रंगीले बाबू मुंशी प्रेमचंद की कहानी | Rangeele Babu Munshi Premchand Ki Kahani

प्रस्तुत है – रंगीले बाबू मुंशी प्रेमचंद की कहानी (Rangeele Babu Story By Munshi Premchand. Rangeele Babu Munshi Premchand Ki Kahani एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसके जीवन में दुःख और परेशानियों की कोई कमी नहीं, किन्तु वह उसे ईश्वर की कृपा समझकर उनका सामना करते हुए अपना जीवन आनंदपूर्वक जीता है.

Rangeele Babu Story By Munshi PremchandRangeele Babu Story By Munshi Premchand

बाबू रसिकलाल को मैं उस वक्त से जानता हूँ, जब वह लॉ कॉलेज में पढ़ते थे। मेरे सामने ही वह वकील हुए और आनन-फानन चमके। देखते-देखते बंगला बन गया, जमीन खरीद ली और शहर के रईसों में शुमार में शुमार होने लगे, लेकिन मुझे न जाने क्यों उनके रंग-ढंग कुछ जंचते न थे। मैं यह नहीं देख सकता कि कोई भला आदमी ख्वाहमख्वाह टेढ़ी टोपी लगाकर निकले या सुरमा लगाकर, मांग निकालकर, मुंह को पान से फुलाकर, गले मे मोतिया या बेले के गजरे डाले, तंजेब का चुन्नटदार कुरता और महीन धोती पहने बाजार में कोठों की ताक-झांक करता, ठट्ठे मारता निकले। मुझे उससे चिढ़ हो जाती है।

वह मेरे पास म्यूनिसिपल मेम्बरी के लिए वोट मांगने आये तो कभी न दूं, उससे याराना निभाना तो दूर की बात है। भले आदमी जरा गंभीर, जरा सादगी-पसंद देखना चाहता हूँ। अगर मुझे किसी मुकदमे में वकील करना पड़े, तो मैं ऐसे आदमी को कभी न करूं, चाहे वह रासबिहारी घोष ही का-सा कानूनदां क्यों न हो। रसिकलाल इसी तरह के रंगीले आदमी हैं। उनकी तर्क-शक्ति ऊँचे दर्ज़े की है, मानता हूँ। ज़िरह भी अच्छी करते हैं, यह भी मुझे स्वीकार है, लेकिन सीधी टोपी लगाने और सीधी चाल चलने से वकालत कुछ ठंडी न पड़ जायेगी। मेरा तो खयाल यह है कि बांकपन छोड़कर भले आदमी बन जाये, तो उनकी प्रैक्टिस दूनी हो सकती हैम लेकिन अपने को क्या पड़ी है, किसी की बातों में दखल दें?

जब कभी सामना हो जाता है, तो मैं दूसरी ओर ताकने लगता हूँ या किसी गली में हो रहता हूँ। मैं सड़क पर उनसे बातें करना मुनासिब नहीं समझता। क्या हुआ, वह नामी वकील हैं और मैं बेचारा स्कूल-मास्टर हूँ? मुझे उनसे किसी तरह का द्वेष नहीं। उन्होंने मेरा क्या बिगाड़ा है, जो मैं उनसे जलूं? मेरी तो वह बड़ी इज्जत और खातिर करते हैं। अपनी लड़की की शादी में मैं उनसे दरियाँ और दूसरा सामान मांगने गया था। उन्होंने दो ठेले भर दरियाँ, कालीनें, जाजिम, चेकियाँ, मसनदें भेज दीं। नहीं, मुझे उनसे जरा भी द्वेष नहीं- बहुत दिनों के परिचय के नाते मुझे उनसे स्नेह है, लेकिन उनका यह बांकपन मुझे अच्छा नहीं लगता। वह चलते हैं, तो ऐसा जान पड़ता है, जैसे दुनिया को ललकारते चलते हों – देखूं मेरा कोई क्या कर सकता है? मुझे किसी की परवाह नहीं है। एक बार मुझे स्टेशन पर मिले। लपककर मेरे कंधे पर ही हाथ रख दिया- ‘आप तो मास्टर साहब, कभी नज़र नहीं आते। कभी भला साल में एक-आध बार तो दर्शन दे दिया कीजिए।’ मैंने अपना कंधा छुड़ाते हुए कहा – ‘क्या करें, साहब अवकाश ही नहीं मिलता।’ बस, आपने झट से बाजारी शेर पढ़ा –

तुम्हें गैरों से कब फ़ुरसत,

हम अपने गम से कब खाली?

चलो, बस हो चुका मिलना,

न तुम खाली न हम खाली।

मैं हँस तो दिया- जो आदमी अपना लिहाज करे, उससे कोई कैसे रूखाई करे? फिर बड़े आदमियों से बिगाड़ करना नहीं चाहता, न जाने कब अपनी गरज लेकर उनके पास जाना पड़े। लेकिन मुझे उनकी यह बेतकल्लुफी कुछ अच्छी न लगी। यों मैं न कोई तपस्वी हूँ, न जाहिद। अरसिक होना उस बाकपन से भी बुरा है। शुष्क जीवन भी कोई जीवन है, जिसमें विनोद के लिए स्थान न हो? वन की शोभा हरे-भरे, सरस वृक्षों से है, सूखे हुए ठूंठों से नहीं, लेकिन मैं चाहता हूँ, आदमी जो कुछ करे छिपाकर करे। शराब पीना चाहते हो, पियो, मगर पियो एकांत में, इसकी क्या ज़रूरत कि शराब में मस्त होकर बहकते फिरो? रूप के उपासक बनना चाहते हो, बनो। लेकिन इसकी क्या ज़रूरत है कि वेश्याओं को दायें-बायें बैठाये मोटर में अपने छैलपन का ढिंढोरा पीटते फिरो? फिर रसिकता की उम्र भी होती है। जब लड़के जवान हो गये, लड़कियों की शादी हो गई, बाल पक चले, तो मेरे खयाल में आदमी को कुछ गंभीर हो जाना चाहिए। आपका दिल अभी जवान है, बहुत अच्छी बात है, मैं तुम्हें इस पर बधाई देता हूँ। वासना कभी बूढ़ी नहीं होती, मेरा तो अनुभव है कि उम्र के साथ-साथ वह भी प्रगाढ़ होती जाती है, लेकिन इस उम्र में कुलेलें करना मुझे ओछापन मालूम होता है। सींग कटाकर बछड़ा बनने वाली मनोवृत्ति का मैं कायल नहीं। कोई किसी का क्या कर लेगा? लेकिन चार भले आदमी उंगली उठायें, ऐसा काम क्यों करें? तुम्हें भगवान ने संपन्न बनाया है, बहुत अच्छी बात है, लेकिन अपनी संपन्नता को इस विपन्न संसार में दिखाते फिरना, जो क्षुधा से व्याकुल हैं, उनके सामने रसगुल्ले उड़ाना, इसमें न तो रसिकता है, न आदमियता।

रसिकलाल की बड़ी लड़की का विवाह था। मथुरा से बारात आयी थी। ऐसे ठाठ की बारात यहाँ शायद ही कभी आयी हो। बड़ी धर्मशाला में जनवासा था। वर का पिता किसी रियासत का दीवान था। मैं भी बारातियों की सेवा-सत्कार में लगा हुआ था। एक हज़ार आदमी से कम न थे। इतने आदमियों का सत्कार करना हँसी नहीं है। यहाँ तो किसी बारात में से पचास आदमी आ जाते हैं, तो अच्छी तरह ख़ातिर नहीं हो पाती। फिर बारातियों के मिजाज का क्या कहना? सभी तानाशाह बन जाते हैं। कोई चमेली का तेल मांगता है, कोई आंवले का, कोई केशरंजना, कोई शराब मांगता है, कोई अफीम। साबुन चाहिए, इत्र चाहिए। एक हजार आदमियों के खाने का प्रबंध करना कितना कठिन है। मैं समझता हूँ, 20-25 हज़ार के वारे-न्यारे हुए होंगे, लेकिन रसिकलाल के माथे पर शिकन न आयी। वही बांकपन था, वही विनोद, वही बेफिक्री। न झुंझलाना, न बिगड़ना। बारातियों की ओर से ऐसी-ऐसी बेहूदा फरमाइशें होती थीं कि हमें गुस्सा आ जाता था। पाव-आध पाव भांग बहुत है, यह पंसेरी भर भांग लेकर क्या उनकी धूनी देंगे? जब सिनेमा के एक से अव्वल दरजे के टिकटों की फरमाईश हुई, तो मुझसे न रहा गया। रसिकलाल को खूब डांट बताई, और उसी क्रोध में जनासे की ओर चला कि एक-एक को फटकारूं। लड़के का ब्याह करने आये हैं या किसी भले आदमी की इज्जत बिगाड़ने? एक दिन बगैर सिनेमा देखे नहीं रहा जाता? ऐसे ही बड़े शौकीन हैं, तो जेब से पैसा क्यों नहीं खर्च करते? लेकिन रसिकलाल खड़े हँस रहे थे। भाईसाहब, क्यों इतना बिगड़ रहे हो? ये लोग तुम्हारे मेहमान हैं, मेहमान दस जूते भी लगाये तो बुरा न मानिये। यह सब जिन्दगी के तमाशे हैं। तमाशे में हम खुश होने जाते हैं। वहाँ रोना भी पड़े, तो उसमें भी आनंद है। लपककर सिनेमाघर से से टिकट ला दीजिए, सौ-दो से रूपये का मुँह न देखिए। मैंने मन में कहा, मुफ्त का धन बटोरा है, तो लुटाओ और नाम लूटो। यह कोई सत्कार नहीं है कि मेहमान की गुलामी की जाये। मेहमान उसी वक्त तक मेहमान है, जब तक वह मेहमान की तरह रहे। जब रौब जमाने लगे, बेइज्जती करने पर आमादा हो जाये, वह मेहमान नहीं शैतान है।

इसके तीन महीने बाद सुना कि रसिकलाल का दामाद मर गया, वही जिसकी नयी शादी हुई थी। सिविल सर्विस के लिए इंग्लैण्ड गया हुआ था। वहीं न्यूमोनिया हो गया। यह खबर सुनते ही मुझे रोमांच हो गया। उस युवक की सूरत आँखों में दौड़ गयी। कितना सौम्य, कितना प्रतिभाशाली लड़का था और मरा जाकर इंग्लैण्ड में कि घरवाले देख भी न सके और उस लड़की की क्या दशा होगी, जिसका सर्वनाश हो गया? वाह रे दयालु भगवान्! और वाह रे तुम्हारी लीला! प्राणियों की होली बनाकर उसकी सूरत देखते ही मन की कुछ ऐसी दशा हुई कि चिंघाड़ मारकर रो पड़ा। रसिकलाल आरामकुर्सी पर लेटे हुए थे। उठकर मुझे गले लगा लिया और उसी स्थिर, अविचलित, निर्द्वन्द्व भाव से बोले, ‘वाह मास्टर साहब, आपने ने तो बालकों को भी मात कर दिया, जिनकी मिठाई कोई छीनकर खा जाये, तो रोने लगते हैं? बालक तो इसलिए रोता है कि उसके बदले में दूसरी मिठाई मिल जाये। आप तो ऐसी चीज के लिए रो रहे हैं, जो किसी तरह मिल ही नहीं सकती। अरे साहब, यहाँ बेहया बनकर रहिये। मार खाते जाइए और मूंछों पर ताव देते जाइये। मज़ा तो तब है कि जल्लाद के पैरों तले आकर भी वहीं अकड़ बनी रहे। अगर ईश्वर है, मुझे तो कुछ मालूम नहीं, लेकिन सुनता हूँ; कि वह दयालु है और दयालु ईश्वर भला निर्दयी कैसे हो सकता है? वह किसे मारता है, किसे जिलाता है, हमसे मतलब नहीं। उसके खिलौने हैं, खेले या तोड़े, हम क्यों उसके बीच में दखल दें? वह हमारा दुश्मन नहीं, न जालिम बादशाह है कि हमें सताकर खुश हो। मेरा लड़का घर में आग भी लगा दे, तो मैं उसका दुश्मन न बनूंगा। मैंने तो उसे पाल-पोस कर बड़ा किया है, उससे क्या दुश्मनी करूं? भला ईश्वर कभी निर्दयी हो सकता है, जिसके प्रेम का स्वरूप् यह ब्रह्माण्ड है? अगर ईश्वर नहीं है, मुझे मालूम नहीं, कोई ऐसी शक्ति है, जिसे विपत्ति में आनंद मिलता है, तो साहब यहाँ रोने वाले नहीं। हाथों में ताकत होती है और दुश्मन नज़र आता, तो हम भी कुछ जवांमर्दी दिखाते। अब अपनी बहादुरी दिखाने का इसके सिवा और क्या साधन है कि मार खाते जाओ और हँसते जाओ, अकड़ते जाओ। रोये तो अपनी हार को स्वीकार करेंगे। मार ले साले, जितना चाहे मार ले, लेकिन हँसते ही रहेंगे। मक्कार भी है, जादूगर भी। छिपकर वार करता है। आ जाय सामने तो दिखाऊं। हमें तो अपने बेचारे शायरों की अदा पसंद है, जो कब्र में भी माशूक के पाजेब की झंकार सुनकर मस्त होते रहते हैं।’

इसके बाद रसिकलाल ने उर्दू शेरों का तांता बांध दिया और इस तरह तन्मय होकर उनका आनंद उठाने लगे, मानो कुछ हुआ ही नहीं है। फिर बोले, ”लड़की रो रही है।” मैंने कहा, ऐसे बेवफा के लिए क्या रोना, जो तुम्हें छोड़कर चल दिया। अगर उससे प्रेम है, तो रोने की कोई जरूरत नहीं, प्रेम तो आनंद की वस्तु है। अगर कहो, क्या दिल नहीं मानता, तो दिल को मनाओ। बस, दु:खी मत हो। दु:खी होना ईश्वर का अपमान करना है, और मानवता को कलंकित करना।

मैं रसिकलाल का मुँह ताकने लगा। उन्होंने यह कथन कुछ ऐसे उदास भाव से किया कि एक क्षण के लिए मुझे पर भी उसने जादू कर दिया। थोड़ी देर के बाद मैं वहाँ से चला, तो दिल का बोझ बहुत कुछ हल्का हो गया था। मन में एक प्रकार का साहस उदय हो गया था, जो विपत्ति और बाधा पर हँस रहा था।

थोड़े दिनों के बाद वहाँ से तबादला हो गया और रसिकलाल जी की कोई खबर नहीं मिली। कोई साल भर के बाद एक दिन गुलाबी लिफ़ाफे पर सुनहरे अक्षरों में छपा हुआ एक निमंत्रण-पत्र मिला। रसिकलाल के बड़े लड़के का विवाह हो रहा था। नवेद के नीचे कलम से आग्रह किया गया था कि अवश्य आइए, वरना मुझे आपसे बड़ी शिकायत रहेगी। आधा मज़ा जाता रहेगा। एक उर्दू का शेर भी था –

इस शौके फिरावां की या रब,

आखिर कोई हद भी है कि नहीं?

इंकार करे वह या वादा,

हम रास्ता देखते रहते हैं।

एक सप्ताह का समय था। मैंने रेशमी अचकन बनवायी, नये जूते खरीदे और खूब बन-ठनकर चला। वधु के लिए एक अच्छी-सी साड़ी ले ली। महीनों एक जगह रहते-रहते और एक ही काम करते-करते मन कुछ कुण्ठित-सा हो गया था। तीन-चार दिन खूब जलसे रहेंगे, गाने सुनूंगा, दावतें उड़ाऊंगा। मन बहल ही जाएगा। रेलगाड़ी से उतरकर वेटिंग रूम में गया और अपना नया सूट पहना। बहुत दिनों बाद नया सूट पहनने की नौबत आई थी, पर आज भी मुझे नया सूट पनकर वही खुशी हुई, जो लड़कपन में होती थी। मन कितना ही उदास हो, नया सूट पहनकर हरा हो जाता है। मैं तो कहता हूँ, बीमारी में बहुत-सी दवायें न खाकर हम नया सूट बनवा लिया करें, तो कम-से-कम उतना फ़ायदा तो जरूर ही होगा, जितना दवा खाने से होता है। क्या यह कोई बात ही नहीं कि ज़रा देर के लिए आप अपनी आंखों में ऊँचे हो जायें? मेरा अनुभव तो यह कहता है कि नया सूट हमारे अंदर एक नया जीवन डाल देता है, जैसे सांप केंचुल बदले या बसंत में वृक्षों में नयी कोंपलें निकल आयें।

स्टेशन से निकलकर मैंने तांगा लिया और रसिकलाल के द्वार पर पहुँचा। तीन बजे होंगे। लू चल रही थी। मुँह झुलसा जाता था। द्वार पर शहनाइया बज रही थीं। बन्दनवारें बंधी हुई थीं। तांगे से उतरकर अंदर के सहन में पहुँचा। बहुत से आदमी आंगन के सहन के बीच में घेरा बांधे खड़े थे। मैंने समझा कि शायद जोड़े-गहने की नुमाइश हो रही होगी। भीड़ चीरकर घुसा-बस कुछ न पूछो, क्या देखा, जो ईश्वर सातवें बैरी को भी न दिखाये। अर्थी थी, पक्के काम के दोशाले से ढकी हुई, जिस पर फूल बिखरे हुए थे। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि गिर पडूंगा।

सहसा रसिकलाल पर मेरी निगाह पड़ गयी। रंगीन कपड़ों का एक गट्ठर लिये अंदर से आये थे। न आँखों में आँसू, न मुख पर वेदना, न माथे पर शिकन। वही बांकी टोपी थी, वही रेशमी कुरता, वही महीन तंजेब की धोती। सब रो रहे थे, कोई आँसुओं के वेग को रोके हुए था, कोई शोक में विह्नल! ये बाहर के आदमी थे। कोई मित्र था, कोई बंधु और जो मरने वाले का बाप था, वह इन डगमगाने वाली नेकाओं और जहाजों के बीच में स्तम्भ की भांति खड़ा था। मैं देड़कर उनके गले से लिपटकर रोने लगा। वह पानी की बूंद, जो पत्ते पर रूकी थी, ज़रा-सी हवा पाकर ढुलक पड़ी।

रसिकलाल ने मुझे गले से लगाते हुए कहा, ‘आप कब आये? क्या अभी चले आ रहे हैं? वाह, मुझे खबर ही न हुई। शादी की तैयारियों में ऐसा फंसा कि मेहमानों की खातिरदारी भी न कर सका। चलकर कपड़े उतारिए, मुँह-हाथ धोइए। अभी बारात में चलना पड़ेगा। पूरी तैयारी के साथ चलेंगे। बैण्ड, बीन, ताशें, शहनाई, डफली सभी कुछ साथ होंगे। कोतल, घोड़े, हाथी, सवारियाँ सब कुछ मंगवाई हैं। आतिशबाजी, फलों के तख्त, खूब धूम से चलेंगे। जेठे लड़के का ब्याह है, खूब दिल खोलकर करेंगे। गंगा के तट पर जनवासा होगा।’

इन शब्दों में शोक की कितनी भयंकर, कितनी अथाह वेदना थी? एक कुहराम मच गया।

रसिकलाल ने लाश के सिर पर बेलों का मेर पहनाकर कहा –

”क्या रोते हो भाइयों? यह कोई नयी बात नहीं हुई है। रोज ही तो यह तमाशा देखते हैं, कभी अपने घर में, कभी दूसरे के घर में। रोज ही तो रोते हो, कभी अपने दुख से, कभी पराये दुख से। कौन तुम्हारे रोने की परवाह करता है, कौन तुम्हारे आँसू पोंछता है, कौन तुम्हारी चीत्कार सुनता है? तुम रोये जाओ, वह अपना काम किये जायेगा। फिर रोकर क्यों अपनी दुर्बलता दिखाते हो? उसके चोटों को छाती पर लो और हंसकर दिखा दो कि तुम ऐसी चोटों की परवाह नहीं करते। उससे कहो, तेरे अस्त्रालय में जो सबसे घातक अस्त्र हो वह निकाल ला। यह क्या सुइया-सी चुभोता है? पर हमारी दलील नहीं सुनता। न सुने, हम भी अपनी अकड़ न छोड़ेंगे। उसी धूम-धाम से बारात निकालेंगे, खुशियाँ मनायेंगे।”

रसिकलाल रोते तो और लोग भी उन्हें समझाते। इस विद्रोहभरी ललकार ने सबको स्तम्भित कर दिया। समझाता कौन? हमें वह ललकार विक्षिप्त वेदना-सी जान पड़ी जो आंसुओं से कहीं मर्मान्तक थी। चिनगारी के स्पर्श से आबले (छाले) पड़ जाते हैं। दहकती हुई आग में पांव पड़ जाये, तो झुलस जायेगा, आबले न पड़ेंगे। रसिकलाल की वेदना वही दहकती हुई आग थी।

लाश मोटर पर रखी गयी। मोटर गुलाब के फूलों से सजाया गया था। किसी ने पुकारा, ”राम नाम सत्य है!”

रसिकलाल ने उसे विनोदभरी आँखों से देखा, ‘तुम भूले जाते हो, लाला। यह विवाह का उत्सव है। हमारे लिए सत्य जीवन है, उसके सिवा जो कुछ है, मिथ्या है।’

बाजे-गाजे के साथ बारात चली। इतना बड़ा जुलूस तो मैंने शहर में नहीं देखा। विवाह के जुलूस में दो-चार से आदमियों से ज्यादा न होते। इस जुलूस की संख्या लाखों से कम न थी। धन्य हो रसिकलाल! धन्य तुम्हारा कलेजा! रसिकलाल उस बांकी अदा से मोटर के पीछे घोड़े पर सवार चले जा रहे थे। जब लाश चिता पर रखी गयी, तो रसिकलाल ने एक बार ज़ोर से छाती पर हाथ मारा। मानवता ने विद्रोही आत्मा को आंदोलित किया। पर दूसरे ही क्षण उनके मुख पर वही कठोर मुस्कान चमक उठी। मानवता वह थी या यह, कौन कहे?

उसके दो दिन बाद मैं नौकरी पर लौट गया। जब छुट्टियाँ होती हैं, तो रसिकलाल से मिलने आता हूँ। उन्होंने उस विद्रोह का एक अंश मुझे भी दे दिया है। अब जो कोई उनके आचार-व्यवहार पर आक्षेप करता है, तो मैं केवल मुस्करा देता हूँ।

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