तस्वीर सआदत हसन मंटो की कहानी | Tasveer Saadat Hasan Manto Ki Kahani

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Tasvir Saadat Hasan Manto Ki Kahani

Tasvir Saadat Hasan Manto Ki Kahani

“बच्चे कहाँ हैं?”

“मर गए हैं”

“सब के सब?”

“हाँ, सब के सब! आप को आज उन के मुतअल्लिक़ पूछने का क्या ख़याल आ गया?”

“मैं उन का बाप हूँ।”

“आप? ऐसा बाप ख़ुदा करे कभी पैदा ही न हो”

“तुम आज इतनी ख़फ़ा क्यों हो? मेरी समझ में नहीं आता, घड़ी में रत्ती घड़ी में माशा हो जाती हो। दफ़्तर से थक कर आया हूँ और तुम ने ये चख़ चख़ शुरू कर दी है। बेहतर था कि मैं वहां दफ़्तर ही में पंखे के नीचे आराम करता।”

“पंखा यहां भी है। आप आराम-तलब हैं, यहीं आराम फ़र्मा सकते हैं”

“तुम्हारा तंज़ कभी नहीं जाएगा। मेरा ख़याल है कि ये चीज़ तुम्हें जहेज़ में मिली थी।”

“मैं कहती हूँ, कि आप मुझ से इस क़िस्म की ख़ुराफ़ात न बका कीजिए। आप के दीदों का तो पानी ही ढल गया है।”

“यहां तो सब कुछ ढल गया है। तुम्हारी वो जवानी कहाँ गई? मैं तो अब ऐसा महसूस करता हूँ, जैसे सौ बरस का बुढ्ढा हूँ।”

“ये आप के आमाल का नतीजा है। मैंने तो ख़ुद को कभी उम्र रसीदा महसूस नहीं किया।”

“मेरे आमाल इतने स्याह तो नहीं और फिर मैं तुम्हारा शौहर होते हुए क्या इतना भी महसूस नहीं कर सकता कि तुम्हारा शबाब अब रूबा तनज़्ज़ुल है।”

“मुझसे ऐसी ज़बान में गुफ़्तुगू कीजिए, जिसको मैं समझ सकूं। ये तरूबा नज़ल क्या हुआ?”

“छोड़ो इसे, आओ मुहब्बत प्यार की बातें करें!”

“आप ने अभी अभी तो कहा था कि आप को ऐसा महसूस होता है, जैसे सौ बरस के बुढ्ढे हैं।”

“भई दिल तो जवान है।”

“आप के दिल को मैं क्या कहूं? आप उसे दिल कहते हैं। मुझसे कोई पूछे तो मैं यही कहूँगी कि पत्थर का एक टुकड़ा है, जो उस शख़्स ने अपने पहलू में दबा रखा है और दावा ये करता है कि इसमें मुहब्बत भरी हुई है। आप मुहब्बत करना क्या जानें? मुहब्बत तो सिर्फ़ औरत ही कर सकती है।”

“आज तक कितनी औरतों ने मर्दों से मुहब्बत की है। ज़रा तारीख़ का मुताला करो। हमेशा मर्दों ही ने औरतों से मुहब्बत की और उसे निभाया। औरतें तो हमेशा बे-वफ़ा रही हैं।”

“झूठ! इस का अव़्वल झूठ, इस का आख़िर झूठ, बे-वफाई तो हमेशा मर्दों ने की है।”

“और वो जो इंग्लिस्तान के बादशाह ने एक मामूली औरत के लिए तख़्त-ओ-ताज छोड़ दिया था? वो क्या झूठी और फ़र्ज़ी दास्तान है”

“बस एक मिसाल पेश कर दी और मुझ पर रोब डाल दिया।”

“भई तारीख़ में ऐसी हज़ारों मिसालें मौजूद हैं। मर्द जब किसी औरत से इश्क़ करता है, तो वो कभी पीछे नहीं हटता। कम-बख़्त अपनी जान क़ुर्बान कर देगा, मगर अपनी महबूबा को ज़रा सी भी ईज़ा पहुंचने नहीं देगा। तुम नहीं जानती हो, मर्द में जबकि वो मुहब्बत में गिरफ़्तार हो कितनी ताक़त होती है।”

“सब जानती हूँ, आप से तो कल अलमारी का जमा हुआ दरवाज़ा भी नहीं खुल सका। आख़िर मुझे ही ज़ोर लगा कर खोलना पड़ा।”

“देखो जानम, तुम ज़्यादती कर रही हो। तुम्हें मालूम है कि मेरे दाहिने बाज़ू में रीह का दर्द था। मैं उस दिन दफ़्तर भी नहीं गया था और सारा दिन और सारी रात पड़ा कराहता रहा था। तुम ने मेरा कोई ख़याल न किया और अपनी सहेलियों के साथ सिनेमा देखने चली गईं।”

“आप तो बहाना कर रहे थे।”

“लाहौल-ओ-ला यानी मैं बहाना कर रहा था। दर्द के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा है और तुम कहती हो कि मैं बहाना कर रहा था। लानत है ऐसी ज़िंदगी पर।”

“ये लानत मुझ पर भेजी गई है!”

“तुम्हारी अक़ल पर तो पत्थर पड़ गए हैं। मैं अपनी ज़िंदगी का रोना रो रहा था।”

“आप तो हर वक़्त रोते ही रहते हैं।”

“तुम तो हंसती रहती हो। इस लिए कि तुम्हें किसी की परवाह ही नहीं। बच्चे जाएं जहन्नम में, मेरा जनाज़ा निकल जाये, ये मकान जल कर राख हो जाये, मगर तुम हंसती रहोगी। ऐसी बे-दिल औरत मैंने आज तक अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं देखी।”

“कितनी औरतें देखी हैं आपने अब तक?”

“हज़ारों लाखों, सड़कों पर तो आजकल औरतें ही औरतें नज़र आती हैं”

“झूठ न बोलिए। आप ने कोई न कोई औरत खासतौर पर देखी है”

“खासतौर पर से तुम्हारा मतलब क्या है?”

“मैं आप के राज़ खोलना नहीं चाहती। मैं अब चलती हूँ”

“कहाँ?”

“एक सहेली के यहां! उस से अपना दुखड़ा बयान करूंगी। ख़ुद रोऊँगी, उस को भी रुलाऊँगी। इस तरह कुछ जी हल्का हो जाएगा।”

“वो दुखड़ा जो तुम्हें अपनी सहेली से बयान करना है, मुझे ही बता दो। मैं तुम्हारे ग़म में शरीक होने का वाअदा करता हूँ।”

“आप के वाअदे? कभी ईफ़ा हुए हैं?”

“तुम बहुत ज़्यादती कर रही हो। मैंने आज तक तुम से जो भी वाअदा किया, पूरा किया। पिछले दिनों तुमने मुझ से कहा कि चाय का एक सीट ला दो, मैंने एक दोस्त से रुपय क़र्ज़ लेकर बहुत उम्दा सीट ख़रीद कर तुम्हें ला दिया।”

“बड़ा एहसान किया मुझ पर। वो तो दरअसल आप अपने दोस्तों के लिए लाए थे। उसमें से दो प्याले किस ने तोड़े थे? ज़रा ये तो बताईए?”

“एक पियाला तुम्हारे बड़े लड़के ने तोड़ा, दूसरा तुम्हारी छोटी बच्ची ने।”

“सारा इल्ज़ाम आप हमेशा उन्हीं पर धरते हैं। अच्छा अब ये बहस बंद हो। मुझे नहा धो कर कपड़े पहनना और जूड़ा करना है।”

“देखो मैंने आज तक कभी सख़्त-गीरी नहीं की। मैं हमेशा तुम्हारे साथ नरमी से पेश आता रहा हूँ। मगर आज मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि बाहर नहीं जा सकतीं।”

“अजी वाह! बड़े आए मुझ पर हुक्म चलाने वाले आप हैं कौन?”

“इतनी जल्दी भूल गई हो, मैं तुम्हारा ख़ाविंद हूँ”

“मैं नहीं जानती ख़ाविंद क्या होता है। मैं अपनी मर्ज़ी की मालिक हूँ। मैं बाहर जाऊंगी और ज़रूर जाऊंगी। देखती हूँ मुझे कौन रोकता है।”

“तुम नहीं जाओगी,. बस ये मेरा फ़ैसला है।”

“फ़ैसला अब अदालत ही करेगी।”

“अदालत का यहां क्या सवाल पैदा होता है, मेरी समझ में नहीं आता। आज तुम कैसी ऊटपटांग बातें कर रही हो। तुक की बात करो। जाओ नहा लो, ताकि तुम्हारा दिमाग़ किसी हद तक ठंडा हो जाये।”

“आप के साथ रह कर मैं तो सर से पैर तक बर्फ़ हो चुकी हूँ।”

“कोई औरत अपने ख़ाविंद से ख़ुश नहीं होती। ख़्वाह वो बे-चारा कितना ही शरीफ़ क्यों न हो, इसमें कीड़े डालना उसकी सरिश्त में दाख़िल है। मैंने तुम्हारी कई ख़ताएं और गलतियां माफ़ की हैं।”

“मैंने ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता कौन सी ख़ता की है?”

“पिछले बरस तुमने शलजम की शब देग़ बड़े ठाट से पकाने का इरादा किया। शाम को चूल्हे पर हंडिया रख कर तुम ऐसी सोईं कि उठ कर जब में बावर्ची-ख़ाने में गया, तो देखा कि देगची में सारे शलजम कोइले बने हुए हैं। उनको निकाल कर मैंने अँगीठी सुलगाई और चाय तैयार की। तुम सो ही थीं”

“मैं ये बकवास सुनने के लिए तैय्यार नहीं!”

“इसलिए कि इस में झूठ का एक ज़रा भी नहीं। मैं अक्सर सोचता हूँ कि औरत को सच हक़ीक़त से क्यों चिड़ है। मैं अगर कह दूँ कि तुम्हारा बायां गाल तुम्हारे दाएं के मुक़ाबले में किसी क़दर ज़्यादा मोटा है, तो शायद तुम मुझे सारी उम्र न बख़्शो। मगर ये हक़ीक़त है जिसे शायद तुम भी अच्छी तरह महसूस करती हो। देखो ये पेपर वेट वहीं रख दो। उठा के मेरे सर पर दे मारा, तो थाना थनोल हो जाएगा।”

“मैंने पेपर वेट इस लिए उठाया था कि ये आप के चेहरे के ऐन मुताबिक़ है। इस के अंदर जो हवा के बुलबुले से हैं, वो आप की आँखें हैं और ये जो लाल सी चीज़ है, वो आप की नाक है, जो हमेशा सुर्ख़ रहती है। मैंने जब आप को पहली मर्तबा देखा था, तो मुझे ऐसा लगा था, जैसे आप की आँखों के नीचे, जो गाय की आँखें हैं, एक कॉकरोच औंधे मुँह बैठा है”

“तुम्हारा जी हल्का हो गया?”

“मेरा जी कभी हल्का नहीं होगा। मुझे आप जाने दीजिए। नहा धो कर मैं शायद यहां से हमेशा के लिए चली जाऊं।”

“जाने से पहले ये तो बता जाओ कि ये जाना किस बिना पर है?”

“मैं बताना नहीं चाहती। आप तो अव़्वल दर्जे के बे-शरम हैं।”

“भई तुम्हारी इस सारी गुफ़्तुगू का मतलब अभी तक मेरी समझ में नहीं आया। मालूम नहीं, तुम्हें मुझसे क्या शिकायत एकदम पैदा हो गई है।”

“ज़रा अपने कोट की अंदरूनी जेब में हाथ डालिए।”

“मेरा कोट कहाँ है?”

“लाती हूँ लाती हूँ।”

“मेरे कोट में क्या हो सकता है? विस्की की बोतल थी, वो तो मैंने बाहर ही ख़त्म कर के फेंक दी थी। लेकिन हो सकता है रह गई हो।”

“लीजिए आप का कोट ये रहा।”

“अब मैं क्या करूं?”

“उसके अंदर की जेब में हाथ डालिए और उस लड़की की तस्वीर निकालिये, जिससे आप आजकल इश्क़ लड़ा रहे हैं।”

“लाहौल-ओ-ला! तुम ने मेरे औसान ख़ता कर दिए थे। ये तस्वीर मेरी जान मेरी बहन की है, जिसको तुमने अभी तक नहीं देखा। अफ़्रीक़ा में है। तुम ने ये ख़त नहीं देखा, साथ ही तो था। ये लो!”

“हाय कितनी ख़ूबसूरत लड़की है। मेरे भाई जान के लिए बिलकुल ठीक रहेगी।”

(१८ मई ५४-ई.)

**समाप्त**

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