ठेका विष्णु प्रभाकर की कहानी | Theka Vishnu Prabhakar Ki Kahani 

ठेका विष्णु प्रभाकर की कहानी, Theka Vishnu Prabhakar Ki Kahani Hindi Short Story 

Theka Vishnu Prabhakar Ki Kahani 

Theka Vishnu Prabhakar Ki Kahani 

धीरे-धीरे कहकहों का शोर शांत हो चला और मेहमान एक-एक करके विदा होने लगे। लकदक करती ठेकेदारों की फैशनेबल बीवियाँ और अपने को अब भी जवान माननेवाली छोटे अफसरों की अधेड़ घरवालियाँ, सभी ही-ही करती चमकती, इठलाती चली गईं, लेकिन रोशनलाल की पत्नी तब तक आई भी नहीं। वह कई बार बीच में से उठकर होटल के बाहर गया। खाते-पीते, बातें करते, उसकी दृष्टि बराबर द्वार की ओर लगी रही, पर संतोष उसे नहीं दिखाई दी, नहीं दिखाई दी। यह बात नहीं कि संतोष को इस पार्टी का पता नहीं था, इसके विपरीत उसने रोशनलाल को कई बार इस पार्टी की याद दिलाई थी। आज सवेरे उससे विशेष रूप से कहा था, ‘राजकिशोर शाम को वेंगर में पार्टी दे रहे हैं। भूलिएगा नहीं।’

‘तुम नहीं चलोगी?’

‘क्यों नहीं चलूँगी, लेकिन आपके साथ न चल सकूँगी।’

‘क्यों?’

‘मुझे अपनी एक सहेली से मिलना है। मैं वहीं आ जाऊँगी।’

और इतने पर भी वह नहीं आई। वह पार्टियों की शौकीन है, विशेषकर होटल में दी गई पार्टी में वह सौ काम छोड़कर जाती है। रोशन का मन खट्टा होने लगा। उसे क्रोध भी आया, पर ऊपर से वह शांत बना रहा। यही नहीं, उसने कहकहे लगाए और जैसा कि पार्टियों में होता है, उसने उपस्थित नारियों के बारे में अपनी बेलाग राय भी प्रकट की, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर नुक्ताचीनी की, पर अपनी पत्नी की अनुपस्थिति के बारे में वह किसी का समाधान न कर पाया।

एक मित्र ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘रोशन और संतोष आदर्श दंपती हैं। एक-दूसरे के काम में बिल्कुल दखल नहीं देते।’

दूसरे बोले, ‘देना भी नहीं चाहिए। पति-पत्नी दोनों बराबर के साझीदार हैं।’

तीसरे ठेकेदार मित्र कुछ गंभीर थे। कहने लगे, ‘यह तो ठीक है, लेकिन स्त्री आखिर स्त्री है। उसे ढील चाहे कितनी ही दो, पर रस्सी अपने ही हाथ में रखनी चाहिए।’

इसपर एक कहकहा लगा और वही कहकहा रोशन की छाती में शूल की तरह कसक उठा। उस क्षण आवेग के कारण वह काँपने लगा, मुख तमतमा आया और उसने चाहा कि वह भाग जाए। पर यह सब आंतरिक था। प्रकट में वह भी मुक्त भाव से हँसा और बोला, ‘जी नहीं, मैं मदारी नहीं हूँ, जो बँदरिया को नचाया करूँ।’

कहकहों की आवाज और भी तेज हो उठी और उसी के बीच एक महिला ने कहा, ‘होशियार रहिए। यह जनतंत्र का युग है। इसमें बँदरिया मदारी को नचाने लगी है।’

‘कोई अंतर नहीं। दोनों रस्सी में बँधे हुए हैं और दोनों समझते हैं कि वे एक-दूसरे को नचा रहे हैं।’ एक और साथी अट्टहास बिखेरते हुए बोल उठे।

‘बेशक, आप ठीक कहते हैं। इसी का नाम विवाह है, और विवाह एक ठेका है।’

वह सज्जन अपना वाक्य पूरा कर पाते कि दूसरे अपेक्षाकृत युवती महिला तीव्रता से बोल उठी, ‘खाक है, आप लोगों के ऐसे विचार हैं, तभी तो तलाक की जरूरत पड़ी। नारी अब पुरुष की दासी नहीं रह सकती।’

और वह वहाँ से उठकर चली गई। जैसे कहकहों को पाला मार गया हो। उस मेज की महफिल फिर नहीं जमी। दूसरी मेजों पर उसी तरह खिलखिलाहट उठती रही, पर रोशन का मन नहीं लगा। उसने चाहा कि तुरंत उठकर चला जाए, पर शायद संतोष अब भी आ जाए, इसी लालच में वह अंत तक रुका रहा और जब उसने राजकिशोर तथा उसकी पत्नी श्यामा से विदा ली तो राजकिशोर ने पूछ लिया, ‘आखिर संतोष रही कहाँ?’

रोशन बोला, ‘समझ में नहीं आता। आने का पक्का वायदा करके गई थी। शायद…’

श्यामा हँस पड़ी, ‘शायद आपको मालूम नहीं। मैंने आज उन्हें साहब के साथ देखा था।’

‘मिस्टर वर्मा के साथ?’

‘जी हाँ।’

रोशन के मुख की लालिमा सहसा पीली पड़ गई। राजकिशोर ने मुँह छिपाकर श्यामा की ओर देखा, मुसकराया, मानो कहता हो ‘ओह, तो यह बात है।’ फिर रोशन से कहा, ‘कुछ भी हो। उसे आना चाहिए था। मैं बहुत नाराज हूँ। उससे कह देना, समझे?’

रोशन ने किसी तरह हँसते हुए कहा, ‘कह दूँगा, जनाब!’

और वह एक झटके के साथ अपने को तुड़ाकर वहाँ से नीचे उतर गया। उसी के साथ राजकिशोर और श्यामा की शरारत भरी हँसी भी उतरी। अगर वह सुन पाता तो श्यामा कह रही थी, ‘संतोष मुझे पराजित करना चाहती है, पर…’

लेकिन रोशन कुछ भी सुनने की स्थिति में न था। उसका तन-मन झुलस रहा था और आवेश के कारण पैर डगमगा रहे थे। क्रोध के कारण या ग्लानि के, कुछ पता नहीं। पर वह विचारों के तूफान में फँस गया था। उन्हीं में उलझ-उलझकर उसकी बुद्धि बार-बार लड़खड़ा पड़ती थी, ‘वह क्यों नहीं आई? आखिर क्यों? क्या वह सचमुच वर्मा के साथ थी? सचमुच… लेकिन उसने मुझसे क्यों नहीं कहा? मुझसे क्यों छिपाया? क्यों, आखिर क्यों? उसका इतना साहस कैसे हुआ? कैसे?’

अंतिम वाक्य उसने इतने जोर से कहा कि वह स्वयं चौंक पड़ा। आसपास वाले व्यक्ति उसे अचरज से देखने लगे, पर दूसरे ही क्षण वह फिर तूफान में खो गया। वह जानता है कि संतोष बड़ी सामाजिक है। खूब मिलती-जुलती है। सरकारी विभागों के प्रमुख कर्मचारियों से उसकी रब्ब-जब्त है। इसका प्रारंभ उसी ने तो कराया था। नहीं तो वह इतनी लजीली थी कि उसके सामने भी नयन नहीं उठाती थी।

वह काँप उठा। एक के बाद एक सिहरन तरंग की भाँति एड़ी से उठती और उसे मस्तिष्क तक झनझना देती। वह फुसफुसाया—इस सामाजिकता से उन्हें कितना लाभ हुआ है, लेकिन संतोष उससे छिपकर कभी किसी से नहीं मिलती। कभी उससे कुछ नहीं छिपाती। कभी उससे दूर नहीं जाती। हाँ, कभी उससे दूर नहीं जाती। जो कुछ करती है, उसके कहने से करती है। संतोष उसी की है। संतोष रोशन की है।

‘नहीं, नहीं,’ वह चीख उठा, ‘राजकिशोर मुसकरा रहा था। उसकी मुसकराहट का साफ यही मतलब था कि संतोष मेरी चिंता नहीं करती। मुझसे छिपकर अफसरों से मिलती है। मुझे धोखा देती है, चराती है, हरजाई है!’

वह तेजी से दौड़ने लगा। उसके हाथ कुलमुलाने लगे। वह किसी का गला घोंटने को आतुर हो उठा। उसने न ताँगेवाले की पुकार पर ध्यान दिया, न बस के अड्डे पर रुका। अभी गरमी नहीं आई थी। मार्च की संध्या हलकी-हलकी शीतलता से महकती आ रही थी, पर वह पसीने से तर था। घर न जाकर वह यंत्र की भाँति मथुरा रोड की ओर मुड़ गया। अभी वहाँ कुछ हरियाली शेष थी। रेल का पुल पार करके वह उत्तर की ओर बढ़ा। उधर बँगले थे। कुछ ही देर में वह वहाँ पहुँच गया, जहाँ मिस्टर वर्मा रहते थे। वह उनके बँगले के पास ठिठका, पर वहाँ सर्वत्र मौन था। सबकुछ स्तब्ध था। समूचा वातावरण रात्रि के शीतल आवरण में प्रवेश करता जा रहा था। उसकी शिराओं का तनाव ढीला पड़ा। वह फुसफुसाया, ‘नहीं, यहाँ नहीं।’

लेकिन दूसरे ही क्षण वह फिर दौड़ने लगा। उस स्तब्धता में उसके अपने पैरों की पदचाप उसे कँपाने लगी। जलाशय के किनारे दूर-दूर तक फैली हरी घास पर दो-चार रोमांटिक मूर्तियाँ मुक्त वातावरण का आनंद ले रही थीं। उसका दिल धुकधुकाया और वह उनके पास से होकर सर्र से निकल गया।

वह फिर रेस्तराँ और फैशनेबल सामान वाले बाजार की ओर मुड़ गया और कुछ देर बाद विचारों के तूफानों के थपेड़े खाता हुआ एक शानदार रेस्तराँ के सामने रुक गया। अपने को बटोरने के लिए कुछ पीना चाहता था, पर जैसे ही द्वारपाल ने उसके लिए किवाड़ खोले और वह अंदर दाखिल हुआ, वह लड़खड़ाकर पीछे हट गया—सामने संतोष और वर्मा बैठे हैं। दोनों मुसकरा रहे हैं। दोनों…

वह एकाएक हाँफने लगा। गिरते-गिरते बचा और फिर द्वारपाल को चौंकाता हुआ तेजी से एक ओर भागता चला गया। भागता गया, भागता गया। तब तक भागता ही गया, जब तक उसका घर नहीं आ गया। रोशनी जल रही थी। दोनों बच्चे सो गए थे, पर नौकर ऊँघ रहा था। उसने किसी ओर ध्यान नहीं दिया। सीधा अपने पलंग पर जाकर गिर पड़ा। बहुत देर तक पड़ा रहा। वह सोच सकता था, न अपना कोई अंग हिला सकता था। वह तब हर दृष्टि से मानो मर चुका था।

लेकिन सहसा उसके प्राण लौट आए। वह उठकर बैठ गया। उसने निश्चय किया कि वह आज संतोष को मार डालेगा। हाँ, मार डालेगा। जान से मार डालेगा। उसने उसे पार्टी में अपमानित करवाया। मित्रों ने उसपर फब्तियाँ कसीं। उसे देखकर राज मुसकराया और श्यामा ने चुटकी ली। श्यामा ने, श्यामा, जो…वह संतोष को मार डालेगा। जरूर मार डालेगा।

कि सहसा किवाड़ खुले और संतोष द्वार पर दिखाई दी। वह मुसकरा रही थी और उसके मदिर नयनों से सुरा जैसे छलकी पड़ती थी। उसने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘हैलो डार्लिंग, तुमने रेस्तराँ का दरवाजा खोला और फिर चले आए। शायद तुमने हमें देखा नहीं। सामने ही तो थे। मिस्टर वर्मा भी थे।’

रोशन चीख उठा, ‘निर्लज्ज! मैं तुझे मार डालूँगा!’

संतोष ने चौंककर उसे देखा, ‘यह क्या कह रहे हो? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? अरे, तुम तो काँप रहे हो? मैं पार्टी में न आ सकी, शायद इसीलिए…।’

रोशन उठकर खड़ा हो चुका था और संतोष की ओर बढ़ रहा था। उसकी आँखें जल रही थीं। उसके मुख पर हिंसा उभर आई थी। उसके हाथ अकड़ रहे थे, पर संतोष ने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया। बोलती रही, ‘मैंने पार्टी में आने का बहुत प्रयत्न किया। मैं वहाँ आने का भी बहुत प्रयत्न किया। मैं वहाँ आना भी चाहती थी। मैं श्यामा को नीचा दिखाना चाहती थी।’

रोशन और आगे बढ़ा। उसका मुँह और विकृत हुआ। हाथ ऐंठे। लेकिन संतोष ने फिर भी कुछ ध्यान नहीं दिया। बोलते-बोलते वह रोशन के पास आई और उसके कंधे पर हाथ रख दिया। फिर नयन उठाकर उसकी आँखों में झाँका। रोशन का शरीर एकाएक झनझनाया, पर उसने कड़ककर पूछा, ‘तुम कहाँ थीं? मैं पूछता हूँ तुम कहाँ थीं?’

संतोष निस्संकोच बोली, ‘तुम्हें क्रोध आ रहा है। आना ही चाहिए, पर मैं क्या करूँ? श्यामा ने वर्मा को तभी छोड़ा जब पार्टी का समय हो गया। वह उसे वहाँ ले जाना चाहती थी। वह…ठेका लगभग प्राप्त कर चुकी थी।’

रोशन फिर काँपा पर अब उसका कारण दूसरा था। उसने तेजी से गरदन को झटका दिया और संतोष को देखा, बोला, ‘क्या कहती हो?’

‘यही कि मैं वर्मा के साथ न रहती तो वह ठेका राजकिशोर को मिल जाता।’

‘राजकिशोर को मिल जाता? मैंने तो सुना है, वह उसे मिल चुका है। उसकी बड़ी पहुँच है। श्यामा…’

संतोष व्यंग्य से चीख उठी, ‘तुमने गलत सुना है। श्यामा कुछ नहीं कर सकती। ठेका राजकिशोर को नहीं मिला।’

‘तो किसको मिला?’

संतोष के हाथ में एक लिफाफा था, उसी को उसने रोशन की ओर तेजी से फेंका, ‘यह देखो!’

‘संतोष!’ स्तब्ध रोशन चीख उठा। वह सबकुछ भूल गया। उसका सब संघर्ष निमिष मात्र में धुल-पुँछ गया। उसने लपककर लिफाफा खोला।

संतोष शरारत से हँसी, बोली, ‘सरकारी पत्र कल तुम्हारे पास आ जाएगा और परसों हम वेंगर में एक शानदार पार्टी देंगे। एक बहुत शानदार पार्टी!’

रोशन तब तक उस पत्र को पढ़ चुका था। उसने काँपते हुए, चीखते हुए संतोष को बाँहों में भर लिया और बार-बार कहने लगा, ‘संतोष, तुम कितनी अच्छी हो, कितनी बड़ी हो। ओह, मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ? क्या करूँ?’

संतोष बोली, ‘कुछ नहीं डार्लिंग, मैं पिक्चर जा रही हूँ। मेरा इंतजार न करना। सो जाना।’

**समाप्त**

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