर के सिर पर। जहाँगीर ने कहा।

शहरयार ने हाथ बढ़ाया। जहाँगीर ने उसके गालों में से सुई खींच ली। घाव से खून सर्रा पड़ा। शहरयार ने शेर के सिर पर हाथ फेरा और पीछे हट गया। वह शेर की आँखों और खड़ी मूँछों को देख रहा था। गाल का लहू गरदन की मोटी नस पर आकर रुक गया था।

‘शाबाश!’ जहाँगीर बहुत प्रसन्न था।

शहरयार ने गाल के खून को नहीं पोंछा – न मालूम कहीं जहाँपनाह दूसरे गाल को छेद डालें। वह अपने ओंठ अब भी सटाए हुए था।

इंशा की हिम्मत फिर भी न हुई कि गुर्राते हुए शेर के सिर पर हाथ फेरे। जहाँगीर ने इंशा से प्रायश्चित करवाया।

अपने भृत्यों को आज्ञा दी, ‘इंशा को कैदखाने में बंद कर दो! जब इसमें जवाँमर्दी के चिह्न साफ दिखलाई पड़ेंगे तब रिहा किया जाएगा।’

उस समय इंशा की आँखों से जो कुछ भी बरस पड़ा था, उसको किसने देखा?

**समाप्त**

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