वापसी उषा प्रियंवदा की कहानी, Wapsi Story Usha Priyamvad, Wapsi Usha Priyamvada Ki Kahani
Wapsi Story Usha Priyamvada
गजाधर बाबू ने कमरे में जमा समान पर एक नज़र दौड़ाई-दो बक्स, डोलची, बालटी।
“यह डिब्बा कैसा है, गनेशी?” उन्होंने पूछा।
गनेशी बिस्तर बांधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दुःख, कुछ लज्जा से बोला, “घरवाली ने कुछ बेसन के लड्डू रख दिए है़ं। कहा, बाबूजी को पसंद थे़। अब कहां हम ग़रीब लोग, आपकी कुछ ख़ातिर कर पाएंगे़।”
घर जाने की ख़ुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया, जैसे एक परिचित स्नेह-आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा था।
“कभी-कभी हम लोगों भी ख़बर लेते रहिएगा़।” गनेशी बिस्तर में रस्सी बांधता हुआ बोला।
“कभी कुछ ज़रूरत हो, तो लिखना गनेशी! इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।”
गनेशी ने अंगोछे के छोर से आंखें पोंछी, “अब आप लोग सहारा न देंगे तो कौन देगा! आप यहां रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।”
गजाधर बाबू चलने को तैयार थे। रेलवे क्वार्टर का वह कमरा, जिसमें उन्होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका समान हट जाने से कुरूप और ख़ाली-ख़ाली लग रहा था। आंगन में रोपे पौधे भी जान-पहचान के लोग ले गए थे; और जगह-जगह मिट्टी बिख़री हुई थी, पर पत्नी, बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना में यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठकर विलीन हो गया।
गजाधर बाबू ख़ुश थे, बहुत ख़ुश़। पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर होकर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्होंने अकेले रहकर काटा था। उन अकेले क्षणों में उन्होंने इसी समय की कल्पना की थी, जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि में उनका जीवन सफल कहा जा सकता था। उन्होंने शहर में एक मकान बनवा लिया था़, बड़े लड़के अमर और लड़की कान्ति की शादियां कर दी थी, दो बच्चे ऊंची कक्षाओं में पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण प्रायः छोटे स्टेशनों पर रहे और उनके बच्चे तथा पत्नी शहर में, जिससे पढ़ाई में बाधा न हो। गजाधर बाबू स्वभाव से बहुत स्नेही व्यक्ति थे और स्नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ था, ड्यूटी से लौटकर बच्चों से हंसते-बोलते, पत्नी से कुछ मनोविनोद करते।
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उन सबके चले जाने से उनके जीवन में गहन सूनापन भर उठा। ख़ाली क्षणों में उनसे घर में टिका न जाता। कवि-प्रकृति के न होने पर भी उन्हें पत्नी की स्नेहपूर्ण बातें याद आती रहती। दोपहर में गर्मी होने पर भी दो बजे तक आग जलाए रहती; और उनके स्टेशन से वापस आने पर गरम-गरम रोटियां सेंकती-उनके खा चुकने और मना करने पर भी थोड़ा-सा कुछ और थाली में परोस देती; और बड़े प्यार से आग्रह करती। जब वह थके-हारे बाहर से आते, तो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वारा आती और उनकी सलज्ज आंखें मुस्कुरा उठतीं। गजाधर बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती; और वह उदास हो उठते। अब कितने वर्षों बाद यह अवसर आया था, जब वह फिर उसी स्नेह और आदर के मध्य रहने जा रहे थे।
टोपी उतारकर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दी, जूते खोलकर नीचे ख़िसका दिए। अन्दर से रह-रहकर कहकहों की आवाज़ आ रही थी। इतवार का दिन था। उनके सब बच्चे इकट्ठे होकर नाश्ता कर रहे थे। गजाधर बाबू के सूखे चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान आ गई। उसी तरह मुस्कराते हुए वह बिना खांसे अंदर चले आए। उन्होंने देखा कि नरेन्द्र कमर पर हाथ रखे शायद गत रात्रि की फ़िल्म में देखे गए किसी नृत्य की नक़ल कर रहा था और बसन्ती हंस-हंसकर दुहरी हो रही थी। अमर की बहू को अपने तन-बदन, आंचल या घूंघट का कोई होश न था। वह उन्मुक्त रूप से हंस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही नरेन्द्र धप्प-से बैठ गया और चाय का प्याला उठाकर मुंह से लगा लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढंक लिया। केवल बसन्ती का शरीर रह-रहकर हंसी दबाने के प्रयत्न में हिलता रहा।
गजाधर बाबू ने मुस्कुराते हुए उन लोगों को देखा, फिर कहा, “क्यों नरेन्द्र नक़ल हो रही थी?”
“कुछ नहीं बाबूजी” नरेन्द्र ने सिटापिटाकर कहा।
गजाधर बाबू ने चाहा था कि वह भी इस मनोविनोद में भाग लेते, पर उनके आते ही जैसे सब कुण्ठित हो चुप हो गए, इससे उनके मन में थोड़ी-सी खिन्नता उपज आई। बैठते हुए बोले, “बसन्ती, चाय मुझे भी देना। तुम्हारी अम्मा की पूजा अभी चल रही है क्या?”
बसन्ती ने मां की कोठरी की ओर देखा, “अभी आती होगी।” और प्याले में उनके लिए चाय छानने लगी। बहु चुपचाप पहले ही चली गई थी। अब नरेन्द्र भी चाय का आख़िरी घूंट पीकर उठ खड़ा हुआ। केवल बसन्ती पिता के लिहाज़ में चौके में बैठी मां की राह देखने लगी।
गजाधर बाबू ने एक घूंट चाय पी, फिर कहा “बेटी, चाय तो फ़ीकी है़।”
“लाइए, चीनी और डाल दूं।” बसन्ती बोली।
“रहने दो, तुम्हारी अम्मा जब आएंगी, तभी पी लूंगा।”
थोड़ी देर में उनकी पत्नी हाथ में अर्घ (जल) का लोटा लिए निकलीं और अशुद्ध स्तुति कहते हुए तुलसी में दिया। उन्हें देखते ही बसन्ती भी उठ गई। पत्नी ने आकर गजाधर बाबू को देखा और कहा, “अरे, आप अकेले बैठे है। ये सब कहां गए? ” गजाधर बाबू के मन में फांस-सी करक उठी, “अपने-अपने काम में लग गए हैं। आख़िर बच्चे ही हैं।”
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पत्नी आकर चौके में बैठ गई। उन्होंने नाक-भौं चढ़ाकर चारों ओर जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा, “सारे जूठे बर्तन पड़े हैं। इस घर में धरम-करम कुछ नहीं, जा करके सीधे चौके में घुसो।” फिर उन्होंने नौकर को पुकारा, जब उत्तर न मिला, तो एक बार और उच्च स्वर में, फिर पति की ओर देखकर बोलीं, “बहू ने भेजा होगा बाज़ार।” और एक लम्बी सांस लेकर चुप हो गई।
गजाधर बाबू बैठकर चाय और नाश्ते का इन्तज़ार करते रहे़। उन्हें अचानक ही गनेशी की याद आ गई। रोज़ सुबह, पैसेंजर आने से पहले वह गरम-गरम पूरियां और जलेबी बनाता था। गजाधर बाबू जब तक उठकर तैयार होते, उनके लिए जलेबियां और चाय लाकर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़िया, कांच के गिलास में ऊपर तक भरी, लबालब, पूरे ढाई चम्मच चीनी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुंचे, गनेशी ने चाय पहुंचाने में कभी देर नहीं की। क्या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े़।
पत्नी की शिक़ायत-भरा स्वर सुन उनके विचारों में व्याघात पहुंचा। वह कह रही थी, “सारा दिन इसी खिच-खिच में निकल जाता है़। इस गृहस्थी का धन्धा पीटते-पीटते उमर बीत गई। कोई जरा हाथ भी नहीं बंटाता।”
“बहु क्या किया करती है?” गजाधर बाबू ने पूछा।
“पड़ी रहती है़ बसन्ती को तो, फिर कहो कि कॉलेज जाना होता है़।”
गजाधर बाबू ने जोश में आकर बसन्ती को आवाज़ दी। बसन्ती भाभी के कमरे से निकली, तो गजाधर बाबू ने कहा, बसन्ती, “आज से शाम का खाना बनाने की ज़िम्मेदारी तुम पर है़। सुबह का भोजन तुम्हारी भाभी बनाएगी।”
बसन्ती मुंह लटकाकर बोली- “बाबूजी, पढ़ना भी तो होता है़।”
गजाधर बाबू ने प्यार से समझाया, “तुम सुबह पढ़ लिया करो। तुम्हारी मां हुई बुढ़ी, उनके शरीर में अब वह शक्ति नहीं बची है़। तुम हो, तुम्हारी भाभी है, दोनों को मिलकर काम में हाथ बंटाना चाहिए।”
बसन्ती चुप रह गई। उसके जाने के बाद उसकी मां ने धीरे से कहा, “पढ़ने का तो बहाना है़। कभी जी ही नहीं लगता, लगे कैसे? शीला से ही फ़ुरसत नही। बड़े-बड़े लड़के हैं उस घर में। हर वक्त वहां घुसा रहना, मुझे नहीं सुहाता। मना करूं तो सुनती नहीं।”
नाश्ता कर गजाधर बाबू बैठक में चले गए। घर छोटा था; और ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि उसमें गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था। जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्थायी प्रबंध कर दिया जाता है, उसी प्रकार बैठक में कुर्सियों को दीवार से सटाकर बीच में गजाधर बाबू के लिए, पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। गजाधर बाबू उस कमरे में पड़े-पड़े कभी-कभी अनायास ही इस अस्थायित्व का अनुभव करने लगते। उन्हें याद हो आती उन रेलगाड़ियों की जो की, जो आती और थोड़ी देर रूककर किसी और लक्ष्य की और चली जातीं।
घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अब उनका प्रबंध किया था। उनकी पत्नी के पास अन्दर एक छोटा कमरा अवश्य था, पर वह एक ओर अचारों के मर्तबान, दाल, चावल के कनस्तर और घी के डिब्बे से घिरा था। दूसरी ओर पुरानी रजाइयां, दरियों में लिपटी और रस्सी से बंधी रखी थी। उनके पास एक बड़े से टीन के बक्स में घर-भर के गरम कपड़े थे। बीच में एक अलगनी बंधी हुई थी, जिस पर प्रायः बसन्ती के कपड़े लापरवाही से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था; तीसरा कमरा, जो सामने की ओर था, बैठक था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमे अमर की ससुराल से आया बेंत की तीन कुर्सियों का सेट पड़ा था।
कुर्सियों पर नीली गद्दयां और बहु के हाथों के कढ़े कुशन थे।
जब कभी उनकी पत्नी को कोई लम्बी शिक़ायत करनी होती, तो अपनी चटाई बैठक में डाल पड़ जाती थी। वह एक दिन चटाई लेकर आ गई। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्थी की बातें छेड़ी, वह घर का रवैया देख रहे थे। बहुत हल्के-से उन्होंने कहा कि अब हाथ में पैसा कम रहेगा, कुछ ख़र्च कम होना चाहिए।
“सभी ख़र्च तो वाज़िब है, किसका पेट काटूं? यही जोड़-गांठ करते-करते बूढ़ी हो गई-न मन का पहना; न ओढ़ा।”
गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित दृष्टि से पत्नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करती, यह स्वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका। उससे यदि राय-बात की जाती कि प्रबंध कैसे हो, तो उन्हें चिन्ता कम, सन्तोष अधिक होता, लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थी, जैसे परिवार कि सब परेशानियों के लिए वही ज़िम्मेदार थे।
“तुम्हें किस बात की कमी है अमर की मां। घर में बहू है, लड़के-बच्चे हैं, सिर्फ़ रूपए से ही आदमी आमीर नहीं होता।” गजाधर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव किया- यह उनकी आन्तरिक अभिव्यक्ति थी- ऐसी कि उनकी पत्नी नहीं समझ सकती।
“हां, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है; देखो क्या होता है? ” कहकर पत्नी ने आंखें मूंदी; और सो गयी। गजाधर बाबू बैठे हुए पत्नी को देखते रह गए।
यही थी क्या उनकी पत्नी, जिसके हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की याद में उन्होंने सम्पूर्ण जीवन काट दिया था? उन्हें लगा कि वह लावाण्यमयी युवती जीवन की राह में कही खो गई है; और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह उनके मन और प्राणों के लिए नितान्त अपरिचिता है़। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्नी का भारी-सा शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा था। चेहरा श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्संग दृष्टि से पत्नी को देखते रहे; और फिर लेटकर छत की ओर ताकने लगे।
अंदर कुछ गिरा और उनकी पत्नी हड़बड़ाकर उठ बैठीं, “लो बिल्ली ने कुछ गिरा दिया शायद।” और वह अंदर भागी़ थोड़ी देर में लौटकर आई, तो उनका मुंह फूला हुआ था,“ देखा बहू को, चौका खुला छ़ोड़ आई। बिल्ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी तो खाने को हैं। तरकारी और चार परांठे बनाने में सारा डिब्बा घी उंड़ेलकर रख दिया। ज़रा-सा दर्द नहीं है। कमाने वाला हाड़ तोड़े; और यहां चीज़ें लुटे। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के बस का नहीं है़।”
गजाधर बाबू को लगा कि पत्नी कुछ और बोलेगी, तो उनके कान झनझना उठेंगे। ओंठ भींच, करवट लेकर उन्होंने पत्नी की और पीठ कर ली।
रात का भोजन बसन्ती ने जान-बूझकर ऐसा बनाया था कि कौर तक निगला न जा सके। गजाधर बाबू चुपचाप खाकर उठ गए, पर नरेन्द्र थाली सरकाकर उठ खड़ा हुआ और बोला, “मैं ऐसा खाना नही खा सकता।”
बसन्ती तुनककर बोली, “तो न खाओ, कौन तुम्हारी ख़ुशामद करता है!”
“तुमसे खाना बनाने को कहा किसने था?” नरेन्द्र चिल्लाया।
“बाबूजी ने।,x
“बाबूजी को बैठे-बैठे यही सूझता है़।”
बसन्ती को उठाकर मां ने नरेन्द्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद में पत्नी से कहा, “इतनी बड़ी लड़की हो गई, उसे खाना बनाने तक का शऊर नहीं आया! ”
“अरे आता सब-कुछ है, करना नहीं चाहती।” पत्नी ने उत्तर दिया।
अगली शाम मां को रसोई में देख कपड़े बदलकर बसन्ती बाहर आई, तो बैठक से गजाधर बाबू ने टोक दिया, “कहा जा रही हो?”
“पड़ोस में शीला के घर।” बसन्ती ने कहा।
“कोई ज़रूरत नहीं है,अन्दर जाकर पढ़ो।” गजाधर बाबू ने कड़े स्वर में कहा।
कुछ देर अनिश्चित खड़े रहकर बसन्ती अन्दर चली गई। गजाधर बाबू शाम को टहलने चले जाते थे, लौटकर आए तो पत्नी ने कहा, “क्या कह दिया बसन्ती से? शाम में मुंह लपेटे पड़ी है़ खाना भी नहीं खाया।”
बाबू खिन्न हो आए। पत्नी की बात का उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया कि बसन्ती की शादी जल्दी ही कर देनी है़। उस दिन के बाद बसन्ती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना होता, तो पिछवाड़े से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्नी से पूछा, तो उत्तर मिला- “रूठी हुई है़।”
गजाधर बाबू को और रोष हुआ। लड़की के इतने मिज़ाज! जाने को रोक दिया, तो पिता से बोलेगी नहीं! फिर उनकी पत्नी ने सूचना दी कि अमर अलग रहने की सोच रहा है।
“क्यों?” गजाधर बाबू ने चकित होकर पूछा।
पत्नी ने साफ़-साफ़ उत्तर नहीं दिया। अमर और उसकी बहू को शिकायतें बहुत थी। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते है, कोई आने-जाने वाला हो, तो कहीं बिठाने को जगह नहीं। अमर को अब भी वह छोटा-सा समझते, और मौके-बेमौक़े टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था; और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थी।
“हमारे आने के पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी? ” गजाधर बाबू ने पूछा।
पत्नी ने सिर हिलाकर जताया कि नहीं। पहले अमर घर का मालिक बनकर रहता था। बहू को कोई रोक-टोक न थी। अमर के दोस्तों का प्रायः यहीं अड्डा जमा रहता था, अन्दर से नाश्त-चाय तैयार होकर जाता रहता था। बसन्ती को भी वही अच्छा लगता था।
गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा, “अमर से कहो, ज़ल्दबाजी की कोई ज़रूरत नहीं है।”
अगले दिन वह सुबह घूमकर लौटे, तो उन्होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं है़। अंदर आकर पूछने वाले ही थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अन्दर बैठी पत्नी पर पड़ी। उन्होंने यह कहने को मुंह खोला कि बहू कहां है, पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्नी की कोठरी में झांका, तो अचार, रजाइयों और कनस्तरों के मध्य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टांगने को दीवार पर नज़र दौड़ाई। फिर उसे मोड़कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसकाकर एक किनारे टांग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, मन आख़िरकार बूढ़ा ही था। सुबह-शाम कुछ देर टहलने अवश्य चले जाते, पर आते-आते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा खुला हुआ क्वार्टर याद आ गया। निश्चिन्त जीवन, सुबह पैसेंजर ट्रेन आने पर स्टेशन की चहल-पहल, चिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के पहियों की खट्-खट्, जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह था। तूफ़ान और डाकगाड़ी के इंजनों की चिंघाड़ उनकी अकेली रातों की साथी थी। सेठ रामजीमल के मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठते, वही उनका दायरा था, वही उनके साथी़ वह जीवन अब उन्हें एक खोई निधि-सा प्रतीत हुआ। उन्हें लगा कि वह ज़िन्दगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा, उसमें से उन्हें एक बूंद भी न मिली।
लेटे हुए वह घर के अन्दर से आते विविध स्वरों को सुनते रहे़। बहू और सास की छोटी-सी झड़प, बालटी पर खुले नल की आवाज़, रसोई के बर्तनों की खटपट और उसी में गोरैयों का वार्तालाप, और अचानक ही उन्होंने निश्चिय कर लिया कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। यदि गृहस्वामी के लिए पूरे घर में एक चारपाई की जगह यही है, तो यही सही, वे यहीं पड़े रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई, तो वहां चले जाएंगे। यदि बच्चों के जीवन में उनके लिए कहीं स्थान नहीं, तो अपने ही घर में परदेशी की तरह पड़े रहेंगे; और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेन्द्र मांगने आया, तो बिना कारण पूछे उसे रूपए दे दिए; बसन्ती काफ़ी अंधेरा हो जाने के बाद भी पड़ोस में रही, तो भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। उन्हें सबसे बड़ा ग़म यह था कि उनकी पत्नी ने भी उनमे कुछ परिवर्तन लक्ष्य नहीं किया। वह मन-ही-मन कितना भार ढो रहे हैं, इससे वह अनजान ही बनी रही। बल्कि उन्हें पति के घर के मामले में हस्तक्षेप न करने के कारण शान्ति ही थी। कभी-कभी कह भी उठती, “ठीक ही है, आप बीच में न पड़ा कीजिए। बच्चे बड़े हो गए है़ं। हमारा जो कर्तव्य था, कर रहे हैं, पढ़ा रहे है, शादी कर देंगे।”
गजाधर बाबू ने आहत दृष्टि से पत्नी को देखा। उन्होंने अनुभव किया कि वह पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त मात्र हैं। जिस व्यक्ति के अस्तित्व से पत्नी मांग में सिन्दूर डालने की अधिकारी है, समाज में उसकी प्रतिष्ठा है, उसके सामने वह दो वक्त भोजन की थाली रख देने से सारे कर्त्तव्यों से छुट्टी पा जाती है़। वह घी और चीनी के डिब्बों में इतनी रमी हुई है कि अब वही उसकी सम्पूर्ण दुनिया बन गई है़। गजाधर बाबू उसके जीवन के केन्द्र नहीं हो सकते। उनका तो अब बेटी की शादी के लिए भी उत्साह बुझ गया। किसी बात में हस्तक्षेप न करने के निश्चय के बाद भी उनका अस्तित्व उस वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर में ऐसी असंगत लगने लगी थी, जैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई थी। उनकी ख़ुशी एक गहरी उदासीनता मे डूब गई।
इतने सब निश्चयों के बावजूद भी गजाधर बाबू एक दिन बीच में दखल दे बैठे। पत्नी स्वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थी, “कितना लापरवाह है, बाजार की हर चीज़ में पैसा बनाता है़। खाने बैठता है, तो खाता ही चला जाता है़।”
गजाधर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कि उनके घर का रहन-सहन और ख़र्च उनकी हैसियत से कहीं ज्यादा है़। पत्नी की बात सुनकर लगा कि नौकर का ख़र्च बिल्कुल बेकार है़। छोटा-मोटा काम है, घर में तीन मर्द है, कोई-न-कोई कर ही देगा। उन्होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर दिया। अमर दफ़्तर से आया, तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली, “बाबूजी ने नौकर छुड़ा दिया।”
“क्यों?”
“कहते हैं; ख़र्च बहुत है़।”
यह वार्तालाप बहुत सीधा-सा था, पर जिस टोन में बहू बोली, गजाधर बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू टहलने नहीं नए थे। आलस्य में उठकर बत्ती भी नहीं जलाई। इस बात से बेख़बर नरेन्द्र मां से कहने लगा, “अम्मा, तुम बाबूजी से कहती क्यों नहीं? बैठे-बिठाए कुछ नहीं, तो नौकर ही छुड़ा दिया। अगर बाबूजी यह समझें कि मैं साइकिल पर गेहूं रख आटा पिसाने जाऊं, तो मुझसे यह नहीं होगा।”
“हां अम्मा, बसन्ती का स्वर था, मैं कॉलेज़ भी जाऊं; और लौटकर घर में झाड़ू भी लगाऊं, यह मेरे बस की बात नहीं है़।”
“बूढ़े आदमी हैं।” अमर भुनभुनाया, “चुपचाप पड़े रहे। हर चीज़ में दखल क्यों देते हैं?”
पत्नी ने बड़े व्यंग्य से कहा, “और कुछ नहीं सूझा, तो तुम्हारी बहू को ही चौके में भेज दिया। वह गई तो पन्द्रह दिन का राशन पांच दिन में बनाकर रख दिया।”
बहू कुछ कहे, इससे पहले वह चौके में घुस गईं। कुछ देर में अपनी कोठरी में आई और बिजली जलाई, तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी सिटपिटाई। गजाधर बाबू की मुखमुद्रा से वह उनके भावों का अनुमान न लगा सकीं। वह चुप, आंखे बन्द किए लेटे रहे़।
गजाधर बाबू चिट्ठी हाथ में लिए अन्दर आए; और पत्नी को पुकारा। वह भीगे हाथ लिए निकलीं और आंचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुईं। गजाधर बाबू ने बिना किसी भूमिका के कहा, “मुझे सेठ रामजीमल की चीनी-मिल में नौकरी मिल गई है़। ख़ाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएं, वही अच्छा है़। उन्होंने तो पहले ही कहा था, मैंने ही मना कर दिया था।” फिर कुछ रूककर, जैसे बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठे, उन्होंने धीमे स्वर मे कहा, “मैंने सोचा था कि बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद अवकाश पाकर परिवार के साथ रहूंगा, ख़ैर, परसों जाना है़ तुम भी चलोगी?”
“मैं?” पत्नी ने सकपकाकर कहा, “मैं चलूंगी, तो यहां का क्या होगा? इतनी बड़ी गृहस्थी, फिर सयानी लड़की….”
बात बीच में काट गजाधर बाबू ने हताश स्वर में कहा, “ठीक है, तुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था। ” और गहरे मौन में डूब गए।
नरेन्द्र ने बड़ी तत्परता से बिस्तर बांधा और रिक्शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टिन का बक्स और पतला-सा बिस्तर उस पर रख दिया गया। नाश्ते के लिए लड्डू और मठरी की डलिया उस पर रख गजाधर बाबू रिक्शे पर बैठे गए। एक दृष्टि उन्होंने अपने परिवार पर डाली, फिर दूसरी ओर देखने लगे, रिक्शा चल पड़ा।
उनके जाने के बाद सब अन्दर लौट आए। बहू ने अमर से पूछा, “सिनेमा ले चलिएगा न?”
बसन्ती ने उछलकर कहा, “भइया, हमें भी!”
गजाधर बाबू की पत्नी सीधे चौके में चली गई। बची हुई मठरियों को कटोरदान में रखकर अपने कमरे में लाई और कनस्तरों के पास रख दिया। फिर बाहर आकर कहा, “अरे नरेन्द्र, बाबूजी की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नहीं है।”
**समाप्त**
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