ताई इसरी कृष्ण चन्दर की कहानी | Tai Isri Krishan Chander Ki Kahani

ताई इसरी कृष्ण चन्दर की कहानी, Tai Isri Krishan Chander Ki Kahani Hindi Short Story 

Tai Isri Krishan Chander Ki Kahani

Tai Isri Krishan Chander Ki Kahani

मैं ग्रांट मेंडीकल कॉलेज कलकत्ता में डाक्टरी का फाईनल कोर्स कर रहा था और अपने बड़े भाई की शादी पर चंद रोज़ के लिए लाहौर आ गया था। यहीं शाही मुहल्ले के क़रीब कूचा ठाकुर दास में हमारा जहां आबाई घर था, मेरी मुलाक़ात पहली बार ताई इसरी से हुई।

ताई इसरी हमारी सगी ताई तो न थी, लेकिन ऐसी थीं कि उन्हें देखकर हर एक का जी उन्हें ताई कहने के लिए बेक़रार हो जाता था। मुहल्ले के बाहर जब उनका ताँगा आ के रुका और किसी ने कहा, “लो ताई इसरी आ गईं,” तो बहुत से बूढ़े, जवान, मर्द और औरतें इन्हें लेने के लिए दौड़े। दो-तीन ने सहारा देकर ताई इसरी को ताँगे से नीचे उतारा, क्योंकि ताई इसरी फ़र्बा अंदाज़ थीं और चलने से या बातें करने से या महज़ किसी को देखने ही से उनकी सांस फूलने लगती थी। दो तीन रिश्तेदारों ने यकबारगी अपनी जेब से ताँगा के किराए के पैसे निकाले। मगर ताई इसरी ने अपनी फूली हुई साँसों में हंसकर सबसे कह दिया कि वो तो पहले ही ताँगा वाले को किराया के पैसे दे चुकी हैं और जब वो यूं अपनी फूली साँसों के दरमियान बातें करती करती हँसीं, तो मुझे बहुत अच्छी मालूम हुईं। दो तीन रिश्तेदारों का चेहरा उतर गया और उन्होंने पैसे जेब में डालते हुए कहा, “ये तुमने क्या-क्या ताई? हमें इतनी सी ख़िदमत का मौक़ा भी नहीं देती हो!” इस पर ताई ने कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने अपने क़रीब खड़ी हुई एक नौजवान औरत से पंखी ले ली और उसे झलते हुए मुस्कुराती हुई आगे बढ़ गईं।

ताई इसरी की उम्र साठ साल से कम न होगी, उनके सर के बाल खिचड़ी हो चुके थे और उनके भरे-भरे गोल-मटोल चेहरे पर बहुत अच्छे लगते थे। उनका फूली-फूली साँसों में मासूम बातें करना तो सबको ही अच्छा लगता था। लेकिन मुझे उनके चेहरे में उनकी आँखें बड़ी ग़ैरमामूली नज़र आईं। उन आँखों को देखकर मुझे हमेशा धरती का ख़्याल आया है। मीलों दूर तक फैले हुए खेतों का ख़्याल आया है। इसके साथ साथ ये ख़्याल भी आया है कि इन आँखों के अंदर जो मुहब्बत है, इसका कोई किनारा नहीं, जो मासूमियत है इसकी कोई अथाह नहीं, जो दर्द है इसका कोई दरमाँ नहीं।

मैंने आज तक ऐसी आँखें किसी औरत के चेहरे पर नहीं देखी, जो इस क़दर वसीअ और बेकनार हों कि ज़िंदगी का बड़े से बड़ा और तल्ख़ से तल्ख़ तजुर्बा भी उनके लिए एक तिनके से ज़्यादा हैसियत न रखे। ऐसी आँखें जो अपनी पिनहाइयों में सब कुछ बहा ले जाएं, ऐसी अनोखी, माफ़ कर देने वाली, दरगुज़र कर देने वाली आँखें मैंने आज तक नहीं देखीँ। ताई इसरी ने कासनी शाही का घाघरा पहन रखा था। जिस पर सुनहरी गोटे का लहरिया चमक रहा था। उनकी क़मीज़ बसंती रेशम की थी, जिस पर ज़री के फूल कढ़े हुए थे। सर पर दोहरे मलमल का क़िरमिज़ी दुपट्टा था। हाथों में सोने के गोखरु थे। जब वो घर के दालान में दाख़िल हुईं तो चारों तरफ़ शोर मच गया। बहुएं और ख़ालाएं और ननदें और भावजें, मौसीयां और चचियां सब ताई इसरी के पांव छूने को दौड़ीं। एक औरत ने जल्दी से एक रंगीन पीढ़ी खींच कर ताई इसरी के लिए रख दी और ताई इसरी हंसते हुए उस पर बैठ गईं और बारी-बारी सबको गले लगा कर सब के सर पर हाथ फेर कर सबको दुआ देने लगीं।

और उनके क़रीब हीरो महरी की बेटी सूत्री ख़ुशी से अपनी बाछें खिलाए ज़ोर-ज़ोर से पंखा झल रही थी। ताई इसरी घर से रंगीन खपची की एक टोकरी लेकर आई थीं, जो उनके क़दमों में उनकी पीढ़ी के पास ही पड़ी थी। वो बारी-बारी से सबको दुआएं देती जातीं और खपची वाली टोकरी खोल कर उसमें से एक चवन्नी निकाल कर देती जातीं। कोई एक सौ चवन्नीयां उन्होंने अगले बीस मिनट में बांट दी होंगी, जब सब औरतें और मर्द, लड़के और बच्चे-बाले उनके पांव छू कर अपनी अपनी चवन्नी ले चुके, तो उन्होंने अपनी ठोढ़ी ऊंची कर के पंखा झलने वाली लड़की की तरफ़ देखा और उससे पूछा,

“तू कौन है?”

“मैं सूत्री हूँ।” बच्ची ने शरमाते हुए जवाब दिया।

“आए हाय, तू जय किशन की लड़की है? मैं तो भूल ही गई थी तुझे। आ जा गले से लग जा…!”

ताई इसरी ने उसको गले से लगा लिया, बल्कि उसका मुँह भी चूम लिया और जब उन्होंने उसे अपनी खपची वाली टोकरी से निकाल कर चवन्नी दी, तो घर की सारी औरतें क़हक़हा मार कर हंस पड़ीं और मौसी करतारो अपनी नीलम की अँगूठी वाली उंगली नचा कर बोली, “ताई, ये तो जय किशन की बेटी सूत्री नहीं है, ये तो हीरो महरी की बेटी है।”

“हाय मैं मर गई।” ताई इसरी एक दम घबरा कर बोली, उनकी सांस फूल गई। “हाय अब तो मुझे नहाना पड़ेगा, मैंने उसका मुँह भी चूम लिया है। अब क्या करूँ।” ताई इसरी ने अपनी बड़ी बड़ी हैरान निगाहों से मोहरी की बेटी सूत्री की तरफ़ देखा, जो अब इस तरह धुतकारे जाने पर सिसकने लगी। यकायक ताई को उस पर रहम आ गया। उन्होंने फिर उसे बांह से पकड़ कर चिमटा लिया। “नाँ ! नाँ ! तू क्यों रोती है, तो तू अंजान है, तू तो देवी है, तू तो कुँवारी है, तेरे मन में तो परमेश्वर बस्ते हैं। तू क्यों रोती है, मुझे तो अपने धरम के कारन नहाना ही पड़ेगा। पर तू क्यों रोती है। एक चवन्नी और ले।”

ताई इसरी से दूसरी चवन्नी पा कर महरी की बेटी सूत्री अपने आँसू पोंछ कर मुस्कुराने लगी। ताई इसरी ने एक बाज़ू उठा कर पुरे दालान में गुज़रती हुई हीरो महरी को देखकर बुलंद आवाज़ में कहा,

“नी हीरो। मेरे अश्नान के लिए पानी रख दे। तुझे भी एक चवन्नी दूँगी।” इस पर सारी महफ़िल लोट-पोट हो गई।

ताई इसरी को कई लोग चवन्नी वाली ताई कहते थे। कई लोग कुँवारी ताई कहते थे क्योंकि ये भी मशहूर था कि जिस दिन से ताया युधराज ने ताई इसरी से शादी की थी, उस दिन से आज तक वो कुँवारी की कुँवारी चली आरही थीं, क्योंकि सुनाने वाले तो ये भी सुनाते हैं कि ताया युधराज ने अपनी शादी से पहले जवानी में इतनी ख़ूबसूरत औरतें देख डाली थीं कि जब उनकी शादी गांव की इस सीधी-सादी लड़की से हुई , तो शादी के पहले रोज़ ही वो उन्हें बिल्कुल पसंद न आई। जबसे उन्होंने शादी करके उन्हें बिल्कुल अकेला छोड़ दिया था। मगर किसी तरह की सख़्ती नहीं करते थे। ताया युधराज हर माह पछत्तर रुपये उसे भेजते थे। वो गांव में रहती थी, अपने ससुराल के हाँ और सबकी ख़िदमत करती थी और ताया युधराज जालंधर में लोहे का व्यपार करते थे और कई कई साल अपने गांव में नहीं जाते थे। मैके वालों ने कई बार आकर ताई को ले जाना चाहा मगर उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया। मैके वालों ने ये भी चाहा कि उनकी शादी फिर से कर दी जाये। मगर ताई उसके लिए भी राज़ी न हुईं। वो ऐसे इन्हिमाक से अपने ससुराल के लोगों की ख़िदमत करती रहीं कि ससुराल वाले ख़ुद उन्हें अपनी बेटी और बहू से ज़्यादा चाहने लगे। ताया युधराज के बाप मानक चंद ने तो अपने घर की सारी चाबियाँ ताई इसरी के सपुर्द कर दी थीं और सास भी इस हद तक चाहने लगी थी कि उन्होंने अपने सारे गहने-पाते निकाल कर ताई इसरी की तहवील में दे दिए थे। वैसे बहुत सी औरतों को देखकर ये ख़्याल भी आता है कि जवानी में कैसी रही होंगी। मगर ताई इसरी को देखकर कभी ये ख़्याल भी न आया। हमेशा यही ख़्याल आता है कि ताई इसरी शायद बचपन से बल्कि जन्म ही से ऐसी पैदा हुई होंगी। पैदा होते ही उन्होंने अपनी माँ को हाथ फैला कर आशीर्वाद दी होगी और शायद बड़े मीठे मेहरबान लहजे में ये भी कहा होगा, तुझे मेरे लिए बहुत दुख उठाने पड़े। इसलिए ये लो एक चवन्नी!

शायद इसीलिए अपने शौहर से भी उनके ताल्लुक़ात बेहद ख़ुशगवार थे। ताया युधराज हमारे रिश्तेदारों की नज़र में शराबी, कबाबी और रंडी बाज़ थे। वो लोहे के बड़े ब्योपोरी थे तो क्या हुआ, उन्हें इस तरह से ताई इसरी की ज़िंदगी बर्बाद न करना चाहिए। मगर जाने क्या बात थी, ताई इसरी को क़तअन अपनी ज़िंदगी बर्बाद होने का कोई गम न था। उनके तर्ज़-ए-अमल से मालूम होता था, जैसे उन्हें इस बात का भी इल्म नहीं है कि किसी ने उनकी ज़िंदगी बर्बाद की है… हर वक़्त हँसती खेलतीं बातें करतीं, हर एक के सुख और दुख में शामिल होने और ख़िदमत करने के लिए तैयार नज़र आतीं। ये तो बिल्कुल नामुमकिन था कि पड़ोस में किसी के हाँ ख़ुशी हो और वो उसमें शरीक ना हों, किसी के हाँ कोई ग़म हो और वो उसमें हिस्सा न बटाएं। ताई इसरी के शौहर अमीर थे, मगर वो ख़ुद तो अमीर न थीं। पछत्तर रुपये जो उन्हें माहवार मिलते थे वो उन्हें हमेशा दूसरों पर ख़र्च कर देती थीं। मगर वो सस्ते ज़माने के पछत्तर रुपये थे। इसीलिए बहुत से लोगों के दुख-दर्द, दूर हो जाते थे। मगर लोग उनसे उनकी वक़्त बेवक़्त की मदद की वजह से प्यार नहीं करते थे। ऐसे ही बहुत से मौक़ा आते थे, जब ताई इसरी की जेब में एक छदाम तक न होता था। उस वक़्त भी लोग बेमज़ा न हुए बल्कि यही कहते सुने गए कि ताई इसरी के चरण छू लेने ही से दिल को शांति मिल जाती है।

मगर जितनी अच्छी ताई इसरी थीं, ताया युधराज इतने ही बुरे थे। तीस बरस तक तो उन्होंने ताई इसरी को अपने माँ-बाप के घर गांव ही में रखा और जब उनके माँ-बाप दोनों ही मर गए और घर ख़ाली हो गया, घर के दूसरे अफ़राद बड़े हो गए और शादियां कर के और अपने घर बसा के दूसरी जगहों पर चले गए तो उन्हें बादल नख़्वास्ता ताई इसरी को भी जालंधर बुलवाना पड़ा। मगर यहां ताई इसरी चंद दिनों से ज़्यादा न रह सकीं क्योंकि पक्का बाग़ के मुअज़्ज़िज़ पठानों की एक लड़की से ताया युध ने याराना गाँठने की कोशिश की थी। नतीजे में उन्हें जालंधर से भाग कर लाहौर आना पड़ा, क्योंकि पक्का बाग़ के पठानों ने आकर ताई इसरी से कह दिया था कि सिर्फ़ तुम्हारी वजह से हमने उसे ज़िंदा छोड़ दिया है। अब बेहतर यही है कि तुम अपने घर वाले को लेकर कहीं चली जाओ वर्ना हम उसे ज़िंदा न छोड़ेंगे और ताई इसरी इस वाक़िया के चंद रोज़ बाद ही ताया को लेकर लाहौर आ गईं। मुहल्ला वनजारां में उन्होंने एक छोटा सा मकान ले लिया था। ख़ुशक़िस्मती से या बदक़िस्मती से यहां भी ताया युधराज का व्योपार चंद महीनों में चमक गया। इसी असनाए में उन्होंने शाही मुहल्ले की एक तवाइफ़ लछमी से दोस्ती कर ली और होते होते ये क़िस्सा यहां तक बढ़ा कि अब उन्होंने मुस्तक़िल तौर पर इसी लछमी के घर रहना शुरू कर दिया था और मुहल्ला वनजारां में क़दम तक न धरते थे। लेकिन ताई इसरी को देखकर कभी कोई ये नहीं कह सकता था कि उन्हें इस अमर का इत्ता सा भी मलाल हुआ होगा।

ये वो ज़माना था, जब ताया युधराज और लछमी तवाइफ़ का क़िस्सा ज़ोरों पर था। उन्ही दिनों हमारे बड़े भाई की शादी हुई। शादी में ताया युधराज तो शरीक न हुए, लेकिन ताई ने रिश्तेदारों, मेहमानों और बरात की ख़िदमतगुज़ारी में दिन-रात एक कर दिया। उनकी ख़ुशमिज़ाजी से पेचीदा से पेचीदा गुत्थियाँ भी सुलझ गईं। चेहरे पर चढ़ी हुई तेवरियाँ उतर गईं और जबीनें शिकनों से साफ़ और मुनव्वर होती गईं। इसमें ताई की काविश को कोई दख़ल न था। सुकून की शुआएं गोया ख़ुदबख़ुद उनके जिस्म से फूटती थीं। उन्हें देखते ही हर एक का ग़ुस्सा उतर जाता। पेचीदा से पेचीदा उलझनें ख़ुदबख़ुद सुलझ जातीं। घर भर में बशाशत बिखर जाती, ऐसी ताई इसरी।

मैंने ताई इसरी को कभी किसी की बुराई करते नहीं देखा। कभी क़िस्मत का गला करते नहीं देखा। हाँ एक-बार उनकी आँखों में एक अजीब सी चमक देखी थी और वो वाक़िया उसी शादी से मुताल्लिक़ है।

बड़े भाई साहिब तो रात-भर शादी की बैरी पर बैठे रहे। सुबह के पाँच बजे शादी के बाद लड़की वालों ने अपने घर के हाल को जहेज़ का सामान दिखाने के लिए सजा दिया। पुराने ज़माने थे। उस ज़माने में सोफ़ों की बजाय रंगीन पीढ़ियां दी जाती थीं और मुनक़्क़श पायों वाले पलंग दिये जाते थे। उस ज़माने में ड्राइंगरूम को बैठक या दीवानख़ाना कहा जाता। मेरे बड़े भाई के सुसर मिल्ट्री में एग्जीक्यूटिव ऑफीसर थे। चूँकि वो पहले हिन्दुस्तानी एग्जीक्यूटिव ऑफीसर थे इसलिए उन्होंने जहेज़ में बहुत कुछ दिया था और सारी ही नए फ़ैशन की चीज़ें दी थीं। हमारी बिरादरी में पहली बार जहेज़ में सोफा सेट दिया गया। सारी बिरादरी में उस सोफा सेट की धूम मच गई। दूर दूर के मुहल्लों से भी औरतें अंग्रेजी पीढ़ियों को देखने के लिए आने लगीं। ताई इसरी के लिए भी सोफा सेट देखने का पहला मौक़ा था। पहले तो बड़ी हैरानी से उसे देखती रहीं। उस पर हाथ फेर कर मन ही मन में कुछ बड़बड़ाती रहीं। आख़िर उनसे रहा न गया तो उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया,

“वे काका, इसको सोफा सेट क्यों बोलते हैं?”

अब मैं इसका जवाब क्या देता। सर हिला कर कहने लगा, “मुझे नहीं मालूम ताई!”

“अच्छा, तो इसकी दो कुर्सियाँ छोटी क्यों हैं और वो तीसरी कुर्सी लंबी क्यों है?”

मैं फिर लाजवाब हो गया। ख़ामोशी से इनकार में सर हिला दिया।

ताई देर तक सोचती रहीं। फिर यकायक जैसे उनकी समझ में कुछ आ गया। उनका चेहरा, उनकी मासूम सी मुस्कुराहट से रोशन हो उठा। बोलीं, “मैं बताऊं?”

मैंने कहा, “बताओ ताई!”

वो हम सबको बच्चों की तरह समझाते हुए बोलीं, “देखो, मेरा ख़्याल है कि ये लंबा सोफा तो इसलिए बना है कि जब दोनों मियां-बीवी में सुलह हो तो वो दोनों इस लंबे सोफ़े पर बैठें और जब उन दोनों में लड़ाई हो तो अलग अलग इन दो छोटे छोटे सोफ़ों पर बैठें। सच-मुच ये अंग्रेज़ बड़े अक़लमंद होते हैं जभी तो हम पर हुकूमत करते हैं।”

ताई की दलील सुनकर महफ़िल में एक ज़ोरदार क़हक़हा पड़ा। मगर मैंने देखा कि ताई ये सोच कर और बात कह कर चुप सी हो गईं। क्या उस वक़्त उन्हें अपना और अपने ख़ाविंद का झगड़ा याद आया था। ये तो मैं नहीं कह सकता।

मैंने जब ग़ौर से उनकी आँखों में देखा तो एक पल के लिए मुझे उनकी आँखों में एक अजीब सी चमक नज़र आई। फिर मुझे महसूस हुआ, जैसे दरिया का पाट बहुत चौड़ा हो गया हो।

कलकत्ता से एम.बी.बी.एस. करने के बाद मैंने वहीं एक बंगाली लड़की से शादी कर ली और धरम तल्ले में प्रैक्टिस करने लगा। कई साल कोशिश करता रहा मगर प्रैक्टिस न चली। चुनांचे अपने बड़े भाई के इसरार पर लाहौर चला आया। भाई साहिब ने कूचा ठाकुर दास के नुक्कड़ पर मुझे दूकान खोल दी और मैं अपने घर में यानी अपने मुहल्ले में अपनी बिरादरी ही के सहारे प्रैक्टिस चलाने लगा। कलकत्ता में, मैं बिल्कुल अनाड़ी था और ज़िंदगी का तजुर्बा भी न था। यहां आकर जब आठ दस बरसों में गाहक को फांसने की तरकीब समझ में आई तो प्रैक्टिस ख़ुद बख़ुद चल निकली। अब दिन रात मसरूफ़ रहता था। बच्चे भी हो गए थे। इसलिए ज़िंदगी सूत की अन्टी की तरह एक ही मदार पर चक्कर खाने लगी। उधर उधर जाने का मौक़ा कम मिलता था। अब तो कई बरस से ताई इसरी का मुँह न देखा था मगर इतना सुन रखा था कि ताई इसरी इस मकान में मुहल्ला वनजारां में रहती हैं और ताया युधराज शाही मुहल्ले में उसी लछमी के मकान में रहते हैं और कभी-कभी दूसरे-तीसरे महीने ताई इसरी की ख़बर लेने आ जाते हैं।

एक रोज़ मैं सुबह के वक़्त मरीज़ों की भीड़ में बैठा नुस्खे़ तजवीज़ कर रहा था कि मुहल्ला वनजारां के एक आदमी ने आकर कहा, “जल्दी चलिए डाक्टर साहिब, ताई इसरी मर रही हैं!”

मैं उसी वक़्त सब काम छोड़ छाड़ कर उस आदमी के साथ हो लिया। मुहल्ला वनजारां के बिल्कुल उस आख़िरी सिरे पर ताई इसरी का मकान था। पहली मंज़िल की सीढ़ीयां चढ़ कर जब मैं आहनी सलाख़ों वाले मोखे से गुज़र कर उनके नीम तारीक कमरे में दाख़िल हुआ तो वो बड़े-बड़े तकियों का सहारा लिए पलंग से लगी बैठी थी। उनकी सांस ज़ोर-ज़ोर से चल रही थी और उन्होंने बड़े ज़ोर से अपने दाएं हाथ से बाएं तरफ़ गोया अपने दिल को पकड़ रखा था। मुझे देखकर ही वो फूले-फूले साँसों में मुस्कुराने लगीं। बोली, “तू आ गया पुत्तर। अब मैं बच जाऊँगी।”

“क्या तकलीफ़ हो गई है ताई?”

“होता क्या, मौत का बुलावा आ गया था। दो दिन मुझे सख़्त कस (बुख़ार) रही। फिर एका एकी जिस्म ठंडा होने लगा। (बयान करते करते ताई की आँखों की पुतलियां फैलने लगीं) पहले टांगों से जान गई। टांगों को हाथ लगाओ तो ठंडी यख़, चुटकी भरो तो कुछ महसूस न हो, फिर धीरे-धीरे मेरी जान कमर से निकल गई और जब मेरी जान ऊपर से भी निकलने लगी तो मैंने ज़ोर से अपने कलेजे को पकड़ लिया।” ताई अपने दाएं हाथ से बाएं तरफ़ अपने दिल वाले हिस्से को और ज़ोर से पकड़ कर बोलीं, “तो मैंने ज़ोर से अपने कलेजे को पकड़ लिया और चिल्लाई, अरे कोई है, कोई है तो जाये और जय किशन के बेटे राधा किशन को बुला के लाए, वही मुझे ठीक कर सकता है… अब तुम आ गए हो, अब… अब मैं बच जाऊँगी।” ताई इसरी ने मुकम्मल तमानियत से कहा।

मैंने अपना हाथ ताई के दाएं हाथ की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, “ताई ज़रा अपना ये हाथ इधर करो, तुम्हारी नब्ज़ तो देखूं।”

एक दम ताई दूसरे हाथ से मेरा हाथ झटक कर बोलीं, “हाय वे तुम कैसे डाक्टर हो, तुझे इतना नहीं मालूम कि इस हाथ से तो मैंने अपनी जान पकड़ रखी है, इस हाथ की नब्ज़ तुझे कैसे दिखा सकती हूँ।”

ताई चंद हफ़्तों में अच्छी हो गईं। उन्हें ब्लड प्रेशर की शिकायत थी। जब वो जाती रही तो फिर उठकर घूमने लगीं और अपने पराए सब के सुख-दुख में बदस्तूर शरीक होने लगीं। लेकिन जब वो अच्छी हुईं तो उसके चंद माह बाद हमारे ताया युधराज का इंतिक़ाल हो गया। वहीं लछमी के घर शाही मुहल्ले में उनका इंतिक़ाल हुआ। वहीं से उनकी अर्थी उठी क्योंकि ताई ने उनकी लाश को घर लाने की इजाज़त नहीं दी थी। ताई न अर्थी के साथ गईं न उन्होंने श्मशानघाट का रुख किया न उनकी आँखों से आँसू का एक क़तरा तक निकला था। उन्होंने ख़ामोशी से अपने सुहाग की चूड़ियां तोड़ डालीं। रंगीन कपड़े उतार कर सपेद धोती पहन ली और माथे की सींदूर पोंछ कर चूल्हे की राख अपने माथे पर लगा ली। मगर उनके धरम-करम में और किसी तरह का फ़र्क़ न आया बल्कि अपने सफ़ेद बालों से वो अब इस सफ़ेद धोती में और भी अच्छी लग रही थीं। ताई की इस हरकत पर बिरादरी में चेमिगोइयां हुईं, सबको अचम्भा हुआ। कुछ लोगों ने बुरा भी माना। मगर ताई की इज़्ज़त इस क़दर थी कि उनके सामने ज़बान खोलने की किसी को हिम्मत न पड़ी!

चंद बरस और गुज़र गए। अब मेरी प्रैक्टिस इस क़दर चमक उठी थी कि मैंने मुहल्ला ठाकुर दास के शाह आलमी गेट के अंदर कूचा करमाँ और वछो वाली के चौक में भी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। सुबह में मुहल्ला ठाकुर दास में बैठता था, शाम को वछो वाली में। ज़िंदगी कुछ इस नहज से गुज़र रही थी कि ताई इसरी को देखे हुए डेढ़-डेढ़ दो-दो बरस गुज़र जाते थे मगर घर की औरतों से ताई इसरी की ख़बर मिलती रहती थी। ताया युधराज ने अपने बैंक का रुपया भी लछमी को सौंप दिया था। मगर जालंधर की दुकान और मकान ताई इसरी के नाम लिख गए थे। उनसे हर माह ताई इसरी को डेढ़ सौ रुपया किराया आ जाता था। वो बदस्तूर उसी तरह मुहल्ला वनजारां में रहती थीं और दिन रात अपने धरम-करम में डूबी रहती थीं।

एक रोज़ इत्तिफ़ाक़ से जब मैं शाही मुहल्ले में एक मरीज़ को देखकर लौट रहा था तो मुझे ताया युधराज की याद आ गई और उनकी याद से लछमी की याद आ गई क्योंकि लछमी भी तो उसी शाही मुहल्ले में कहीं रहती थी और जब लछमी की याद आई तो मेरा ज़हन फ़ौरन ताई इसरी की तरफ़ मुंतक़िल हो गया और मेरा ज़मीर मुझे मलामत करने लगा। ग़ालिबन बारह-पंद्रह महीनों से मैं ताई इसरी को देखने न गया था। मैंने सोचा में कल या परसों पहली फ़ुर्सत ही में ताई इसरी को देखने जाऊँगा।

अभी मैं यही सोच रहा था कि शाही मुहल्ले की एक गली से मैंने ताई इसरी को निकलते देखा। क़िरमिज़ी शाही के बजाय अब वो स्याह शाही का घाघरा पहने थीं जिस पर न गोटा था न लचका। क़मीज़ भी सफ़ेद रंग की थी और सर पर उन्होंने सफ़ेद मलमल का दोहरा दुपट्टा ले रखा था, जिसमें उनका गोल मटोल चेहरा बिल्कुल मैडोना की तरह मासूम और पुर-असरार नज़र आ रहा था।

जिस लम्हा मैंने उन्हें देखा उसी लम्हा उन्होंने भी मुझे देखा और मुझे देखते ही वो शर्मा सी गईं और फ़ौरन मुझसे कतरा कर वापस गली में जाने लगीं कि मैंने उन्हें फ़ौरन आवाज़ दे दी। मेरी आवाज़ में एक ऐसी हैरत थी जो एक चीख़ से मुशाबेह थी। ये ताई इसरी यहां तवाइफ़ों के मुहल्ले में क्या कर रही थीं?

“ताई इसरी!” मैंने चिल्ला कर कहा। “ताई इसरी!” मैंने फिर आवाज़ दी।

मेरी आवाज़ सुनकर वो पलट आईं। सामने आकर एक गुनहगार मुजरिम की तरह खड़ी हो गईं। उनकी निगाहें ऊपर न उठती थीं।

“ताई इसरी तुम यहां क्या करने आई हो?” मैंने कुछ हैरत से कुछ ग़ुस्से से उनसे कहा।

वो उसी तरह सर नीचा किए आहिस्ता-आहिस्ता झिजकत- झिजकते बोलीं, “वे पुत्तर! क्या बताऊं वो…वो… मैंने सुना था कि लछमी बीमार है, बहुत सख़्त बीमार है। मैंने सोचा उसे देख आऊँ….!”

“तुम यहां लछमी को देखने आई थीं?” मैंने ग़म और ग़ुस्से से तक़रीबन चीख़ कर कहा।

“लछमी को…लछमी को… उस बदज़ात छिनाल को?…. जिसने… जिसने!”

ताई इसरी ने आहिस्ते से अपना हाथ ऊपर उठाया और मैं कहते कहते रुक गया…”ना काका! उसको कुछ न कहो…कुछ न कहो…!” ताई इसरी ने अपनी डबडबाती हुई आँखें ऊपर उठाई और एक ठंडी सांस लेकर बोलीं,

“मरने वाले की यही एक निशानी रह गई थी। आज वो भी चल बसी!”

सन् 47 के फ़सादात में हम लोग लाहौर छोड़कर जालंधर में पनाह गज़ीन हुए क्योंकि यहां पर ताई इसरी का घर था। ख़ासा खुला दो मंज़िला घर था। ऊपर की मंज़िल उन्होंने अपने रिश्तेदार पनाह गज़ीनों को दे डाली थी। निचली मंज़िल में वो ख़ुद रहती थीं। हर-रोज़ वो रिफ्यूजी कैम्पों में सेवा करने जातीं और कभी-कभार दो एक यतीम बच्चे उठा लातीं। चार-पाँच माह ही में उन्होंने चार लड़के और तीन लड़कियां अपने पास रख लीं क्योंकि उनके माँ-बाप का कुछ पता नहीं चलता था। पिछवाड़े के आँगन और सामने दालान में उन्होंने मुख़्तलिफ़ पनाह गज़ीनों को सोने और खाना पकाने की इजाज़त दे दी थी। होते होते एक अच्छा-ख़ासा घर सराय में तबदील हो गया। मगर मैंने ताई इसरी के माथे पर कभी एक शिकन नहीं देखी। वो अपने घर में भी बाहर से इस तरह आती थीं जैसे वो घर उनका न हो, उन पनाह गज़ीनों का हो जिन्हें उन्होंने अपने घर में रहने की ख़ुद इजाज़त दी थी। औरतों में शख़्सी जायदाद की हिस बहुत तेज़ होती है। मगर मैंने औरतों में तो क्या मर्दों में भी ऐसा कोई फ़र्द मुश्किल ही से देखा होगा जिसे ताई इसरी की तरह शख़्सी जायदाद का इस क़दर कम एहसास हो। क़ुदरत ने उनके दिमाग़ में शायद ये ख़ाना ही ख़ाली रखा था। उनके पास जो कुछ था दूसरों के लिए वक़्फ़ था। जालंधर आकर वो सिर्फ़ एक वक़्त खाना खाने लगी थीं। मैं उनकी इन हरकतों से बहुत चिड़ता था। क्योंकि मैंने अपनी क़ीमती प्रैक्टिस लाहौर में खो दी थी। मेरी मॉडल टाउन वाली कोठी भी वहीं रह गई थी और अब मेरे पास सर छुपाने को कहीं जगह न थी। मेरे पास न ढंग के कपड़े थे न रुपया पैसा था, न खाना पीना तक का हो सकता था। जो मिला खा लिया, जब मिला खा लिया, न मिला तो भूके रह गए। उन्ही दिनों मुझे ख़ूनी बवासीर लाहक़ हो गई। दवाएं तो मैंने तरह तरह की इस्तिमाल कीं क्योंकि मैं ख़ुद डाक्टर था। मगर इस बे-सर-ओ-सामानी में ईलाज के साथ परहेज़ ज़रूरी है, वो कहाँ से होता। नतीजा हुआ कि मैं दिन-ब-दिन कमज़ोर होता चला गया। कुछ रोज़ तक तो मैंने ताई से अपनी हालत को छुपाए रखा मगर एक दिन उन्हें पता चल ही गया। फ़ौरन घबराई घबराई मेरे पास पहुँचीं और मुझसे कहने लगीं, “काका! मैं तुमसे कहती हूँ, ये ख़ूनी बवासीर है। ये डाकटरी ईलाज से ठीक न होगी। तुम ऐसा करो, किराया मुझसे लो और सीधे गुजरांवाला चले जाओ, वहां मुहल्ला सुनियारां में चाचा करीम बख़्श जर्राह रहता है। उसके पास एक ऐसी दवाई है जिससे ख़ूनी बवासीर ठीक हो जाती है। तेरे ताया को भी आज से बीस साल पहले ये तकलीफ़ हो गई थी और चाचा करीम बख़्श ही ने ठीक कर दिया था। दस दिन में वो ठीक हो कर गुजरांवाला से जालंधर आ गए थे।”

ये सुनकर मुझे बेहद ग़ुस्सा आया। मैंने कहा, “ताई मुझे मालूम है। अब मैं गुजरांवाला नहीं जा सकता।”

“क्यों नहीं जा सकता। टिकट के पैसे मैं देती हूँ !”

“टिकट का सवाल नहीं है, गुजरांवाला अब पाकिस्तान में है।”

“पाकिस्तान में है तो क्या हुआ, क्या हम दवा-दारू के लिए वहां नहीं जा सकते! वहां अपना चाचा करीम बख़्श…!”

मैंने ताई की बात काट कर कहा, “ताई तुझे कुछ मालूम तो है नहीं, ख़्वाह-मख़ाह उल्टी-सीधी बातें करती हो। मुसलमानों ने अब अपना देस अलग कर लिया है। उसका नाम पाकिस्तान है। हमारे देस का नाम हिन्दोस्तान है। अब न हिन्दोस्तान वाले पाकिस्तान जा सकते हैं, न पाकिस्तान वाले यहां आ सकते हैं। इसके लिए पासपोर्ट की ज़रूरत होगी!”

ताई के माथे पर शिकनें पड़ गईं। बोलीं, “पास कोर्ट? क्या उसके लिए कचहरी जाना पड़ता है?”

“हाँ हाँ, उसके लिए कचहरी जाना पड़ता है।” मैंने जल्दी से टालने के लिए कह दिया। अब इस बूढी को कौन समझाए।

“ना बेटा। कोर्ट जाना तो अच्छा नहीं है। शरीफ़ों के बेटे कभी कचहरी नहीं जाते मगर वो चाचा करीम बख़्श…!”

“भाड़ में जाये चाचा करीम बख़्श।” मैंने चिल्ला कर कहा।

“बीस साल पहले की बात करती हो, जाने वो तुम्हारा चाचा करीम बख़्श आज ज़िंदा भी है या मर गया है। मगर तुम वही अपना चाचा करीम बख़्श रटे जा रही हो।”

ताई रोती हुई वहां से चली गईं। उनके जाने के बाद मुझे अपनी तुनक मिज़ाजी पर बेहद अफ़सोस हुआ। क्यों मैंने उस मासूम औरत का दिल दुखाया। अगर ताई आज की ज़िंदगी की बहुत सी दुशवारियों को नहीं समझ सकती हैं तो इसमें उनका क्या क़सूर है?

दरअसल मैं उन दिनों बहुत ही तल्ख़ मिज़ाज हो चला था। कॉलेज के दिनों में, मैं अक्सर इन्क़िलाब की बातें किया करता था। फिर जब ज़िंदगी ने मुझे कामरानी बख़शी और मेरी प्रैक्टिस चल निकली तो इन्क़िलाब का जोश सर्द पड़ गया और होते-होते ये लफ़्ज़ मेरे ज़हन से मह्व हो गया। अब जालंधर आकर जो ये उफ़्ताद पड़ी तो मेरे दिल में फिर से इन्क़िलाब के ख़्याल ने करवट ली और मैं अपनी तरह के चंद जोशीले और लुटे-पिटे लोगों की सोहबत में बैठ कर फिर से उसी तल्ख़ी, तेज़ी और तुंदी से इन्क़िलाब की बातें करने लगा।

ये सब लोग अक्सर ताई इसरी की दूसरी मंज़िल में मेरे कमरे में मिलते। चाय का दौर चलता और दुनिया जहान की बातें होतीं और मैं जोश में अपना मुक्का हवा में लहरा कर कहता, “हमसे इन्साफ़ नहीं हो रहा है और उन लोगों से इन्साफ़ की तवक़्क़ो भी नहीं है। यक़ीनन इस मुल्क में फिर एक इन्क़िलाब आएगा और ज़रूर आ के रहेगा वो इन्क़िलाब!”

एक दिन ताई इसरी ने हमारी बातें सुन लीं तो घबराई-घबराई अंदर आईं। बोलीं, “बेटा! क्या मुसलमान यहां फिर आएँगे?”

“नहीं ताई, तुमसे किस ने कहा?”

“तो तुम यहां किस इन्क़िलाब का ज़िक्र कर रहे हो जो यहां आएगा?”

ताई ने इन्क़िलाब को मुसलमान समझा था, जब ये बात हमारी समझ में आई तो हम सब हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए।

कितनी भोली है हमारी ताई। “अरी ताई, हम तो उस इन्क़िलाब का ज़िक्र कर रहे हैं जो न हिंदू है न मुसलमान है, जो सबका इन्क़िलाब है। हम तो उस इन्क़िलाब को लाना चाहते हैं।”

मगर ताई की समझ में कुछ न आया। वो हौले से सर हिला कर बोलीं, “अच्छा तुम लोग बातें करो। मैं तुम्हारे लिए चाय बना के लाती हूँ।”

ताई ने मेरी मदद करने के लिए अपना सोलह तोले का एक गोखरु बेच दिया। उस रक़म को लेकर मैं अपनी फ़ैमिली के साथ दिल्ली आ गया क्योंकि जालंधर में अफ़रातफ़री थी और ग़ैर यक़ीनी सी हालत हर वक़्त छाई रहती थी। दिल्ली आकर मैंने फिर से प्रैक्टिस शुरू कर दी। चंद सालों ही में मेरी प्रैक्टिस फिर चमक उठी। मैं क़रोलबाग़ में प्रैक्टिस करता था और क़रोलबाग़ लाहौर के बहुत से रिफ्यूजियों से भरा पड़ा था जो मुझे जानते थे। हौले-हौले मैंने अपना अड्डा ठीक से जमा लिया। प्रैक्टिस चमक उठी, दस साल में मैंने क़रोलबाग़ में अपनी कोठी खड़ी कर ली। गाड़ी भी ख़रीद ली। अब क़रोलबाग़ के सरकरदह अफ़राद में मेरा शुमार होता था। अब मैं इन्क़िलाब की बातें भूल भाल गया। मेरी ख़ूनी बवासीर भी ठीक हो गई और तल्ख़ी के बजाय मिज़ाज में शगुफ़्तगी ऊद कर आई जो एक डाक्टर के मिज़ाज के लिए अज़-हद ज़रूरी है।

तेरह साल के बाद गुज़श्ता मार्च में मुझे एक अज़ीज़ की शादी में जालंधर जाना पड़ा। इस तेरह साल के अर्सा में, मैं ताई इसरी को भूल भाल गया था। रिश्तेदार तो उस वक़्त याद आते हैं, जब मरीज़ न हों। लेकिन जालंधर पहुंचते ही मुझे ताई इसरी की याद आई। उनके एहसानात याद आए। वो सोने का गोखरु याद आया, जिसे बेच कर मेरी प्रैक्टिस चलाने की रक़म बहम पहुंचाई गई थी और वो रक़म मैंने आज तक ताई इसरी को अदा नहीं की थी। जालंधर स्टेशन पर उतरते ही मैं सीधा ताई इसरी के घर चला गया।

शाम का झुटपुटा था, हवा ईंधन के धुंए, तेल की बू और घर वापस आते हुए बच्चों की आवाज़ों से मामूर थी। जब मैं ताई इसरी के मकान की निचली मंज़िल में दाख़िल हुआ। घर में उस वक़्त ताई के सिवा कोई नहीं था। वो अपने घर में भगवान की मूर्ती के सामने घी का दिया जलाए फूल चढ़ा कर हाथ जोड़ कर वापस घूम रही थी, जबकि उन्होंने मेरी आहट पाकर पूछा, “कौन है?”

“मैं हूँ !” मैंने कमरे में क़दम आगे बढ़ा कर मुस्कुराते हुए कहा।

ताई दो क़दम आगे बढ़ीं, मगर मुझे पहचान न सकीं। तेरह बरस का अर्सा भी एक अर्सा होता है। इस अर्से में वो बेहद नहीफ़ो नज़ार हो गई थीं। उनका चेहरा भी दुबला हो गया था और वो हौले-हौले क़दम उठाती थीं।

“मैं राधा किशन हूँ।”

“जय किशन दा काका?” ताई की आवाज़ भर्रा गई। मुम्किन था वो जल्दी से आगे बढ़ने की कोशिश में गिर पड़तीं। मगर मैंने उन्हें जल्दी से थाम लिया और वो मेरे बाज़ू से लग कर रोने लगीं। उन्होंने मेरी बलाऐं लीं, मेरा मुँह चूमा, मेरे सर पर हाथ फेरा और बोलीं, “इतने दिन कहाँ रहे बेटा? अपनी ताई को भी भूल गए?”

इंतिहाई शर्मिंदगी से मेरा सर झुक गया। मैंने कुछ कहना चाहा मगर कुछ कह न सका। ताई ने मेरी परेशानी को फ़ौरन भाँप लिया। जल्दी से फूले-फूले साँसों में उखड़े-उखड़े लहजे में बोलीं, “सरोज राज़ी ख़ुशी है ना?”

“हाँ ताई।”

“और वडा काका।”

“डाकटरी में पढ़ता है।”

“और निका?”

“कॉलेज में पढ़ता है।”

“और शानो और बिट्टू?”

“वो दोनों भी कॉलेज में पढ़ती हैं। कमला की मैंने शादी कर दी है!”

“मैंने भी सावित्री की शादी कर दी है। पूरण अब रुड़की में पढ़ता है। निम्मी और बन्नी के माँ-बाप मिल गए थे वो आकर उनको छः साल के बाद ले गए थे। कभी कभी उनकी चिट्ठी-पत्री आ जाती है। मेरे पास अब सिर्फ़ गोपी रह गया है। अगले साल वो भी रेलवे वर्कशॉप में काम सीखने के लिए चला जाएगा।”

ये ताई के उन यतीम बच्चों की दास्तान थी जो उन्होंने फ़साद में लेकर पाले थे।

मैंने नाख़ुन से अपनी ठोढ़ी खुजाते खुजाते कहा, “ताई वो तेरा क़र्ज़ा मुझ पर बाक़ी है, कैसे बताऊं कितना शर्मिंदा हूँ, अब तक न भेज सका। अब दिल्ली जाते ही भेज दूँगा।”

“कैसा क़र्ज़ा बेटा?” ताई ने हैरान हो कर पूछा।

“वही गोखरु वाला!”

“अच्छा वो?” यकायक ताई को याद आया और वो बड़े मीठे अंदाज़ में मुस्कुराने लगीं। फिर मेरे सर पर हाथ फेर कर बोलीं, “वो तो तेरा क़र्ज़ा था बेटा, जो मैंने चुका दिया!”

“मेरा क़र्ज़ा कैसा था ताई?” मैंने हैरान हो कर पूछा।

“ये ज़िंदगी दूसरों का क़र्ज़ा है बेटा।” ताई संजीदा रो हो कर बोलीं, “उसे चुकाते रहना चाहिए। तू क्या इस संसार में ख़ुद पैदा हुआ था? नहीं, तुझे तेरे माँ-बाप ने ज़िंदगी दी थी तो फिर तेरी ज़िंदगी किसी दूसरे का क़र्ज़ा हुई कि नहीं? फिर ये क़र्ज़ा हम नहीं चुकाएंगे तो ये दुनिया आगे कैसे चलेगी। एक दिन प्रलय (क़ियामत) आ जाएगी… बेटा। इसीलिए तो कहती हूँ, मैंने तेरा क़र्ज़ा चुकाया है, तू किसी दूसरे का क़र्ज़ा चुका दे… हर दम चुकाते रहना, जीवन का धरम है।” ताई इतनी लंबी बात कर के हांपने लगीं।

मैं क्या कहता, रोशनी से साया कह भी किया सकता है? इसीलिए मैं सब कुछ सुनकर चुप हो गया। वो भी चुप हो गईं। फिर आहिस्ते से बोलीं, “अब मेरे हाथ-पांव काम नहीं करते, वर्ना तेरे लिए खाना पकाती। अब गोपी आएगा तो खाना बनाएगा तेरे लिए। खाना खा कर जाना…मैं…”

“नहीं ताई इसकी क्या ज़रूरत है। वहां भी तेरा ही दिया खाते हैं।” मैंने आहिस्ते से कहा, “मैं यहां तेजपाल की शादी पर आया था। स्टेशन से सीधा तुम्हारे घर आ रहा हूँ। अब शादी वाले घर जाऊँगा।”

“बुलावा तो मुझे भी आया है। मगर दो दिन से मेरी तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए मैं नहीं जा सकती। शगुन मैंने भेज दिया था, तुम मेरी तरफ़ से तेजपाल के सर पर प्यार देना!”

“बहुत अच्छा ताई…” कह कर में ताई के चरणों में झुका। उन्होंने मुझे बड़े प्यार से अपने गले लगा लिया। मेरे सर पर हाथ फेर कर सौ-सौ दुआएं देकर बोलीं, “बेटा! मेरा एक काम करोगे?”

“हुक्म करो ताई।”

“क्या कल तुम सुबह आ सकते हो?”

“क्या बात है ताई, अब मैं तुम्हें मिल के तो जा रहा हूँ।”

ताई झिजकते झिजकते बोलीं, “मेरी आँखें कमज़ोर हो चुकी हैं। रात में मुझे कुछ नज़र नहीं आता। ऐसा जन्म जला अंधेरा छाया है कि कुछ नज़र नहीं आता। अगर तुम सुबह किसी वक़्त दिन में आ जाओ तो मैं तुम्हें अच्छी तरह देख लूँगी। तेरह साल से तुझे नहीं देखा है काका!”

मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैंने गुलूगीर लहजे में कहा, “आ जाऊँगा ताई!”

दूसरे दिन बारात के लोग कुछ आने वाले थे। सुबह ही हम लोगों को पेशवाई के लिए स्टेशन पर जाना था। वहां से लौटते वक़्त मुझे याद आया। मैं उन लोगों से माज़रत कर के ताई इसरी के घर की तरफ़ हो लिया। गली के मोड़ पर मुझे दो-दो,चार-चार की टोलियों में लोग सर झुकाए मिले। मगर मैं जल्दी जल्दी से क़दम बढ़ाता हुआ आगे चला गया। मकान की निचली मंज़िल पर मुझे और बहुत से लोग रोते हुए मिले। मालूम हुआ आज सुबह ताई इसरी की मौत वाक़े हो गई और जब हम स्टेशन गए हुए थे वो चल बसी।

अंदर कमरे में उनकी लाश पड़ी थी। एक सफ़ेद चादर में मलबूस, चेहरा खुला रहने दिया था। कमरे में काफ़ूर और लोबान की ख़ुशबू थी और एक पण्डित हौले-हौले वेदमंत्र पढ़ रहा था!

ताई इसरी की आँखें बंद थीं और उनका मासूम भूरा-भूरा चेहरा, पुरसुकून ख़ामोश और गहरे ख़्वाबों में खोया हुआ ऐसा मालूम होता था जैसे वो ताई इसरी का चेहरा न हो, धरती का फैला हुआ ला मुतनाही चेहरा हो जिसकी आँखों से नदियाँ बहती हैं, जिसकी हर शिकन में लाखों वादियां इन्सानी बस्तीयों को अपनी आग़ोश में लिए मुस्कुराती हैं। जिसके अंग-अंग से बेग़र्ज़ प्यार की महक फूटती है, जिसकी मासूमियत में तख़लीक़ की पाकीज़गी झलकती है, जिसके दिल में दूसरों के लिए वो बेपनाह मामता जागती है जिसका मज़ा कोई कोख रखने वाली हस्ती ही पहचान सकती है।

मैं उनके पांव के क़रीब खड़ा उनके चेहरे की तरफ़ देख रहा था। यकायक किसी ने आहिस्ते से मेरे शाने पर हाथ रखा… मैंने पलट कर देखा तो मेरे सामने एक बाईस-तेईस बरस का नौजवान खड़ा था। उसकी बड़ी बड़ी आँखों को देखकर मालूम होता था कि अभी रोई हैं, अभी फिर रो देंगी।

उसने आहिस्ते से कहा, “मैं गोपी नाथ हूँ।”

मैं समझ तो गया, मगर ख़ामोश रहा। कुछ समझ भी नहीं आता था क्या कहूं क्या न कहूं।

“मैं तेजपाल के घर आपको ढ़ूढ़ने गया था। मगर आप स्टेशन पर गए हुए थे।” वो फिर बोला।

मैं फिर भी चुप रहा!

गोपी नाथ धीरे से बोला, “सुबह ताई ने आपको बहुत याद किया। उन्हें मालूम था कि आप आने वाले हैं। इसलिए वो मरते-मरते भी आपका इंतिज़ार करती रहीं। आख़िर जब उन्हें यक़ीन हो गया कि मरने का वक़्त आन पहुंचा है और आप नहीं आएँगे तो उन्होंने मुझसे कहा: जब मेरा बेटा राधा किशन आए तो उसे ये दे देना।” ये कह कर गोपी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और मेरी हथेली पर एक चवन्नी रख दी।

चवन्नी देखकर मैं रोने लगा।

मुझे नहीं मालूम। आज ताई इसरी कहाँ हैं, लेकिन अगर वो स्वर्ग में हैं तो वो उस वक़्त भी यक़ीनन एक रंगीन पीढ़ी पर बैठी अपनी पुच्छी सामने खोल कर बड़े इत्मिनान से देवताओं के सर पर हाथ फेरते हुए उन्हें चवन्नीयां ही बांट रही होंगी।

**समाप्त**

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