शांति मुंशी प्रेमचंद की कहानी मानसरोवर भाग 1 | Shanti Munshi Premchand Ki Kahani Mansarovar Bhag 1

शांति मुंशी प्रेमचंद की कहानी मानसरोवर भाग 1 | Shanti Munshi Premchand Ki Kahani Mansarovar Part 1| Shanti Short Story By Munshi Premchand Read Online 

Shanti Munshi Premchand Ki Kahani

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Shanti munshi premchand ki kahani

जब मैं ससुराल आयी, तो बिलकुल फूहड़ थी। न पहनने-ओढ़ने को सलीका , न बातचीत करने का ढंग। सिर उठाकर किसी से बातचीत न कर सकती थीं। आँखें अपने आप झपक जाती थीं। किसी के सामने जाते शर्म आती, स्त्रियों तक के सामने बिना घूँघट के झिझक होती थी। मैं कुछ हिन्दी पढ़ी हुई थी, पर उपन्यास, नाटक आदि पढ़ने में आनंद न आता था। फुर्सत मिलने पर रामायण पढ़ती। उसमें मेरा मन बहुत लगता था। मैं उसे मनुष्य-कृत नहीं समझती थी। मुझे पूरा-पूरा विश्वास था कि उसे किसी देवता ने स्वयं रचा होगा। मैं मनुष्यों को इतना बुद्धिमान और सहृदय नहीं समझती थी। मैं दिन भर घर का कोई न कोई काम करती रहती। और कोई काम न रहता, तो चर्खे पर सूत कातती। अपनी बूढ़ी सास से थर-थर कांपती थी। एक दिन दाल में नमक अधिक हो गया। ससुरजी ने भोजन के समय सिर्फ इतना ही कहा — ‘नमक ज़रा अंदाज़ से डाला करो।’ इतना सुनते ही हृदय कांपने लगा, मानो मुझे इससे अधिक कोई वेदना नहीं पहुँचाई जा सकती थी।

लेकिन मेरा यह फूहड़पन मेरे बाबूजी (पतिदेव) को पसंद न आता था। वह वकील थे। उन्होंने शिक्षा की ऊँची से ऊँची डिग्रियाँ पायी थीं। वह मुझ से प्रेम अवश्य करते थे, पर उस प्रेम में दया की मात्रा अधिक होती थी। स्त्रियों के रहन-सहन और शिक्षा के संबंध में उनके विचार बहुत ही उदार थे। वह मुझे उन विचारों से बहुत नीचे देखकर कदाचित् मन ही मन खिन्न होते थे। परन्तु उसमें मेरा कोई अपराध न देखकर हमारे रस्म-रिवाज पर झुझलाते थे। उन्हें मेरे साथ बैठकर बातचीत करने में जरा आनंद न आता। सोने आते, तो कोई न कोई अंग्रेजी पुस्तक साथ लाते, और नींद न आने तक पढ़ा करते। जो कभी मैं पूछ बैठती कि क्या पढ़ते हो, तो मेरी ओर करूण दृष्टि से देखकर उत्तर देते — ‘तुम्हें क्या बतलाऊं, यह ऑस्कर वाइल्ड की सर्वश्रेष्ठ रचना है। मैं अपनी अयोग्यता पर बहुत लज्जित थी। अपने को धिक्कारती – मैं ऐसे विद्वान पुरूष के योग्य नहीं हूँ। मुझे किसी उजड्ड के घर पड़ना था। बाबूजी मुझे निरादर की दृष्टि से नहीं देखते थे, यही मेरे लिए सौभाग्य की बात थी।

एक दिन संध्या समय मैं रामायण पढ़ रही थी। भरतजी रामचंद्रजी की खोज में निकाले थे। उनका करूण विलाप पढ़कर मेरा हृदय गदगद् हो रहा था। नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। हृदय उमड़ आता था। सहसा बाबूजी कमरे में आयें। मैंने पुस्तक तुरंत बंद कर दीं। उनके सामने मैं अपने फूहड़पन को भरसक प्रकट न होने देती थी। लेकिन उन्होंने पुस्तक देख ली और पूछा — ‘रामायण है न?’

मैंने अपराधियों की भांति सिर झुकाकर कहा — “हाँ, ज़रा देख रही थी।‘

बाबूजी — ‘इसमें शक नहीं कि पुस्तक बहुत ही अच्छी, भावों से भरी हुई है, लेकिन जैसा अंग्रेज या फ्रांसीसी लेखक लिखतें हैं। तुम्हारी समझ में तो न आवेगा, लेकिन कहने में क्या हरज है, योरोप में आजकल ‘स्वाभाविकता’ ( Realism) का जमाना है। वे लोग मनोभावों के उत्थान और पतन का ऐसा वास्तविक वर्णन करते है कि पढ़कर आश्चर्य होता है। हमारे यहाँ कवियों को पग-पग पर धर्म तथा नीति का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए कभी-कभी उनके भावों में अस्वभाविकता आ जाती है, और यही त्रुटी तुलसीदास में भी है।‘

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मेरी समझ में उस समय कुछ भी न आया। बोली – ‘मेरे लिए तो यही बहुत है, अँग्रेजी पुस्तकें कैसे समझूं।‘

बाबूजी — ‘कोई कठिन बात नहीं। एक घंटे भी रोज पढ़ो, तो थोड़े ही समय में काफी योग्यता प्राप्तकर सकती हो। पर तुमने तो मानो मेरी बातें न मानने की सौगंध ही खा ली है। कितना समझाया कि मुझसे शर्म करने की आवश्यकता नहीं, पर तुम्हारे ऊपर असर न पड़ा। कितना कहता हूँ कि ज़रा सफाई से रहा करो, परमात्मा सुंदरता देता है, तो चाहता है कि उसका श्रृंगार भी होता रहे। लेकिन जान पड़ता है, तुम्हारी दृष्टि में उसका कुछ भी मूल्य नहीं या शायद तुम समझती हो कि मेरे जैसे कुरूप मनुष्य के लिए तुम चाहे जैसा भी रहो, आवश्यकता से अधिक अच्छी हो। यह अत्याचार मेरे ऊपर है। तुम मुझे ठोंक-पीट कर वैराग्य सिखाना चाहती हो। जब मैं दिन-रात मेहनत करके कमाता हूँ, तो स्व-भावत: मेरी यह इच्छा होती है कि उस द्रव्य का सबसे उत्तम व्यय हो। परन्तु तुम्हारा फूहड़पन और पुराने विचार मेरे सारे परिश्रम पर पानी फेर देते है। स्त्रियाँ केवल भोजन बनाने, बच्चे पालने, पति सेवा करने और एकादशी व्रत रखने के लिए नहीं है, उनके जीवन का लक्ष्य इससे बहुत ऊँचा है। वे मनुष्यों के समस्त सामाजिक और मानसिक विषयों में समान रूप से भाग लेने की अधिकारिणी हैं। उन्हें भी मनुष्यों की भांति स्वतंत्र रहने का अधिकार प्राप्त है। मुझे तुम्हारी यह बंदी-दशा देखकर बड़ा कष्ट होता है। स्त्री पुरुष की अर्द्धागिनी मानी गई है, लेकिन तुम मेरी मानसिक और सामाजिक, किसी आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकतीं। मेरा और तुम्हारा धर्म अलग, आचार-विचार अलग, आमोद-प्रमोद के विषय अलग। जीवन के किसी कार्य में मुझे तुमसे किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल सकती। तुम स्वयं विचार सकती हो कि ऐसी दशा में मेरी जिंदगी कैसी बुरी तरह कट रही है।‘

बाबूजी का कहना बिलकुल यथार्थ था। मैं उनके गले में एक जंजीर की भांति पड़ी हुई थी। उस दिन से मैंने उन्हीं के कहें अनुसार चलने की दृढृ प्रतिज्ञा कर ली, अपने देवता को किस भांति अप्रसन्न करती?

(२)

यह तो कैसे कहूँ कि मुझे पहनने-ओढ़ने से प्रेम न था, और उतना ही था, जितना दूसरी स्त्रियों को होता है। जब बालक और वृद्ध तक श्रृंगार पसंद करते है, तो मैं युवती ठहरी। मन भीतर ही भीतर मचल कर रह जाता था। मेरे मायके में मोटा खाने और मोटा पहनने की चाल थी। मेरी माँ और दादी हाथों से सूत कातती थीं और जुलाहे से उसी सूत के कपड़े बुनवा लिए जाते थे। बाहर से बहुत कम कपड़े आते थे। मैं ज़रा महीन कपड़ा पहनना चाहतीं या श्रृंगार की रूचि दिखाती, तो अम्मा फौरन टोकतीं और समझाती कि बहुत बनाव-संवार भले घर की लड़कियों को शोभा नहीं देता। ऐसी आदत अच्छी नहीं। यदि कभी वह मुझे दर्पण के सामने देख लेती, तो झिड़कने लगती, परन्तु अब बाबूजी की जिद से मेरी यह झिझक जाती रही। सास और ननदें मेरे बनाव-श्रृंगार पर नाक-भौं सिकोड़ती, पर मुझे अब उनकी परवाह न थी। बाबूजी की प्रेम-परिपूर्ण दृष्टि के लिए मैं झिड़कियाँ भी सह सकती थी। अब उनके और मेरे विचारों में समानता आती जाती थी। वह अधिक प्रसन्नचित्त जान पड़ते थे। वह मेरे लिए फैशनेबल साड़ियाँ, सुंदर जैकटें, चमकते हुए जूते और कामदार स्लीपरें लाया करते, पर मैं इन वस्तुओं को धारण कर किसी के सामने न निकलती, ये वस्त्र केवल बाबूजी के ही सामने पहनने के लिए रखे थे। मुझे इस प्रकार बनी-ठनी देख कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी। स्त्री अपने पति की प्रसन्नता के लिए क्या नहीं कर सकती। अब घर के काम-काज से मेरा अधिक समय बनाव-श्रृंगार तथा पुस्तकावलोकन में ही बीतने लगा। पुस्तकों से मुझे प्रेम होने लगा था।

यद्यपि अभी तक मैं अपने सास-ससुर का लिहाज करती थी, उनके सामने बूट और गाउन पहनकर निकलने का मुझे साहस न होता था, पर मुझे उनकी शिक्षा-पूर्ण बातें न भाती थी। मैं सोचती, जब मेरा पति सैकड़ों रूपये महीने कमाता है, तो घर में चेरी बनकर क्यों रहूं? यों अपनी इच्छा से चाहे जितना काम करूं, पर वे लोग मुझे आज्ञा देने वाले कौन होते हैं? मुझमें आत्मभिमान की मात्रा बढ़ने लगी। यदि अम्मा मुझे कोई काम करने को कहती, तो मैं अदबदा कर टाल जाती। एक दिन उन्होनें कहा — ‘सबेरे के जलपान के लिए कुछ दालमोट बना लो।‘

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मैं बात अनसुनी कर गयी। अम्माने कुछ देर तक मेरी राह देखी, पर जब मैं अपने कमरे से न निकली, तो उन्हे गुस्सा हो आया। वह बड़ी ही चिड़चिड़ी प्रकृति की थी। तनिक-सी बात पर तुनक जाती थीं। उनेहं अपनी प्रतिष्ठा का इतना अभिमान था कि मुझे बिलकुल लौंडी समझती थीं। हाँ, अपनी पुत्रियों से सदैव नम्रता से पेश आतीं। बल्कि मैं तो यह कहूंगी कि उन्हें सिर चढ़ा रखा था। वह क्रोध में भरी हुई मेरे कमरे के द्वार पर आकर बोलीं — ‘तुमसे मैंने दाल—मोट बनाने को कहा था, बनाया?’

मैं कुछ रूष्ट होकर बोली — ‘अभी फुर्सत नहीं मिली।‘

अम्मा – ‘तो तुम्हारी जान में दिन-भर पड़े रहना ही बड़ा काम है! यह आजकल तुम्हें हो क्या गया है? किस घमंड में हो? क्या यह सोचती हो कि मेरा पति कमाता है, तो मैं काम क्यों करूं? इस घमंड में न भूलना! तुम्हारा पति लाख कमाये, लेकिन घर में राज मेरा ही रहेगा। आज वह चार पैसे कमाने लगा है, तो तुम्हें मालकिन बनने की हवस हो रही है। लेकिन उसे पालने-पोसने तुम नहीं आयी थी, मैंने ही उसे पढ़ा-लिखा कर इस योग्य बनाया है। वाह! कल को छोकरी और अभी से यह गुमान।‘

मैं रोने लगी। मुँह से एक बात न निकली। बाबूजी उस समय ऊपर कमरे में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। ये बातें उन्होंने सुनीं। उन्हें कष्ट हुआ। रात को जब वह घर आये तो बोले — ‘देखा तुमने आज अम्मा का क्रोध? यही अत्याचार है, जिससे स्त्रियों को अपनी जिंदगी पहाड़ मालूम होने लगती है। इन बातों से हृदय में कितनी वेदना होती है, इसका जानना असंभव है। जीवन भार हो जाता है, हृदय जर्जर हो जाता है और मनुष्य की आत्मोन्नति उसी प्रकार रूक जाती है, जैसे जल, प्रकाश और वायु के बिना पौधे सूख जाते है। हमारे घरों में यह बड़ा अंधेर है। अब मैं उनका पुत्र ही ठहरा। उनके सामने मुँह नहीं खोल सकूंगा। मेरे ऊपर उनका बहुत बड़ा अधिकार है। अतएव उनके विरुद्ध एक शब्द भी कहना मेरे लिये लज्जा की बात होगी, और यही बंधन तुम्हारे लिए भी है। यदि तुमने उनकी बातें चुपचाप न सुन ली होतीं, तो मुझे बहुत ही दु:ख होता। कदाचित् मैं विष खा लेता। ऐसी दशा में दो ही बातें संभव है, या तो सदैव उनकी घुड़कियों-झिड़कियों को सहे जाओ, या अपने लिए कोई दूसरा रास्ता ढूंढो। अब इस बात की आशा करना कि अम्माके सवभाव में कोई परिवर्तन होगा, बिलकुल भ्रम है। बोलो, तुम्हें क्या स्वीकार है।‘

मैंने डरते डरते कहा — ‘आपकी जो आज्ञा हो, वह करें। अब कभी न पढूंगी-लिखूंगी, और जो कुछ वह कहेंगी, वही करूंगी। यदि वह इसी में प्रसन्न हैं, तो यही सही। मुझे पढ़-लिख कर क्या करना है?’

बाबूजी – ‘पर यह मैं नहीं चाहता। अम्मा ने आज आरंभ किया है। अब रोज बढ़ती ही जायेंगी। मैं तुम्हें जितनी ही सभ्य तथा विचार-शील बनाने की चेष्टा करूंगा, उतना ही उन्हें बुरा लगेगा, और उनका गुस्सा तुम्हीं पर उतरेगा। उन्हें पता नहीं, जिस अबोहवा में उन्होंने अपनी ज़िन्दगी बितायी है, वह अब नहीं रही। विचार-स्वातंत्र्य और समयानुकूलता उनकी दृष्टि में अधर्म से कम नहीं। मैंने यह उपाय सोचा है कि किसी दूसरे शहर में चलकर अपना अड्डा जमाऊं। मेरी वकालत भी यहाँ नहीं चलती, इसलिए किसी बहाने की भी आवश्यकता न पड़ेगी।‘

मैं इस तजबीज के विरुद्ध कुछ न बोली। यद्यपि मुझे अकेले रहने से भय लगता था, तथापि वहाँ स्वतंत्र रहने की आशा ने मन को प्रफुल्लित कर दिया।

(3)

उसी दिन से अम्मा ने मुझसे बोलना छोड़ दिया। महरियों, पड़ोसिनों और ननदों के आगे मेरा परिहास किया करतीं। यह मुझे बहुत बुरा मालूम होता था। इसके पहले यदि वह कुछ भली-बुरी बातें कह लेतीं, तो मुझे स्वीकार था। मेरे हृदय से उनकी मान-मर्यादा घटने लगी। किसी मनुष्य पर इस प्रकार कटाक्ष करना उसके हृदय से अपने आदर को मिटाने के समान है। मेरे ऊपर सबसे गुरुतर दोषारोपण यह था कि मैंने बाबूजी पर कोई मोहनी-मंत्र फूंकदिया है, वह मेरे इशारों पर चलते है; पर याथार्थ में बात उल्टी ही थी।

भाद्र मास था। जन्मष्टामी का त्यौहार आया था। घर में सब लोगों ने व्रत रखा। मैंने भी सदैव की भांति व्रत रखा। ठाकुरजी का जन्म रात को बारह बजे होने वाला था, हम सब बैठी गाती-बजाती थी। बाबूजी इन असभ्य व्यवहारों के बिलकुल विरुद्ध थे। वह होली के दिन रंग भी न खेलते, गाने बजाने की तो बात ही अलग। रात को एक बजे जब मैं उनके कमरे में गयी, तो मुझे समझाने लगे – ‘इस प्रकार शरीर को कष्ट देने से क्या लाभ? कृष्ण महापुरूष अवश्य थे, और उनकी पूजा करना हमारा कतर्व्य है: पर इस गाने-बजाने से क्या फायदा? इस ढोंग का नाम धर्म नहीं है। धर्म का संबंध सच्चाई ओर ईमान से है, दिखावे से नहीं।‘

बाबूजी स्वयं इसी मार्ग का अनुकरण करते थे। वह भगवदगीता की अत्यंत प्रशंसा करते, पर उसका पाठ कभी न करते थे। उपनिषदों की प्रशंसा में उनके मुख से मानों पुष्पवृष्टि होने लगती थी; पर मैंने उन्हें कभी कोई उपनिषद् पढ़ते नहीं देखा। वह हिंदु धर्म के गूढ़ तत्व ज्ञान पर लट्टू थे, पर उसे समयानुकूल नहीं समझते थे। विशेषकर वेदांत को तो भारत की अवनति का मूल कारण समझते थे। वह कहा करते कि इसी वेदांत ने हमको चौपट कर दिया; हम दुनिया के पदार्थो को तुच्छ समझने लगे, जिसका फल अब तक भुगत रहे हैं। अब उन्नति का समय है। चुपचाप बैठे रहने से निर्वाह नहीं। संतोष ने ही भारत को गारत कर दिया ।

उस समय उनको उत्तर देने की शक्ति मुझमें कहाँ थी? हाँ, अब जान पड़ता है, वह योरोपियन सभ्यता के चक्कर में पड़े हुए थे। अब वह स्वयं ऐसी बातें नहीं करते, वह जोश अब ठंडा हो चला है।

(4)

इसके कुछ दिन बाद हम इलाहाबाद चले आये। बाबूजी ने पहले ही एक दो मंजिला मकान ले रखा था। सब तरह से सजा-सजाया। हमें यहाँ पॉच नौकर थे — दो स्त्रियाँ, दो पुरुष और एक महाराज। अब मैं घर के कुल काम-काज से छुटी पा गयी। कभी जी घबराता, तो कोई उपन्यास लेकर पढ़ने लगती।

यहाँ फूल और पीतल के बर्तन बहुत कम थे। चीनी की रकाबियाँ और प्याले आलमारियों में सजे रखे थे। भोजन मेज पर आता था। बाबूजी बड़े चाब से भोजन करते। मुझे पहले कुछ शरम आती थी; लेकिन धीरे-धीरे मैं भी मेज ही पर भोजन करने लगी। हमारे पास एक सुंदर टमटम भी थी। अब हम पैदल बिलकुल न चलते। बाबूजी कहते – ‘यही फैशन है!’

बाबूजी की आमदनी अभी बहुत कम थी। भली-भांति खर्च भी न चलता था। कभी-कभी मैं उन्हें चिंताकुल देखती, तो समझाती कि जब आय इतनी कम है, तो व्यय इतना क्यों बढ़ा रखा है? कोई छोटा–सा मकान ले लो। दो नौकरों से भी काम चल सकता है। लेकिन बाबूजी मेरी बातों पर हँस देते और कहते – ‘मैं अपनी दरिद्रता का ढिंढोरा अपने-आप क्यों पीपीटूं? दरिद्रता प्रकट करना दरिद्र होने से अधिक दु:खदायी होता है। भूल जाओ कि हम लोग निर्धन है, फिर लक्ष्मी हमारे पास आप दौड़ी आयेगी। खर्च बढ़ना, आवश्यकताओं का अधिक होना ही द्रव्योपार्जन की पहली सीढ़ी हैं। इससे हमारी गुप्त शक्ति विकसित हो जाती हैं। और हम उन कष्टों को झेलते हुए आगे पग धरने के योग्य होते हैं। संतोष दरद्रिता का दूसरा नाम है।

अस्तु, हम लोगों का खर्च दिन–दिन बढ़ता ही जाता था। हम लोग सप्ताह में तीन बार थियेटर जरूर देखने जाते। सप्ताह में एक बार मित्रों को भोजन अवश्य ही दिया जाता। अब मुझे सूझने लगा कि जीवन का लक्ष्य सुख–भोग ही है। ईश्वर को हमारी उपासाना की इच्छा नहीं। उसने हमको उत्तम-उत्तम वस्तुयें भोगने के लिए ही दी हैं, उसको भोगना ही उसकी सर्वोतम आराधना है। एक इसाई लेडी मुझे पढ़ाने तथा गाना सिखाने आने लगी। घर में एक पियानो भी आ गया। इन्हीं आनंदों में फंसकर मैं रामायण और भक्तमाल को भूल गयी। ये पुस्तकें मुझे अप्रिय लगने लगीं। देवताओं से विश्वास उठ गया ।

धीरे-धीरे यहाँ के बड़े लोगों से स्नेह और संबंध बढ़ने लगा। यह एक बिलकुल नयी सोसाइटी थीं, इसके रहन-सहन, आहार-व्यवहार और आचार- विचार मेरे लिए सर्वथा अनोखे थे। मैं इस सोसायटी में ऐसी जान पड़ती, जैसे मोरों मे कौआ। इन लेडियों की बातचीत कभी थियेटर और घुड़दौड़ के विषय में होती, कभी टेनिस, समाचार–पत्रों और अच्छे-अच्छे लेखकों के लेखों पर। उनके चातुर्य ,बुद्धि की तीव्रता फुर्ती और चपलता पर मुझे अचंभा होता। ऐसा मालूम होता कि वे ज्ञान और प्रकाश की पुतलियाँ हैं। वे बिना घूंघट बाहर निकलतीं। मैं उनके साहस पर चकित रह जाती। मुझे भी कभी-कभी अपने साथ ले जाने की चेष्टा करती, लेकिन मैं लज्जावश न जा सकती। मैं उन लेडियों को भी उदास या चिंतित न पाती। मिस्टर दास बहुत बीमार थे। परन्तु मिसेज दास के माथे पर चिंताका चिन्ह तक न था। मिस्टर बागड़ी नैनीताल में तपेदिक का इलाज करा रहे थे, पर मिसेज बागड़ी नित्य टेनिस खेलने जाती थीं। इस अवस्था में मेरी क्या दशा होती, मैं ही जानती हूँ।

इन लेडियों की रीति नीति में एक आर्कषण-शाक्ति थी, जो मुझे खींचे लिए जाती थी। मैं उन्हेंसदैव आमोद–प्रमोदक के लिए उत्सुक देखती और मेरा भी जी चाहता कि उन्हीं की भांति मैं भी निस्संकोच हो जाती। उनका अंग्रजी वार्तालाप सुन मुझे मालूम होता कि ये देवियाँ हैं। मैं अपनी इन त्रुटियों की पूर्ति के लिए प्रयत्न किया करती थीं।

इसी बीच में मुझे एक खेदजनक अनुभव होने लगा। यद्यपि बाबूजी पहले से मेरा अधिक आदर करते, मुझे सदैव ‘डियर-डार्लिग’ कहकर पूकारते थे, तथापि मुझे उनकी बातों में एक प्रकार की बनावट मालूम होती थीं। ऐसा प्रतीत होता, मानो ये बातें उनके हृदय से नहीं, केवल मुख से निकलती है। उनके स्नेह और प्यार में हार्दिक भावों की जगह अलंकार ज्यादा होता था; किन्तु और भी अचंभे की बात यह थी कि अब मुझे बाबूजी पर वह पहले की–सी श्रद्धा न रही। अब उनकी सिर की पीड़ा से मेरे हृदय में पीड़ा न होती थी। मुझमें आत्मगौरव का आविर्भाव होने लगा था। अब मैं अपना बनाव-श्रृंगार इसलिए करती थी कि संसार में यह भी मेरा कर्तव्य है; इसलिए नहीं कि मैं किसी एक पुरूष की व्रतधारिणी हूँ। अब मुझे भी अपनी सुंदरता पर गर्व होने लगा था । मैं अब किसी दूसरे के लिए नहीं, अपने लिए जीती थीं। त्याग तथा सेवा का भाव मेरे हृदय से लुप्त होने लगा था।

मैं अब भी परदा करती थी; परन्तु हृदय अपनी सुंदरता की सराहना सुनने के लिए व्याकुल रहता था। एक दिन मिस्टर दास तथा और भी अनेक सभ्य–गण बाबूजी के साथ बैठे थे। मेरे और उसके बीच में केवल एक परदे की आड़ थी। बाबूजी मेरी इस झिझक से बहुत ही लज्जित थे। इसे वह अपनी सभ्यता में काला धब्बा समझते थे। कदाचित् यह दिखाना चाहते कि मेरी स्त्री इसलिए परदे में नहीं है कि वह रूप तथा वस्त्राभूषणों में किसी से कम है, बल्कि इसलिए कि अभी उसे लज्जा आती है। वह मुझे किसी बहाने से बार-बार परदे के निकट बुलाते; जिसमें उनके उनके मित्र मेरी सुंदरता और वस्त्राभूषण देख लें। अंत में कुछ दिन बाद मेरी झिझक गायब हो गयी। इलाहाबाद आने के पूरे दो वर्ष बाद में बाबूजी के साथ बिना परदे के सैर करने लगी। सैर के बाद टेनिस की नौबत आयीं, अंत में मैंने क्लब में जाकर दम लिया।

पहले यह टेनिस और क्लब मुझे तमाशा–सा मालूम होत था, मानो वे लोग व्यायाम के लिए नहीं, बल्कि फैशन के लिए टेनिस खेलने आते थे। वे कभी न भूलते थे कि हम टेनिस खेल रहे हैं। उनके प्रत्येक काम में, झुकने में, दौड़ने में, उचकने में एक कृत्रिमता होती थी, जिससे यह प्रतीत होता था कि इस खेल का प्रयोजन कसरत नहीं केवल दिखावा है।

क्लब में इससे विचित्र अवस्था थी। वह पूरा स्वांग था, भद्दा और बेजोड़। लोग अंग्रेजी के चुने हुए शब्दों का प्रयोग करते थे, जिसमें कोई सार न होता था। स्त्रियों की वह फूहड़ निर्लज्जता और पुरूषों की वह भाव-शून्य स्त्री–पूजा मुझे भी न भाती थी। चारों ओर अंग्रेजी चाल-ढ़ाल की हास्यजनक नकल थीं। परन्तु क्रमश: मैं भी वह रंग पकड़ने और उन्हीं का अनुकरण करने लगी। अब मुझे अनुभव हुआ कि इस प्रदशर्न-लोलुपता में कितनी शक्ति है। मैं अब नित्य नये श्रृंगार करती, नित्य नया रूप भरती, केवल इस लिए कि क्लब में सबकी आँखों में चुभ जाऊं ! अब मुझे बाबूजी की सेवा सत्कार से अधिक अपने बनाव श्रृंगार की धुन रहती थी। यहाँ तक कि यह शौक एक नशा–सा बन गया। इतना ही नहीं, लोगों से अपने सौंदर्यकी प्रशंसा सुनकर मुझे एक अभिमान–मिश्रित आंनद का अनुभव होने लगा। मेरी लज्जाशीलता की सीमायें विस्तृत हो गयी। वह दृष्टिपात, जो कभी मेरे शरीर के प्रत्येक रोयें को खड़ा कर देता और वह हास्यकटाक्ष, जो कभी मुझे विष खा लेने को प्रस्तुत कर देता, उनसे अब मुझे एक उनमाद पूर्ण हर्ष होता था, परन्तु जब कभी मैं अपनी अवस्था पर आंतरिक दृष्टि डालती, तो मुझे बड़ी घबराहट होती थी। यह नाव किस घाट लगेगी? कभी-कभी इरादा करती कि क्लब न जाऊंगी; परन्तु समय आते ही फिर तैयार हो जाती। मैं अपने वश में न थी। मेरी सत्कल्पनायें निर्बल हो गयी थीं।

(5)

दो वर्ष और बीत गये और अब बाबूजी के स्भाव में एक विचित्र परिवर्तन होने लगा। वह उदास और चिंतित रहने लगे। मुझसे बहुत कम बोलते। ऐसा जान पड़ता कि इन्हें कठिन चिंता ने घेर रखा है, या कोई

बीमारी हो गयी है। मुँह बिलकुल सूखा रहता था। तनिक–तनिक सी बात पर नौकरों से झल्लाने लगते, और बाहर बहुत कम जाते।

अभी एक ही मास पहले वह सौ काम छोड़कर क्लब अवश्य जाते थे, वहाँ गये बिना उन्हें कल न पड़ती थी; अब अधिकतर अपने कमरे में आराम –कुर्सी पर लेटे हुए समाचार-पत्र और पुस्कतें देखा करते थे । मेरी समझ में न आता कि बात क्या है।

एक दिन उन्हें बड़े जोर का बुखार आया, दिन-भर बेहोश रहे, परन्तु मुझे उनके पास बैठने में अनकुस–सा लगता था। मेरा जी एक उपन्यास में लगा हुआ था। उनके पास जाती थी और पल भर में फिर लौट आती। टेनिस का समय आया, तो दुविधा में पड़ गयी कि जाऊं या न जाऊं। देर तक मन में यह संग्राम होता रहा, अंत को मैंने यह निर्णय किया कि मेरे यहाँ रहने से वह कुछ अच्छे तो हो नहीं जायेंगे, इससे मेरा यहाँ बैठा रहना बिलकुल निर्रथक है। मैंने बढ़िया वस्त्र पहने, और रैकेट लेकर क्लब घर जा पहूँची। वहॉ मैंने मिसेज दास और मिसेज बागची से बाबूजी की दशा बतलायी, और सजल नेत्र चुपचाप बैठी रही। जब सब लोग कोर्ट में जाने लगे और मिस्टर दास ने मुझसे चलने को कहा, तो मैं ठंडी आह भरकर कोर्ट में जा पहूँची और खेलने लगी।

आज से तीन वर्ष बाबूजी को इसी प्रकार बुखार आ गया था। मैं रात भर उन्हें पंखा झेलती रही थी; हृदय व्याकुल था और यही चाहता था कि इनके बदले मुझे बुखार आ जाये, परन्तु वह उठ बैठें। पर अब हृदय तो स्नेह –शून्य हो गया था, दिखावा अधिक था। अकेले रोने की मुझमें क्षमता न रह गयी थी। मैं सदैव की भांति रात को नौ बजे लौटी। बाबूजी का जी कुछ अच्छा जान पड़ा। उन्होंने मुझे केवल दबी दृष्टि से देखा और करवट बदल ली; परन्तु मैं लेटी, तो मेरा हृदय मुझे अपनी स्वार्थपरता और प्रमोदासक्ति पर धिक्कारता।

मैं अब अंग्रेजी उपन्यासों को समझने लगी। हमारी बातचीत अधिक उत्कृष्ट और आलोचनात्मक होती थी।

हमारा सभ्यता का आदर्श अब बहुत ही उच्च हो गया। हमको अब अपनी मित्र मण्डली से बाहर दूसरों से मिलने–जुलने में संकोच होता था। हम अपने से छोटी श्रेणी के लोगों से बोलने में अपना अपमान समझते थे। नौकरों को अपना नौकर समझते थे, और बस। हम उनके निजी मामलों से कुछ मतलब न था। हम उनसे अलग रहकर उनके ऊपर अपना जोर जमाये रखना चाहते थे। हमारी इच्छा यह थी कि वह हम लोगों को साहब समझें। हिन्दुसतानी स्त्रियों को देखकर मुझे उनसे घृणा होती थी, उनमें शिष्टता न थी। खैर!

बाबूजी का जी दूसरे दिन भी न संभला। मैं क्लब न गयी। परन्तु जब लगातार तीन दिन तक उन्हें बुखार आता गया और मिसेज दास ने बार-बार एक नर्स बुलाने का आदेश किया, तो मैं सहमत हो गयी। उस दिन से रोगी की सेवा-शुश्रूषा से छुट्टी पाकर बड़ा हर्ष हुआ। यद्यपि दो दिन मैं क्लब न गयी थी, परंतु मेरा जी वहीं लगा रहता था, बल्कि अपने भीरूतापूर्ण त्याग पर क्रोध भी आता था।

(6)

एक दिन तीसरे पहर मैं कुर्सी पर लेटी हुई अंग्रेजी पुस्तक पढ़ रही थी। अचानक मन में यह विचार उठा कि बाबूजी का बुखार असाध्य हो जाये तो? पर इस विचार से लेश-मात्र भी दु:ख न हुआ। मैं इस शोकमय कल्पना का मन ही मन आनंद उठाने लगी। मिसेज दास, मिसेज नायडू मिसेज श्रीवास्तब, मिस खरे, मिसेज शरगर अवश्य ही मातमपुर्सी करने आवेगीं। उन्हें देखते ही मैं सजल नेत्र हो उठूंगी, और कहूंगी – बहनों! मैं लुट गयी। हाय मैं लुट गयी। अब मेरा जीवन अंधेरी रात के भयावह वन या श्मशान के दीपक के समान है, परंतु मेरी अवस्था पर दु:ख न प्रकट करो। मुझ पर जो पड़ेगी, उसे मैं उस महान् आत्मा के मोक्ष के विचार से सह लूंगी।

मैंने इस प्रकार मन में एक शोकपूर्ण व्याख्यान की रचना कर डाला। यहाँ तक कि अपने उस वस्त्र के विषय में भी निश्चय कर लिया, जो मृतक के साथ श्मशान जाते समय पहनूंगी।

इस घटना की शहर भर में चर्चा हो जायेगी। सारे कैन्टोमेंट के लोग मुझे समवेदना के पत्र भेजेगें। तब में उनका उत्तर समाचार पत्रों में प्रकाशित करा दूंगी कि मैं प्रत्येक शोक-पत्र का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं, उसे रोने के सिवा और किसी काम के लिए समय नहीं है। मैं इस महदर्दी के लिए उन लोगों की कृतज्ञ हूँ और उनसे विनय-पूर्वक निवेदन करती हूँ कि वे मृतक की आत्मा की सदगति के निमित्त ईश्वर से प्रार्थना करें।

मैं इन्हीं विचारों मे डूब हुई थी कि नर्स ने आकर कहा – ‘आपको साहब याद करते हैं।‘

यह मेरे क्लब जाने का समय था। मुझे उनका बुलाना अखर गया, लेकिन एक मास हो गया था। वह अत्यंत दुर्बल हो रहे थे। उन्होंने मेरी और विनयपूर्ण दृष्टि से देखा। उसमें आँसू भरे हुए थे। मुझे उन पर दया आयी। बैठ गयी, और ढ़ाढस देते हुए बोली – ‘क्या करूं? कोई दूसरा डाक्टर बुलाऊं?’

बाबूजी आँखें नीची करके अत्यंत करूण भाव से बोले – ‘यहाँ कभी नहीं अच्छा हो सकता, मुझे अम्मा के पास पहुँचा दो।‘

मैंने कहा – ‘क्या आप समझते है कि वहाँ आपकी चिकित्सा यहाँ से अच्छी होगी?’

बाबूजी बोले – ‘क्या जाने क्यों मेरा जी अम्मा के दर्शनों को लालायित हो रहा है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं वहाँ बिना दवा-दारू के भी अच्छा हो जाऊंगा।‘

मैं – ‘यह आपका केवल विचार मात्र है।‘

बाबजी – ‘शायद ऐसा ही हो। लेकिन मेरी विनय स्वीकार करो। मैं इस रोग से नहीं, इस जीवन से ही दु:खित हूँ।‘

मैंने अचरज से उनकी ओर देखा!

बाबूजी फिर बोले – ‘हाँ, इस जिंदगी से तंग आ गया हूँ मैं! अब समझ रहा हूँ, मैं जिस स्वच्छ, लहराते हुए निर्मल जल की ओर दौड़ा जा रहा था, वह मरूभूमि हैं। मैं इस प्रकार जीवन के बाहरी रूप पर लट्टू हो रहा था; परंतु अब मुझे उसकी आंतरिक अवस्थाओं का बोध हो रहा है! इन चार वर्षो में मैंने इस उपवन में खूब भ्रमण किया, और उसे आदि से अंत तक कंटकमय पाया। यहाँ न तो हदय को शांति है, न आत्मिक आनंद। यह एक उन्मत, अशांतिमय, स्वार्थ-पूर्ण, विलाप–युक्त जीवन है। यहाँ न नीति है; न धर्म, न सहानुभुति, न सहदयता। परामात्मा के लिए मुझे इस अग्नि से बचाओ। यदि और कोई उपाय न हो, तो अम्मा को एक पत्र ही लिख दो। वह आवश्य यहाँ आयेगीं। अपने अभागे पुत्र का दु:ख उनसे न देखा जाएगा। उन्हें इस सोसाइटी की हवा अभी नहीं लगी, वह आयेगी। उनकी वह मामतापूर्ण दृष्टि, वह स्नेहपूर्ण सुश्रुषा मेरे लिए सौ औषधियों का काम करेगी। उनके मुख पर वह ज्योति प्रकाशमान होगी, जिसके लिए मेरे नेत्र तरस रहे हैं। उनके हदय में स्नेह है, विश्वास है। यदि उनकी गोद में मैं मर भी जाऊं, तो मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।‘

मैं समझी कि यह बुखार की बक-झक हैं। नर्स से कहा – ‘जरा इनका टेम्परेचर तो लो, मैं अभी डाक्टर के पास जाती हूँ। मेरा हृदय एक अज्ञात भय से कांपते लगा। नर्स ने थर्मामीटर निकाला; परन्तु ज्यों ही वह बाबूजी के समीप गयी, उन्होंने उसके हाथ से वह यंत्र छीन कर पृथ्वी पर पटक दिया। उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये। फिर मेरी ओर एक अवहेलनापूर्ण दृष्टि से देखकर कहा – ‘साफ- साफ क्यों नहीं कहती हो कि मैं क्लब–घर जाती हूँ, जिसके लिए तुमने ये वस्त्र धारण किये हैं और गाउन पहनी है। खैर, घूमती हुई यदि डाक्टर के पास जाना, तो कह देना कि यहाँ टेम्परेचर उस बिंदु पर पहुँच चुका है, जहाँ आग लग जाती है।‘

मैं और भी अधिक भयभीत हो गयी। हदय में एक करूण चिंता का संचार होने लगा। गला भर आया। बाबूजी ने नेत्र मूंद लिये थे और उनकी साँस वेग से चल रही थी। मैं द्वार की ओर चली कि किसी को डाक्टर के पास भेजूं। यह फटकार सुनकर स्वंय कैसे जाती। इतने में बाबू जी उठ बैठे और विनीत भाव से बोले – ‘श्यामा! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। बात दो सप्ताह से मन में थी: पर साहस न हुआ। आज मैंने निश्चय कर लिया है कि कह ही डालूं। मैं अब फिर अपने घर जाकर वही पहले की–सी जिंदगी बिताना चाहता हूँ। मुझे अब इस जीवन से घृणा हो गयी है, और यही मेरी बीमारी का मुख्य कारण हैं। मुझे शारीरिक नहीं, मानसिक कष्ट हैं। मैं फिर तुम्हें वही पहले की–सी सलज्ज, नीचा सिर करके चलने वाली, पूजा करने वाली, रमायण पढ़ने वाली, घर का काम-काज करने वाली, चरखा कातने वाली, ईश्वर से डरने वाली, पतिश्रद्धा से परिपूर्ण स्त्री देखना चाहता हूँ। मै विश्वास करता हूँ तुम मुझे निराश न करेगी। तुमको सोलहों आना अपनी बनाना और सोलहों आने तुम्हारा बनाना चाहता हूँ। मैं अब समझ गया कि उसी सादे पवित्र जीवन में वास्तविक सुख है। बोलो, स्वीकार है? तुमने सदैव मेरी आज्ञाओं का पालन किया है, इस समय निराश न करना; नहीं तो इस कष्ट और शोक का न जाने कितना भयंकर परिणाम हो।‘

मैं सहसा कोई उतर न दे सकी। मन में सोचने लगी – इस स्वतंत्र जीवन में कितना सुख था? ये मजे वहाँ कहाँ? क्या इतने दिन स्वतंत्र वायु में विचरण करने के पश्चात फिर उसी पिंजड़े मे जाऊं? वही लौंडी बनकर रहूं? क्यों इन्होंने मुझे वर्षों स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया, वर्षों देवताओं की, रामायण की पूजा–पाठ की, व्रत–उपवास की बुराई की, हॅंसी उड़ायी? अब जब मैं उन बातों को भूल गयीं, उन्हें मिथ्या समझने लगी, तो फिर मुझे उसी अंधकूप मे ढकेलना चाहते हैं। मैं तो इन्हीं की इच्छा के अनुसार चलती हूँ, फिर मेरा अपराध क्या है? लेकिन बाबूजी के मुख पर एक ऐसा दीनता-पूर्ण विवशता थी कि मैं प्रत्यक्ष अस्वीकार न कर सकी। बोली – ‘आखिर यहाँ क्या कष्ट है?’

मैं उनके विचारों की तह तक पहुँचना चाहती थीं।

बाबूजी फिर उठ बैठे और मेरी ओर कठो रदृष्टि से देखकर बोले – ‘बहुत ही अच्छा होता कि तुम इस प्रश्न को मुझसे पूछने के बदले अपने ही हदय से पूछ लेती। क्या अब मैं तुम्हारे लिए वही हूँ, जो आज से तीन वर्ष पहले था। जब मैं तुमसे अधिक शिक्षा प्राप्त, अधिक बुद्धिमान, अधिक जानकार होकर तुम्हारे लिए वह नहीं रहा, जो पहले था। तुमने चाहे इसका अनुभव न किया हो, परन्तु मैं स्वंय कर रहा हूँ। तो मैं अनुमान करूं कि उन्हीं भावों ने तुम्हें रखलित न किया होगा? नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष चिन्ह देख पड़ते है कि तुम्हारे हदय पर उन भावों का और भी अधिक प्रभाव पड़ा है। तुमने अपने को ऊपरी बनाव-चुनाव ओर विलास के भंवर में डाल दिया, और तुम्हें उसकी लेशमात्र भी सुधि नहीं हैं। अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि सभ्यता, स्वेछाचारिता का भूत स्त्रियों के कोमल हदय पर बड़ी सुगमता से कब्जा कर सकता है। क्या अब से तीन वर्ष पूर्व भी तुम्हें यह साहस हो सकता था कि मुझे इस दशा में छोड़ कर किसी पड़ोसिन के यहाँ गाने–बजाने चली जाती? मैं बिछोने पर रहता, और तुम किसी के घर जाकर कलोलें करती। स्त्रियों का हदय आधिक्य-प्रिय होता हैं; परन्तु इस नवीन आधिक्य के बदले मुझे वह पुराना आधिक्य कहीं ज्यादा पसंद हैं। उस अधिक्य का फल आत्मिक एवं शारीरिक अभ्युदय और हृदय की पवित्रता और स्वेच्छाचार। उस समय यदि तुम इस प्रकार मिस्टर दास के सम्मुख हॅंसती-बोलती, तो मैं या तो तुम्हें मार डालता, या स्वयं विष-पान कर लेता। परन्तु बेहयाई ऐसे जीवन का प्रधान तत्व है। मैमैं सब कुछ स्वयं देखता और सहता हूँ। कदाचित् सहे भी जाता, यदि इस बीमारी ने मुझे सचेत न कर दिया होता। अब यदि तुम यहाँ बैठी भी रहो, तो मुझे संतोष न होगा, क्योंकि मुझे यह विचार दु:खित करता रहेगा कि तुम्हारा हदय यहाँ नहीं हैं। मैंने अपने को उस इन्द्रजाल से निकालने का निश्चय कर लिया है, जहाँ धन का नाम मान है, इन्द्रियाँ लिप्सा का सभ्यता और भ्रष्टता का विचार स्वातंत्र्य। बोलो, मेरा प्रस्ताव स्वीकार है?’

मेरे हदय पर वज्रपात–सा हो गया। बाबूजी का अभिप्राय पूर्णतया हृदयंगम हो गया। अभी हदय में कुछ पुरानी लज्जा बाकी थी। यह यंत्रणा असह्रा हो गयी। लज्जित हो उठी। अंतरात्मा ने कहा – अवश्य! मैं अब वह नहीं हूँ, जो पहले थी। उस समय मैं इनको अपना इष्टदेव मानती थी, इनकी आज्ञा शिरोधार्य थी; पर अब वह मेरी दृष्टि में एक साधारण मनुष्य हैं। मिस्टर दास का चित्र मेरे नेत्रों के सामने खिंच गया। कल मेरे हदय पर इस दुरात्मा की बातों का कैसा नशा छा गया था, यह सोचते ही नेत्र लज्जा से झुक गये। बाबूजी की आंतरिक अवस्था उनके मुखड़े ही से प्रकाशमान हो रही थी। स्वार्थ और विलास-लिप्सा के विचार मेरे हदय से दूर हो गये। उनके बदले ये शब्द ज्वलंत अक्षरों में लिखे हुए नजर आये – तूने फैशन और वस्त्राभूषणों में अवश्य उन्नति की है, तुझमें अपने स्वार्थें का ज्ञान हो आया है, तुझमें जीवन के सुख भागने की योग्यता अधिक हो गयी है, तू अब अधिक गर्विणी, दृढ़-हदय और शिक्षा-संपन्न भी हो गयी: लेकिन तेरे आत्मिक बल का विनाश हो गया, क्योंकि तू अपने कर्तव्य को भूल गयी।

मैं दोनों हाथ जोड़कर बाबूजी के चरणों पर गिर पड़ी। कंठ रुंध गया, एक शब्द भी मुँह से न निकला, अश्रुधारा बह चली।

अब मैं फिर अपने घर पर आ गयी हूँ। अम्माजी अब मेरा अधिक सम्मान करती हैं, बाबूजी संतुष्ट दीख पड़ते है। वह अब स्वयं प्रतिदिन संध्यावंदन करते है।

मिसेज दास के पत्र कभी-कभी आते हैं, वह इलाहाबादी सोसाइटी के नवीन समाचारों से भरे होते हैं। मिस्टर दास और मिस भाटिया से संबंध में कलुषिक बातें उड़ रही है। मैं इन पत्रों का उतर तो देती हूँ, परन्तु चाहती हूँ कि वह अब न आते, तो अच्छा होता। वह मुझे उन दिनों की याद दिलाते हैं, जिन्हें मैं भूल जाना चाहती हूँ।

कल बाबूजी ने बहुत-सी पुरानी पाथियाँ अग्निदेव को अर्पण कीं। उनमें ऑस्कर वाइल्ड की कई पुस्तकें थीं। वह अब अंग्रेजी पुस्तकें बहुत कम पढ़ते हैं। उन्हें कार्लाइल, रस्किन और एमरसन के सिवा और कोई पुस्तक पढ़ते मैं नहीं देखती। मुझे तो अपनी रामायण और महाभारत में फिर वही आनंद प्राप्त होने लगा है। चरखा अब पहले के अधिक चलाती हूँ, क्योंकि इस बीच चरखे ने खूब प्रचार पा लिया है।

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