रिहाई तलवार की धार पर वृंदावनलाल वर्मा की कहानी | Rihai Talwar Ki Dhar Par Vrindavan Lal Verma Ki Kahani 

रिहाई तलवार की धार पर वृंदावनलाल वर्मा की कहानी Rihai Talwar Ki Dhar Par Vrindavan Lal Verma Ki Kahani Hindi Story 

Rihai Talwar Ki Dhar Par Vrindavan Lal Verma Ki Kahani 

बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थना न थी। वह और उसके सिख साथी मरने में रत्ती भर भी झिझक अनुभव नहीं कर रहे थे।

बादशाह फर्रुखसियर की आज्ञा नित्य सौ के सिर उड़ाए जाने की थी। आश्चर्य यह था कि मारे जाने की घड़ी की ये सब हर्ष के साथ प्रतीक्षा करते थे और पहले मारे जाने के लिए एक-दूसरे से लड़-लड़ पड़ते।

जल्लाद से हर एक सिख कहता, ‘अरे ओ मुक्तिदाता, पहले मुझको मार!’

वहीं सिकलीगर अपनी शान पर जल्लादों की तलवारों पर धार तेज करता जाता था और वे सिख उसको देख-देखकर हँसते थे – मानों कोई खिलौना हो। प्राण बख्शे जाने का उनको वचन दिया गया मुसलमान हो जाने की शर्त; परंतु उनमें से एक भी राजी न हुआ।

सन 1716 का चैत ही लगा था। वसंत का मध्य था। दिन में धूप कुछ तेज हो गई थी। परंतु रात को अभी जाड़े ने न छोड़ा था। उस भयंकर, अँधेरे, गंदे, बंदीगृह में भी वसंत के फूलों की कुछ सुगंध लुक-छिपकर पहुँच रही थी। जिन सौ का सवेरे वध होना था, वे उस थोड़ी सी सुगंधि और मन के मद में मस्त थे। ऊँघते-ऊँघते सो जाते थे और किसी उन्माद में जाग पड़ते थे। कैदखाने के उस वीभत्स अंधकार में भी उनको कोई उजाला, अपना प्रकाश दिखलाई पड़ जाता था।

इनमें से एक चौदह वर्ष का बालक था। वह उँघते-उँघते मुसकराया और मुसकराते-मुसकराते सो गया।

आधी रात के पहले कैदखाने के दरोगा ने उसको धीरे से जगाया।

बालक ने आँखें मलने के पहले कहा, ‘तैयार हूँ, ले चलो गुरु के पास।’

दरोगा धीरे से बोला, ‘गुरु के पास नहीं, माँ के पास। तुम्हारी माँ आई है। वह तुम्हारे लिए मिठाई लाई है। पेट भरकर खाओ।’

अब लड़के ने आँखों को मीचा। अंधकार में उसने देखने का प्रयत्न किया। पूछा, ‘माँ आई! मेरी माँ?’

उत्तर मिला, ‘हाँ, तुम्हारी माँ। मिठाई लाई है, उस ओर चलकर खाओ। यहाँ तुम्हारे साथी सो रहे हैं और अँधेरा भी बहुत है। दुर्गंध अलग।’

बालक खड़ा हो गया। उसने प्रश्न किया, ‘तुम कौन हो?’

‘दरोगा’

‘मेरी माँ मुझ अकेले के लिए मिठाई लाई है?’

‘हाँ’

‘और इन सबको आज खाने को कुछ भी नहीं मिला है!’

‘इनसे कोई मतलब नहीं।’

‘हूँ।’

लड़का बेखटके लेट गया। बोला, ‘कह देना माँ से कि सवेरे खाऊँगा मिठाई। अभी सोने से अवकाश नहीं है।’

दरोगा को क्रोध आया। उसके जी में आया कि इस अशिष्ट छोकरे को एक लात मार दूँ, परतु उसकी जेब गरम कर दी गई थी, इसलिए पैर नहीं उठा।

दरोगा ने कहा, ‘ठीक भी है। जब जल्लाद की तलवार के घाट तुम्हारे ये सब साथी उतर जाएँ तब अकेले में पेट भरके खाना।’

दरोगा हँसा। लड़के ने करवट लेकर अनुरोध किया, ‘हाँ-हाँ, उसी समय दिलवाइएगा मिठाई, अभी तो सोने दीजिए। जाइए। जाइए।’

दरोगा चला गया।

सवेरे सौ कैदियों का वध होना था; परंतु अभी जल्लाद की घड़ी नहीं आई थी।

एक स्त्री कैदखाने के बड़े फाटक पर आई। वह बगल में एक पोटली दाबे थी, जिसमें कुछ मिठाई थी। फाटक पर दरोगा मिला। दरोगा ने शिष्ट बरताव किया, क्योंकि उसकी जेब में स्वर्णखंडों के अतिरिक्त कुतुबुलमुल्क वजीर का एक फरमान भी पहुँच चुका था। कुतुबुलमुल्क की जागीर का दीवान रतनचंद नाम का एक हिंदू था। वह स्त्री रतनचंद की नातेदारी थी और उसकी थराई-विनती पर रतनचंद ने वजीर से वह फरमान निकलवा लिया था। स्त्री ने उस फरमान को दरोगा के पास रात में ही भिजवा दिया था।

यह फरमान उस बालक की रिहाई का था और यह स्त्री उसकी माँ थी।

दरोगा ने कहा, ‘रात को उसने खाने से इनकार कर दिया। चलो, मैं उसको छोड़े देता हूँ, बाहर आकर खूब खिला-पिला लेना।’

स्त्री बोली, ‘वह बिलकुल निर्दोष है। निरा बच्चा है। अभी उसके दूध के भी दाँत नहीं गिरे हैं।’

हिंसा की प्रेरणा से दरोगा के मुँह से निकला, ‘पर है वह बुरों की संगति में।’ फिर अपने को नियंत्रित करके बोला, ‘जो कुछ भी हो, उसने इन लोगों की सुहबत में पाप किए हों या न किए हों, पर अब तो उसके छुटकारे का हुक्म ही हो गया है।’

‘मेरा बच्चा बहुत सीधा है। वह किसी भी क्रूर काम को नहीं कर सकता। आपने तो देखा ही होगा – कितना भोला है, बात तक नहीं करना जानता!’

‘खैर, मुझे इन बातों से कोई निस्बत नहीं। पहले आँगन में चलो, मैं उसको छोड़ देता हूँ। अपने साथ लेती जाना।’

‘बड़ी दया होगी। जल्दी कर दीजिए उसका छुटकारा। बहुत भूखा होगा। और फिर… और फिर…’

‘और फिर क्या?’

‘और फिर जल्लाद आते होंगे। जब उसके साथी मारे जाएँगे तब देखकर घबरा जाएगा और सह न सकेगा। न जाने उस पर क्या प्रभाव पड़े। कहीं अचेत न हो जाए, पागल न हो जाए? जल्दी कर दीजिए उद्धार उसका। मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ।’

दरोगा उस स्त्री को लेकर भीतर गया। जिन सौ बंदियों का वध होना था, उनमें काफी चहल-पहल थी। विनोदमग्न थे, हर्षप्रमत्त – मानो कोई मेला लग रहा हो। जैसे किसी बारात में जा रहे हों।

दरोगा लड़के को कैदखाने के दूसरे आँगन में ले आया। वहीं उसने उस स्त्री को बुला लिया। वह स्त्री उसके पीछे आकर खड़ी हो गई। मुँह पर घूँघट था।

दरोगा ने जेब से फरमान निकालकर लड़के से कहा, ‘तुम्हारी रिहाई का हुक्म आ गया है।’

लड़का सुंदर था। उसकी काली आँखों में प्रकाश था। मुँह कुछ सूखा हुआ; क्योंकि पिछले दिन सिवाय पानी के उसको कुछ न मिला था।

आँखों के प्रकाश में पागलों जैसा उल्लास था। लड़का ठिठोली के स्वर में बोला, ‘रिहाई का हुक्म कागज पर, या तलवार की धार पर!’

दरोगा ने कहा, ‘तलवार की धार पर तो मलिककुलमौत (यमराज) का हुक्म लिखा है, जिसको लेकर जल्लाद तुम्हारे साथियों की रूह के छुटकारे के लिए आ गया। तुमको वजीरुलमुल्क ने छोड़ दिया है। जाओ इस औरत के साथ।’

लड़का छाती पर हाथ कसकर बोला, ‘यह स्त्री कौन है?’

स्त्री ने घूँघट उघाड़ा। लड़के ने उसको देखकर एक उठी आह को दबाया और मुँह फेर लिया।

स्त्री ने कहा, ‘तुम्हारी विधवा माँ, मेरे लाल!’

लड़के का चेहरा तमतमा गया। उसने स्त्री से आँख मिलाई। गले में आई हुई किसी अटक को दूर किया और बहुत धीमे स्वर में बोला, ‘तुम मेरी कोई नहीं हो।’

फिर कड़ककर दरोगा से कहा, ‘ले जाओ इसे यहाँ से! यह मेरी माँ नहीं है। मेरी माँ होती तो मुझे स्वर्ग जाने की असीस देती, न कि प्राण बचाने के लिए ऐरों-गैरों से भीख माँगती फिरती। ले जाओ इसको यहाँ से और बुला लो जल्लाद को, जिसकी तलवार की धार पर स्वर्ग का संदेश लिखा है।’

स्त्री काँप गई। उसकी आँखों से आँसू झर पड़े और गला रुद्ध हो गया। लड़का आँसू न देख सका। उसने पीठ फेर ली।

दरोगा की आँखें क्रोध से जल उठीं। स्त्री अचेत होकर भरभरा पड़ी। लड़का भीतर कैदखाने में चला गया। कैदखाने में धँसने से पहले वह एक बार मुड़ा। उसकी आँखों के एक कोने में एक मोती-सा झलक आया था। दो-तीन ऊँगलियों से उसको तोड़ लिया, फिर भीतर चला गया। कुछ उदास।

परंतु जब जल्लाद की तलवार उसकी नन्हीं-सी गरदन पर पड़ी, तब वह हँस रहा था और उसकी आँखें आकाश में किसी को देख रही थीं!

**समाप्त**

वृन्दावनलाल वर्मा की लोकप्रिय कहानियां 

भगवतीचरण वर्मा की कहानियां

अज्ञेय की कहानियां

गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानियां 

Leave a Comment