सातवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Satvan Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

सातवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Satvan Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas Novel In Hindi 

Satvan Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Satvan Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

महल के अंदर ही एक छोटा-सा नजरबाग है, जिसके बीच में थोड़ी सी जमीन घास की सब्जी से दुरुस्त की हुई है, उसी पर एक फर्श लगा है और पांच-चार सखी-सहेलियों के साथ महारानी वहीं बैठी धीरे-धीरे बाते कर रही हैं। महारानी ने कहा, ‘‘देखो, हरामजादे का मिजाज एकदम से फिर गया!’’

एक सखी– उससे यह उम्मीद बिलकुल न थी।

दूसरी सखी– अब किसी तरह का भरोसा उससे न रखना चाहिए।

महारानी–राम-राम, उसका भरोसा रखना अपनी जान से हाथ धो बैठना है, मगर मुश्किल तो यह है कि अगर रनबीरसिंह से कोई कहे कि जसवंत तुम्हारा सच्चा दोस्त नहीं है तो वह कभी न मानेंगे।

तीसरी सखी- न मानेंगे तो धोखा भी खाएंगे।

महारानी–बड़ी मुश्किल हुई, अब तो किसी से कुछ काम लेने का जी नहीं चाहता।

इतने में एक लौंडी ने आकर खबर दी कि ड्योढ़ी पर सरदार चेतसिंह जासूसों को लेकर हाजिर हुए हैं, क्या हुक्म होता है? इसके जवाब में महारानी ने कहा, ‘‘कह दो इस वक्त हमारी तबीयत अच्छी नहीं है और जासूसों की भी कोई जरूरत नहीं, फिर देखा जाएगा।’’

इसके बाद एक लौंडी की जुबानी जसवंतसिंह को कहला भेजा कि रनबीरसिंह के दुश्मन का पता हमने आपको बतला दिया अब अगर आपको उनकी मुहब्बत है तो वहां जाकर उनको बचाने की तरकीब कीजिए, क्योंकि मैं औरत हूं मेरे किए कुछ नहीं हो सकता और बालेसिंह बड़ा भारी शैतान है, मैं किसी तरह उसका मुकाबला नहीं कर सकती।

हुक्म पाकर लौंडी जसवंतसिंह के पास गई और महारानी का संदेशा दिया। जिसे सुन बड़ी देर तक जसवंतसिंह चुप रहे इसके बाद जवाब दिया, ‘‘अच्छा, आज तो नहीं मगर कल मैं जरूर रनबीरसिंह के छुड़ाने की फिक्र में जाऊंगा।’’

जसवंतसिहं ने यह कह तो दिया कि रनबीरसिंह को छुड़ाने के लिए मैं कल जाऊंगा, मगर कल तक राह देखना और बेकार बैठे रहना भी उसने मुनासिब न समझा क्योंकि वह दुष्ट यही सोच रहा था कि जहां तक जल्द हो सके बालेसिंह से मेल करके रनबीरसिंह को मरवा देना चाहिए। आखिर उससे न रहा गया और शाम होते ही महारानी से हुक्म ले बालेसिंह की तरफ रवाना हुआ।

महारानी ने अपने लायक और ईमानदार दीवान को बुलाकर कहा, ‘‘आजकल मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, कुछ-न-कुछ बीमार रहा करती हूं, मेरा इरादा है कि महीने-पंद्रह दिन तक बाग में जाकर रहूं और हवा-पानी बदलूं, तब तक राज का कोई काम न करूंगी। लीजिए यह मोहर अपनी आपको देती हूं, जब तक मेरी तबीयत बखूबी दुरुस्त, न हो जाए तब तक आप राज का काम ईमानदारी के साथ कीजिए।’’

दीवान ने पर्दे की तरफ हाथ जोड़कर अर्ज किया, ‘‘अगर सरकार की तबीयत दुरुस्त नहीं है तो जरूर कुछ दिन बाग में रहना चाहिए, ताबेदार से जहां तक होगा ईमानदारी से काम करेगा। ईश्वर चाहेगा तो किसी काम में हर्ज न होगा। ऐसा ही कोई मुश्किल काम आ पड़ेगा तो सरकारी हुक्म लेकर करूंगा।’’

महारानी ने कहा, ‘‘नहीं, जब तक मैं बाग से वापस न आऊं तब तक मुझे किसी काम के लिए मत टोकना, जो मुनासिब मालूम हो करना।’’

दीवान साहब ‘बहुत अच्छा, जो हुक्म सरकार का’ कह और सलाम कर रवाना हुए।

Prev | Next | All Chapters 

चंद्रकांता देवकीनंदन खत्री का उपन्यास

रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

देवांगना आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास

Leave a Comment