सोलहवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Solahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas Novel In Hindi
Solahva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri
कालिंदी को पाकर जसवंत बहुत खुश हुआ। सबसे ज्यादे खुशी तो उसे इस बात की हुई कि उसने सोचा कि कालिंदी की सलाह और तरकीब से इस किले को फतह करके कुसुम कुमारी और रनबीर दोनों से समझूंगा।
कालिंदी को अपने खेमे में छोड़ पहरेवालों को समझा-बुझा और महारानी के जासूस को जो गिरफ्तार किया गया था, साथ ले जसवंत घंटा दिन चढ़ते-चढ़ते बालेसिंह के खेमे में पहुंचा। उस समय खेमे के अंदर फर्श पर अकेला बैठा हुआ बालेसिंह सोच रहा था, जसवंत सलाम करके बैठ गया।
बालेसिंह–आइए आइए, मैं यही सोच रहा था कि आपको बुलाऊं तो कुछ हालचाल पूछूं।
जसवंत–मैं खुद हालचाल साथ लिए हुए आ पहुंचा।
बालेसिंह–आपके साथ यह कैदी कौन है?
जसवंत–कुसुम कुमारी का जासूस है, वीरसेन के पास जाता हुआ पकड़ा गया, एक चिट्ठी तलाशी लेने से मिली है, लीजिए पढ़िए।
बालेसिंह–(सिपाहियों की तरफ देखकर) इस कैदी को ले जाकर हिफाजत से रखो। (चिट्ठी पढ़कर) भाई जसवंतसिंह, इस चिट्ठी में जिस सुरंग की राह बीरसेन को बुलाया है कहीं उस सुरंग का पता लगता तो बड़ा ही आनंद होता!
जसवंत–उसका पता मिलना कोई बड़ी बात नहीं, उस तरफ का एक आदमी आज मुझसे आ मिला है।
बालसिंह–हां, मुझे खबर लगी है कि महारानी का कोई आदमी तुम्हारे पास आया है, मगर उस पर औरत होने का शक है।
जसवंत–यह कैसे मालूम हुआ?
बालेसिंह–क्या मैं बेफिकरा हूं, खाकर सो रहना ही जानता हूं? अपने कामकाज में तुमसे ज्यादे होशियार हूं, एक दफे महारानी की चालाकी ने मुझे धोखे में डाल दिया इससे यह न समझना कि बालेसिंह निपट बेवकूफ है, कहिए तो उस औरत का नाम तक बता दूं जो आई है!
जसवंत–आश्चर्य है! मगर भला कहिए तो कि आपको कैसे मालूम हुआ?
बालेसिंह–भैया मेरे, यह न पूछो, मैं अपनी कार्रवाई किसी से कहनेवाला नहीं, अपने बाप से तो कहूं, नहीं, दूसरे की क्या हकीकत है! तुमने जिस काम को हाथ में लिया है उसे करो।
जसवंत–खैर न बताइए, अच्छा तो मैं अपनी फौज साथ लेकर सुरंग की राह किले में जाऊंगा।
बालेसिंह–खुशी से जाओ और किला फतह करो।
जसवंत–मुश्किल तो यह है कि आपने कुल पांच हजार फौज मेरे हवाले की है और पंद्रह हजार अपने कब्जे में रख छोड़ी है।
बालेसिंह–और नहीं तो क्या कुल फौज तुम्हें सौंप दूं और आप लंडूरा बन बैठूं, आखिर मैं भी तो अपने को बहादूर और चालाक लगाता हूं, किले के अंदर ले जाने के लिए क्या पांच हजार फौज थोड़ी है? फिर मैं भी तो तुम्हारे साथ ही हूं!
जसवंत–क्या आप भी सुरंग की राह किले में चलेंगे?
बालेसिंह–नहीं, तुम जाओ, मैं बाहर का इंतजाम करूंगा। अच्छा अब तुम अपनी फिक्र करो और मैं भी नहाने-धोने जाता हूं।
जसवंत वहां से उठकर अपने खेमे में आया और कालिंदी के पास बैठकर बातचीत करने लगा–
कालिंदी–कहिए बालेसिंह से मिल आए?
जसवंत–हां मिल आया।
कालिंदी–मेरे आने का हाल भी उससे कहा होगा!
जसवंत–उसे पहले ही खबर लग चुकी है, बड़ा ही धूर्त है!
कालिंदी–बालेसिंह के पास कुल कितनी फौज है और तुम्हारे मातहत में कितनी फौज है?
जसवंत–बालेसिंह के पास बीस हजार फौज है, मगर मैं पांच ही हजार का अफसर बनाया गया हूं।
कालिंदी–बाकी फौज का अफसर कौन है?
जसवंत–कहने के लिए तो दो-तीन आदमी हैं मगर असल में वह आप ही उसकी अफसरी करता है।
कालिंदी–पांच हजार फौज भी अगर तुम्हें और दे देता तो बड़ा काम निकलता।
जसंवत–अगर ऐसा होता तो क्या बात थी, दोनों राज का मालिक मैं बन बैठता! एक बात और है, उसकी फौज में लुटेरे और डाकू बहुत हैं जिनको वह तनखाह नहीं देता, हां, लूट के माल का हिस्सा देता है इसी से तो उसने इतनी बड़ी फौज इकट्ठी कर ली है, नहीं तो यह कोई राजा-महाराजा तो है नहीं! खैर जो भी हो मगर मेरी यह पांच हजार फौज मुससे बहुत खुश है।
कालिंदी–खैर, इस किले को फतह करके तेजगढ़१ के राजा तो कहलाओ फिर बूझा जाएगा।
(१. अब बिहटा के नाम से मशहूर है, पटना से ग्यारह कोस पश्चिम है।)
जसवंत–बस इसी तेजगढ़ के फतह करने की देर है, फिर क्या बालेसिंह की अमलदारी सीतलगढ़२ मेरे हाथ से बच रहेगी!
(२. अब गया जिले में सीतलगढ़ पंडबी के नाम से प्रसिद्ध है।)
कालिंदी–खैर देखा जाएगा, मगर बालेसिंह बड़ा ही चालाक है।
जसवंत–कुछ न पूछो, उसके मन का हाल तो कभी मालूम ही नहीं होता! अच्छा आज रात को मेरे साथ चलकर उस सुरंग का दरवाजा तो दिखा दो।
कालिंदी–बहुत अच्छा, चलिएगा।
इतने ही में बाहर किसी ने ताली बजाई। जसवंत बाहर गया और अपने खास अरदली के एक सिपाही को देखकर पूछा, ‘‘क्या है?’’
सिपाही–सरकार ने अपने अरदली के जवानों को यहां पहरे के लिए भेज दिया है, अब हम लोगों को क्या हुक्म होता है?
जसवंत–यहां हमारे खेमे के पहरे पर अपने जवान भेजे हैं?
सिपाही–जी हां।
जसवंत–(कुछ सोचकर) अच्छा तुम लोग पहरा छोड़ दो मगर इस खेमे के पास ही रहो।
सिपाही–बहुत खूब।
जसवंत फिर खेमे के अंदर गया, कालिंदी ने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’
जसवंत–एक नया गुल खिला है।
कालिंदी–वह क्या?
जसवंत–बालेसिंह ने अपने अरदली के सिपाही यहां हमारे पहरे पर मुकर्रर किए हैं।
कालिंदी–इसमें जरूर कोई भेद है, तुम कुछ उज्र मत करो।
जसवंत–नहीं-नहीं, उज्र क्यों करने लगा, क्या मैं इतना बेवकूफ हूं? उससे जरा भी इस बारे में कुछ कहूंगा तो चौकन्ना हो जाएगा और उलटा बेईमान बनाएगा, मुझे तो इस समय अपना काम निकालना है।
आधी रात के समय कालिंदी ने मर्दानी पोशाक पहनी और जसवंतसिंह के साथ खेमे के बाहर निकली। दोनों आदमी निहायत उम्दे अरबी घोड़ों पर सवार हुए और दक्खिन का कोना लिए हुए पश्चिम की ओर चल पड़े। कालिंदी ने जसवंतसिंह से कहा–
‘‘आपको सुरंग का मुहाना दिखाने ले तो चलती हूं मगर वहां का रास्ता बहुत ही बीहड़ और पेंचदार है, जरा गौर से चारों तरफ देखते हुए चलिएगा।’’
जसवंत–कोई हर्ज नहीं चली चलो, मैं इस काम में बहुत होशियार हूं!
कालिंदी–इस भरोसे न रहिएगा, मैं फिर कहती हूं कि अपने चारों तरफ की निशानियों पर खूब गौर से निगाह करते हुए चलिए।
जसवंत–बहुत ठीक।
दोनों आदमी लगभग तीन कोस के चले गए। आगे एक छोटा-सा नाला मिला जिसमें पानी तो बहुत कम था मगर जल तेजी के साथ बह रहा था। दोनों आदमी पार हो किनारे-किनारे जाने लगे और थोड़ी दूर तक घूम घुमौवे पर चलकर एक पुराने भयानक श्मशान पर पहुंचे।
पहर रात बाकी थी। चांदनी अच्छी तरह फैली रहने के कारण इधर-उधर की चीजें साफ मालूम पड़ रही थीं। चारों तरफ फैली पुरानी हड्डियों पर निगाह दौड़ाने से विश्वास होता था कि यह श्मशान बहुत पुराना है मगर आजकल काम में नहीं लाया जाता। पास ही में एक लंबा-चौड़ा कब्रिस्तान भी नजर पड़ा, जो एक मजबूत संगीन चारदीवारी से घिरा हुआ था, एक तरफ फाटक था मगर बिना किवाड़े का।
जसवंतसिंह को साथ लिए हुए कालिंदी उस कब्रिस्तान में घुसी और घोड़े पर से उतरकर बोली, ‘‘बस हम लोग ठिकाने पहुंच गए, आप भी उतरिए!’’
जसवंतसिंह भी घोड़े से उतर पड़ा और दोनों आदमी कब्रिस्तान में घूमने लगे।
कालिंदी–आपने इस कब्रिस्तान को अच्छी तरह देखा?
जसवंत–हां, बखूबी देख लिया।
कालिंदी–आप क्या समझते हैं कि इन कब्रों में मुर्दे गड़े हैं?
जसवंत–जरूर गड़े होंगे, मगर शाबाश, तुम्हारा दिल भी बहुत ही कड़ा है, इस तरह बेधड़क ऐसे भयानक स्थान में चले आना किसी ऐसी-वैसी औरत का काम नहीं।
कालिंदी–(हंसकर) जो काम औरत से न हो सके उसे मर्द क्या करेगा।
जसवंत–बेशक आज तो मुझे यही कहना पड़ा!
कालिंदी–हां, तो आप समझते हैं कि इन कब्रों में मुर्दे गड़े हैं?
जसवंत–क्या इसमें भी कोई शक है?
कालिंदी–इन कब्रों में से कोई भी कब्र ऐसी नहीं है जिसमें लाश गड़ी हो, सिर्फ दिखाने के लिए ये कब्रें बनाई गई हैं, इन सभी के नीचे कोठरियां बनी हुई हैं जिसमें समय पर हजारों आदमी छिपाए जा सकते हैं।
जसवंत–(ताज्जुब से) तो क्या उस सुरंग का फाटक भी इन्हीं कब्रों में से कोई है?
कालिंदी–हां, ऐसा ही है, मैं उसे भी दिखाती हूं।
जसवंत–क्या तुम कह सकती हो कि यह कब्रिस्तान कब्र का बना है?
कालिंदी–नहीं, मुझे ठीक मालूम नहीं मगर इतना जानती हूं कि सैकड़ों वर्ष का पुराना है, कभी-कभी इसकी मरम्मत भी की जाती है, अच्छा अब आप आइए सुरंग का दरवाजा दिखा दूं।
जसवंतसिंह को साथ लिए कालिंदी संगमरमर की एक कब्र पर पहुंची और उसकी तरफ इशारा करके बोली, ‘‘देखिए यही सुरंग का फाटक है, जरूरत पड़ने पर इसका मुंह खोला जाएगा।’’
जसवंत–यह कैसे निश्चय हो कि यही सुरंग का फाटक है?
कालिंदी–क्या मेरी बात पर तुम्हें विश्वास नहीं है?
जसवंत–तुम्हारी बात पर मुझे पूरा विश्वास है, मगर मैं यह पूछता हूं कि तुम्हें क्योंकर निश्चय हुआ कि यही उस सुरंग का फाटक है जिसका दूसरा सिरा किले के अंदर जाकर निकला है?
कालिंदी–मैंने अपने बाप की जुबानी सुना है और दो-तीन दफे उन्हीं के साथ यहां आई भी हूं।
जसवंत–क्या तुमने इस दरवाजे को कभी खुला हुआ भी देखा है?
कालिंदी–नहीं।
जसंवत–तो हो सकता है कि तुम्हारे बाप ने तुमसे झूठ कहा हो और बच्चों की तरह फुसला दिया हो!
इसी समय एक तरफ से आवाज आई, ‘‘नहीं, बच्चों की तरह नहीं फुसलाया है बल्कि ठीक कहा है!’’
अभी तक जसवंत और कालिंदी बड़ी दिलावरी से बातचीत कर रहे थे मगर अब इस आवाज ने जिसके कहने वाले का पता नहीं था, इन्हें बदहवास कर दिया। घबड़ाकर चारों तरफ देखने लगे मगर कोई नजर न पड़ा। इतने में दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अगर अब भी निश्चय न हुआ हो तो मेरे पास आओ!’’
साफ मालूम पड़ता था कि यह आवाज किसी कब्र में से आई है। जसवंतसिंह के रोगटे खड़े हो गए, कालिन्दी थर-थक कांपने लगी, जवांमर्दी और दिलावरी हवा खाने चली गई।
फिर आवाज आई, ‘‘किसी कब्र को खोद के देख तो सही मुर्दे गड़े हैं या नहीं?’’ साथ ही इसके दूसरी तरफ से खिलखिलाकर हंसने की आवाज आई।
अब तो इन दोनों की विचित्र दशा हो गई, बदन का यह हाल कि मानों जड़ैया बुखार चढ़ गया हो, भागने की कोशिश करने लगे मगर पैरों की यह हालत थी कि जैसे किसी ने नसों से खून की जगह पारा भर दिया हो, हिलाने से जरा भी नहीं हिलते। इन दोनों के घोड़े यहां से थोड़ी ही दूर पर थे मगर इन दोनों की यह हालत थी कि किसी तरह वहां तक पहुंचने की उम्मीद न रही।
थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा, कहीं से कोई आवाज न आई, इन दोनों ने मुश्किल से अपने हवास दुरुस्त किए और धीरे-धीरे वहां से धसकने लगे। जैसे ही एक कदम चले थे कि बाईं तरफ से आवाज आई, ‘‘देखो भागने न पावे!’’ इसके जवाब में किसी ने दाहिनी तरफ से कहा, ‘‘भागना क्या खेल है! बहुत दिनों पर खुराक मिली है!!’’
सामने की एक और कब्र से आवाज आई, ‘‘मैं भी कब्र से निकलता हूं, जल्दी न करना!!’’
जसवंत होशियार हो चुका था, वह बड़े जोर से भागा, मगर कालिंदी की बुरी दशा हो गई। ऊपर से उसे अकेला छोड़ जसवंत के भाग जाने से वह बिलकुल ही आपे में न रही, जोर से चिल्लाकर जमीन पर गिरी और बेहोश हो गई।
जब उसे होश आई अपने को उसी जगह पड़े पाया। सवेरा हो चुका बल्कि सूर्य की किरणों से कालिंदी का बदन पसीज रहा था और गर्मी मालूम होती थी। वह घबड़ाकर उठ बैठी और चारों तरफ देखने लगी। कब्रिस्तान में हर तरफ सन्नाटा था, सवेरा होने की खुशी में फुदकती चिड़ियों और मधुबोलियों से दिल लुभानेवाले खुशरंग पक्षियों के सिवाय किसी आदमजात की सूरत दिखाई नहीं देती थी, हां थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ से बंधा हुआ उसका कसा-कसाया घोड़ा टापों से जमीन खोदता हुआ जरूर दिखाई पड़ रहा था।
दिन निकल आने के कारण कालिंदी का डरा हुआ दिल धीरे-धीरे शांत हो रहा था और कलेजे की धड़कन मिट चुकी थी। भागने के बदले इस समय वह पहरों उसी कब्रिस्तान में बैठी रह सकती थी मगर किसी की बेमुरौवती और खुदगर्जी ने उसके कलेजे को निचोड़ डाला था जिसके सदमे से यह बदहवास हो रही थी।
यह बेमुरौवती और खुदगर्जी जसवंतसिंह की थी। पाठक भूले न होंगे कि उस दुष्ट के प्रेम में कितनी मतवाली और अंधी होकर कैसे नाजुक समय में महारानी के साथ कितना नीच व्यवहार करके कालिंदी घर से निकल जसवंत के पास गई थी और उससे मिलकर कितनी प्रसन्न हुई, थी मगर आज उसकी उम्मीदें बिलकुल जाती रहीं और उसके बुरे कर्मों का फल बड़ा भयानक होकर मिलता हुआ उसे दिखाई पड़ा। बदकार औरतों का दिल एक तरह पर कभी स्थिर नहीं रहता जिसका नमूना इस दुष्टा ने अच्छी तरह दिखलाया। यह सदमा उससे किसी तरह बर्दाश्त न हुआ और वह सन्नाटे के आलम में ऊंचे स्वर में बोल उठी– ‘‘अफसोस! मैंने बहुत ही बुरा किया! हाय, दुष्ट जसवंत मुझे कैसी बुरी अवस्था में छोड़कर अपनी जान लेकर भाग निकला! मुझे यह उम्मीद न थी। वह बड़ा ही कमीना और मतलबी है, मौका पड़े तो वह मेरी जान लेकर भी अपना मतलब साधने से बाज आनेवाला नहीं! मालती ने सच कहा था! हाय मैंने बहुत बुरा किया! अब न तो इधर की रही और न उधर की! मगर भला रे दुष्ट, देख मैं तुझसे कैसा बदला लेती हूं!!
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